06-10-2017 (Important News Clippings)
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Date:06-10-17
फौजदारी मामलों में कोर्ट के सख्त निर्देशों का असर
संपादकीय
फौजदारी मामलों में किसी समझौते के आधार पर मामले को खत्म किए जाने के विरुद्ध जो सख्त फैसला दिया है उसके दूरगामी असर होंगे
सुप्रीम कोर्ट ने फौजदारी मामलों में किसी समझौते के आधार पर मामले को खत्म किए जाने के विरुद्ध जो सख्त फैसला दिया है उसके दूरगामी असर होंगे। अब डरा धमकाकर और लेन-देन के माध्यम से मामलों को रफा दफा करने का चलन बंद होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने डकैती, दुष्कर्म और हत्या जैसे मामलों में अदालत के बाहर पक्षकारों के बीच होने वाले किसी समझौते को मामले को रफा-दफा किए जाने का आधार मानने से इनकार किया है और कहा है कि उन अपराधों का समाज पर गंभीर असर पड़ता है और समाज चाहता है कि ऐसे मामले चलते रहें। इस फैसले से वैसे विडंबनापूर्ण मामले भी नहीं होंगे जिनमें दुष्कर्म करने वाला पीड़ित से विवाह करने को तैयार हो जाए तो अदालत मामले को खत्म कर देती थी। यानी जेल गए बिना सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है और न्याय को खरीदे और दबाए जाने की आशंका घट गई है। न्यायालय ने फौजदारी मामलों के समकक्ष धोखाधड़ी के मामलों को रखकर दूसरी महत्वपूर्ण व्यवस्था दी है। दरअसल, जिस मामले में यह फैसला आया है वह जमीन के मामले में धोखाधड़ी करने वाले चार लोगों की अपील पर था जिसमें जमीन का मालिक समझौते के लिए तैयार हो गया था। अदालत ने मामले को खारिज करने की अपील को नामंजूर करते हुए यह व्यवस्था दी की धोखाधड़ी के वही मामले खारिज किए जा सकते हैं, जिनका बड़ा हिस्सा दीवानी की प्रकृति का है। अदालत की यह व्यवस्था मौजूदा शासन के उस रुख के भी अनुकूल है कि भ्रष्टाचार के मामले में किसी तरह की माफी नहीं दी जाएगी। अब आर्थिक अपराध भी उतने ही गंभीर माने जाएंगे जितने मानव शरीर के प्रति होने वाले अपराध। अदालत की यह व्यवस्था समाज में बढ़ते जातिगत और सांप्रदायिक अपराधों के लिहाज से भी स्वागत योग्य है। इससे कमजोर लोगों के दमन और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मामलों में दोषी को सजा मिलने की संभावना बढ़ती है। इसके बावजूद अदालत इस बात की गारंटी कैसे करेगी की सुरक्षा और जांच एजेंसियां अपना काम किसी पक्षपात के बिना करेंगी और उसमें निर्दोष लोगों को नहीं फंसाया जाएगा। जब जांच एजेंसियां राजनीतिक हथियार बन जाएं तो न्याय पर उसका असर पड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में अदालत को अपनी इस कठोर व्यवस्था के साथ न्यायिक विवेक की भी गुंजाइश रखनी होगी।
Date:06-10-17
आर्थिक नीतियों में प्रयोग भारत को भारी पड़े
रुचिर शर्मा चीफ ग्लोबल स्ट्रेटेजिस्ट, मॉर्गन स्टेनली।
Date:06-10-17
दिवालिया संहिता में ही सुधार की राह
दिवालिया सुधार की कुछ घटनाओं को लेकर तमाम तरह की चिंताएं जताई जा रही हैं। एक लेनदेन में ऋणदाता की ऋण वसूली की दर निहायत कम थी। उनका गुस्सा इस बात पर है कि प्रवर्तकों को अत्यंत कम कीमत पर देनदारी चूकने वाली कंपनी का नियंत्रण वापस मिल गया। मकान खरीदने वाले जिन लोगों ने अचल संपत्ति कंपनियों को भारी भरकम अग्रिम भुगतान कर दिया था, वे अपने नुकसान को लेकर चिंतित हैं। आशंका इस बात की है कि कहीं इसका नुकसान न उठाना पड़े। बहरहाल, दिवालिया सुधार एक आधे भरे गिलास के समान है। हमारे देश में यह कानून कई करतूतें सामने लाएगा। हमें दिवालिया सुधार के नौ क्षेत्रों पर काम करने वाली टीम का आकार दोगुना करना होगा। केवल ऐसा करके ही जरूरी सुधार हासिल किया जा सकता है।
वसूली की कमजोर दर
इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंगक्रप्टसी कोड (आईबीसी) में 180 दिन की अवधि निर्धारित की गई है। इसमें डिफॉल्ट करने वाली फर्म के लिए बोली आमंत्रित की जाती है। अगर 75 फीसदी ऋणदाताओं के मत किसी बोली के पक्ष में पड़ते हैं तो वह बोली आवंटित कर दी जाती है। हाल ही में एक मामले में एक बोली स्वीकार की गई जिसमें ऋणदाताओं को उनके कुल कर्ज का 6 फीसदी मिला। इस निष्कर्ष पर पहुंचने की प्रक्रिया को लेकर विवाद है। कई लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं अगर ऋण का केवल 6 फीसदी वसूल हुआ तो आईबीसी तो विफल माना जाएगा। दिवालिया क्षेत्र में हमें गति को तवज्जो देनी चाहिए। जब देरी होती है तो आर्थिक मूल्य भी नष्टï होता है। फर्म को बचाने के लिए पहले डिफॉल्ट के बाद तत्काल दिवालिया प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए और तत्काल नई व्यवस्था पेश की जानी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो कंपनी को चलाते रहना मुश्किल होगा। तब केवल नकदीकरण ही एकमात्र उपाय होगा।
आज के भारत में हमारे पास पहले ही बहुत सारे ऐसे मामले लंबित हैं जहां लंबे समय पहले डिफॉल्ट हुआ था। बैंकिंग नियमन बुरी खबर छिपाने में बैंकों की मदद करते हैं और आईबीसी था ही नहीं इसलिए समस्याएं आगे खिसकती गईं। ऐसे कई मामले आईबीसी के सामने आ रहे हैं जहां डिफॉल्ट 10 से 15 साल पहले हुआ था। यहां रिकवरी की दर निराशाजनक होगी, भले ही आईबीसी सही काम करे। आईबीसी की असली परख नए डिफॉल्ट पर होगी। अगर कोई डिफॉल्ट आज घटित हुआ है तो आईबीसी की मशीनरी कितनी तेजी से काम करती है? यह काम कितना सफल रहता है? क्या फर्म को बचाने में सफलता मिलती है? वसूली किस दर से हो पाती है? एक मजबूत आईबीसी में नए डिफॉल्ट में वसूली की दर बेहतर होगी।
प्रवर्तकों का दोबारा नियंत्रण
दिवालिया प्रक्रिया में कई लोगों के पास फर्म के लिए बोली लगाने का अवसर है। अगर प्रवर्तक सबसे ऊंची बोली वाला साबित होता है तो यह बात उन लोगों में चिढ़ पैदा होती है जो उसे कंपनी की बरबादी के लिए जिम्मेदार मानते हैं। बहरहाल, अगर खुली और पारदर्शी प्रक्रिया में प्रवर्तक फर्म का नियंत्रण हासिल कर लेता है तो हमें नैतिकता का प्रश्न नहीं उठाना चाहिए।
मकानों के खरीदार
दुनिया भर में खरीदार अपना पैसा लगाते हैं और तत्काल उनको मकान पर कब्जा मिल जाता है। परंतु भारत में पिछले 10-15 साल में अचल संपत्ति की कई कंपनियों को दिवालिया हो जाना चाहिए था। आईबीसी के अभाव में उन्होंने भुगतान में देरी की और खरीदारों से पैसे लेते गए। ये खरीदार एक तरह से असुरक्षित ऋणदाता की तरह काम करते हैं। अचल संपत्ति कंपनी के नकदी प्रवाह में इन ऋणदाताओं का बहुत मामूली दावा होता है। आईबीसी वैसे ही काम कर रहा है जैसे उसे करना चाहिए। भविष्य में ये कंपनियां वर्षों तक बिना पूंजी के काम करती नहीं रह सकेंगी। आने वाले दिनों में खरीदार अधिक सतर्क रहेंगे और मकान पर कब्जा मिलने के वक्त ही पैसा देंगे।
खुलासे
अतीत में डिफॉल्ट को छिपाकर रखा जाता था। यह बहुत मूल्यवान जानकारी मानी जाती थी जिसे एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को सौंपा जाता था। इसका इस्तेमाल शेयर बाजार में भेदिया कारोबार के लिए किया जाता था। आईबीसी के ढांचे में जब डिफॉल्ट होता है तो इसे तत्काल सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इससे आईबीसी का कामकाज सुधारने में मदद मिलेगी क्योंकि इसमें कई पक्ष शामिल हैं। उन शेयरों और बॉन्ड पर विचार कीजिए जिनका सार्वजनिक रूप से कारोबार किया जाता है। स्थापित मान्यता यह है कि सभी महत्त्वपूर्ण तथ्यों से बाजार को अवगत कराया जाना चाहिए। अगर कोई कंपनी डिफॉल्ट करती है तो यह जानकारी भी तत्काल सार्वजनिक की जानी चाहिए। इसी प्रकार अगर किसी बैंक के पास कोई ऐसी इक्विटी या डेट प्रतिभूति होती है जो कारोबार के लिए सार्वजनिक हो और इस दौरान कोई बड़ा कर्जदार बैंक पर डिफॉल्ट कर जाए तो यह एक ऐसी घटना है जिसे तत्काल सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इन खुलासों को लेकर जहां बैंकों और कर्जदारों के बीच अफरातफरी का माहौल है वहीं भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) द्वारा इन खुलासों पर जोर देना एकदम सही है।
इकलौती राह
आईबीसी के अधिकांश बड़े विचार काफी मजबूत हैं। जब हम निष्कर्षों से चकित हैं तो हमें दो तरह के आश्चर्यों में भी भेद करना होगा। एक तरफ हमारे पारंपरिक तौर तरीकों में अंतर पैदा होता है जिन्हें दुव्र्यवहार के रूप में चिह्निïत किया जाता है तो वहीं दूसरी ओर आईबीसी के क्रियान्वयन में भी कई तरह की दिक्कतें हैं। आईबीसी का क्रियान्वयन अभी पूरा नहीं हुआ है। नौ क्षेत्रों में नए तरह से काम करने की आवश्यकता है। एक संशोधन 2016 के कानून की कमियों को दूर करने के लिए भी आवश्यक है। इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंगक्रप्टसी बोर्ड ऑफ इंडिया (आईबीबीआई) को उच्च प्रदर्शन वाला नियामक बनने के लिए काफी मेहनत करनी होगी।
आईबीबीआई को एक बढिय़ा मसौदे वाला नियमन तैयार करना होगा। ऐसा करके ही निजी सूचना उपयोगिता (आईयू) का एक प्रतिस्पर्धी उद्योग विकसित किया जा सकेगा। निजी इन्सॉल्वेंसी प्रोफेशन एजेंसीज (आईपीए) के लिए भी एक प्रतिस्पर्धी उद्योग विकसित करना होगा। इसके अलावा दिवालिया पेशेवरों का भी एक प्रतिस्पर्धी उद्योग विकसित करना होगा। राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट को कॉर्पोरेट दिवालिया प्रक्रिया से निपटने में अपनी जगह बनानी होगी। इसके अलावा ऋण वसूली पंचाट को भी व्यक्तिगत दिवालिया मामलों में यही करना होगा। वित्तीय संस्थानों को दिवालिया निस्तारण प्रक्रिया को बेहतर बनाने की क्षमता विकसित करनी होगी। उन्हें बेहतर पुनर्गठन सुनिश्चित करने की प्रक्रिया का भी हिस्सा बनना होगा। सामरिक निवेशकों, तनावग्रस्त परिसंपत्ति फंड और निजी इक्विटी फंड को संभावित निष्कर्षों को लेकर भरोसा पैदा करना होगा। यह भरोसा किसी खरीदी जाने वाली परिसंपत्ति के लिए बोली लगाने या उसके नकदीकरण के वक्त काम आएगा। इन सभी नौ क्षेत्रों में टीमों और प्रबंधन प्रक्रिया में अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है।
Date:06-10-17
अफ्रीका में जड़ें मजबूत करने का मौका
हर्ष वी पंत, प्रोफेसर किंग्स कॉलेज लंदन
भारत ने कम विकसित अफ्रीकी देशों के लिए अपने यहां शुल्क मुक्त बाजार सुलभ कराने की भी पेशकश की है, लेकिन सच यह है कि अफ्रीका के साथ भारत का व्यापार क्षमता से कहीं अधिक कम है। भारत, इस क्षेत्र में आर्थिक संबंधों का नया अध्याय शुरू करने के लिए अफ्रीका से ‘विकासमूलक साझेदारी’ चाहता है। ऐसा करके वह आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के सदस्य देशों में अपनी अलग छवि दिखाना चाहेगा, जो समय की मांग भी है।अफ्रीका में तेल क्षेत्र को सुरक्षित रखने के लिए वित्तीय और सैन्य सहायता का इस्तेमाल करने की बीजिंग की नीति दिल्ली को निराश करने वाली है। अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के लिए संसाधनों और ऊर्जा के लिए चीन और भारत की जबरदस्त प्रतिस्पद्र्धा को 19वीं शताब्दी में अफ्रीका के लिए यूरोपीय देशों के बीच मची तथाकथित हलचल से जोड़कर देखा गया। दरअसल कहने को तो यह एक प्रतिस्पद्र्धा ही है, क्योंकि अफ्रीका में भारत की स्थिति, चीन से काफी पीछे है। सच तो यही है कि जहां सरकारी तंत्र के विभिन्न स्तरों पर चीन की समन्वित मौजूदगी देखी जा सकती है, वहीं भारत इस मामले में विफल रहा है। अब भारत यदि आर्थिक मोर्चे पर क्षेत्र में चीन की उपस्थिति का अंतर पाटना चाहता है, तो उसे अपनी कंपनियों को और ज्यादा सक्रिय और खुला समर्थन देना होगा।फिर भी अफ्रीका के साथ व्यवहार के मामले में भारत की अपनी ही ताकत है। इसकी लोकतांत्रिक परंपराएं अफ्रीका संबंधी मामलों पर सहयोग के लिए इसे चीन की तुलना में पश्चिम के लिए ज्यादा अनुकूल साथी के रूप में पेश करने में सहायक हैं। तमाम देश भारत को अफ्रीका में एक बेहतर उत्पादक भागीदार के रूप में पाते हैं, क्योंकि भारतीय कंपनियों की अफ्रीकी समाज में ज्यादा स्वीकार्यता है। ऐसे में, नई दिल्ली को अफ्रीका से रिश्ते मजबूत करने और महाद्वीप में अपनी उपस्थिति बेहतर बनाने के लिए अपनी इन्हीं ताकतों का इस्तेमाल करना होगा।राष्ट्रपति कोविंद का अफ्रीका दौरा न सिर्फ भारत की विदेश नीति के स्वरूप में निरंतरता के महत्व कोदर्शाता है, बल्कि अफ्रीकी महाद्वीप के साथ दीर्घकालिक भागीदारी कायम करने के नई दिल्ली के संकल्प को भी फिर से दर्शाता है।
Date:06-10-17
एक सदी के प्रयास
पुरस्कार चाहे जितना भी बड़ा हो, लेकिन काल के इतने सारे संयोग शायद ही कभी एक साथ जुटते हों, जितने इस बार भौतिक विज्ञान के लिए दिए गए नोबेल पुरस्कार में जुटे हैं। इस पुरस्कार का नाता पिछले दो साल की कुछ घटनाओं से भी है, और उसके पीछे चल रहे 30 साल के प्रयासों से भी, साथ ही यह सौ साल पहले हुई एक भविष्यवाणी से भी जुड़ा है और अरबों-खरबों साल पहले की उस घटना से भी, जब दो ब्लैक होल आपस में टकराए थे और इस सृष्टि का जन्म हुआ था।
तकरीबन सौ साल पहले जब अल्बर्ट आइंस्टीन ने सापेक्षता का सिद्धांत दिया था, तो उन्होंने इसके साथ ही कई सारी और परिकल्पनाएं भी दी थीं। इन्हीं में से एक परिकल्पना थी, गुरुत्वाकर्षण तरंगों यानी ग्रेवीटेशनल वेव्स की। आइंस्टीन मानते थे कि जल्द ही ऐसी तरंगों को खोज लेंगे। गुरुत्वाकर्षण तरंगों की परिकल्पना सैद्धांतिक तौर पर भी साबित होती थी, इसलिए इस पर आगे काम शुरू हुआ। कुछ वैज्ञानिक इस पर आगे जुटे और उन्होंने गुरुत्वाकर्षण तरंगों को पकड़ने व मापने के तरीके विकसित किए। वाशिंगटन के लुईसुआना में लेजर इन्फ्रोमीटर ग्रेवीटेशनल वेव्स ऑब्जर्वेटरी यानी लिगो की परियोजना शुरू की गई, दुनिया भर में इसके केंद्र खोले गए, जिनमें तरह-तरह के संवेदनशील उपकरण लगाए गए, लेकिन हुआ कुछ नहीं। 27-28 साल बीत गए, तो कहा जाने लगा कि गुरुत्वाकर्षण तरंग जैसा कुछ होता ही नहीं। कुछ लोग धन की बरबादी का सवाल भी उठाने लगे। फिर 14 सितंबर, 2015 की सुबह इन उपकरणों ने पहली बार गुरुत्वाकर्षण तरंग को रिकॉर्ड किया। अगले दो साल में तीन और ऐसे मौके आए, जब गुरुत्वाकर्षण तरंगें हमारी दुनिया से टकराईं और हर बार उन्होंने अपनी उपस्थिति इन केंद्रों पर दर्ज कराई। आइंस्टीन ने जो कहा था, वह महज परिकल्पना नहीं रही, बल्कि सृष्टि के यथार्थ के रूप में किताबों में दर्ज हो गई। 2017 का भौतिक विज्ञान का पुरस्कार इसी परियोजना को शुरू करने वाले वैज्ञानिकों राइनर वाइस, बैरी बैरिश और किप थोर्ने को मिला है।
ये गुरुत्वाकर्षण तरंगें आती कहां से हैं? इसकी भी एक परिकल्पना है। वैज्ञानिक मानते हैं कि कई खरब साल पहले जब इस सृष्टि की शुरुआत भी नहीं हुई थी, तो दो विशालकाय ब्लैक होल आपस में टकराए थे। उनकी टक्कर से बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकली थी। इतनी ऊर्जा कि हजारों सूर्य की ऊर्जा भी मिला दें, तो उसके सामने फीकी पड़ जाए। इसी के साथ ही कई तरंगें भी पैदा हुईं और पूरे ब्रह्मांड में फैल गईं। इन्हीं तरंगों को गुरुत्वाकर्षण तरंग कहा जाता है और माना जाता है कि ये तरंगें आज भी भटक रही हैं, जो अक्सर हमसे और हमारी धरती से टकराती हैं, पर असर इतना कम होता है कि हम इन्हें महसूस नहीं कर पाते, इन्हें सिर्फ अति-संवेदनशील उपकरणों के जरिये ही पकड़ा जा सकता है। माना जाता है कि गुरुत्वाकर्षण तरंगें क्योंकि सृष्टि के आरंभ से जुड़ी हैं, इसलिए हम सृष्टि की शुरुआत के बहुत से रहस्यों को समझ सकते हैं। कहा जाता है कि उस ‘डार्क मैटर’ को समझने की कुंजी भी गुरुत्वाकर्षण तरंगों में छिपी है, जो हमारे अस्तित्व का एक बड़ा हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें हम जान, समझ और देख नहीं पाए हैं।
लिगो परियोजना के वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार दिया जाना उन प्रयासों का सम्मान है, जो पिछली एक सदी से दुनिया भर के वैज्ञानिक इस सृष्टि की शुरुआत और हमारे अपने अस्तित्व को जानने-समझने के लिए कर रहे हैं। तकरीबन एक सदी से चल रहे ये प्रयास यह भी बताते हैं कि कैसे छोटे-छोटे रहस्यों को जानने के लिए वैज्ञानिकों को कई पीढ़ी तक प्रयास करने पड़ते हैं। ज्ञान और विज्ञान के रास्ते कभी आसान नहीं रहे।