06-09-2024 (Important News Clippings)

Afeias
06 Sep 2024
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Date: 06-09-24

Slow Motion

With an almost 50% pendency, fast-track courts are of little help when there’re policing & forensic deficits.

TOI Editorials

Junior medics in several cities struck work in solidarity with Kolkata’s doctors strike after the rape-murder of a junior medic in a state govt hospital. But the RG Kar horror may just become another poster on India’s wall of shame that captures the failure to provide proper investigation into such crime, and credible closure. After almost a month – the medic was attacked and killed on Aug 9 – the investigation that CBI took over has morphed into a corruption case, while the agency agrees the prime suspect arrested by Kolkata police has glaring inconsistencies in his claims of innocence.

Slo-mo in a hurry | Meanwhile, Bengal instituted a new law that promises ‘justice’ within days for all such crime. The Aparajita Women and Child Bill, 2024 seeks investigation of rape cases be completed within 21 days of FIR filed. And 30 days to complete trial. Fast-track special courts to process crimes against women, as a central scheme, exist. The scheme was extended last Nov till 2026. Centre’s share of continuing the scheme will be drawn from Nirbhaya Fund – ₹1,207cr of the total ₹1,952cr cost. Around 851 such fast-track courts are operational India-wide. In last five years, they have resolved 2.1L cases. Over 2L cases are pending, per a response in Parliament this Feb. With pendency of almost 50%, they are as clogged as regular courts.

Talk funds | Can faster disposal of cases be a deterrent in crimes against women? Does quicker closure mean reducing the period of trauma, better chances at rehabilitation and recovery for survivors of sexual crime? There’s no arguing with that. But what India has today is a far cry from what’s required. The 14th Finance Commission had recommended setting up 1,800 fast-track courts at a total cost of ₹4,144cr during 2015-2020.

Playing politics | After the RG Kar crime, Bengal said it had 88 fast-track courts functioning on state funds. GOI said Bengal didn’t have any of the 17 such courts it was allocated under the Centre’s scheme till last year. Such spats aren’t unusual in strained Centre-state relations. But only burden victims. Given ground realities, mandating near-impossible deadlines for investigation is just a wink at insta-justice. Pendency in forensics, poor staffing and deep political interference in brutal sexual crimes together make quick meal of fast-track courts. Until funds follow the talk, the hurry to “do right” offers little respite.


Date: 06-09-24

क्या ‘जाति’ की राजनीति फिर से वापसी कर रही है?

आरती जेरथ, ( राजनीतिक टिप्पणीकार )

जाति-जनगणना की विपक्ष की मांग पर आरएसएस का हालिया बयान इस मुद्दे के तूल पकड़ने के साथ ही इसके प्रति निर्मित असहजता की स्थिति को भी दर्शाता है। हालांकि संघ ने जाति-जनगणना के विचार का समर्थन किया है, लेकिन साथ ही आगाह भी किया है कि इस तरह के सर्वेक्षण का इस्तेमाल राजनीतिक या चुनावी उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। केरल में संघ परिवार के शीर्ष नेताओं के तीन दिवसीय सम्मेलन के बाद प्रवक्ता सुनील आंबेकर ने जोर देकर कहा कि जनगणना से प्राप्त डेटा का इस्तेमाल केवल कल्याणकारी उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए। लेकिन यह एक उलझा हुआ तर्क है, क्योंकि संघ भाजपा और उसके सहयोगियों के अलावा किसी अन्य पार्टी या संगठन से ऐसा आग्रह नहीं कर सकता। जाति-जनगणना की मांग 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्ष के नैरेटिव का हिस्सा थी और चुनावी सफलता का स्वाद चखने के बाद राहुल गांधी ने इसे अपना मुख्य हथियार बना लिया है।

यह मुद्दा आने वाले महीनों में राजनीतिक लड़ाई की रूपरेखा तय कर सकता है और भाजपा की राजनीति के लिए गंभीर चुनौती बन सकता है। चुनाव के बाद के घटनाक्रमों ने भाजपा की चिंता को और बढ़ा दिया है। एनडीए के प्रमुख सहयोगी जदयू ने एक बयान जारी कर बिहार में नीतीश कुमार सरकार द्वारा किए जाति-सर्वेक्षण की तर्ज पर राष्ट्रव्यापी जाति-जनगणना कराने की मांग की है। बिहार में ही एक अन्य महत्वपूर्ण सहयोगी- केंद्रीय मंत्री और लोजपा प्रमुख चिराग पासवान ने भी विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि उनकी पार्टी चाहती है जाति-जनगणना जल्द हो। उनकी यह मांग इंडिया टुडे के मूड ऑफ द नेशन पोल के तुरंत बाद आई थी, जिसमें जाति-जनगणना के लिए लोकप्रिय समर्थन में भारी उछाल प्रदर्शित किया गया था। लोकसभा चुनाव से पहले फरवरी में यह 69% था, जो बढ़कर अगस्त में 74% हो गया।

पिछले चार दशकों से जाति और हिंदुत्व के मुद्दों ने ही राजनीतिक प्रतिमानों को तैयार किया है, जिसमें भाजपा, मंडल दलों की पिछड़ी जाति की राजनीति का हिंदू बहुसंख्यकवाद से मुकाबला करती रही है, खासकर उत्तर भारत में। हालांकि ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण पर मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के वीपी सिंह के फैसले ने जाति की राजनीति को शुरुआती बढ़त दी थी, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं टिकी। ओबीसी आरक्षण के लाभ छिटपुट थे और वे बड़े ओबीसी समूह के भीतर चुनिंदा प्रमुख समुदायों के हितों की ही पूर्ति करते थे। मंडल पार्टियां जल्द ही अनेक टुकड़ों में टूट गईं, जिससे हिंदुत्व को उभार के लिए स्पेस मिला। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए जातियों के परे हिंदुओं को सफलतापूर्वक लामबंद करने से हिंदुत्व भारतीय राजनीति की धुरी के रूप में स्थापित हो गया।

नरेंद्र मोदी के उदय के रूप में संघ परिवार को मंडल राजनीति का सही जवाब मिला था। वे हिंदू राष्ट्रवादी साख वाले ओबीसी नेता थे, जो इन दोनों प्रतिस्पर्धी ताकतों को एक सूत्र में पिरोते थे। इसी से 2014 और 2019 में एनडीए की बहुमत वाली सरकारें बनीं। लेकिन अब लगता है कि मंडल-कमंडल का पहिया अपना चक्र पूरा करके फिर से यथास्थिति में लौट आया है। बढ़ती आर्थिक चुनौतियां उन जातियों को भी प्रभावित कर रही हैं, जो हिंदुत्व के प्रभाव में मंडल राजनीति से दूर हो गई थीं। नोटबंदी, बेरोजगारी, महंगाई और गहराता कृषि संकट सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी के निचले पायदान पर मौजूद लोगों को नुकसान पहुंचा रहा है, जो मुख्य रूप से दलित, आदिवासी, ओबीसी हैं। यही वह पृष्ठभूमि है, जिसने विपक्ष की जाति-जनगणना की मांग के लिए हाशिए पर स्थित वर्गों का समर्थन पाया है। हालांकि न तो राहुल गांधी और न ही किसी अन्य विपक्षी नेता ने अभी तक स्पष्ट शब्दों में यह बताया है कि जनगणना से इन वर्गों को क्या लाभ होगा। लेकिन लाभार्थी-वितरणों की तुलना में कल्याणकारी लाभों के न्यायपूर्ण बंटवारे के वादे का अपना आकर्षण है।

यह देखना अभी बाकी है कि जाति की राजनीति वापसी करती है या नहीं। फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि जाति-जनगणना के लिए विपक्ष के आक्रामक अभियान के कारण हिंदुत्व की राजनीति को अपने कदम पीछे खींचना पड़ रहे हैं। दूसरी तरफ राहुल गांधी और उनके इंडिया गठबंधन के सहयोगियों को भी यह समझना होगा कि वे भाजपा को हल्के में न लें और इस बात से संतुष्ट न हो जाएं कि जाति-जनगणना ही उनके तमाम सवालों का रामबाण उत्तर है।


Date: 06-09-24

कितना कारगर होगा जाति गणना का दांव

सुरेंद्र किशोर, (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी का कहना है कि हम जातीय गणना अवश्य कराएंगे और उससे मिले आंकड़ों के आधार पर जिस जातीय समूह को जितने अधिक आरक्षण की जरूरत होगी, उसे उतना आरक्षण देंगे। वह कहते हैं कि सर्वोच्च अदालत ने 50 प्रतिशत आरक्षण की जो अधिकत्तम सीमा तय कर रखी है, उसे सत्ता में आने के बाद हम समाप्त कर देंगे। यदि राहुल की पार्टी सत्ता में आ भी गई तो क्या वह यह काम कभी कर पाएगी? संभव तो नहीं लगता, क्योंकि यहां अधिकार संपन्न सुप्रीम कोर्ट है, जो किसी भी ऐसे निर्णय की समीक्षा ‘‘संविधान की मूल संरचना’’के सिद्धांत की परिधि में रहकर करता है। इसके बावजूद राहुल गांधी लोगों से कह रहे हैं कि हम आपके लिए चांद तोड़कर ला देंगे यानी वह लोगों को झांसा देकर उनके वोट लेना चाहते हैं। ऐसा ही झांसा 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी दिया था, जो झूठा साबित हुआ। उन्होंने कहा था कि हम गरीबी हटा देंगे। वह यह कहतीं कि हम गरीबी कम कर देंगे तो वह सही हो सकता था, पर उससे लोग उनके झांसे में नहीं आते। झांसा देना कांग्रेस के लिए कोई नई बात नहीं है।

आजादी के तत्काल बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि कालाबाजारियों को निकटतम लैंपपोस्ट पर फांसी दे दी जानी चाहिए। उनके इस उद्गार का जनता पर सकारात्मक असर पड़ा। लोगों में उम्मीद जगी कि अब भ्रष्टाचार से राहत मिलेगी, पर उसके बाद हुआ क्या? आजादी के तत्काल बाद जब पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठ की तो भारतीय सेना को जीप की भारी कमी महसूस हुई। सरकार ने तय किया कि ब्रिटेन से तत्काल दो हजार जीपें खरीदी जाएं। प्रधानमंत्री कार्यालय ने ब्रिटेन में उच्चायुक्त वीके कृष्णमेनन को तत्संबंधी संदेश भेजा। बाद में पता चला कि ब्रिटेन की किस कंपनी से जीपें खरीदी जाएं, उसके बारे में संकेत भी प्रधानमंत्री ने मेनन को दे दिया था। उस कंपनी की कोई साख नहीं थी। मेनन ने प्रशासनिक प्रक्रियाओं का पालन किए बिना उस कंपनी को एक लाख 72 हजार पाउंड का अग्रिम भुगतान कर दिया। कंपनी ने दो हजार में से सिर्फ 155 जीपें भारत भेजीं। वे इस्तेमाल लायक ही नहीं थीं। उन्हें बंदरगाह से चलाकर गैरेज तक भी नहीं ले जाया जा सकता था। इस पर संसद में भारी हंगामा हुआ। यह बात भी सामने आई कि पैसे का भुगतान खुद कृष्णमेनन ने कर दिया था, जबकि यह काम उनका नहीं था। अनंत शयनम अयंगार की अध्यक्षता में जांच कमेटी बनी। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि जीप खरीद की प्रक्रिया गलत थी। इसकी न्यायिक जांच होनी चाहिए, पर नेहरू सरकार ने न्यायिक जांच नहीं कराई। जब फिर यह मामला संसद में उठा तो 30 सिंतबर, 1955 को तत्कालीन गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने कहा कि हमारी सरकार ने इस केस को बंद करने का निर्णय किया है। यदि इस निर्णय से प्रतिपक्ष संतुष्ट नहीं तो वह अगले आम चुनाव में इसे मुद्दा बनाकर देख ले। यह बात एक ऐसी सरकार कह रही थी, जिसके मुखिया नेहरू ने जनता से वायदा किया था कि गलत करने वालों को नजदीकी के लैंपपोस्ट पर फांसी से लटका दिया जाना चाहिए। उनका यह वादा झांसा साबित हुआ। नेहरू के शासनकाल में अन्य घोटाले भी हुए। केंदीय मंत्री सीडी देशमुख ने नेहरू को सलाह दी कि सरकार को भ्रष्टाचार पर निगरानी के लिए एक संगठन बनाना चाहिए। इस पर नेहरू ने कहा कि इससे प्रशासन में पस्तहिम्मती आएगी। नतीजतन तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डी.संजीवैया को कहना पड़ा कि वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, आज करोड़पति बन बैठे हैं और झोपड़ियों का स्थान शाही महलों और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।

1971 के बाद तो सरकारी लूट की गति और तेज हो गई। इंदिरा गांधी सरकार 1969 में उस समय अल्पमत में आ गई, जब कांग्रेस में विभाजन हो गया। कम्युनिस्टों, डीएमके आदि की बैसाखी के सहारे उनकी सरकार किसी तरह घिसट रही थी। ऐसे मौके पर ही इंदिरा गांधी ने गरीबों को झांसा देने के लिए ‘‘गरीबी हटाओ’’ का नारा दिया। लोग उनके झांसे में आ गए और 1971 के चुनाव में इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिल गया। इस जीत के बाद वह गरीबी हटाने का वायदा भूल गईं। उन्होंने पहला सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम स्वहित में किया और अपने पुत्र संजय गांधी को मारूति कारखाने का उपहार दे दिया। जब मारूति कारखाने की स्थापना का योजना आयोग ने विरोध किया तो उसका पुनर्गठन कर दिया गया।

इंदिरा सरकार ने जब 14 निजी बैकों का राष्ट्रीयकरण किया और पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त किए तो जनता को लगा कि वह गरीबी हटाना चाहती हैं और पूंजीपतियों का असर कम करना चाहती हैं, पर हुआ इसके उलट। जब देश में घोटालों की झड़ी लग गई तो जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हो गया। ऐसे ही माहौल में इंदिरा गांधी ने कहा था कि भ्रष्टाचार सिर्फ भारत में ही नहीं है। यह तो विश्वव्यापी परिघटना है। इसके जवाब में जयप्रकाश नारायण ने कहा, ‘‘इंदिरा जी, आप सरीखे निचले स्तर तक मैं नहीं जा सकता।

1984 में राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनते ही ‘सत्ता के दलालों’ के खिलाफ अभियान चलाने की घोषणा कर दी। यह उनका झांसा ही साबित हुआ। बाद में वह खुद दलालों से घिर गए। राजीव गांधी ने यह भी कहा था कि केंद्र सरकार सौ पैसे भेजती है,पर उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही गांवों तक पहुंच पाते हैं। वह जब कांग्रेस महामंत्री थे तो उन्होंने इंदिरा गांधी से कहकर तीन विवादास्पद कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को हटवा दिया था। यह सब उन्होंने जनता में अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए किया। बेहतर छवि बनी भी, पर वह जब बोफोर्स घोटाले में फंस गए तो बचाव की मुद्रा में आ गए। 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका। उसके बाद से अब तक कभी कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। राहुल गांधी अब उसी तरह के राजनीतिक हथकंडे का इस्तेमाल करना चाहते हैं। वह वस्तुतः दलितों- पिछड़ों को झांसा दे रहे हैं। वह भी अंततः विफल ही होंगे। गत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने खटाखटा नकदी देने के लिए मतदाताओं से जो फार्म भरवाया था, उस झांसे को लोग अभी भूले नहीं हैं।


Date: 06-09-24

मनमानी के विरुद्ध

संपादकीय

इस तरह के मामले अक्सर उठते रहे हैं कि सरकारें दागी अफसरों के खिलाफ उचित कार्रवाई करने के बजाय इसकी अनदेखी करती है। कई बार आरोपी अधिकारी की तैनाती उसके पसंद के पद पर भी कर दी जाती है। यह प्रकारांतर से उसे बचाने या पुरस्कृत करने जैसा ही है, जिसे सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में मानती है। जबकि इस तरह के रुख को न केवल नियमों के विरुद्ध माना जाता है, बल्कि यह मनमानी भी है, जिससे सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक व्यवस्था और मूल्यों को नुकसान पहुंचता है। उत्तराखंड के एक मामले की सुनवाई करते हुए बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही मनमानी रवैये के खिलाफ तीखी टिप्पणी की है और इसे एक तरह से लोकतंत्र के विरुद्ध बताया है। गौरतलब है कि भारतीय वन सेवा यानी आइएफएस के एक अधिकारी को उत्तराखंड के राजाजी टाइगर रिजर्व का निदेशक बनाए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीखी नाराजगी जताई और राज्य के मुख्यमंत्री को सख्त फटकार लगाई। अदालत ने साफ कहा कि जिस अफसर को पेड़ों की गैरकानूनी तरीके से कटाई के मामले में जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व से हटाया गया था, उसे रिजर्व का निदेशक क्यों बना दिया गया!

हैरानी की बात यह है कि जिस अधिकारी पर किसी भी रूप में कानून के विरुद्ध आचरण का आरोप लगा हो, उसके खिलाफ विधिक कार्रवाई सुनिश्चित करने के बजाय प्रक्रिया के तहत आरोपमुक्त होने से पहले ही फिर से उसे निदेशक जैसे पद पर तैनात कर दी जाती है। क्या उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के लिए लोकतांत्रिक दायित्वों और मर्यादा के यही मायने हैं? दरअसल, इस नियुक्ति में नियम-कायदों, नैतिकता और लोकतांत्रिक परंपराओं को जिस तरह ताक पर रख दिया गया, शायद उसी के मद्देनजर शीर्ष अदालत को यह टिप्पणी करने की जरूरत पड़ी कि ‘हम सामंती युग में नहीं हैं कि जैसा राजा बोले वैसा ही होगा।’ हालांकि इस मसले पर विवाद के बाद राज्य सरकार ने इस नियुक्ति के आदेश को वापस ले लिया, लेकिन इस संबंध में एक तथ्य यह सामने आया कि विभागीय मंत्री, मुख्य सचिव और अन्य वरिष्ठ अधिकारी इस नियुक्ति के पक्ष में नहीं थे, इसके बावजूद इस असहमति पर विचार करने के बजाय उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने दागी अफसर को निदेशक बना दिया।

जाहिर है, यह अपने दायित्व और अधिकार की सीमा पर गौर नहीं करने का ही एक उदाहरण है। भ्रष्टाचार या अन्य अनियमितता के आरोपों की वजह से कार्रवाई के दायरे में आने के बाद भी दागी अफसरों की ओर से आंखें मूंदे रखना या प्रकारांतर से उसे राहत पहुंचाने या पुरस्कृत करने को सरकारों और खासतौर पर शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति ने मानो अपना अधिकार मान लिया है। कम से कम इस बात का इंतजार भी नहीं किया जाता है कि अगर किसी अधिकारी पर अनियमितता के आरोप लगे हैं, तो उसके खिलाफ विभागीय जांच या कानूनी प्रक्रिया पूरी हो जाए। इस तरह का रवैया किसी ऐसी व्यवस्था में ही आम हो सकता है, जहां एक व्यक्ति की मर्जी से सरकार और समूचा तंत्र चलता है। ऐसे मामले देश के अलग-अलग राज्यों से अक्सर आते रहते हैं, जिसमें भ्रष्टाचार या किसी अन्य गंभीर आरोप से घिरे व्यक्ति के मामले में उचित कार्रवाई करने के बजाय उसे राहत या किसी अहम जगह पर तैनाती दी जाती है। सुप्रीम कोर्ट के आकलन के मुताबिक देखें तो इसे सामंती युग के आचरण के तौर पर ही देखा जाएगा। ऐसी प्रवृत्ति से निश्चित तौर पर लोकतंत्र बाधित होता है।


Date: 06-09-24

बुलड़ोजर की चाल पर सुप्रीम नजर

ड़ॉ. मनीष कुमार चौधरी

उत्तर प्रदेश जनसंख्या और लोक सभा के दष्टिकोण से देश का सबसे बड़ा प्रदेश है। 80 लोक सभा क्षेत्र का नेतृत्व करता उत्तर प्रदेश देश की राजनीति को भी दिशा देता है। इसलिए उत्तर प्रदेश का राजनीतिक महत्व सर्वविदित है। विगत लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में आशानुरूप सफलता नहीं मिली। इसके कई कारण हैं‚ लेकिन एक कारण बार–बार गिनाया जा रहा है कि राज्य सरकार अपराधियों और माफिया के घरों को बुलडोजर से ध्वस्त किया गया जिससे आमजन में आक्रोश था और परिणाम चुनाव पर पड़ा। ॥ उत्तर प्रदेश में भ्रष्ट्राचार और अपराधियों का मनोबल अपने चरम पर था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इन दोनों पर नकेल कस दिया है। उत्तर प्रदेश में अपराधियों और माफिया में सरकार का डर दिखने लगा। एक से बढ़कर एक दुर्दांत अपराधी में सरकार का डर दरअसल‚ शासन द्वारा कानून से ऊपर किसी को भी स्वीकार न करने की उद्घोषणा थी। बुलडोजर की परंपरा के पीछे माफिया के राजनीतिक संरक्षण का पर्दाफाश भी था। इस तरह की स्थिति कई राज्यों में घटित हुई है। अलग–अलग राज्यों द्वारा किए जा रही बुलडोजर कार्रवाई पर सर्वोच्च न्यायालय ने कठोर टिप्पणी करते हुए नाराजगी जताई है। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने कहा कि क्या किसी का भी घर सिर्फ इसलिए गिराया जा सकता है कि वह आरोपी है। अगर आरोपी दोषी भी साबित होता है तब भी घर गिराना कानून के दायरे में ही संभव है। यह एक लोक कल्याणकारी फैसला है‚ लेकिन उत्तर प्रदेश की घटना इससे अलग है।

सामान्यतः वे घर गिराए गए जो गैरकानूनी तरीकों से निर्मित थे। उत्तर प्रदेश में भूमाफिया और अपराधियों द्वारा जबरन भूमि कब्जा कर रातोंरात महल खड़े कर दिए जाते हैं। अपराधी डर पैदा करके जमीन मालिक से जमीन अपने नाम करवा लेते हैं‚ पैसा मांगने पर जान से मारने की धमकी देते हैं। अगर ऐसे घरों को बुलडोजर से जमींदोज किया जाता है‚ तो यह गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता। न्यायमूर्ति बीआर गवई ने मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा ए हिन्द की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है कि ‘घर सिर्फ इसलिए नहीं गिराया जा सकता की वह आरोपी हैॽ अगर वह दोषी है तब भी घर नहीं गिराया जा सकता।’ सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि ‘किसी की कमियों का फायदा हमें नहीं उठाना चाहिए।’ इस प्रकरण पर केंद्र सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सर्वोच्च न्यायालय में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि कानून का उल्लंघन होने पर घरों को गिराया जा रहा है। जो कानून के अनुशासन के अनुकूल है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा कि‚ ‘किसी भी अवैध निर्माण को हम संरक्षण नहीं दे सकते।’ सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न राज्यों में हिंसक प्रदर्शन में शामिल लोगों की संपत्तियों पर बुलडोजर कार्रवाई रोकने का अंतरिम आदेश देने से मना कर दिया है। न्यायालय ने कहा कि अवैध निर्माण पर नगर निगम या नगर परिषद कार्रवाई करने के लिए अधिकृत हैं। ऐसे में हम अवैध निर्माण के विध्वंस पर आदेश पारित कैसे कर सकते हैंॽ

उत्तर प्रदेश की राजनीति में सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का असर बहुत प्रभावी नहीं होगा क्योंकि वहां उन अपराधियों पर बुलडोजर चलाए गए हैं‚ जिन्होंने दहशत पैदा करके अवैध निर्माण किया था। उन अपराधियों और माफिया पर दर्जनों मुकदमे हैं। समाज की शांति–सौहार्द बिगाड़ना उनका पेशा है। लोकतंत्र की मूल आत्मा आम जन की सुरक्षा और शांतिपूर्ण जीवन केंद्रित है। विपक्ष सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर गैर–जरूरी टिप्पणी कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को गैर–जरूरी बुलडोजर कार्रवाई से बचने की सख्त सलाह दी है। यह टिप्पणी न सिर्फ उत्तर प्रदेश पर लागू होती है‚ बल्कि उन सभी राज्यों पर लागू होती है‚ जहां गैर–कानूनी रूप से बुलडोजर की कार्रवाई होती है। राज्यों में कानून व्यवस्था समुचित रूप से अनुशासित रहे सर्वोच्च न्यायालय की मूल चिंता यही है। योगी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दिया है। हलफनामे पर न्यायालय ने खुशी जताई है। हलफनामे में कानूनी नियमों के अंतर्गत बुलडोजर चलाना बताया गया है। लोकतांत्रिक सरकार कानून–नियमों की अनदेखी नहीं कर सकती। योगी सरकार भी अपवाद नहीं है|

दरअसल‚ लोक सभा की कुछ सीटों पर उत्तर प्रदेश में उपचुनाव होने हैं। इसलिए इस विषय को राजनीतिक जामा पहनाया जा रहा है। योगी सरकार ने स्पष्तः हलफनामे में कहा है कि उत्तर प्रदेश में किसी का भी घर कानूनी प्रक्रिया के नहीं तोड़ा जा रहा है। गृह विभाग के विशेष सचिव ने हलफनामे में कहा है कि किसी भी अचल संपत्ति को कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत ही ध्वस्त किया जा सकता है और हम उसी का पालन कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर खुशी जाहिर की क्योंकि शपथ पत्र में एक– एक घटना में विपक्ष के नेताओं की ओर से लगाए गए आरोपों का तार्किक खंडन किया गया। इसमें बताया गया कि ध्वस्तीकरण की कार्रवाई में उत्तर प्रदेश आवास एवं शहरी नियोजन एवं विकास अधिनियम‚ 1973 की धारा 27(1) के अंतर्गत करवाई की गई हैं। उत्तर प्रदेश में माफिया के खिलाफ लगातार कार्रवाई हुआ है। यह उत्साहवर्धक स्थिति है। पूर्व की सरकार माफिया पर कठोर कार्रवाई करने से डरती थी। मुख्तार अंसारी से लेकर अतीक अहमद के ठिकानों पर कार्रवाई ने संगठित अपराध की कमर तोड़ दी है। माफिया की अकूत बेनामी संपत्तियों पर कार्रवाई हुई है। लखनऊ से प्रयागराज‚ मऊ‚ देवरिया आदि शहरों में माफिया की अवैध संपत्ति पर कार्रवाई हुई है।

महिला अपराध से जुड़े मामले हों या सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की बात या परीक्षा माफिया पर शिकंजा कसने की बात हो‚ योगी सरकार ने कानूनी दायरे में रहते हुए कार्रवाई की है। उत्तर प्रदेश प्रशासन ने बुलडोजर मामले में बार–बार यह कहा है कि जिन आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई हुई हैं‚ पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन किया गया है। आरोपियों के दस्तावेज की जांच विकास प्राधिकरण के स्तर पर होती है। अगर अतिक्रमण या नक्शा पास कराने में गलत दस्तावेज के प्रमाण मिलते हैं तो फिर बुलडोजर कार्रवाई होती है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का असर उत्तर प्रदेश की सरकार पर कम ही पड़ेगा। अन्य राज्य सरकारों को भी उत्तर प्रदेश की सरकार से सबक लेना चाहिए। सरकार अंततः जनता के लिए उत्तरदायी होती है|


Date: 06-09-24

पुतिन और मध्यस्थता

संपादकीय

जब रूस और यूक्रेन भयानक युद्ध की आग में झुलस रहे हों, तब शांति का एक हल्का सा झोंका भी खुशी व उम्मीद से भर देता है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने गुरुवार को कहा कि भारत, चीन और ब्राजील संभावित शांति-वार्ता में मध्यस्थ के रूप में काम कर सकते हैं। रूसी राष्ट्रपति ने इस मौके पर यह भी याद दिलाया कि युद्ध के शुरुआती हफ्तों में इस्तांबुल में हुई वार्ता में रूसी और यूक्रेनी वार्ताकारों के बीच एक शुरुआती समझौता हुआ था, जिसे कभी लागू नहीं किया गया, वही छूटा हुआ समझौता आगे शांति-वार्ता के लिए जमीन तैयार कर सकता है। पुतिन अगर वाकई युद्ध से अलग कुछ सोच रहे हैं, तो उनकी प्रशंसा होनी चाहिए। वास्तव में, यह ऐसा युद्ध है, जो मानो दो भाइयों के बीच हो रहा है और इसके नतीजे कभी सुखद नहीं होंगे। अंतत: वार्ता की मेज पर अमन-चैन की राह तैयार करनी पड़ेगी, यह समझ जितनी जल्दी जाग जाए, दुनिया के लिए उतना ही अच्छा है। इस युद्ध में हार-जीत बहुत मुश्किल है। रूस हार नहीं सकता और यूक्रेन को अमेरिका हारने नहीं देगा।

अब पहला सवाल तो यही उठता है कि क्या वाकई रूस शांति चाहता है? क्या भारत, चीन या ब्राजील को आगे करते हुए पुतिन शांति-वार्ता के लिए लालायित हैं? क्या शांति-वार्ता या मध्यस्थता की चर्चा छेड़ना रूस की युद्ध रणनीति का नतीजा है? पुतिन ने युद्ध में जैसी निर्ममता का परिचय दिया है, उसे जल्दी भुलाया नहीं जा सकता। एक दशक पहले तक उनकी छवि बहुत अच्छी थी, पर धीरे-धीरे उनकी उग्रता बढ़ती गई और दूसरे देशों के प्रति बैर-भाव भी बढ़ता चला गया। साल 2022 से ही युद्ध जारी है और ढाई वर्ष से ज्यादा समय बीत चुका है, अब भी युद्ध का अंत नहीं दिख रहा है, तो इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदारी पुतिन के खाते में ही दर्ज है। पुतिन ने ही पहले हमला किया और कायदे से उन्हें ही पहले हथियार पीछे करने चाहिए। क्या ब्राजील की बात रूस मानेगा? क्या चीन खुलकर युद्ध के खिलाफ कुछ कहेगा? अकेला भारत ही है, जो शुरू से ही कह रहा है कि वह युद्ध नहीं चाहता। चीन को ज्यादातर रूस के करीबी सहयोगी के रूप में देखा गया है और धीरे-धीरे रूस की चीन पर निर्भरता बहुत बढ़ती गई है, इसके बावजूद अगर चीन आगे बढ़कर युद्ध को खत्म कराने के लिए काम करता है, तो यह एक अच्छी खबर होगी। हो सकता है, चीन कभी न चाहे कि भारत एक मध्यस्थ के रूप में सफल हो। अगर ऐसा है, तो भी चीन ही आगे बढ़कर पहल करे, तो दुनिया के लिए ज्यादा अच्छा है, इससे चीन की साम्राज्यवादी मंसूबे वाली छवि भी सुधरेगी।

यह चिंता की बात है कि रूस-यूक्रेन युद्ध में रोज औसतन 200 से ज्यादा लोग काल के गाल में समा रहे हैं। मरने वालों का निश्चित आंकड़ा तो नहीं है, पर यह माना जा रहा है कि समग्रता में चार लाख से ज्यादा मौतें हुई हैं। रूस के पास धन की कमी नहीं है, पर उसकी वैज्ञानिक तरक्की सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। वैज्ञानिक रूप से रूस का पिछड़ना दुनिया में संतुलन के प्रतिकूल है। उसके शोध-विज्ञान खर्च में बहुत कटौती हुई है। रूस में संस्कृति और कला क्षेत्र पर गहरा असर हुआ है। देश की एक जो उज्ज्वल छवि थी, उसे सर्वाधिक नुकसान पहुंचा है। दूसरी ओर, यूक्रेन के प्रति दुनिया में धीरे-धीरे सहानुभूति बढ़ी है, अत: यूक्रेन की ओर से भी अब वार्ता के पक्ष और युद्ध के विपक्ष में कोई संदेश आना चाहिए।