06-06-2019 (Important News Clippings)
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Date:06-06-19
Cliffhanger Inc
Even a deadly traffic jam on Everest won’t keep away adventurous alpinists
TOI Editorials
It is among the most shocking images of this summer, of a human traffic jam on Mount Everest. Quite contrary to what’s suggested in romantically lone wolf selfies atop the world, it is now revealed that winding queues of literally hundreds of climbers can be shuffling shoe to shoe, to ascend the summit in peak season. It brings to mind desi hill stations, which too can sadly belie much storied promises of cool and calm relief from the scorching plains, as tourists galore turns them into smoggy and belligerent letdowns.
Of course a touristy Niagara atop the Everest is altogether deadlier. Because on an icily precarious ridge 29,000 feet high, with oxygen supply running down fast and painfully, people perhaps dropping down dead around you, the logjam means simply turning back is not an option. That’s why it’s called the deathzone. And why the Nepal government, accused of issuing a reckless number of climbing permits, is being asked to do a better job of traffic control. Sustained international pressure will hopefully usher in regulatory reforms, and also nudge mountaineers to check out Everest’s sister peaks.
Meanwhile in India several climbers are feared to have died in an avalanche, while attempting to summit a virgin peak on Nanda Devi which sits above 25,000 feet. This is a reminder that no matter the advances in technology, from super insulated gear to better weather forecasting, mountain climbing remains a very dangerous sport. As Jon Krakauer wrote in Into Thin Air, “Attempting to climb Everest is an intrinsically irrational act – a triumph of desire over sensibility.” It is the desire to go to the ultimate top, conquering the mountain but also the self, with all its vulnerabilities and fear.
Date:06-06-19
Welcome Integration of Water Management
ET Editorials
It is welcome that the new government has walked the talk and set up the integrated Jal Shakti ministry, reorganising Water Resources, River Development and Ganga Rejuvenation bodies, and merging them with Drinking Water and Sanitation, to provide much-needed policy focus and coordination. Notably, Jal Shakti minister Gajendra Singh Shekhawat has announced that the Centre intends to provide piped drinking water to all households nationwide. Implemented, that would be transformative, given that an estimated 600 million people face high-to-extreme water stress, as per NITI Aayog.
Shockingly, 75% of households do not have drinking water on their premise, and 84% of rural households lack access to piped water supply. It is the hitherto missing link in the Swachh Bharat Abhiyan, so that household toilets are actually used as intended. The Jal Shakti ministry needs to be empowered to coordinate policy with the ministry of agriculture, which accounts for some 80% of water demand.
The way forward is to systematically link cropping patterns to agro-climatic zones, and not encourage water-guzzling crops in drier regions with glaring policy distortions like free power. There is also the pressing need to bridge the rising gap between irrigation potential and its actual realisation, and widely diffuse sprinklers and micro-irrigation systems.
Besides, we need decentralised systems with participatory management by panchayats for effective rural piped water networks. Relying, instead, on a large irrigation bureaucracy would make it both high-cost and quite dysfunctional. Further, only a tiny number of urban areas nationally have both sewage systems and sewerage treatment plants, which clearly needs improving with stepped-up resource allocation.
Date:06-06-19
मोदी की दूसरी पारी में अहम ‘एक चीज’
नरेंद्र मोदी जैसा दिग्गज राजनीतिक नेता अपने कार्यकाल को असाधारण आर्थिक सफलता दिलाने के लिए क्या कदम उठा सकता है ?
देवाशिष बसु , (लेखक वेबसाइट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं)
गत 23 मई की दोपहर में ही यह साफ हो गया था कि नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक बड़ी चुनावी जीत की ओर अग्रसर है। उसके बाद से ही पत्रकारों और संपादकों के ईमेल बॉक्स में उद्योगपतियों, उद्योग संगठनों एवं वित्तीय विशेषज्ञों के संदेशों की भरमार हो गई है। सरकार की तरफ से तत्काल उठाए जाने वाले इन कदमों की सूची काफी लंबी है। पिछले कई दशकों में कई समस्याएं खड़ी हो चुकी हैं। भाजपा को मिले जबरदस्त जनादेश के बाद उसे मत देने वाले व्यक्ति से लेकर आर्थिक टिप्पणीकार भी आगे किए जाने वाले कार्यों की सूची दे रहे हैं।
हालांकि इन सूचियों का कोई मतलब नहीं है। मोदी शायद उन्हें पढ़ते नहीं हैं, उन्हें किसी की सलाह की जरूरत भी नहीं है, मेरे जैसे स्तंभ लेखकों की तो कतई नहीं। अच्छा हो या बुरा, सही हो या गलत, वह अपने फैसले खुद करते हैं और उन पर डटे रहते हैं। लेकिन उनकी राजनीतिक जीतें जहां अपने-आप में पूर्ण रही हैं, वहीं आर्थिक मोर्चे पर उनकी जीतों को लेकर बहस हो सकती है, खासकर यह देखते हुए कि सरकार ने अपने प्रदर्शन को बेहतर दिखाने के लिए लगातार आंकड़ों में फेरबदल किए हैं। हो सकता है कि भाजपा कार्यकर्ताओं के भारी शोरशराबे और आम नागरिक के अंध आशावाद के मौजूदा परिवेश में इसे कुछ समय के लिए भुला दिया जाए।
मोदी जैसा दिग्गज नेता अपने शासनकाल में असाधारण आर्थिक कामयाबी हासिल करने के लिए क्या कदम उठा सकता है? गैरी डब्ल्यू केलर और जेय पपासन की चर्चित किताब ‘दी वन थिंग: द सरप्राइजिंग्ली सिंपल ट्रुथ बिहाइंड एक्सट्राऑर्डिनरी रिजल्ट्स’ में इस सवाल का जवाब मिल सकता है। लेखक-द्वय यह सरल सवाल पूछने की सलाह देते हैं कि ‘वह कौन सी एक चीज है जिसे अंजाम देने के बाद बाकी कुछ भी करना अधिक आसान हो जाता है?’ अगर भारत को अपने करोड़ों नागरिकों को गरीबी से बाहर निकालने का मुख्य लक्ष्य तेजी से हासिल करना है तो वह कम मात्रा में मौजूद पूंजी को व्यर्थ नहीं गंवा सकता है। भारत को पूंजी के कारगर आवंटन की जरूरत है जो कि अर्थव्यवस्था की जीवनशक्ति होती है।
मोटे तौर पर भारत में तीन तरह की इकाइयां पूंजी का इस्तेमाल करती हैं। पहला, केंद्र एवं राज्य सरकारें, दूसरा, सरकार के नियंत्रण वाले वाणिज्यिक संगठन और तीसरा, निजी क्षेत्र। जो भी पूंजी का इस्तेमाल करे, यह बहस से परे है कि पूंजी का इस्तेमाल हरसंभव लाभकारी तरीके से होना चाहिए। भारत में पूंजी खर्च होने के तरीके के बारे में बुनियादी समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह बता देगा कि पहली इकाई बड़े पैमाने पर पूंजी का नुकसान करती है।
आज से 33 साल पहले राजीव गांधी ने इस अवसर का फायदा उठाने की गरज से शून्य-आधारित बजट (जेडबीबी) लाने की पहल की थी। इस पहल के तहत बजट संबंधी हरेक गतिविधि हरेक साल शून्य आधार से ही शुरू होती है। इसका मतलब है कि हरेक व्यय को हर साल न्यायोचित ठहराना होगा और एक साल पहले किए गए खर्च से उसका कोई नाता नहीं होगा। जहां परंपरागत बजट निर्माण में गत वर्ष की तुलना में हुई क्रमिक वृद्धि का उल्लेख होने के साथ ही अवशिष्ट का आकलन भी किया जाता है, वहीं जेडबीबी व्ययकर्ताओं पर हर बार यह दबाव डालता है कि खर्चों को न्यायोचित ठहराया जाए और लागत कम की जाए। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। सांसद क्षेत्र विकास निधि के तहत हरेक साल अरबों रुपये आवंटित किए जाते हैं। सांसद इस राशि का थोड़ा सा हिस्सा ही खर्च करते हैं और उन्हें बची हुई राशि अगले साल ले जाने की भी अनुमति होती है। लेकिन जेडबीबी में अपनी राशि खर्च नहीं करने वाले सांसदों को रकम नहीं आवंटित की जाएगी और अधिक कारगर ढंग से या अधिक जरूरत वाले क्षेत्रों में वह राशि खर्च की जाएगी। जब सैकड़ों अरब रुपये इकट्ठा हो जाएंगे तो कहीं अधिक फायदे उठाए जा सकेंगे। तमाम विभागों के बीच फालतू खर्चों और नदारद कर्मचारियों के बारे में भी पता कर सकते हैं।
पूंजी बरबाद करने वालों में दूसरा स्थान सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) का है। हमें नहीं मालूम है कि मोदी इनके बारे में क्या करना चाहते हैं क्योंकि उनके कार्यकाल में पीएसयू वे तमाम काम कर रहे हैं जिन्हें निजी क्षेत्र की कंपनियां बेहतर ढंग से अंजाम दे रही हैं। यहां तक कि वित्तीय एवं डिजिटल ढांचे जैसे तेजी से बढ़ते क्षेत्रों में भी यह हो रहा है। इसके अलावा होटल, एयरलाइन, टेलीफोन, इस्पात, खाद, इंजीनियरिंग और फोटो फिल्म तक में पीएसयू की खराब हालत को दुरुस्त करने की कोई कोशिश हुई है। राज्यों में भी सक्रिय सैकड़ों पीएसयू की हालत ऐसी ही है। पूंजी आवंटनकर्ता होने के नाते सरकार और पीएसयू दोनों को ही पैसे की बरबादी रोकने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं होता है। अगर इसे अलग तरीके से देखें तो इसमें उनका कुछ भी दांव पर नहीं होता है। उन्हें इस खेल से बाहर करने की जरूरत है क्योंकि वे अरबों रुपये बरबाद कर रहे हैं जिसे उपभोक्ताओं और कारोबारों को मिलना चाहिए।
इसके विपरीत, पूंजी आवंटनकर्ताओं की तीसरी किस्म निजी क्षेत्र की उन कंपनियों की होती है जिनका इस खेल में बहुत कुछ दांव पर माना जाता है। चाहे वह टाटा जैसी विशाल कंपनी हो या कोई छोटी कंपनी। अगर उनका इस खेल में दांव नहीं लगा होता है तो इसकी वजह यह है कि राज्य या उसके तमाम अंग (नेता, बाबू और सार्वजनिक बैंक) उन्हें पीएसयू की ही तरह गैरजिम्मेदाराना ढंग से काम करने देते हैं जिसे दोस्ताना पूंजीवाद के रूप में पेश किया जाता है। अगर निजी क्षेत्र को निष्पक्ष ढंग से प्रतिस्पद्र्धा करने की आजादी दी जाती है तो वह पहले दो पूंजी आवंटनकर्ताओं की तुलना में कहीं बेहतर साबित होंगे।
अगर एक सरकार कारगर ढंग से पूंजी आवंटन प्राथमिकता तय करती है तो उसका मतलब होगा एक छोटा राज्य, करों में कमी, खर्च योग्य आय में बढ़त और वस्तुओं एवं सेवाओं का सस्ता होना। फिर राज्य अपनी पूंजी को उन इलाकों में आवंटित कर सकता है जो इस संरचनात्मक बदलाव में मदद करते हैं। जीत का जश्न खत्म होने के बाद क्या भाजपा अपने राजनीतिक जनादेश को प्रभावी संरचनात्मक बदलाव लाने वाले जनादेश में बदलेगी? यह ‘एक चीज’ बाकी प्रयासों को काफी हद तक गैरजरूरी बना देगी।
Date:06-06-19
10 फीसदी जीडीपी वृद्धि से हल होगा जॉब संकट
कृषि आधारित उद्योगों में व्यापक निवेश, बेहतरीन एयरपोर्ट हब और शिक्षा प्रणाली में बदलाव से बनेगी बात
चेतन भगत , ( अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार )
आखिरकार रिपोर्टों ने पुष्टि कर दी कि भारत में नौकरियों का संकट है। विडंबना यह है कि शहरी और शिक्षित युवाओं में हालात ज्यादा खराब है। हमने जॉब की समस्या पर पर्याप्त चर्चा कर ली है। अब वक्त है कि हम समाधान का रुख अपनाए। ऐसा न हो कि हम आरोप-प्रत्यारोप के राजनीतिक खेल में लग जाए जैसा हम प्राय: हमारे राष्ट्रीय मुद्दों पर करते हैं।
रोजगार संकट के कई कारण हैं। इसमें कुछ तो हमारी गलतियां और कुछ वैश्विक ट्रेंड शामिल हैं। केवल अत्यधिक ऊंची वृद्धि दर वाली अर्थव्यवस्था ही जॉब संकट को मात दे सकती है। यह हमारे सामने सामूहिक लक्ष्य होना चाहिए। आइए, इसे जीडीपी10 कहें यानी 10 फीसदी रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था। अभी हम 7 फीसदी के औसत के आसपास हैं। लक्ष्य चुनौतीपूर्ण है पर असंभव नहीं। इसका कोई मतलब नहीं कि अर्थव्यवस्था यूपीए के मातहत तेजी से बढ़ी या एनडीए शासन में। महत्व सिर्फ 10 फीसदी जीडीपी वृद्धि का है। यदि हम यह विशाल लक्ष्य हासिल कर लें तो सिर्फ बेरोजगारी की समस्या ही हल नहीं होगी, बहुत सारे अन्य फायदे भी मिलेंगे। इसमें ऊंचा जीवनस्तर, प्रतिव्यक्ति अधिक आय, सरकार के लिए अधिक राजस्व -जिसका उपयोग विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में हो सकेगा, बचत व निवेश में वृद्धि, देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का अधिक प्रवाह और विश्व मंच पर भारत का अधिक प्रभाव; फिर चाहे वह व्यापार संबंधी वार्ताएं हों या विदेश नीति का कोई अन्य पहलू। यहां पर तीन तरीके हैं, जिनसे जीडीपी वर्तमान के मुकाबले अधिक तेजी से बढ़ेगा :
1. कृषि आधारित उद्योगों में व्यापक निवेश : कृषि हमारी अर्थव्यवस्था के बुनियादी पहलुओं में से है। हम कच्चा माल आयात करके और उत्पादों का निर्यात करके मैन्युफैक्चरिंग हब बन सकते हैं पर भारत में व्यापक रूप से मौजूद कच्चे माल का उपयोग करने से बढ़कर कोई बात नहीं है और यह कच्चा माल हमारी कृषि उपज के रूप में मौजूद है। समस्या यह है कि हम इसमें वैल्यू नहीं जोड़ते। अंगूर से बनी वाइन, अंगूर की तुलना में बहुत महंगी बिकती है। इसी तरह दूध की बजाय अच्छे किस्म का चीज़ कई गुना महंगा बिकता है। फिर भी क्यों स्विस चीज़ दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है? यदि हम पश्चिम की तरह श्रेष्ठ लड़ाकू विमान या टेलीकॉम उपकरण न बना सकें तो मैं इसे समझ सकता हूं। लेकिन, हम दुनिया का श्रेष्ठतम चीज़ या जैम क्यों नहीं बना सकते? या अन्य ऑर्गनिक सुपरफूड्स क्यों नहीं बना सकते, जिसकी दुनियाभर में क्रांति आ गई है? एक बेहतरीन कृषि आधारित उद्योग को बहुत अच्छी गुणवत्ता, विश्वस्तरीय पैकेजिंग और बेशक, सही किस्म की मार्केटिंग की जरूरत होती है। इस सबके लिए बुनियादी ढांचे के साथ एक तरह की मानसिकता भी लगती है। हम इस देश में सोना उगा रहे हैं पर हमें यह नहीं पता कि इसे चमकाकर कैसे बेचा जाए। हम साधारण दर्जे पर ही बने रहते हैं, जो विश्वस्तरीय कृषि उत्पादों के लिए पर्याप्त नहीं है। जीडीपी वृद्धि पर इसका असर 1 से 2 फीसदी होगा।
2. अपने सिंगापुर और हांगकांग निर्मित करें : हांगकांग का उदाहरण खासतौर पर प्रासंगिक है। यह विशुद्ध रूप से पूंजीवादी शहर है, जहां दुनिया में उद्योग के सबसे अनुकूल कानून-कायदे हैं। वह चीन का हिस्सा है लेकिन, वहां के कष्टदायक नियम वहां लागू नहीं होते। हालांकि, हांगकांग चीन की आर्थिक वृद्धि में अत्यधिक योगदान देता है। भारत में ऐसा कोई शहर नहीं है, जो पूरी तरह स्वतंत्र हो। राज्य सरकार, म्युनिसिपल संस्थाएं और केंद्र सरकार की संस्थाएं आकर हर शहर का दम घोंट देती हैं। हमें चार नहीं तो कम से कम एक शहर तो ऐसा चाहिए, जो हांगकांग या सिंगापुर की तर्ज पर बना हो। संसद में विशेष कानून बनाकर इन शहरों को बहुत सारी स्वतंत्रता देनी चाहिए। कोई भी सरकार सत्ता में क्यों न आए, ये कानून बदलने नहीं चाहिए। बंदरगाह और ठीक-ठाक बुनियादी ढांचे वाले शहर जैसे विशाखापट्टनम, कोच्चि, पोरबंदर और पुडुचेरी इसके लिए अच्छे दावेदार हैं। जीडीपी पर इसका असर 1 से 2 फीसदी होगा।
3. एयरलाइन और एयरपोर्ट हब : इस प्रोजेक्ट से न सिर्फ बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा होगा बल्कि ऐसा होने के बाद बहुत सारा वैश्विक यातायात भारत से गुजरने लगेगा। इससे व्यापार, पर्यटन और दुनिया से हमारा जुड़ाव बढ़ेगा। इससे भी हमारी वृद्धि दर 1-2 फीसदी बढ़ेगी। जीडीपी वृद्धि के साथ यह ध्यान में रखना होगा कि भविष्य की नौकरियों के लिए भूतकाल की तुलना में हुनर नाटकीय रूप से अलग लगेगा। हमें शिक्षा व्यवस्था को भी नया रूप देना होगा विशेषतया हमें कल की नौकरियों लायक कोर्स शुरू करने होंगे। 20 साल बाद जॉब मार्केट आज की तुलना में बहुत ही अलग होगा, संभवत: इस पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी टेक्नोलॉजी का असर होगा। हम ऐसे कोर्स पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। इसके लिए हमें विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने अनुभव और वक्त के अनुसार ढलने की प्रतिभा के साथ देश में आने देना होगा। इस बीच यदि आप व्यक्तिगत रूप से जॉब संकट का सामना कर रहे हैं तो तत्काल कुछ कदम उठाए जा सकते हैं:
नेटवर्किंग सीखें : खुद को मार्केट करना सीखना होगा। जॉब चाहिए तो ऐसे लोगों के आसपास पहुंचने का तरीका निकाले, जिनके पास आपकी इंडस्ट्री के जॉब हैं। कॉन्फ्रेंसेस में वॉलंटियर बन जाएं, बिज़नेस संबंधी आयोजनों में जाएं और जितने लोगों से संभव हो अकेले में मुलाकात करने का प्रयास करें। टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करें। आपका फोन सिर्फ वीडियो देखने या अपने दोस्तों से बतियाने के लिए नहीं है, इसका इस्तेमाल कॉन्टेक्ट खोजने और ऐसे लोगों से जुड़ने के लिए कीजिए, जो आपको जॉब दे सकते हों।
पालकों से कहें कि शादी पर ज्यादा खर्च न करें : विवाह समारोह चाहे कितना ही अद्भुत क्यों न हो, लोग इसे भूल जाएंगे अथवा आपके रिश्तेदारों में ईर्ष्या पैदा होगी। इसकी बजाय इस पैसे का उपयोग नए स्टार्टअप बिज़नेस में पूंजी के बतौर कीजिए।
दुनियाभर में जॉब मार्केट बदल रहा है और भारत अपवाद नहीं है। हमें अपना जीडीपी तेजी से बढ़ाने और वक्त के मुताबिक शिक्षा प्रणाली को नया रूप देने की जरूरत है। व्यक्तिगत स्तर पर हमें नेटवर्क बनाने के लिए कड़े प्रयास करने होंगे और वह हुनर सीखने होंगे, जो चकमा देते जॉब पाने के लिए जरूरी हैं। आइए, मिलकर जॉब संकट सुलझाने को हम अपना जॉब बना लें !
Date:06-06-19
पर्यावरण को बचाने का लेना होगा संकल्प
प्रदूषण के मसले पर न तो कोई बड़ी बहस होती है और न ही नीति निर्माता इस पर पर्याप्त चिंता करते दिखाई पड़ते हैं। चुनावों में भी ये मुद्दे नदारद रहते हैं।
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी , (लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)
दुनिया भर में आज पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। इस बार पर्यावरण दिवस की थीम वायु प्रदूषण तय की गई है और यह शायद इसलिए है कि दुनिया में वायु प्रदूषण पहले दर्जे के प्रदूषण में पहुंच गया है। पहले हम पानी-मिट्टी-वनों को लेकर चिंतित थे, पर अब बिगड़ती हवा उनसे बड़ी चिंता बन गई है और आज यह सबसे बड़े संकट के रूप में हमारे बीच में है। इसका एक दूसरा बड़ा कारण भी है। पानी तो हम कुछ समय के अंतराल पर पिएंगे और भोजन भी दिन में दो-तीन बार ही लेंगे, मगर सांस लेने के लिए वायु तो हर क्षण चाहिए। इसीलिए हमारे शास्त्रों में इसे जीवन से जोड़कर देखा गया और प्राण वायु की संज्ञा दी गई है। मतलब इसके बिना प्राण संभव नहीं। पर्यावरण के महत्व को समझने और समझाने का इससे बड़ा रास्ता और कोई नहीं हो सकता। मतलब इसके अभाव से बड़ा संकट और कुछ नहीं हो सकता।
हाल ही में प्रकाशित ग्लोबल एयर रपट ने इसका खुलासा किया है। इसके अनुसार दुनिया की 91 प्रतिशत आबादी वाय प्रदूषण से प्रभावित है। अगर ऐसा है तो बहुत सारे सवाल खड़े होने चाहिए। मसलन कारणों की पड़ताल, उपाय और बड़ी रणनीति पर विमर्श होना चाहिए। भारत तो वायु प्रदूषण का और भी बड़ा शिकार है। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों की एक बड़ी संख्या भारत में ही है। वायु मानकों के अनुसार हवा में प्रदूषण कण 80 पीएम के भीतर होने चाहिए, पर देश का शायद ही कोई शहर हो जहां सामान्य रूप से 150 से 200 पीएम तक प्रदूषण न हो। गुड़गांव, गाजियाबाद, फरीदाबाद, नोएडा, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जोधपुर, मुजफ्फरपुर, वाराणसी, मुरादाबाद और आगरा जैसे शहरों की स्थिति तो बहुत ही खराब है। यही हाल दुनिया के और तमाम बड़े शहरों का है।
आज दुनिया जिस विकास की दौड़ लगा रही है उसी में विनाश भी छिपा है। हमने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि हम न तो गर्मी बर्दाश्त कर पा रहे हैं और न ही ठंड। इनसे राहत पाने के लिए हमने जो साधन जुटाए वे और भी घातक सिद्ध हुए। मसलन एसी के ज्यादा उपयोग ने गर्मी-सर्दी को एक नया आयाम दे दिया। अधिक गर्मी के पीछे वायु प्रदूषण है और एसी या अन्य इस तरह की सुविधाएं वातावरण में हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन की मात्रा बढ़ाते हैं जिसका पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे प्रकृति का तापक्रम पर नियंत्रण खत्म हो जाता है फिर गर्मियों के दिन भट्टी की तरह सुलगते हैं और जाड़े फ्रिज की तरह व्यवहार करते हैं।
सड़कों पर गाड़ियों की बढ़ती तादाद भी हवा का मिजाज बिगाड़ रही है। आज लगभग एक अरब 35 करोड़ गाड़ियां दुनिया में धुआं उड़ेल रही हैं और वर्ष 2035 तक ये दो अरब हो जाएंगी। एक सामान्य गाड़ी साल में लगभग 4.7 मीट्रिक टन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित करती है। एक लीटर डीजल की खपत से 2.68 किलो कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है पेट्रोल से यह मात्रा 2.31 किलो है। वहीं तमाम स्वच्छ ईंधनों की उपलब्धता के बावजूद आज भी लकड़ी और गोबर के उपले का इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि समय के साथ इनके उपयोग में कमी आई है, फिर भी दुनिया की लगभग आधी आबादी यानी 3.6 अरब लोग ऐसे ईंधन का प्रयोग कर रहे हैं। इसके अलावा निर्माण कार्य, पराली व प्लास्टिक को जलाने से भी प्रदूषण बहुत बढ़ा है। इन पर निश्चित रूप से लगाम लगानी होगी।
आज स्थिति यह हो चुकी है कि वायु प्रदूषण दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा रिस्क फैक्टर बन गया है। इसके कारण सांस की बीमारियां, हृदय रोग, फेफड़े के कैंसर और त्वचा जैसे रोग बढ़ रहे हैं। आज तमाम असाध्य बीमारियों की जड़ें वायु प्रदूषण से ही जुड़ी हैं। केवल वर्ष 2017 में ही 30 लाख लोग पीएम 2.5 के चलते काल के गाल में समा गए। इसके दुष्प्रभाव भी भारत और चीन में ही ज्यादा दिख रहे हैं। प्रदूषण के कारण बच्चों में अस्थमा और मानसिक विकार भी उत्पन्न हो रहे हैं।
प्रदूषण समय से पहले ही लोगों की जिंदगियां लील रहा है। प्रदूषण का बढ़ता प्रकोप शायद ही थमे, क्योंकि सुविधा और विलासिता की होड़ थमने वाली नहीं है। इसे तथाकथित विकास का प्रतीक भी मान लिया गया है। अमेरिका ने विलासिता के जो प्रतिमान बनाए हैं बाकी देश भी उन्हें हासिल करने की होड़ कर रहे हैं। ऐसे तथाकथित विकास में ऊर्जा की खपत बढ़ जाती है। इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि दुनिया में 55 फीसद शहरी लोग 70 प्रतिशत ऊर्जा की खपत करते हैं।
विलासिता के नजदीक जाते-जाते हम कब प्रकृति से दूर होते गए, इसका हमें भान भी नहीं रहा। पहले हमने पानी को खोया जिसके विकल्प के रूप में हमने प्यूरीफायर और बोतलबंद पानी का व्यापारिक विकल्प तलाश लिया। आज देश पानी के बड़े संकट से गुजर रहा है। अब बारी हवा की है और अब हवा के डिब्बों का भी प्रचलन शुरू हो गया है। बीजिंग जैसे शहर में अब ऑक्सीजन बॉक्स बिकते हैं, क्योंकि वहां की हवा इस हद तक बदतर हो चुकी है कि कुछ ही घंटों में दमघोंटू स्थितियां पैदा हो जाती हैं। इस शहर में पहाड़ों की हवा बेची जाती है। कमोबेश यही हालात भारत के भी होने जा रहे हैं जहां दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर बसे हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दीवाली के बाद 1500 रुपये प्रति किलो की दर से पहाड़ों की हवा बेची गई।
अवसरवादी व्यावसायिकता ने इन परिस्थितियों का जमकर फायदा उठाया। मतलब अब एयर प्यूरीफायर भी धड़ल्ले से बिकने लगे हैं। दिल्ली में तमाम दफ्तरों की हवा अब प्यूरीफायर ही सुधार रहे हैं। कितनी बड़ी विडंबना है कि जीवन के साधन हवा और पानी दूषित होकर हमें मारने पर उतारू हो रहे हैं। अब स्वस्थ जिंदगी के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। अफसोस की बात है कोई आने वाले कल की तो छोड़िए आज की भी फिक्र करने को भी तैयार नहीं है। यह व्यापक खामोशी बहुत सालती है। प्रदूषण के मसले पर न तो कोई बड़ी बहस होती है और न ही नीति निर्माता इस पर पर्याप्त चिंता करते दिखाई पड़ते हैं। चुनावों में भी ये मुद्दे नदारद रहते हैं। ऐसे में इस पर किसी सरकार को दोष भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि जनता को इसकी परवाह ही नहीं है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो हालात और बिगड़ते जाएंगे। फिर एक दिन ऐसा भी आएगा कि हम आवाज उठाने के लिए ही नहीं बचेंगे, क्योंकि तब तक दुनिया गैर चैंबर बन चुकी होगी। ऐसे में हमें दुनिया और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की खातिर पर्यावरण बचाने का संकल्प लेना ही होगा।
Date:05-06-19
हिंदी के विरोध में नहीं दम
अवधेश कुमार
यह भारत के भाग्य निर्धारण की घड़ी है। नई शिक्षा नीति के लिए गठित विशेषज्ञ समिति ने इसका दस्तावेज मानव संसाधन विकास मंत्री को सौंपा नहीं कि इसकी भाषा संबंधी अनुशंसा को लेकर आग उगलने वाले सामने आ गए। तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के राज्य सभा सांसद तिरु चि सिवा ने चेताया कि केंद्र सरकार ने तमिलनाडु के लोगों पर हिंदी भाषा को थोपने की कोशिश की तो प्रदेश के लोग सड़क पर उतर कर पुरजोर विरोध करेंगे। अभिनेता से राजनेता बने कमल हासन ने कहा कि मैंने कई भाषाओं की फिल्मों में काम किया है, किसी पर भी भाषा थोपी नहीं जानी चाहिए। आश्र्चय है कि ऐसा अभिनेता, जिसे राष्ट्रीय पहचान हिंदी सिनेमा से मिली, राजनीति के संकुचित दायरे में ऐसी प्रतिक्रिया दे रहा है।
भारत जैसी विविध भाषाओं और बोलियों वाले देश में सरकार भाषा थोप नहीं सकती किंतु लंबे अनुभवों के बाद यह तो विचार करना पड़ेगा कि भारतीय ज्ञान की थाती, जिसमें सभी भाषाओं में दुर्लभ ज्ञान भरे हैं, का लाभ पूरे देश को मिले। उससे आत्मविास पाकर कर युवा पीढ़ी दुनिया का मुकाबला कर सके। ज्ञान के क्षेत्र में जो प्रगति हमारे देश में थी, उसे समझने के लिए बच्चों को बचपन से ही भारतीय भाषाओं की शिक्षा देना तो देशहित का सर्वप्रमुख कार्य है। नई शिक्षा नीति के प्रस्ताव में ऐसा क्या है जिसका विरोध हो रहा है? इसमें कहा गया है कि प्री-स्कूल और पहली क्लास में बच्चों को तीन भारतीय भाषाओं के बारे में पढ़ाना चाहिए, जिनमें वे इन्हें बोलना सीखें, इनकी लिपि पहचानें और पढ़ें। तीसरी क्लास तक मातृभाषा में ही लिखें और उसके बाद दो और भारतीय भाषाएं लिखना भी शुरू करें। कोई विदेशी भाषा भी पढ़ना-लिखना चाहे तो यह इन तीन भारतीय भाषाओं के अलावा चौथी भाषा के तौर पर पढ़ाई जाए। नहीं कहा गया कि किसी राज्य की जो मातृभाषा है, उसमें पढ़ाई न हो।
वैसे त्रिभाषा सूत्र आजादी के आंदोलन के दौरान विकसित हुआ था। महात्मा गांधी इसके सबसे बड़े पैरोकार थे। उन्होंने कहा कि हर बच्चे को अनिवार्य रूप से अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा मिलनी चाहिए। उसके साथ उसे अन्य राज्य की एक भाषा सीखनी चाहिए। उनका तो कहना था कि संस्कृत की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। उनका स्पष्ट कहना था कि संपूर्ण भारत की संपर्क भाषा हिंदुस्तानी यानी हिंदी ही हो सकती है। त्रिभाषा सूत्र की भाषा-शिक्षण से संबंधित नीति भारत सरकार द्वारा राज्यों से विचार-विमर्श करके 1968 में स्वीकार की गई थी, लेकिन यह सफल नहीं रही। 1961 में देश के सभी मुख्यमंत्रियों ने मिलकर अपने-अपने राज्य में भाषा सिखाने को लेकर सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें त्रिभाषा-सूत्र उभर कर सामने आया था। पुडुचेरी, तमिलनाडु और त्रिपुरा को छोड़ कर सभी राज्यों ने तीन-भाषा सूत्र को लागू किया। इन राज्यों के स्कूलों में हिंदी, अंग्रेजी और राज्य की आधिकारिक भाषा पढ़ाई जाती है। तमिलनाडु, त्रिपुरा और पुडुचेरी में हिंदी नहीं पढ़ाई जाती। तमिलनाडु में दो-भाषा तमिल और अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम हैं।
पुडुचेरी, तमिलनाडु और त्रिपुरा हिंदी के लिए तैयार नहीं थे और हिंदीभाषी राज्यों ने पाठय़क्रम में दक्षिण भारतीय भाषा को शामिल नहीं किया। नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा को ज्यादा तार्किक, व्यवस्थित और तर्कपूर्ण ढंग से व्याख्यायित किया गया है। नीति दस्तावेज में कहा गया है कि ज्ञान में भारतीय योगदान और ऐतिहासिक संदर्भ को, जहां भी प्रासंगिक होगा, मौजूदा स्कूली सिलेबस और टेक्स्ट-बुक में शामिल किया जाएगा। गणित, एस्ट्रोनॉमी, दशर्न, मनोविज्ञान, योग, आर्किटेक्चर, औषधि के साथ ही शासन, शासन विधि, समाज में भारत के योगदान को शामिल किया जाए। सच कहा जाए तो आजादी के बाद शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चों, किशोरों और युवाओं को भारतीय ज्ञान परंपरा की महानता से परिचित कराने, पारंगत बनाने तथा पश्चिम एवं अंग्रेजी वर्चस्व वाली शिक्षा के कारण अपने देश के बारे में आत्महीनता से निकालने का यह पहला सुसंबद्ध और सुविचारित दस्तावेज है। तमिलनाडु के नेता भूल रहे हैं कि तमिल में ज्ञान की महानतम कृतियां हैं, जिनसे देश तभी परिचित होगा जब वो तमिल जानेगा या तमिल जानने वाले हिंदी पढ़कर उनका अनुवाद कर पाएंगे।
पहले पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाली समिति ने सरकार को रिपोर्ट दी थी। फिर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाली समित ने इसका अध्ययन कर दस्तावेज तैयार किया है। दोनों समितियों के अध्यक्ष दक्षिण भारतीय हैं। अगर सिफारिश कर रहे हैं, तो उसके पीछे पूरे विचार-विमर्श का पुट होगा। एक-दो राज्य अपनी संकीर्ण राजनीति में विरोध करते हैं, उससे आजादी के बाद पहली बार सामने आई भारत के अनुकूल श्रेष्ठतम शिक्षा नीति को लेकर दबाव में नहीं आना चाहिए। मोदी सरकार को संकल्प दिखाना चाहिए। द्रमुक का विरोध हो सकता है, पर यह आजादी के बाद या 65 की तरह नहीं होगा। भारी संख्या में वहां हिंदीभाषी काम कर रहे हैं। हिंदी के अखबार निकलते हैं, और स्टॉल पर बिकते हैं, उनका विरोध नहीं होता। एक समय वहां यह असंभव था। युवाओं में हिंदी सीखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। उन्हें लगता है कि हिंदी जानकर ही वे देश के दूसरे भाग में सहजता से रह सकते हैं। यह प्रवृत्ति दक्षिण के सभी राज्यों में बढ़ रही है। इसलिए पूर्व के समान अंध विरोध की संभावना नहीं है।
भारत की हर भाषा महान है, और सब में ज्ञान के विपुल भंडार है, लेकिन अंग्रेजी को अत्यधिक महत्त्व देने के कारण हमारी पूरी थाती अजायबघर का विषय बन रही है, और पूरी पीढ़ी जड़विहीन। भारत को वाकई स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देखे गए सपने का भारत बनाना है, ज्ञान के क्षेत्र में दुनिया में सवरेपरि बनाना है तो तीन भाषाओं की शिक्षा और उसके माध्यम से भारतीय ज्ञान परंपरा की पढ़ाई होनी ही चाहिए। सरकार के सामने भारत की सभ्यतागत और सांस्कृतिक नियति बदलने की दिशा में कदम उठाने का ऐतिहासिक अवसर है। इसलिए क्षमायाचक की मुद्रा अपनाए बगैर इसे लागू किया जाए। जो राज्य नहीं अपनाते हैं, उनको दबाव में लाने की आवश्यकता भी नहीं है। एक समय जब वहां के लोग देखेंगे कि हम मुख्यधारा से अलग हो रहे हैं, तो अपने-आप इसे स्वीकार करेंगे।
Date:05-06-19
The immediate neighbourhood
SAARC still has the potential to become a platform for South Asian interests and shared growth
Suhasini Haidar
The government has shown its commitment to its strategy of “Neighbourhood First” by inviting the leaders of neighbouring countries for the second time to Prime Minister Narendra Modi’s swearing-in ceremony on May 30. . The focus will continue this week when he makes his first visit in this tenure to the Maldives and Sri Lanka, something that has become tradition for all Indian Prime Ministers.
The obvious difference between Mr. Modi’s invitations to his taking office the first and second time is that in 2014 they went to the leaders of the eight-member South Asian Association for Regional Cooperation (SAARC), while in 2019 they went to leaders of the seven-member Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation (BIMSTEC). BIMSTEC includes five SAARC members (Bangladesh, Bhutan, India, Nepal, Sri Lanka), and Myanmar and Thailand, while leaving SAARC members Afghanistan, Pakistan and the Maldives out, due to the geographical location of the Bay of Bengal.
Subsuming the other
However, to extrapolate from this that BIMSTEC has replaced SAARC, or that the Modi government is in effect building the foundations of BIMSTEC over the grave of SAARC is both illogical and contrary to the founding principles of these organisations. SAARC, as an organisation, reflects the South Asian identity of the countries, historically and contemporarily. This is a naturally made geographical identity. Equally, there is a cultural, linguistic, religious and culinary affinity that defines South Asia. Therefore, just as rivers, climatic conditions flow naturally from one South Asian country to the other, so do the films, poetry, humour, entertainment and food.
As a result, since 1985 when the SAARC charter was signed, the organisation has developed common cause in several fields: agriculture, education, health, climate change, science and technology, transport and environment. Each area has seen modest but sustainable growth in cooperation. For example, from 2010, when the South Asian University began in Delhi, the number of applicants for about 170 seats has more than doubled. SAARC’s biggest failure, however, comes from the political sphere, where mainly due to India-Pakistan tensions, heads of state have met only 18 times in 34 years; it has been five years since the last summit in Kathmandu.
BIMSTEC, on the other hand, is not moored in the identity of the nations that are members. It is essentially a grouping of countries situated around the Bay of Bengal, and began in 1997 (Bhutan and Nepal joined in 2004), a decade after SAARC. The organisation did not even have a secretariat until 2014. While it has made some progress in technical areas, leaders of BIMSTEC nations have held summits just four times in 22 years. With India’s growing frustration over cross-border terrorism emanating from Pakistan, it hopes to build more on BIMSTEC’s potential. But the organisation is unlikely to supplant SAARC for a specific reason.
One of BIMSTEC’s two founding principles is: “Cooperation within BIMSTEC will constitute an addition to and not be a substitute for bilateral, regional or multilateral cooperation involving the Member States.” Its official literature describes it as “a bridge between South and South East Asia” and a “platform for intra-regional cooperation between SAARC and ASEAN [Association of Southeast Asian Nations] members.” It is significant that two of the leaders at Mr. Modi’s swearing-in on Thursday — Nepal Prime Minister K.P. Sharma Oli and Sri Lankan President Maithripala Sirisena — have also emphasised that BIMSTEC would not replace SAARC.
India’s SAARC aversion
What explains the deep resistance to SAARC in India? Terrorism emanating from Pakistan is clearly the biggest stumbling block cited by the government. Mr. Modi cancelled his attendance at the last planned SAARC summit in Islamabad in 2016, after the attack on the Indian Army’s brigade headquarters in Uri. Afghanistan, Bangladesh and Bhutan followed suit.
This principled stand by India, however, doesn’t extend to other organisations such as the Shanghai Cooperation Organisation (SCO), into which India and Pakistan were inducted in 2017. Unlike SAARC, which has never presumed to resolve bilateral issues of its members, the SCO is a security-based regional organisation that is keen to work on conflict resolution in the region; it even organises military exercises between members. It is difficult to reconcile the staunch opposition to attending a SAARC summit where India is at least the largest country, with the acquiescence to the SCO, where Russia and China take the lead. Both Moscow and Beijing have made no secret of their desire to facilitate talks between India and Pakistan, and it remains to be seen how successful they will be when Mr. Modi and Pakistan Prime Minister Imran Khan attend the SCO summit in Bishkek (June 13-14). The SCO summit is hosted by rotation, and is likely to be in either India or Pakistan next year, which would mean that Mr. Modi would either be required host Mr. Khan, or the other way around, something the government has refused to do at SAARC.
Another reason offered by those declaring SAARC becoming defunct is the logjam because of Pakistan’s opposition to connectivity projects such as the Motor Vehicles Agreement (MVA), energy sharing proposals and others such as the South Asia Satellite offered by Mr. Modi. However, such agreements have not made progress in other groupings either: the Bangladesh-Bhutan-India-Nepal (BBIN) grouping has failed to implement the MVA due to opposition from Bhutan, and India has held up for years cross-border power-exchanges that would allow Bhutan and Nepal to freely sell electricity to third countries such as Bangladesh. India has rightfully held Pakistan responsible for holding up the South Asia Free Trade Area agreement and refusing to reciprocate ‘Most Favoured Nation’ (MFN) status to India. After the Pulwama attack this February, India also withdrew MFN status to Pakistan, but New Delhi must admit that in other regional groupings such as the ASEAN-led Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP), it too is accused of stonewalling free trade regimes. In BIMSTEC, one can imagine similar logjams.
Going forward, SAARC could adopt the “ASEAN minus X” formula — members who are unwilling to join the consensus can be allowed to join at a future date, while members who wish to go ahead with connectivity, trade or technology cooperation agreements are not impeded.
Some of the resistance to SAARC has to do with the organisation’s history: Bangladesh’s former military dictator Ziaur Rahman, who was known to be inimical to India, conceived it, and was suspected of trying to constrain India by tying it to its smaller and much less developed neighbours. In the 1990s, when India was beginning to see its role as an economic leader and an Asian power with a claim to a permanent seat at the UN Security Council, the SAARC identity may have seemed irrelevant. Even Pakistan’s elite establishment, which often looks to West Asia, was less than enthusiastic about the SAARC grouping where India would be “big brother”.
However, over time, India began to see the benefits of leading SAARC, where neighbours became force multipliers for India’s power projections. Some such as Bangladesh and Sri Lanka even outstripped India on growth and human development indicators, leading to more opportunities for engagement with them.
For a revival
There remain other possibilities. In a region increasingly targeted by Chinese investment and loans, SAARC could be a common platform to demand more sustainable alternatives for development, or to oppose trade tariffs together, or to demand better terms for South Asian labour around the world. This potential has not yet been explored, nor will it be till SAARC is allowed to progress naturally and the people of South Asia, who make up a quarter of the world’s population, are enabled to fulfil their destiny together.