06-06-2023 (Important News Clippings)
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Date:06-06-23
Built To Not Last
Bihar bridge collapse is shocking. But it’s also part of a nationwide pattern of compromised governance
TOI Editorials
The shocking collapse of a 200m stretch of a 3km-long bridge – under construction since 2016 – over the Ganga in Bihar is one more project of appalling quality meeting its inevitable fate. Barely seven months since the Morbi bridge collapse in Gujarat that killed over 140 people, the Bihar bridge imploded under the weight of its own flawed design and shoddy construction. Bridges, roads, expressways collapse across India and the list is depressingly long. In the last year alone, from Uttarakhand to Karnataka, UP to Maharashtra, Himachal and Haryana, roads caved in, bridges collapsed, stretches of expressways were washed away in rains – as in Bundelkhand, five days after inauguration. There is no end to the state-private contractorbuilder nexus where high-value infra projects are rushed through without structural inspections, quality audits or safety monitoring. Public safety is repeatedly disregarded.
Two factors though make the Bihar bridge’s collapse, which has missed several completion deadlines, stand out. One, parts of it collapsed last year as well due to wind and rain. Deputy CM Tejaswi Yadav said IIT-Roorkee experts auditing the project following the previous cave-in had noted serious structural defects. Why then was construction continuing? Two, a disingenuous attempt was made to play down the incident – that the authorities demolished the bridge. While the claim collapsed quicker than the bridge, it speaks to the entitled impunity politicians and officials seem to enjoy.
Regardless of the party at the helm, no heads roll within governments. Contractors pay the price, if at all. And no one ever pays the price for the grievous pollution caused with the debris of substandard material, the plumes of dust and ash that sink into rivers and countrysides, killing aquatic and other ecosystems. Governments are accountable to the people, but first of all, they must be accountable to the law of the land, even as polluters.
राजद्रोह पर लॉ आयोग की रिपोर्ट रूढिवादी है
संपादकीय
लॉ कमीशन (22वां) की 279वीं रिपोर्ट रूढ़िवादी मानसिकता दर्शाती है। 81 पेज की रिपोर्ट में 1870 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह रोकने के लिए आईपीसी में शामिल हुए इस राजद्रोह कानून (124-ए) को न केवल बहाल रखने की बल्कि सजा को तीन से सात साल करने के साथ ही इंस्पेक्टर या ऊपर के रैंक के जांच अधिकारी और केंद्र या राज्य सरकार की पूर्वानुमति की सिफारिश है। एक साल पहले मई में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा के प्रयोग पर रोक लगा दी थी। उसके पांच माह बाद आयोग ने इस पर काम करना शुरू किया। रिपोर्ट के पेज 59 में इंग्लैंड के लॉ आयोग की रिपोर्ट का जिक्र भी है, जिसमें कहा गया है कि यह कानून अभिव्यक्ति की आजादी पर डरावना प्रभाव डालता है। इंग्लैंड ने इसे 2009 में खत्म किया जबकि अमेरिका में कोट्र्स ने फ्री स्पीच के मामलों में इस प्रावधान को डरावना करार दिया। रिपोर्ट ने माना कि तमाम विकसित देशों ने इसे खत्म कर दिया। लेकिन भारत में आज भी बहाल रखने और सख्त बनाने की सिफारिश के लिए दिए गए तर्क लॉ आयोग की विशेषज्ञता को देखते हुए हल्के लगते हैं। उदाहरण के लिए आयोग ने पेज 74 में इस तर्क को कि ‘यह दमनकारी अंग्रेजी शासन का कानून है, जो आजाद भारत में अस्तित्व में नहीं होना चाहिए।’ इस आधार पर खारिज किया कि तब तो पूरा आईपीसी ही अंग्रेजों का दिया हुआ है। आयोग को समझना होगा कि संदर्भ ‘देशद्रोह कानून’ है न कि सामान्य अपराध । फिर आयोग का यह भी कुतर्क है कि यूएपीए या अन्य कानून इस किस्म के ‘द्रोह’ के लिए नाकाफी हैं। सजा बढ़ाने का कारण और अधिक हास्यास्पद है। रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा ‘तीन वर्ष या आजीवन कारावास’ के बीच गैप बहुत है, तब तो उम्र कैद को कम करके सात या दस साल किया जाना चाहिए था ।
Date:06-06-23
एआई से असली और नकली के बीच का फर्क
फरहाद मंजू, ( अमेरिकी पत्रकार और द न्यूयॉर्क टाइम्स के ओपिनियन कॉलमिस्ट )
जितने भी इमेज-एडिटिंग एप्स हैं, उनका दादा-परदादा फोटोशॉप ही है। वह हमारे फेसट्यून्ड मीडिया इको-सिस्टम का पूर्वज है। वह हमारी संस्कृति में कुछ इस तरह से पैठ गया है कि अब फोटोशॉप शब्द एक साथ क्रिया भी है और विशेषण भी। यह सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली डिजिटल युक्ति भी है। 30 से भी ज्यादा साल पहले इसका पहला संस्करण जारी किया गया था और आप आज जिन भी तस्वीरों को ऑनलाइन, प्रिंटेड, बिलबोर्ड्स या बस स्टॉप पर, पोस्टरों, प्रोडक्ट्स की पैकेजिंग आदि में देखते हैं, उन पर पेशेवर फोटोग्राफरों, ग्राफिक डिजाइनरों और अन्य विजुअल आर्टिस्टों के द्वारा काम किया गया होता है। ऐसे में अब जब फोटोशॉप जनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के क्षेत्र में प्रवेश कर रही है तो उसके क्या मायने हैं? क्योंकि हाल ही में रिलीज किया गया एक बीटा-फीचर आपको यह सुविधा देता है कि आप चाहे जिस इमेजरी पर फोटोरियलिस्टिक तरीके से काम करके उसे तुरंत ही बदल दें। लेकिन जाहिर है, सेवा-शर्तों के अधीन रहते हुए।
वास्तव में पिछले एक साल में इतने एआई इमेज जनरेटर्स रिलीज किए गए हैं कि किसी कम्प्यूटर की मदद से तस्वीरें एडिट करने का विचार पहले ही बाबा आदम के जमाने का लगने लगा है। फोटोशॉप की नई क्षमताओं में नई बात यह है कि वे वास्तविक और डिजिटल छवियों को बड़ी आसानी से आपस में मिला देती हैं और उन्हें एक बड़े यूजर-बेस के सामने प्रस्तुत कर देती हैं। इस सॉफ्टवेयर के चलते हर वह व्यक्ति जिसके पास एक माउस है, कल्पनाशीलता है और हर महीने 10 से 20 डॉलर खर्च करने की क्षमता है, वह तस्वीरों में बड़ी बारीकी से हेरफेर कर सकता है और इसके लिए उसका विशेषज्ञ होना भी जरूरी नहीं। ये एआई जनरेटेड छवियां इतनी वास्तविक मालूम होती हैं कि अब असली और नकली के बीच की सीमारेखाएं टूटने जा रही हैं।
अच्छी खबर यह है कि फोटोशॉप बनाने वाली कम्पनी एडोबी ने इसके खतरों को भांप लिया है और वह डिजिटिली मैनिपुलेटेड तस्वीरों की चुनौती को सामना करने की योजना बना रही है। उसने एक ऐसी युक्ति बनाई है, जिसकी मदद से आप जान सकते हैं कि किसी इमेज फाइल में एआई की मदद से बदलाव किया गया है या नहीं। इस प्लान को कंटेंट ऑथेंटिसिटी इनिशिएटिव का नाम दिया गया है और इसका घोषित मकसद डिजिटल मीडिया की विश्वसनीयता को बढ़ावा देना है। इसकी मदद से क्रिएटर या पब्लिशर हर फेक-तस्वीर को पकड़ने के बजाय यह साबित कर सकेंगे कि उनके सामने प्रस्तुत कोई इमेज फर्जी है या वास्तविक है। आने वाले समय में आपको ट्विटर पर किसी कार दुर्घटना या आतंकी हमले या प्राकृतिक आपदा की कोई तस्वीरें दिखलाई दें और उनमें यह कंटेंट क्रेडेंशियल न सम्मिलित हो जो बताता हो कि यह तस्वीर कैसे क्रिएट और एडिट की गई थी, तो आप उन्हें फेक घोषित कर सकते हैं!
एडोबी की चीफ ट्रस्ट ऑफिसर डाना राव ने मुझसे चर्चा में कहा कि आने वाले समय में सरकारों, समाचार एजेंसियों और सामान्य पाठकों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण साबित होने जा रहा है कि वे असली और नकली में फर्क कर सकें। तब अगर आपको कोई ऐसी सूचना मिलती है, जिसके साथ कोई कंटेंट क्रेडेंशियल नहीं है तो आपको उसकी सत्यता पर संदेह करने का पूरा अधिकार होगा। लेकिन सवाल है ऐसा कब होगा? क्योंकि एडोबी अभी योजना ही बना रही है, जिसे धरातल पर आने में समय लगेगा, जबकि फोटोशॉप में एआई फीचर्स पहले ही बिना किसी सुरक्षा-तंत्र के लोगों तक बड़ी संख्या में जारी किए जाने लगे हैं। एआई कंटेंट जनरेशन भले ही अभी प्राथमिक अवस्था में हो, पर फोटोशॉप के नए फीचर्स के बाद व्यापक रूप से सर्वमान्य मानदंडों को निर्धारित करने की जरूरत निर्मित हो चुकी है।
हम पहले ही कंटेंट के सैलाब में डूबे हुए हैं और अब रियलिस्टिक दिखने वाले आर्टिफिशियल फीचर्स से हालात और बदतर होने जा रहे हैं। टेक-कम्पनियों को एडोबी के सिस्टम या किसी अन्य सेफ्टी-नेट को अपनाने के लिए हरकत में आना होगा, क्योंकि एआई इमेजरी दिन-ब-दिन परिष्कृत होती जा रही है। हमारे पास गंवाने के लिए समय नहीं है। हाल ही में हवाई में मैंने एक रेडहेडेड पक्षी की तस्वीर खींची, जो किसी आउटडोर डाइनिंग टेबल पर बैठा था। मैंने एक एआई सिस्टम से उसे फोटोशॉप करने की कोशिश की। महज 30 सेकंड के बाद अब वह पक्षी मेरी बांह पर बैठा हुआ था और एडिटिंग इतनी वास्तविक थी कि उस पर कोई भी संदेह नहीं कर सकता था। हम एक बहुत ही विचित्र समय में जी रहे हैं!
Date:06-06-23
प्लास्टिक कूड़े से मुक्ति हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, ( पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरणविद् )
दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण ने जोर पकड़ रखा है और यही कारण है कि इस बार के पर्यावरण दिवस की थीम प्लास्टिक पर ही केंद्रित है। क्यों ना हो? दुनिया भर में 35 करोड़ टन प्लास्टिक हम हर वर्ष कूड़े के रूप में पैदा कर रहे हैं। भारत में ही देख लीजिए। 2021 में करीब 2.1 करोड़ टन ये कूड़ा था, जो 2022 में 2.2 करोड़ टन हो गया। मतलब साफ है कि इस कचरे से हम मुक्त नहीं होंगे और आने वाले समय में यह बढ़ता चला जाएगा। बदलते पर्यावरण और प्रकृति के बीच जहां हम प्राकृतिक पहाड़ों को खो रहे हैं, वहीं हमने दुनिया में नए पहाड़ों को जन्म दे दिया और वे हैं प्लास्टिक के पहाड़। दिल्ली हो या अन्य शहर, सब जगह प्लास्टिक कचरे के पहाड़ चर्चा का विषय हैं। उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि हम लगातार प्लास्टिक के उपयोग में नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं। पिछले 19 वर्षों में जो भी प्लास्टिक उत्पादित हुआ, आज के कचरे में उसका 50% से ऊपर योगदान है। मतलब हमारी जागरुकता और इस पर चर्चा किसी बड़े काम नहीं आई। सरकार के तमाम नियम-कानून सब के सब धरे के धरे रह गए। प्लास्टिक सीधे हमारे स्वास्थ्य पर चोट कर रहा है। आने वाली पीढ़ी को मस्तिष्क से जुड़ी बीमारियां व हृदय या सांस की तकलीफें झेलनी पड़ेंगी।
आज 90% प्लास्टिक के आइटम हमारे प्रतिदिन उपयोग में आने वाले सामान हैं। चाहे ग्रॉसरी बैग हो प्लास्टिक रैपर, डिस्पोजेबल कटलरी-कप…ये सब अब प्लास्टिक के ही हैं और इसलिए अगर हम इनके उपयोगों पर अंकुश लगा सके तो इससे बहुत बड़ा असर दिखेगा। जब दुनिया में 20 बिलियन प्लास्टिक बोतल कूड़े के रूप में प्रतिदिन आ जाती हों, तो कल्पना कर सकते हैं कि ये बोतलें कहां जाती होंगी। ये समुद्र में जाती हैं या आपके घर के चारों तरफ खेतों को सीधे प्रभावित करती हैं। इसलिए जरूरी है कि हम पानी की बोतलों का उपयोग बंद कर दें। हालांकि कई देशों ने इस पर गंभीरता दिखाई है। दुनिया में कई जगहें हैं, जहां प्लास्टिक की इस तरह की बोतल पर सीधे अंकुश लगा दिया है। इन सबके अलावा कई तरह के प्लास्टिक स्क्रबर, टूथपेस्ट, बॉडी वॉशर के निर्माण में या इनके उपयोग के समय इनके छोटे-छोटे कण पानी में आ जाते हैं और यही पानी हमारे शरीर में फूड के साथ या अन्य जानवरों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
इनका विकल्प या फिर पुराने तरीकों के अपनाने का समय है। एक बड़ी बात यह भी है कि खाना पकाने के अलावा अगर हम कटलरी के रूप में प्लास्टिक का उपभोग कर रहे हैं, तो यह भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। ऐसे बर्तन अत्यधिक गर्मी, इंडक्शन या फिर माइक्रोवेव में अपना स्वभाव बदल देते हैं। यह भी देखा गया है कि दुनिया में मात्र 14% प्लास्टिक ही रीसाइकिल होता है और इसके कारण ये कूड़ा प्लास्टिक के रूप में पड़ा रहता है और पृथ्वी से लेकर समुद्र तक समा जाने के बाद ये कूड़ा घूमकर हमारे हिस्से में ही आता है। अब जरूरत सामूहिक कदम उठाने की है।
यह बात भी देखने में आई है कि आज हर घर, गली, गांव में छोटे-छोटे पाउच, सैशे या रैपर के रूप में चीजें उपलब्ध हैं। उपभोक्ताओं के लिहाज से ये सुविधाजनक हैं, लेकिन पर्यावरण के लिए उतने ही नुकसानदेह। इनके स्वस्थ विकल्प के बारे में भी विचार करना होगा। अगर हमें प्लास्टिक पर अंकुश लगाना है तो ऐसे उत्पादों और उत्पादकों पर कहीं विरोध के रूप में या विकल्प के रूप में जोर लगाना ही पड़ेगा क्योंकि यह तो तय है कि जिस तरह से प्लास्टिक के फुटप्रिंट दुनिया में पड़ रहे हैं और अगर हमने समय रहते हुए पहल नहीं की तो आने वाले समय में यह मनुष्य के फुटप्रिंट को नेस्तनाबूद कर देगा।
भ्रष्टाचार का पुल
संपादकीय
बिहार के भागलपुर में गंगा नदी पर निर्माणाधीन पुल का दूसरी बार ढहना भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा है। शर्मनाक केवल यह नहीं कि यह निर्माणाधीन पुल दूसरी बार गिरा, बल्कि यह भी है कि यह नौ साल से बन रहा है, लेकिन पूरा होने का नाम नहीं ले रहा। यह लेट-लतीफी इसलिए हैरान करने वाली है कि अभी हाल में संसद का नया भवन तैयार हुआ है। यह करीब ढाई वर्ष में बनकर तैयार हो गया। क्या यह विचित्र नहीं कि संसद का नया भवन तो लगभग ढाई वर्ष में बन गया, लेकिन एक पुल नौ वर्ष में भी नहीं बन पाया? यह तब है, जब इस पुल को नीतीश सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट बताया जा रहा है। जब सरकार की प्राथमिकता वाले प्रोजेक्ट की यह दुर्गति है तो यह सहज ही समझा जा सकता है कि अन्य परियोजनाओं की क्या स्थिति होगी? बिहार सरकार कुछ भी कहे, इस पुल का दोबारा गिर जाना उसकी बदनामी कराने वाला है और इसके लिए वह अन्य किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती। पुल के गिरने पर बिहार सरकार की प्रतिक्रिया निराश करने वाली है। आखिर यह कहने का क्या अर्थ कि ठीक से नहीं बन रहा था, इसलिए गिर जा रहा है? प्रश्न यह है कि ठीक से न बनने की जवाबदेही किसकी है? इस पुल के फिर से गिर जाने से यह भी पता चलता है कि बिहार बदहाली से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहा है? इस पुल के ढांचे का दूसरी बार गिरना यह भी बताता है कि जब यह पहली बार गिरा तो जरूरी सबक सीखने से इन्कार किया गया।
भागलपुर को खगड़िया से जोड़ने वाले पुल के दूसरी बार गिर जाने से यह जानना कठिन है कि अब यह कब तक बनकर तैयार होगा और उसकी लागत में कितनी वृद्धि होगी? यह तय है कि जो भी वृद्धि होगी, वह जनता के पैसे की बर्बादी ही होगी। इस पुल के दूसरी बार गिर जाने को महज दुर्योग कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं की जा सकती, क्योंकि बिहार में इसके पहले भी कई निर्माणाधीन या फिर नए बने पुल ढह चुके हैं। इसका मतलब है कि निर्माण परियोजनाओं में भ्रष्टाचार का घुन लग चुका है। ऐसा तब होता है, जब भ्रष्ट तत्वों के गठजोड़ पर लगाम लगाने से इन्कार करने के साथ यह देखने से बचा जाता है कि निर्माण परियोजनाएं समय से और सही तरीके से क्यों नहीं पूरी हो रही हैं? वैसे तो सड़कों, पुलों आदि के निर्माण में भ्रष्टाचार और उनकी गुणवत्ता की अनदेखी एक राष्ट्रव्यापी समस्या है, लेकिन यह तो हद है कि कोई निर्माणाधीन पुल दो-दो बार गिर जाए। समझना कठिन है कि जब अंग्रेजों के जमाने में बनाए गए निर्माण आज भी अपनी मजबूती की गवाही दे रहे हैं, तब निर्माणाधीन परियोजनाएं पूरी होने के पहले ही क्यों ध्वस्त हो जा रही हैं?
Date:06-06-23
मंदिर में ड्रेस कोड
संपादकीय
उत्तराखंड के हरिद्वार , ऋषिकेश व देहरादून के कुछ मंदिरों में छोटे कपड़े पहनने वालों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई है। हरिद्वार के दक्षप्रजापति मंदिर, देहरादून के टपकेर महादेव मंदिर व ऋषिकेश के नीलकंठ महादेव मंदिर में उचित वस्त्र ना पहनने वाले स्त्री/पुरुषों के प्रवेश पर निषेध लगा दिया गया। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद द्वारा कहा गया है कि अस्सी फीसदी तक तन ना ढांकने वाली स्त्रियों को मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाएगा। अखाड़ों से जुड़े देश भर के मंदिरों में यह प्रतिबंध जल्द ही लागू किया जाएगा। शुचिता के प्रति श्रद्धालुओं की उपेक्षा के कारण यह पाबंदी लगाने की दलील दी जा रही है। लंबे समय से ढेरों पूजास्थलों पर इस तरह के प्रतिबंध लगते रहे हैं। मजारों व गुरुद्वारों में सख्ती से यह नियम पहले ही लागू है। वहां श्रद्धालुओं को तन ढंकने के साथ ही सिर ढांपने का नियम भी सख्ती से लागू है। हालांकि मंदिरों में इस तरह के कोई प्रावधान कभी नहीं रहे। अमूमन लोग स्वेच्छा से शालीन वस्त्रों में ही पूजा स्थल जाते रहे हैं। मगर इधर के कुछ सालों में समाज के एक वर्ग में जैसे-जैसे कट्टरता हावी होती नजर आ रही है, वैसे-वैसे धर्म की आड़ में नये दायरे तय किये जा रहे हैं। स्वीकारना होगा कि लोगों का ड्रेस सेंस काफी तब्दील हो रहा है। वे मौसम व सुविधानुसार ही वस्त्रों का चयन नहीं करते, बल्कि फैशनपरस्ती भी हावी रहती है। धार्मिक स्थलों में बदनउघाडू वस्त्रों का प्रयोग तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता। कहना गलत नहीं होगा कि इससे श्रद्धालुओं ही नहीं, बल्कि मंदिर के कर्मचारियों समेत पुजारियों/पंडों का भी मन शांत नहीं रह पाता। कम वस्त्रों में अब स्त्रियां ही नहीं फिरतीं, बल्कि पुरुष भी शॉर्ट्स या निकर व गंजी जैसी टी-शर्ट में दर्शन करने चल पड़ते हैं। उन्हें पर्यटन व पूजा स्थल के भेद को समझना चाहिए। वस्त्रों में भी स्थान-काल-पात्र की गरिमा जरूरी है। यह भी सच है कि सनातन हिन्दू धर्म विराट है। इसमें संकीर्णताओं व बंधनों के लिए स्थान नहीं रहा है। क्योंकि नागाओं के पूजास्थलों में प्रवेश के निषेध की कभी कोई बात नहीं उठी। भक्त व देवताओं के दरम्यान कुछ भी अचीन्हा नहीं है। अपने आराध्य के आगे श्रद्धालु कैसे सिर नवाता है, यह उसकी आस्था पर है। सनातन धर्म किसी भी तरह की कट्टरता से अछूता रहा है, यही इसकी विराटता, महिमा का मुख्य स्रेात है। उसे पाबंदियों में बांधने के प्रयास बचकाने ही कहलाएंगे।
Date:06-06-23
कामयाबी है कुछ खास
डॉ. शशांक द्विवेदी
स्वदेशी नेविगेशन प्रणाली को मजबूत करने की दिशा में बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने सेकंड जनरेशन नेविगेशन सैटेलाइट एनवीएस-01 (NVS-01) को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किया। इस सैटेलाइट को जीएसएलवी एफ-10 रॉकेट (GSLV F-10 Rocket) से प्रक्षेपित किया गया। यह इस सेकंड जनरेशन सीरीज का पहला सैटेलाइट है। इससे स्वदेशी नेविगेशन प्रणाली ज्यादा सटीक हो सकेगी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एनवीएस-01 सैटेलाइट में स्वदेशी परमाणु घड़ी लगाई गई है। इसके पहले सटीक तिथि और जगह की जानकारी का पता लगाने के लिए रूबिडियम परमाणु घड़ियों को आयात करना पड़ता था। इसरो ने इस मिशन के लिए खास तौर पर अपने देश में विकसित रूबिडियम परमाणु घड़ी का इस्तेमाल किया है। इसे विकसित करने की तकनीक कुछ ही देशों के पास है।
परमाणु घड़ियों द्वारा ही सिग्नल भेजने और सिग्नल प्राप्त करने में लगे समय की गणना की जाती है। इसके आधार पर स्थान निर्धारण किया जाता है। एनवीएस-01 की लॉन्चिंग नाविक (नेविगेशन विद इंडियन कांस्टेलेशन) सर्विस की निरंतरता सुनिश्चित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण है। यह अमेरिका के जीपीएस की तरह भारत का अपना सैटेलाइट नेविगेशन सिस्टम है, जिससे रियल टाइम और सटीक नेविगेशन संभव होता है। असल में इंडियन रीजनल नेविगेशन सिस्टम के तहत सात सैटेलाइट प्रक्षेपित किए गए थे। इनके जरिए भारत में नेविगेशन सेवाएं मिल रही थीं। इनका इस्तेमाल सेना और विमान सेवाओं के लिए किया जा रहा था। इनमें से तीन सैटेलाइट काम नहीं कर रहे थे। इसलिए इसरो ने 5 नये सैटेलाइट लॉन्च करने की ठानी। एनवीएस-01 उनमें से एक है। इन आधुनिक सैटेलाइट को पुराने सैटेलाइट्स की तुलना में अधिक समय तक काम कर पाने की क्षमता के साथ बनाया गया है। पुराने उपग्रह 10 सालों तक सेवाएं देते हैं जबकि नेक्स्ट जेनरेशन सैटेलाइट 12 सालों तक सटीक सेवाएं दे सकते हैं।
एनवीएस-01 भारत के समुद्र के भीतर सटीक और रियल टाइम नेविगेशन सेवा उपलब्ध कराएगा जिससे समुद्र में जहाजों की रियल टाइम पोजीशन का सटीक अंदाजा लग सकेगा। इससे हवायी, स्थलीय और समुद्री नेविगेशन में भी सहायता मिलेगी। एनवीएस-01 से मोबाइल लोकेशन सर्विसेस और भी दुरुस्त हो जाएंगी। इससे इमरजेंसी सर्विसेस, जियोडेटिक सर्वे, मरीन फिशरीज, कृषि संबंधी जानकारी हासिल करने में भी सहायता मिलेगी। स्वदेशी जीपीएस नाविक से भारत को बहुत फायदा होगा। मसलन, जोमैटो और स्विगी जैसे फूड डिलीवरी सेवाएं और ओला-उबर जैसी सेवाएं नेविगेशन के लिए जीपीएस का इस्तेमाल करती हैं। नाविक इन कंपनियों के लिए नेविगेशन सब्सक्रिप्शन कॉस्ट को कम कर सकता है, और एक्यूरेसी बढ़ा सकता है। नाविक से अमेरिका के जीपीएस पर निर्भरता कम होगी और इंटरनेशनल बॉर्डर सिक्योरिटी ज्यादा बेहतर होगी। चक्रवातों के दौरान मछुआरों, पुलिस, सेना और हवाई/जल परिवहन को बेहतर नेविगेशन सिक्योरिटी मिलेगी। नाविक टेक्नोलॉजी ट्रैवल और टूरिज्म इंडस्ट्री को मदद कर सकती है। इसके जरिए टूर को ज्यादा इनफॉर्मेटिव और इंटरैक्टिव बनाकर गेस्ट का एक्सपीरियंस और ज्यादा बेहतर बनाया जा सकता है। आम लोग लोकेशन के लिए भी इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। भारत का आईआरएनएसएस अमेरिका के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस), रूस के ग्लोनास, यूरोप के गलीलियो जैसा है। इस कामयाबी के साथ ही भारत का न केवल अपने उपग्रहों का जाल तैयार हो जाएगा, बल्कि अपना जीपीएस भी शुरू हो जाएगा। अब जीपीएस के लिए भारत को दूसरे देशों पर निर्भर रहना नहीं पड़ेगा यानी यह कामयाबी बहुत खास है।
इस मिशन की कामयाबी के साथ ही भारत उन चुनिंदा देशों की जमात में शामिल हो गया है, जिनके पास नेविगेशन पण्राली है। यह अभियान देश के अंतरिक्ष कार्यक्रमों को नई दिशा प्रदान कर रहा है। इससे देश का नेवीगेशन सिस्टम मजबूत होगा जो परिवहनों तथा उनकी सही स्थिति एवं स्थान का पता लगाने में सहायक सिद्ध होगा। नेवीगेशन सिस्टम के लिए आत्मनिर्भरता किसी भी देश के लिए काफी मायने रखती है। एक रिपोर्ट के अनुसार देशी नेवीगेशन सिस्टम आम आदमी की जिंदगी को सुधारने के अलावा सैन्य गतिविधियों, आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद-रोधी उपायों के रूप में बेहद उपयोगी होगा। खासकर 1999 में करगिल जैसी घुसपैठ और सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से इसके जरिए समय रहते निपटा जा सकेगा। करगिल घुसपैठ के समय भारत के पास ऐसा कोई सिस्टम मौजूद नहीं होने से सीमा पार से होने वाली घुसपैठ को समय रहते नहीं जाना जा सका था। बाद में यह चुनौती बढ़ने पर भारत ने अमेरिका से जीपीएस सिस्टम से मदद मुहैया कराने का अनुरोध किया गया था। हालांकि तब अमेरिका ने मदद मुहैया कराने से इनकार कर दिया था। उसके बाद से ही जीपीएस की तरह ही देशी नेविगेशन सैटेलाइट नेटवर्क के विकास पर जोर दिया गया और अब भारत ने खुद इसे विकसित करके बड़ी कामयाबी हासिल की है।