06-10-2017 (Important News Clippings)

Afeias
06 Oct 2017
A+ A-

To Download Click Here.


Date:06-10-17

फौजदारी मामलों में कोर्ट के सख्त निर्देशों का असर

संपादकीय

फौजदारी मामलों में किसी समझौते के आधार पर मामले को खत्म किए जाने के विरुद्ध जो सख्त फैसला दिया है उसके दूरगामी असर होंगे

सुप्रीम कोर्ट ने फौजदारी मामलों में किसी समझौते के आधार पर मामले को खत्म किए जाने के विरुद्ध जो सख्त फैसला दिया है उसके दूरगामी असर होंगे। अब डरा धमकाकर और लेन-देन के माध्यम से मामलों को रफा दफा करने का चलन बंद होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने डकैती, दुष्कर्म और हत्या जैसे मामलों में अदालत के बाहर पक्षकारों के बीच होने वाले किसी समझौते को मामले को रफा-दफा किए जाने का आधार मानने से इनकार किया है और कहा है कि उन अपराधों का समाज पर गंभीर असर पड़ता है और समाज चाहता है कि ऐसे मामले चलते रहें। इस फैसले से वैसे विडंबनापूर्ण मामले भी नहीं होंगे जिनमें दुष्कर्म करने वाला पीड़ित से विवाह करने को तैयार हो जाए तो अदालत मामले को खत्म कर देती थी। यानी जेल गए बिना सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है और न्याय को खरीदे और दबाए जाने की आशंका घट गई है। न्यायालय ने फौजदारी मामलों के समकक्ष धोखाधड़ी के मामलों को रखकर दूसरी महत्वपूर्ण व्यवस्था दी है। दरअसल, जिस मामले में यह फैसला आया है वह जमीन के मामले में धोखाधड़ी करने वाले चार लोगों की अपील पर था जिसमें जमीन का मालिक समझौते के लिए तैयार हो गया था। अदालत ने मामले को खारिज करने की अपील को नामंजूर करते हुए यह व्यवस्था दी की धोखाधड़ी के वही मामले खारिज किए जा सकते हैं, जिनका बड़ा हिस्सा दीवानी की प्रकृति का है। अदालत की यह व्यवस्था मौजूदा शासन के उस रुख के भी अनुकूल है कि भ्रष्टाचार के मामले में किसी तरह की माफी नहीं दी जाएगी। अब आर्थिक अपराध भी उतने ही गंभीर माने जाएंगे जितने मानव शरीर के प्रति होने वाले अपराध। अदालत की यह व्यवस्था समाज में बढ़ते जातिगत और सांप्रदायिक अपराधों के लिहाज से भी स्वागत योग्य है। इससे कमजोर लोगों के दमन और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मामलों में दोषी को सजा मिलने की संभावना बढ़ती है। इसके बावजूद अदालत इस बात की गारंटी कैसे करेगी की सुरक्षा और जांच एजेंसियां अपना काम किसी पक्षपात के बिना करेंगी और उसमें निर्दोष लोगों को नहीं फंसाया जाएगा। जब जांच एजेंसियां राजनीतिक हथियार बन जाएं तो न्याय पर उसका असर पड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में अदालत को अपनी इस कठोर व्यवस्था के साथ न्यायिक विवेक की भी गुंजाइश रखनी होगी।


Date:06-10-17

आर्थिक नीतियों में प्रयोग भारत को भारी पड़े

रुचिर शर्मा चीफ ग्लोबल स्ट्रेटेजिस्ट, मॉर्गन स्टेनली।

भारत दुनिया में हो रही आर्थिक वापसी और रोजगार वृद्धि से पूरी तरह बाहर क्यों है? दशकों तक भारत की आर्थिक तकदीर अन्य उभरते राष्ट्रों के साथ जुड़ी रही है लेकिन, हाल के महीनों में लगा कि इनसे उसका नाता टूट गया है। वैश्विक अर्थव्यवस्था दुनियाभर में जीडीपी बढ़ने और रोजगार वृद्धि के साथ दशक के सबसे अच्छे साल का लुत्फ उठा रही है। बहुत कम अर्थव्यवस्थाएं पीछे रह गई हैं। जीडीपी वृद्धि धीमी पड़ने और बेरोजगारी बढ़ने के साथ भारत उन थोड़े से देशों में है, जो रफ्तार से बाहर रह गए हैं।ऑर्गनाइजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट का कहना है कि जिन 45 अर्थव्यवस्थाओं पर वह निगाह रखता है उनमें इस साल वृद्धि होगी। विश्वव्यापी आर्थिक मंदी आने के एक साल पहले यानी 2007 के बाद एेसा पहली बार हो रहा है। इसके अलावा दुनिया के तीन-चौथाई देश पिछले वर्ष के मुकाबले इस साल तेजी से बढ़ेंगे; भारत उन थोड़े से देशों में से है, जहां इस साल जीडीपी वृद्धि धीमी पड़ने की अपेक्षा है। दुनिया के रोजगार परिदृश्य को देखें तो भारत और भी बुरी दशा में दिखता है। जेपी मॉर्गन रिसर्च के अनुसार दुनिया में बेरोजगारी की दर 2008 के संकट के पहले की स्थिति में यानी 5.5 की निम्न दर पर आ गई है। ब्रिटेन से लेकर जापान तक विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बेरोजगारी दर न्यूनतम है, जो कई दशकों में नहीं देखी गई। उभरती अर्थव्यवस्थाओं में बेरोजगारी दर 2014 से गिर रही है और इस साल तो गहरी मंदी का सामना कर चुके रूस और ब्राजील जैसे देशों में भी लेबर मार्केट में उल्लेखनीय सुधार है। भारत में कमजोर आंकड़ों के कारण नौकरियों की चिंता को आंकड़ों में बयान करना कठिन है लेकिन, जो भी डेटा उपलब्ध है वह गंभीर स्थिति दर्शाता है।इतने लंबे समय तक दुनिया के साथ उठने-गिरने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था अब क्यों अलग जा रही है? एक थ्योरी भारत की ऊंची वास्तविक अथवा महंगाई के हिसाब से एडजस्ट की गई ब्याज दरों की अोर उंगली उठाती है लेकिन, इस साल वास्तविक दरें तो ज्यादातर देशों में बढ़ी हैं, क्योंकि महंगाई अनपेक्षित रूप से हर जगह गिरी हैै। यह संभव है कि व्यापक आर्थिक वापसी ने वैश्विक व्यापार को तेजी दी है, जिसमें 2008 के बाद से बहुत गिरावट आ गई थी और भारत इससे बाहर है। इस साल भारत का निर्यात बढ़ा है लेकिन, अन्य उभरते देशों की तुलना में बहुत कम।
फिर सवाल है कि भारतीय निर्यात खराब प्रदर्शन क्यों कर रहा है? एक संभावना तो रुपए की बढ़ती कीमत हो सकती है, जिसके कारण निर्यात उतना स्पर्धा के लायक नहीं रह जाता लेकिन, डॉलर की तुलना में रुपया उतना ही उठा है, जितनी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राएं इस साल उठी हैं। यानी करेंसी से भी यह रहस्य नहीं सुलझता। फिर ताजा रिसर्च से पता चलता है कि मुद्रा विनिमय दरों में हलचल की तुलना में मांग में बदलाव के प्रति व्यापार सात गुना अधिक संवेदनशील है। सबसे अच्छी व्याख्या तो हाल में उठाए नीतिगत फैसलों में है, क्योंकि पिछले साल तक भारत और उभरते बाजार मोटेतौर पर एक साथ धीमे पड़ रहे थे। फर्क पिछले साल के आखिर में आना शुरू हुआ जब उभरते बाजार तो उबरने लगे, जबकि भारत की चाल धीमी पड़ने लगी। पहला नीतिगत कदम तो नोटबंदी का प्रयोग था। दूसरा कदम था वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), जिससे उम्मीद थी कि वह भारत को वैश्विक मानकों के स्तर पर ले आएगा लेकिन, इसकी बजाय खास भारतीय शैली की जटिलता की परते और जुड़ गईं। इन्होंने निर्यातकों सहित स्थानीय बाजार को विचलित कर दिया। उपभोक्ता मांग की पूर्ति के लिए आयात तेजी से बढ़ा, जिससे व्यापार घाटे की खाई और चौड़ी हो गई व जीडीपी वृद्धि पर उल्टा असर हुआ।वैश्विक आर्थिक वृद्धि से भारत का चूक जाना हताशाजनक है लेकिन, शायद इससे भी ज्यादा विचलित करने वाला तथ्य रोजगार वृद्धि भी चूक जाना है। जीडीपी वृद्धि के पहले यह ट्रेंड दिखता है पर इसकी दशा तो पहले ही बहुत खराब हो गई है। कई टिप्पणीकार इन परेशानियों के लिए वैश्विक ताकतों को दोष दे रहे हैं। भारत में खासतौर पर यह कहना आम है कि ऑटोमेशन के कारण लोगों के हाथों से नौकरियां जा रही हैं। किंतु वैश्विक स्तर पर रोजगार में जो उछाल आया है उससे पता चलता है कि नौकरियां जाने के कोई सबूत नहीं हैं। हमेशा टेक्नोलॉजी परम्परागत नौकरियां खत्म करती है और नए उद्योगों में उन्हें निर्मित करती है। भारत का बचाव करने वाले ‘प्रीमेच्योर इंडस्ट्रियलाइजेशन’ की ओर इशारा करते हैं यानी वैश्विक स्तर पर मैन्युफैक्चरिंग के लिए अधिक स्पर्धा के वातावरण और वैश्विक व्यापार में गिरावट के कारण देशों के लिए निर्यात के जरिये समृद्धि हासिल करना कठिन होता जा रहा है। चाहे व्यापार इस साल बढ़ा हो पर वह 2008 के पहले देखी गई रफ्तार से अब भी काफी नीचे है। थोक में नौकरियां पैदा करने का सबसे महत्वपूर्ण मार्ग हमेशा से मैन्युफैक्चरिंग रहा है लेकिन, चीन के उदय के बाद स्पर्धा कठिन हो गई है।
इसके बावजूद भारत जैसी आमदनी के स्तर वाले ऐसे देश हैं, जो मैन्युफैक्चरिंग में अच्छा प्रदर्शन कर नौकरियां निर्मित कर रहे हैं। मसलन, वियतनाम, बांग्लादेश और कंबोडिया ने हाल के वर्षों में निर्यात में तेजी दिखाई है, आंशिक रूप से खिलौनों से टैक्सटाइल तक निचले स्तर के सामानों में चीन के हिस्से में भांजी मारकर उन्होंने यह किया है। इन उद्योगों में भारत की सफलता का लगातार अभाव अकेला सबसे बड़ा कारण हो सकता है कि क्यों यह दूसरा चीन बनने से रह गया और क्यों जॉब मार्केट इतना कमजोर है।ऐसे कई सुधार हैं, जो भारत मैन्युफैक्चरिंग की विश्व-स्पर्धा में टिकने के लिए उठा सकता है। इनमें बोझिल श्रम कानूनों में बदलाव, कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती करके पूर्वी एशियाई देशोें के स्तर पर लाना और ट्रान्सपोर्टेशन नेटवर्क में सुधार लाना शामिल है। लेकिन, आप ऐसे किन्हीं सुधार की उम्मीद न करें, क्योंकि उन्हें जरूरत से ज्यादा बिज़नेस हितैषी कदम के रूप में देखा जाएगा। इसकी बजाय उम्मीद यही है कि अब खास भारतीय शैली के अनोखे नीतिगत फैसले नहीं होंगे। उम्मीद की जा सकती है कि भारत को विश्व का हमकदम बनाने के लिए इतना पर्याप्त हो और वह वैश्विक आर्थिक वापसी के साथ चलने का लुत्फ उठा सके।

Date:06-10-17

दिवालिया संहिता में ही सुधार की राह

अजय शाह
दिवालिया संहिता का क्रियान्वयन अभी संपन्न नहीं हुआ है। इस सिलसिले में अभी काफी कुछ नया करने की आवश्यकता है। इस संबंध में विस्तार से बता रहे हैं अजय शाह 

दिवालिया सुधार की कुछ घटनाओं को लेकर तमाम तरह की चिंताएं जताई जा रही हैं। एक लेनदेन में ऋणदाता की ऋण वसूली की दर निहायत कम थी। उनका गुस्सा इस बात पर है कि प्रवर्तकों को अत्यंत कम कीमत पर देनदारी चूकने वाली कंपनी का नियंत्रण वापस मिल गया। मकान खरीदने वाले जिन लोगों ने अचल संपत्ति कंपनियों को भारी भरकम अग्रिम भुगतान कर दिया था, वे अपने नुकसान को लेकर चिंतित हैं। आशंका इस बात की है कि कहीं इसका नुकसान न उठाना पड़े। बहरहाल, दिवालिया सुधार एक आधे भरे गिलास के समान है। हमारे देश में यह कानून कई करतूतें सामने लाएगा। हमें दिवालिया सुधार के नौ क्षेत्रों पर काम करने वाली टीम का आकार दोगुना करना होगा। केवल ऐसा करके ही जरूरी सुधार हासिल किया जा सकता है।

वसूली की कमजोर दर

इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंगक्रप्टसी कोड (आईबीसी) में 180 दिन की अवधि निर्धारित की गई है। इसमें डिफॉल्ट करने वाली फर्म के लिए बोली आमंत्रित की जाती है। अगर 75 फीसदी ऋणदाताओं के मत किसी बोली के पक्ष में पड़ते हैं तो वह बोली आवंटित कर दी जाती है। हाल ही में एक मामले में एक बोली स्वीकार की गई जिसमें ऋणदाताओं को उनके कुल कर्ज का 6 फीसदी मिला। इस निष्कर्ष पर पहुंचने की प्रक्रिया को लेकर विवाद है। कई लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं अगर ऋण का केवल 6 फीसदी वसूल हुआ तो आईबीसी तो विफल माना जाएगा। दिवालिया क्षेत्र में हमें गति को तवज्जो देनी चाहिए। जब देरी होती है तो आर्थिक मूल्य भी नष्टï होता है। फर्म को बचाने के लिए पहले डिफॉल्ट के बाद तत्काल दिवालिया प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए और तत्काल नई व्यवस्था पेश की जानी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो कंपनी को चलाते रहना मुश्किल होगा। तब केवल नकदीकरण ही एकमात्र उपाय होगा।

आज के भारत में हमारे पास पहले ही बहुत सारे ऐसे मामले लंबित हैं जहां लंबे समय पहले डिफॉल्ट हुआ था। बैंकिंग नियमन बुरी खबर छिपाने में बैंकों की मदद करते हैं और आईबीसी था ही नहीं इसलिए समस्याएं आगे खिसकती गईं। ऐसे कई मामले आईबीसी के सामने आ रहे हैं जहां डिफॉल्ट 10 से 15 साल पहले हुआ था। यहां रिकवरी की दर निराशाजनक होगी, भले ही आईबीसी सही काम करे। आईबीसी की असली परख नए डिफॉल्ट पर होगी। अगर कोई डिफॉल्ट आज घटित हुआ है तो आईबीसी की मशीनरी कितनी तेजी से काम करती है? यह काम कितना सफल रहता है? क्या फर्म को बचाने में सफलता मिलती है? वसूली किस दर से हो पाती है? एक मजबूत आईबीसी में नए डिफॉल्ट में वसूली की दर बेहतर होगी।

प्रवर्तकों का दोबारा नियंत्रण

दिवालिया प्रक्रिया में कई लोगों के पास फर्म के लिए बोली लगाने का अवसर है। अगर प्रवर्तक सबसे ऊंची बोली वाला साबित होता है तो यह बात उन लोगों में चिढ़ पैदा होती है जो उसे कंपनी की बरबादी के लिए जिम्मेदार मानते हैं। बहरहाल, अगर खुली और पारदर्शी प्रक्रिया में प्रवर्तक फर्म का नियंत्रण हासिल कर लेता है तो हमें नैतिकता का प्रश्न नहीं उठाना चाहिए।

मकानों के खरीदार

दुनिया भर में खरीदार अपना पैसा लगाते हैं और तत्काल उनको मकान पर कब्जा मिल जाता है। परंतु भारत में पिछले 10-15 साल में अचल संपत्ति की कई कंपनियों को दिवालिया हो जाना चाहिए था। आईबीसी के अभाव में उन्होंने भुगतान में देरी की और खरीदारों से पैसे लेते गए। ये खरीदार एक तरह से असुरक्षित ऋणदाता की तरह काम करते हैं। अचल संपत्ति कंपनी के नकदी प्रवाह में इन ऋणदाताओं का बहुत मामूली दावा होता है। आईबीसी वैसे ही काम कर रहा है जैसे उसे करना चाहिए। भविष्य में ये कंपनियां वर्षों तक बिना पूंजी के काम करती नहीं रह सकेंगी। आने वाले दिनों में खरीदार अधिक सतर्क रहेंगे और मकान पर कब्जा मिलने के वक्त ही पैसा देंगे।

खुलासे

अतीत में डिफॉल्ट को छिपाकर रखा जाता था। यह बहुत मूल्यवान जानकारी मानी जाती थी जिसे एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को सौंपा जाता था। इसका इस्तेमाल शेयर बाजार में भेदिया कारोबार के लिए किया जाता था। आईबीसी के ढांचे में जब डिफॉल्ट होता है तो इसे तत्काल सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इससे आईबीसी का कामकाज सुधारने में मदद मिलेगी क्योंकि इसमें कई पक्ष शामिल हैं। उन शेयरों और बॉन्ड पर विचार कीजिए जिनका सार्वजनिक रूप से कारोबार किया जाता है। स्थापित मान्यता यह है कि सभी महत्त्वपूर्ण तथ्यों से बाजार को अवगत कराया जाना चाहिए। अगर कोई कंपनी डिफॉल्ट करती है तो यह जानकारी भी तत्काल सार्वजनिक की जानी चाहिए। इसी प्रकार अगर किसी बैंक के पास कोई ऐसी इक्विटी या डेट प्रतिभूति होती है जो कारोबार के लिए सार्वजनिक हो और इस दौरान कोई बड़ा कर्जदार बैंक पर डिफॉल्ट कर जाए तो यह एक ऐसी घटना है जिसे तत्काल सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इन खुलासों को लेकर जहां बैंकों और कर्जदारों के बीच अफरातफरी का माहौल है वहीं भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) द्वारा इन खुलासों पर जोर देना एकदम सही है।

इकलौती राह

आईबीसी के अधिकांश बड़े विचार काफी मजबूत हैं। जब हम निष्कर्षों से चकित हैं तो हमें दो तरह के आश्चर्यों में भी भेद करना होगा। एक तरफ हमारे पारंपरिक तौर तरीकों में अंतर पैदा होता है जिन्हें दुव्र्यवहार के रूप में चिह्निïत किया जाता है तो वहीं दूसरी ओर आईबीसी के क्रियान्वयन में भी कई तरह की दिक्कतें हैं। आईबीसी का क्रियान्वयन अभी पूरा नहीं हुआ है। नौ क्षेत्रों में नए तरह से काम करने की आवश्यकता है। एक संशोधन 2016 के कानून की कमियों को दूर करने के लिए भी आवश्यक है। इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंगक्रप्टसी बोर्ड ऑफ इंडिया (आईबीबीआई) को उच्च प्रदर्शन वाला नियामक बनने के लिए काफी मेहनत करनी होगी।

आईबीबीआई को एक बढिय़ा मसौदे वाला नियमन तैयार करना होगा। ऐसा करके ही निजी सूचना उपयोगिता (आईयू) का एक प्रतिस्पर्धी उद्योग विकसित किया जा सकेगा। निजी इन्सॉल्वेंसी प्रोफेशन एजेंसीज (आईपीए) के लिए भी एक प्रतिस्पर्धी उद्योग विकसित करना होगा। इसके अलावा दिवालिया पेशेवरों का भी एक प्रतिस्पर्धी उद्योग विकसित करना होगा। राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट को कॉर्पोरेट दिवालिया प्रक्रिया से निपटने में अपनी जगह बनानी होगी। इसके अलावा ऋण वसूली पंचाट को भी व्यक्तिगत दिवालिया मामलों में यही करना होगा। वित्तीय संस्थानों को दिवालिया निस्तारण प्रक्रिया को बेहतर बनाने की क्षमता विकसित करनी होगी। उन्हें बेहतर पुनर्गठन सुनिश्चित करने की प्रक्रिया का भी हिस्सा बनना होगा। सामरिक निवेशकों, तनावग्रस्त परिसंपत्ति फंड और निजी इक्विटी फंड को संभावित निष्कर्षों को लेकर भरोसा पैदा करना होगा। यह भरोसा किसी खरीदी जाने वाली परिसंपत्ति के लिए बोली लगाने या उसके नकदीकरण के वक्त काम आएगा। इन सभी नौ क्षेत्रों में टीमों और प्रबंधन प्रक्रिया में अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है।


Date:06-10-17

अफ्रीका में जड़ें मजबूत करने का मौका

हर्ष वी पंत, प्रोफेसर किंग्स कॉलेज लंदन

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अपनी पहली विदेश यात्रा पर इसी सप्ताह अफ्रीका जा रहे हैं। सरकार ने गंतव्य के रूप में जिबूती और इथियोपिया का चयन कर सही फैसला लिया है। विदेश मंत्रालय के अनुसार, राष्ट्रपति की पहली विदेश यात्रा के लिए अफ्रीका का चयन, वर्तमान सरकार की नजर में इस महाद्वीप के महत्व को दर्शाता है। मोदी सरकार अफ्रीका को अपने हित-विस्तार के एक क्षेत्र के रूप में देखती रही है और वहां अपनी मजबूत मौजूदगी को उत्सुक है। अफ्रीका यानी एक ऐसा महाद्वीप, जिसके साथ भारत के रिश्तों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है और जहां आज हर प्रमुख शक्ति अपना प्रभाव जमाने के लिए दांव लगाना चाह रही है।जिबूती हिंद महासागर क्षेत्र में एक प्रमुख देश बनकर उभर रहा है। इसका भौगोलिक दायरा भी महत्वपूर्ण है। देश से बाहर चीन का पहला सैन्य अड्डा यहीं है, और इस रूप में जिबूती के नौसैनिक बेस ने दुनिया भर में तरह-तरह की प्रतिक्रियाओं को भी मौका दिया। इस नौसैनिक अड्डे को चीन की अपनी ही विदेश नीति की सीमाओं के विस्तार के तौर पर देखा जाता है। यह अफ्रीका में उसकी बढ़ती सैन्य ताकत का भी प्रतीक है।
चीनी विदेश मंत्री वांग यी की 2016 की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस पर गौर करें, तो अफ्रीका में यह नया सैन्य अभियान ‘अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दों के राजनीतिक समाधान की दिशा में उसकी रचनात्मक भूमिका निभाने की इच्छा का हिस्सा है, ताकि विदेशों में चीन की संभावनाओं के विस्तार के लिए अधिक उपयुक्त और सुरक्षित माहौल तैयार हो सके। वह और ज्यादा अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा जिम्मेदारियों का वहन कर सके।’ दरअसल, अफ्रीका में चीन की बढ़ती सैन्य महत्वाकांक्षा, महाद्वीप में उसके अपने आर्थिक आधार का ही विस्तार है। यह अपने वैश्विक हितों की अत्यंत महत्वाकांक्षी और विस्तारित परिभाषा की ओर बढ़ना भी है। अफ्रीका में इसके व्यवसाय को विदेशों में बढ़ते इसके सैन्य प्रभाव सहित उसके इन्हीं हितों को हासिल करने का नया तंत्र विकसित करने के तौर पर देखा जाना चाहिए।जिबूती अपनी जमीन पर भारत की मौजूदगी को लेकर सदैव उत्साहित रहा है और इसका स्वागत करता है। 2015 में येमन से निकलने के समय में भारत को इससे खासी मदद मिली थी। उधर इथियोपिया के साथ भारत के पारंपरिक रिश्ते रहे हैं और भारत से उसे आज भी खासी रियायती मदद मिल रही है। अफ्रीका में भारत की मजबूत उपस्थिति के लिए ये दोनों देश खासे महत्वपूर्ण साधन हैं।
2015 के भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन के साथ ही मोदी सरकार ने अफ्रीका के साथ सदियों पुराने संबंधों में तेजी लाने के लिए तत्परता का संकेत दिया था। ऐसे संबंध, जो दोनों देशों के लाखों प्रवासियों के जरिये परवान चढ़ते हैं। साझा औपनिवेशिक विरासत और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की विकास-यात्रा के अनुभवों ने भारत-अफ्रीका संबंधों को नए आधार दिए हैं। 1947 में आजादी हासिल करने के बाद भारत की उपनिवेशवाद और नस्लभेद विरोधी छवि ने इन रिश्तों को काफी मजबूती दी और यह स्वाभाविक रूप से अफ्रीकी राष्ट्रों के करीब आ गया।शीत युद्ध के खात्मे के बाद से और अफ्रीका में चीन की बढ़ती उपस्थिति के मद्देनजर भारत अफ्रीकी महाद्वीप के साथ अपने संबंधों को फिर से परिभाषित करते हुए और मजबूती देना चाह रहा है। विगत भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग के स्वरूप पर बनी सहमति और अफ्रीका में निवेश व सहायता बढ़ाने की भारतीय पहल, नई दिल्ली और अफ्रीकी महाद्वीप के बीच मजबूत साझेदारी बढ़ाने के भारत के इरादे को दर्शाने वाली थी।अब अफ्रीका में भारत के हित खासे बढ़े हुए हैं। विश्व के चंद तेजी से बढ़ते देशों के साथ ही अफ्रीका अब अतीत का ‘अंधेरे में डूबा महाद्वीप’ नहीं है। क्षेत्रीय देशों की जरूरतें अलग होती हैं, हित अलग होते हैं, तो उनकी ताकत भी अलग होती है। बीते कुछ दशकों में भारत का ध्यान भी महाद्वीप में बड़े पैमाने पर अपनी क्षमता-विस्तार पर गया है। भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग कार्यक्रम (आईटीईसी) के अंतर्गत इसने इस दिशा में बड़ा सहयोग दिया है। 40 देशों में फैली 137 परियोजनाओं पर अफ्रीका के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए इसने 7.5 अरब डॉलर के सहयोग का वादा किया है।

भारत ने कम विकसित अफ्रीकी देशों के लिए अपने यहां शुल्क मुक्त बाजार सुलभ कराने की भी पेशकश की है, लेकिन सच यह है कि अफ्रीका के साथ भारत का व्यापार क्षमता से कहीं अधिक कम है। भारत, इस क्षेत्र में आर्थिक संबंधों का नया अध्याय शुरू करने के लिए अफ्रीका से ‘विकासमूलक साझेदारी’ चाहता है। ऐसा करके वह आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के सदस्य देशों में अपनी अलग छवि दिखाना चाहेगा, जो समय की मांग भी है।अफ्रीका में तेल क्षेत्र को सुरक्षित रखने के लिए वित्तीय और सैन्य सहायता का इस्तेमाल करने की बीजिंग की नीति दिल्ली को निराश करने वाली है। अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के लिए संसाधनों और ऊर्जा के लिए चीन और भारत की जबरदस्त प्रतिस्पद्र्धा को 19वीं शताब्दी में अफ्रीका के लिए यूरोपीय देशों के बीच मची तथाकथित हलचल से जोड़कर देखा गया। दरअसल कहने को तो यह एक प्रतिस्पद्र्धा ही है, क्योंकि अफ्रीका में भारत की स्थिति, चीन से काफी पीछे है। सच तो यही है कि जहां सरकारी तंत्र के विभिन्न स्तरों पर चीन की समन्वित मौजूदगी देखी जा सकती है, वहीं भारत इस मामले में विफल रहा है। अब भारत यदि आर्थिक मोर्चे पर क्षेत्र में चीन की उपस्थिति का अंतर पाटना चाहता है, तो उसे अपनी कंपनियों को और ज्यादा सक्रिय और खुला समर्थन देना होगा।फिर भी अफ्रीका के साथ व्यवहार के मामले में भारत की अपनी ही ताकत है। इसकी लोकतांत्रिक परंपराएं अफ्रीका संबंधी मामलों पर सहयोग के लिए इसे चीन की तुलना में पश्चिम के लिए ज्यादा अनुकूल साथी के रूप में पेश करने में सहायक हैं। तमाम देश भारत को अफ्रीका में एक बेहतर उत्पादक भागीदार के रूप में पाते हैं, क्योंकि भारतीय कंपनियों की अफ्रीकी समाज में ज्यादा स्वीकार्यता है। ऐसे में, नई दिल्ली को अफ्रीका से रिश्ते मजबूत करने और महाद्वीप में अपनी उपस्थिति बेहतर बनाने के लिए अपनी इन्हीं ताकतों का इस्तेमाल करना होगा।राष्ट्रपति कोविंद का अफ्रीका दौरा न सिर्फ भारत की विदेश नीति के स्वरूप में निरंतरता के महत्व कोदर्शाता है, बल्कि अफ्रीकी महाद्वीप के साथ दीर्घकालिक भागीदारी कायम करने के नई दिल्ली के संकल्प को भी फिर से दर्शाता है।


Date:06-10-17

 एक सदी के प्रयास

पुरस्कार चाहे जितना भी बड़ा हो, लेकिन काल के इतने सारे संयोग शायद ही कभी एक साथ जुटते हों, जितने इस बार भौतिक विज्ञान के लिए दिए गए नोबेल पुरस्कार में जुटे हैं। इस पुरस्कार का नाता पिछले दो साल की कुछ घटनाओं से भी है, और उसके पीछे चल रहे 30 साल के प्रयासों से भी, साथ ही यह सौ साल पहले हुई एक भविष्यवाणी से भी जुड़ा है और अरबों-खरबों साल पहले की उस घटना से भी, जब दो ब्लैक होल आपस में टकराए थे और इस सृष्टि का जन्म हुआ था।

तकरीबन सौ साल पहले जब अल्बर्ट आइंस्टीन ने सापेक्षता का सिद्धांत दिया था, तो उन्होंने इसके साथ ही कई सारी और परिकल्पनाएं भी दी थीं। इन्हीं में से एक परिकल्पना थी, गुरुत्वाकर्षण तरंगों यानी ग्रेवीटेशनल वेव्स की। आइंस्टीन मानते थे कि जल्द ही ऐसी तरंगों को खोज लेंगे। गुरुत्वाकर्षण तरंगों की परिकल्पना सैद्धांतिक तौर पर भी साबित होती थी, इसलिए इस पर आगे काम शुरू हुआ। कुछ वैज्ञानिक इस पर आगे जुटे और उन्होंने गुरुत्वाकर्षण तरंगों को पकड़ने व मापने के तरीके विकसित किए। वाशिंगटन के लुईसुआना में लेजर इन्फ्रोमीटर ग्रेवीटेशनल वेव्स ऑब्जर्वेटरी यानी लिगो की परियोजना शुरू की गई, दुनिया भर में इसके केंद्र खोले गए, जिनमें तरह-तरह के संवेदनशील उपकरण लगाए गए, लेकिन हुआ कुछ नहीं। 27-28 साल बीत गए, तो कहा जाने लगा कि गुरुत्वाकर्षण तरंग जैसा कुछ होता ही नहीं। कुछ लोग धन की बरबादी का सवाल भी उठाने लगे। फिर 14 सितंबर, 2015 की सुबह इन उपकरणों ने पहली बार गुरुत्वाकर्षण तरंग को रिकॉर्ड किया। अगले दो साल में तीन और ऐसे मौके आए, जब गुरुत्वाकर्षण तरंगें हमारी दुनिया से टकराईं और हर बार उन्होंने अपनी उपस्थिति इन केंद्रों पर दर्ज कराई। आइंस्टीन ने जो कहा था, वह महज परिकल्पना नहीं रही, बल्कि सृष्टि के यथार्थ के रूप में किताबों में दर्ज हो गई। 2017 का भौतिक विज्ञान का पुरस्कार इसी परियोजना को शुरू करने वाले वैज्ञानिकों राइनर वाइस, बैरी बैरिश और किप थोर्ने को मिला है।

ये गुरुत्वाकर्षण तरंगें आती कहां से हैं? इसकी भी एक परिकल्पना है। वैज्ञानिक मानते हैं कि कई खरब साल पहले जब इस सृष्टि की शुरुआत भी नहीं हुई थी, तो दो विशालकाय ब्लैक होल आपस में टकराए थे। उनकी टक्कर से बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकली थी। इतनी ऊर्जा कि हजारों सूर्य की ऊर्जा भी मिला दें, तो उसके सामने फीकी पड़ जाए। इसी के साथ ही कई तरंगें भी पैदा हुईं और पूरे ब्रह्मांड में फैल गईं। इन्हीं तरंगों को गुरुत्वाकर्षण तरंग कहा जाता है और माना जाता है कि ये तरंगें आज भी भटक रही हैं, जो अक्सर हमसे और हमारी धरती से टकराती हैं, पर असर इतना कम होता है कि हम इन्हें महसूस नहीं कर पाते, इन्हें सिर्फ अति-संवेदनशील उपकरणों के जरिये ही पकड़ा जा सकता है। माना जाता है कि गुरुत्वाकर्षण तरंगें क्योंकि सृष्टि के आरंभ से जुड़ी हैं, इसलिए हम सृष्टि की शुरुआत के बहुत से रहस्यों को समझ सकते हैं। कहा जाता है कि उस ‘डार्क मैटर’ को समझने की कुंजी भी गुरुत्वाकर्षण तरंगों में छिपी है, जो हमारे अस्तित्व का एक बड़ा हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें हम जान, समझ और देख नहीं पाए हैं।

लिगो परियोजना के वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार दिया जाना उन प्रयासों का सम्मान है, जो पिछली एक सदी से दुनिया भर के वैज्ञानिक इस सृष्टि की शुरुआत और हमारे अपने अस्तित्व को जानने-समझने के लिए कर रहे हैं। तकरीबन एक सदी से चल रहे ये प्रयास यह भी बताते हैं कि कैसे छोटे-छोटे रहस्यों को जानने के लिए वैज्ञानिकों को कई पीढ़ी तक प्रयास करने पड़ते हैं। ज्ञान और विज्ञान के रास्ते कभी आसान नहीं रहे।