06-06-2016 (Important News Clippings)
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Date: 06-06-16
पी. चिदंबरम का कॉलम : स्वच्छता अभियान की खामियां
‘स्वच्छ भारत’ या ‘क्लीन इंडिया’ कोई नारा या मजमा नहीं हो सकता। इसे एक आदत बल्कि एक जुनून में बदलना होगा।
‘स्वच्छ भारत’ या ‘क्लीन इंडिया’ कोई नारा या मजमा नहीं हो सकता। इसे एक आदत बल्कि एक जुनून में बदलना होगा। इस योजना के कई कारक हैं, मसलन लोगों का व्यवहार, सामाजिक ढांचा, टेक्नोलॉजी, पैसा, कार्यान्वयन, प्रशासन।निर्मल भारत अभियान, इन्हीं और कई दूसरे कारकों को ध्यान में रखते हुए, खुले में शौच को 2017 तक समाप्त करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था। कार्यान्वयन के शुरुआती महीनों में ही, अपने निर्वाचन क्षेत्र में, इस योजना की खामियां मुझे दिख गर्इं। गांव का सामाजिक ढांचा शिवगंगा मुख्य रूप से ग्रामीण आबादी वाला लोकसभा क्षेत्र है, जिसमें छह सौ सत्ताईस पंचायतें, सोलह टाउन पंचायतें और तीन छोटे शहरी निकाय हैं। वहां अधिसंख्य आबादी गांवों में रहती है। एक पंचायत में औसतन पांच या छह गांव और कुछ पुरवे होते हैं। आमतौर पर गांव में बसावट और पास-पड़ोस जाति के हिसाब से होते हैं। हर जाति-समूह अमूमन औरों से अलग-थलग रहता है। दलित हमेशा अपनी बस्ती में रहते आए हैं। जाति की भावना मुखर रहती है, पर जातिगत टकराव के मौके कम ही आते हैं। गांव के लोगों को गुजारे के लिए साथ रहना और साथ काम करना पड़ता है। कुछ साल पहले तक ज्यादातर गांवों में शौचालय नहीं होते थे। लोग खुले में शौच करते थे। कोई नहीं सोचता था कि खुले में शौच करना गलत, सेहत के लिहाज से नुकसानदेह और शर्मिंदगी का विषय है। इसका सबसे हानिकाकर असर कृमिरोग या आंत के रोग के रूप में बच्चों पर पड़ता है, इससे उनका विकास बाधित होता है। मिट्टी के घरों की जगह पक्के मकान बनने लगे तो कुछ मकानों में शौचालय भी हो गए। शहरों या बड़े शहरों में काम करने वाले ग्रामीण युवा लौटते तो चाहते कि घर में शौचालय हो, लिहाजा इसे बनाने में उन्होंने मदद की। परिवार के अधिकतर सदस्य शौचालय का इस्तेमाल करने लगे। छोटे बच्चों ने वैसा नहीं किया और बहुत-से स्त्रियां व पुरुष खुले में ही शौच करना पसंद करते थे। गांव के सामाजिक ढांचे तथा टेक्नोलॉजी, पैसा, कार्यान्वयन क्षमता व प्रशासन की सीमाओं को देखते हुए सरकार, शौच के संदर्भ में, अपने नागरिकों के व्यवहार को बदलने का उपक्रम कैसे करती है? यह सोचा गया था कि निर्मल भारत अभियान इस सवाल का जवाब साबित होगा। पर वैसा नहीं हुआ। इस अभियान के तहत बनाए गए शौचालयों में तीस फीसद अनुपयोगी रहे। स्वच्छ भारत अभियान भी संबंधित सवालों के जवाब नहीं दे पाया है। सबसिडी आधारित मॉडल शौचालयों की कमी की समस्या के दो समाधान हैं- निजी (घरेलू) शौचालय या सामुदायिक (सार्वजनिक) शौचालय। दोनों की हकीकत देखें। घरेलू शौचालय निकासी-व्यवस्था से जुड़ा हुआ नहीं हो सकता है, क्योंकि गांव में ऐसी व्यवस्था अमूमन नहीं होती। लिहाजा, शौचालय को गड्ढे से जोड़ना जरूरी हो जाता है। गड्ढे को समय-समय पर खाली करना पड़ता है। आमतौर पर शौचालय में पानी का नल नहीं होता, इसलिए पानी वहां ले जाना पड़ता है। अगर पानी की कमी हो या पानी दूर से लाना पड़े तो कम लोग ही शौचालय का इस्तेमाल करेंगे। अगर बच्चों समेत पूरा परिवार शौचालय का इस्तेमाल करे, तो रोजाना उसकी सफाई आवश्यक होगी, फिर और भी पानी की जरूरत पड़ेगी। विकल्प है सामुदायिक (सार्वजनिक) शौचालय। मगर इसे गांव के लिए बनाने से पहले निम्नलिखित सवालों पर जरूर विचार किया जाना चाहिए: 1. सार्वजनिक शौचालय केवल सरकारी या अधिग्रहीत की गई जमीन पर बनाया जा सकता है। अगर वह स्थान किसी बसावट के बीच में है, तो क्या सभी जाति-समूहों की रोजाना की पहुंच में है? 2. अगर सार्वजनिक शौचालय दलित बस्ती में या उसके आसपास बना हो, तो क्या दूसरे जाति-समूह उसका इस्तेमाल करेंगे? 3. चूंकि सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल हर समय होता रहेगा, ऐसे में चौबीसों घंटे पानी की सप्लाई ग्राम पंचायत कैसे सुनिश्चित करेगी? 4. सार्वजनिक शौचालय को साफ रखने की जिम्मेदारी ग्राम पंचायत पर होगी, पर इस मकसद के लिए पंचायत किसको काम पर लगाएगी? इसका जवाब इक्कीसवीं सदी के भारत की एक ऐसी हकीकत है जिसे बयान करना मुश्किल है, और जवाब आप जानते हैं। गांवों में सार्वजनिक शौचालयों की सफाई का काम करने के लिए बहुत कम लोग तैयार होंगे। 5. सार्वजनिक शौचालय के इस्तेमाल के एवज में पैसा लिया जाए, या यह मुफ्त हो? तमिलनाडु में सरकारों ने गांवों में सार्वजनिक शौचालय बनाने की योजना चलाई। मैंने पाया कि ऐसे अधिकतर शौचालय एकदम उपेक्षित, बिना इस्तेमाल के थे या उनका इस्तेमाल जानवर बांधने या दारू व जुए के अड््डे के तौर पर हो रहा था। हैरानी का विषय नहीं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के एक सर्वे के इन तथ्यों को पढ़ कर मुझे तनिक ताज्जुब नहीं हुआ कि 2013-14 से लगभग 2.40 करोड़ घरेलू शौचालय बनाए गए हैं, पर 8.60 करोड़ शौचालय अभी बनाए जाने बाकी हैं। ग्रामीण भारत में सत्तावन फीसद शौचालय बगैर पानी की सुविधा के हैं। फिर, इनमें से चौवालीस फीसद शौचालय जल-मल निकासी की सुविधा से रहित हैं और ‘यह माना जा सकता है कि उन घरों में रहने वाले उन शौचालयों का इस्तेमाल नहीं करते होंगे।’ जो शौचालय जल-मल निकासी की ‘व्यवस्था’ से जुड़े थे वहां इसकी परिणति किसी स्थानीय तालाब, नाले या नदी में गंदगी गिराने में होती थी! शौचालय-निर्माण कार्यक्रम को तीन क्षेत्रों में निवेश की जरूरत है- सूचना, शिक्षा और संचार में। पर जो धन मुहैया कराया गया वह बहुत कम है (इस कार्यक्रम का महज आठ फीसद)। सबसिडी आधारित मॉडल की तीखी आलोचना हुई है। बांग्लादेश ने समुदाय आश्रित समग्र स्वच्छता (सीएलटीएस) मॉडल अपनाया है और शानदार नतीजे हासिल किए हैं। अगर भारत को खुले में शौच की आदत या प्रवृत्ति को 2019 तक समाप्त करना है तो उसे अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। निर्मल भारत अभियान अपने लक्ष्य तक पहुंचने में नाकाम रहा, पर कम से कम, यह जनसंपर्क की कवायद में तो नहीं बदला। स्वच्छ भारत अभियान अब तक एक मजमा ही रहा है, जो मजमों के सिलसिले की एक कड़ी ही जान पड़ता है। इतने माहिर मजमा-प्रबंधक बहुत मुद््दत बाद देश ने देखे हैं।
Date: 06-06-16
भारत की ब्लैक इकोनॉमी 30 लाख करोड़, थाईलैंड-अर्जेंटीना की GDP से ज्यादा…
– अब काली कमाई से सोना लेने में काफी मुश्किलें हैं।
– हालांकि इसकी और वजहें भी हैं। जमीन, रियल एस्टेट और सोने की कीमतों में गिरावट को भी एक कारण बताया जा रहा है।
– हालांकि सख्ती की वजह से कैश का प्रेफरेंस बढ़ा है और फॉर्मल बैंकिंग में गिरावट आई। बैंकिंग में आई गिरावट का असर डिपॉजिट्स पर पड़ा है।
Date: 06-06-16
नई ऊंचाई पर विदेश नीति
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता में अपने दो साल पूरे किए हैं। इन दो सालों में उन्होंने विशेष रूप से विदेश नीति के मामलों में व्यक्तिगत रुचि दिखाई है और तीसरे साल के आरंभ में ही शनिवार से उनकी पांच देशों की पांच दिनी यात्रा भी आरंभ हो गई। इस दौरान वह सबसे पहले अफगानिस्तान के महत्वपूर्ण दौरे पर पहुंचे। छह महीने में यह मोदी की दूसरी अफगानिस्तान यात्रा है। रविवार को प्रधानमंत्री कतर में होंगे और इसके बाद स्विट्जरजैंड, अमेरिका और मैक्सिको की यात्रा करेंगे। अफगानिस्तान और कतर में कुछ बुनियादी अंतर है। कतर की गिनती जहां प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से दुनिया के सबसे धनवान देशों में होती है वहीं अफगानिस्तान निर्धन देशों में शुमार है। यद्यपि क्षेत्रीय संदर्भ में दोनों देश व्यक्तिगत रूप से खासा मायने रखते हैं। दोनों का इस्लामिक कट्टरता या आतंकवाद से जटिल संबंध है। खासकर तालिबान भारत के लिए नया खतरा बनने को आतुर है। प्रधानमंत्री मोदी अफगानिस्तान ऐसे समय में पहुंचे जब युद्धग्रस्त देश के सुरक्षाकर्मियों पर नए सिरे से तालिबान हमले का खतरा मंडरा रहा है। गत हफ्ते हेलमंड प्रांत में पचास से अधिक पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गई थी। यह हमला उस समय हुआ जब पुलिसकर्मी ड्यूटी से लौट रहे थे। कुछ हमलावर बुर्का पहने हुए थे।
हाल ही में अमेरिकी ड्रोन हमले में तालिबान नेता मुल्ला मंसूर की मौत हो गई, जिसके बाद से तालिबान में काफी उथल-पुथल मची हुई है। तालिबान के नए नेता के रूप में सिराजुद्दीन हक्कानी का भी नाम सामने आया है। कतर ने तालिबान को अरब महाद्वीप में कार्यालय खोलने के लिए उत्साहित करने में सक्रिय भूमिका निभाई है। इसके साथ ही वह अफगानिस्तान के अंदर कुछ गुटों के लिए विश्वसनीय मददगार की भूमिका में भी नजर आता रहा है। इस प्रकार दिल्ली के लिए कतर-तालिबान कनेक्शन एक अवसर है जो कुछ गैर-पाकिस्तानी संभावनाएं उपलब्ध कराता है। बहरहाल शनिवार को सारा ध्यान हेरात प्रांत में फिर से बनाए गए सलमा बांध के उद्घाटन पर रहा। इस बांध का उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने संयुक्त रूप से किया। इस बांध को भारत-अफगानिस्तान की मित्रता का बांध कहा जा रहा है। यह बांध भारतीय मदद से वहां हो रहे ढांचागत विकास का एक बड़ा सुबूत है। भारतीय कर्मियों ने अपने अफगानी सहयोगियों के साथ इस परियोजना को पूरा करने में कठिन परिस्थितियों का सामना किया है। याद होगा कि गत साल दिसंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय मदद से काबुल में बने संसद भवन को अफगानी नागरिकों को सौंपा था। यह संसद भवन युद्ध और कट्टरपंथी हिंसा से सहमी आबादी की आकांक्षाओं का प्रतीक है।
अफगान चुनाव बहुत ही कठिन परिस्थितियों में संपन्न हुए। ये चुनाव स्थानीय तालिबान की धमकियों के बावजूद लोकतंत्र की जड़ों की मजबूती के लिए साहसी अफगानी नागरिकों की प्रतिबद्धता और संकल्प की गवाही देते हैं। हेरात में सलमा बांध के पुनर्निर्माण में 275 करोड़ अमेरिकी डॉलर की लागत आई है। यह भारत के दो अरब रुपये के राहत पैकेज का ही एक हिस्सा है। जरांग-देलाराम सड़क कोरिडोर जो कि अफगानिस्तान को ईरान के चाबहार से जोड़ देगा और पावर ट्रांसमिशन लाइन दूसरी महत्वपूर्ण परियोजनाएं हैं। तालिबान के साये में घिरे अफगानिस्तान में ऐसी परियोजनाओं को पूरा करना आसान नहीं है। जिस किसी ने भी निर्माण स्थल का दौरा किया होगा वह इससे पूरी तरह परिचित होगा। हालांकि इन प्रमुख परियोजनाओं का समय पर समापन होने से विदेशों में भारत की विश्वसनीयता भी उजागर होती है। हालांकि निकट भविष्य में अफगानिस्तान की परिस्थितियां सुधरने की संभावना नहीं है और इसका मुख्य कारण बाहरी तत्वों की बढ़ती नकारात्मक भूमिका है।
पाकिस्तान द्वारा अफगानिस्तान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे समूहों को समर्थन देना सबसे बड़ी बाधा है। इसके अलावा अमेरिकी नेतृत्व वाले दाता देशों का दोहरा रवैया, क्षेत्रीय सामरिक राजनीति द्वारा पैदा की गई विकट कट्टरता, मादक पदार्थों के सेवन और सामाजिक-आर्थिक विरासत के नाम पर आदिवासियों और महिलाओं के खिलाफ चली आ रही मूल परंपराएं जैसे दूसरे कारक अफगानिस्तान की समस्या को और बढ़ा रहे हैं। अफगानिस्तान के लोगों को ये तमाम संरचनात्मक बाधाएं एक न एक दिन स्वयं ही खत्म करनी होंगी और भारत जैसे दोस्ताना संबंध रखने वाले देश उन्हें सिर्फ इसमें मदद कर सकते हैं। इस संबंध में भारत की प्रतिबद्धता संसद, बांधों, पावर प्रोजेक्ट, अस्पतालों के निर्माण, शिक्षा से जुड़ी स्कीमें चलाने (जिसके तहत दिल्ली द्वारा हर साल अफगान छात्रों को एक हजार छात्रवृत्ति दी जाती है) और सीमित सैन्य प्रशिक्षण से उजागर होती है। भारत को यह विचार करना होगा कि रावलपिंडी यानी पाकिस्तानी सेना के विरोध के बीच वह कितने अच्छे तरीके से राजनीतिक स्थितियों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकता है? इस मामले में कुछ ऐसे सुझाव भी दिए गए हैं कि अतीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले तेहरान और मास्को को नई दिल्ली के साथ परिदृश्य में लाया जा सकता है। यही वह विषय है जिसके कारण मोदी की कतर यात्रा बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। कतर अरब का एक विशेष देश है, जिसके पास हाईड्रोकार्बन का बड़ा भंडार है। यह भारत की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति करता है। इस देश की आबादी सिर्फ 20 लाख है, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कतर ने मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे गैर-सरकारी समूहों का खुलकर पक्ष लिया है। उसने तालिबान को अपने यहां दफ्तर खोलने के लिए कूटनीतिक समर्थन दिया और शांतिवार्ता के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराईं।
भारत की पश्चिम एशिया नीति को नए सिरे से निर्धारित करने की जरूरत है। इसमें कुछ ऐसा भाव होना चाहिए जिससे यह प्रतीत हो कि भारत पश्चिम एशिया से सीधे संपर्क करने के लिए तैयार है और टिकाऊ उच्च स्तरीय राजनीतिक निवेश का इरादा रखता है। यह कुछ इसी प्रकार होना चाहिए जैसे भारत ने एक्ट ईस्ट पालिसी अपना रखी है। पश्चिम एशिया का इलाका भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है-न केवल इसलिए कि ऊर्जा की ज्यादातर आपूर्ति यहीं से होती है, बल्कि इसलिए भी कि एक बड़ी संख्या में भारतीय यहां रहते हैं। इस क्षेत्र के सामरिक समीकरण ईरान की मुख्यधारा में वापसी के बाद धीरे-धीरे बदल रहे हैं। ईरान और सऊदी अरब के अतिरिक्त इजरायल के साथ संपर्क रखते हुए भारत को अपनी राष्ट्रीय हित संबंधी बाध्यताओं को सतर्कता से संतुलित करना होगा। मोदी ने विदेश नीति पर जिस तरह लगातार ध्यान दिया है और अपनी ऊर्जा खपाई है उसकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन हमेशा की तरह सबसे बड़ी चुनौती अपनी कथनी को करनी में तब्दील करने की है।
[ लेखक सी. उदय भाष्कर, इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस के निदेशक रहे हैं ]
Date: 04-06-16
Drawing Kabul into a closer embrace
India’s policy of deepening its engagement in the post-Taliban Afghanistan through economic reconstruction will mark a milestone when Prime Minister Narendra Modi inaugurates a dam built with Indian aid in Herat province. The 42 MW dam, with an investment of over $275 million, will boost the agricultural and industrial sectors of Herat, one of the few success stories in this war-torn country. The project underlines India’s resolve to sharpen its profile in the region. The Herat visit comes close on the heels of a regional corridor agreement Mr. Modi signed with Iranian and Afghan leaders in Tehran, under which India will finance the development of Iran’s Chabahar port, which will be linked to Afghan road networks.
India’s interest in seeing Afghanistan move towards greater peace and prosperity cannot be overstated. . India is one of the closest regional powers that has invested in institution and infrastructure building in Afghanistan. For India, Afghanistan has immense strategic potential. Besides the infrastructure work India has initiated and completed, it has also signed the TAPI pipeline project that aims to bring natural gas from Turkmenistan through Afghanistan and Pakistan to India. More important, a friendly, stable regime in Kabul is geopolitical insurance against Pakistan’s deep state. Both countries share concerns about Pakistan’s good-terrorist-bad-terrorist nuancing. Afghanistan is currently going through a particularly turbulent transition. The government in Kabul has been stretched in trying to stop Taliban advances over the past few months. President Ashraf Ghani seems to have realised that a complete military victory is improbable. In fact, Mr. Modi goes to Afghanistan at a time when Mr. Ghani is openly targeting Pakistan for supporting the Taliban. This raises the question of whether New Delhi’s engagement should be limited to infrastructure development or whether it should expand its relationship. Lately, India has signalled a small shift in its policy by delivering M-25 attack helicopters to Kabul. But it remains cautious about making larger overtures on security and is wary of being sucked into a never-ending war. Such caution is required. But it should not deter India from playing a bigger role in a country whose stability is vital for its regional ambitions and whose people traditionally count India as a well-meaning friend. As the Chabahar agreement brought together India, Afghanistan and Iran, New Delhi should work to bring together more regional powers invested in Afghanistan’s stability and economic development.
Date: 05-06-16
Out of My Mind: What is the Rajya Sabha for?
The election process to the Rajya Sabha is highly predictable. In most states, parties know how many of their own nominees can be elected.
Written by Meghnad Desai
The scramble is on for nominations to the Rajya Sabha; it presents a strange spectacle. The Rajya Sabha should ideally be the chamber where the federal nature of the Constitution gets its play. Its members should be delegates of the states which they purport to represent. Then the Lok Sabha can be truly a national chamber, its members conveying the messages of the citizens from across the country, leaving the Rajya Sabha to speak for the states. That at least was the intention of the Government of India Act, 1935, where the Council of States was proposed as the chamber where the princely states would send their delegates, while British India was to send elected members to the Lower House. Since the federal parts of the 1935 Act were never implemented, the original Council of States never came about. Yet the term Rajya Sabha was used in the Constitution of independent India.
Date: 06-06-16
Before the pharaohs
Fresh scientific evidence should make us question earlier views about the Indus Valley Civilisation
Written By Nalin Mehta
It often takes outsiders to shake things up. Indian cricket’s first match-fixing scandal, which broke in 1997, was exposed not by sports reporters but by political journalists who wrote the first big cover story on crooked players. In much the same way, a new study funded by an IIT Kharagpur grant which brought together a geologist, a palaeoscientist and physicists from four scientific institutions to work on the excavations of a now-deceased ASI archaeologist, has found that the Indus Valley Civilisation was at least 8,000 years old, and not around 5,000 years old as previously believed.
If their evidence, published in Nature – the world’s most highly-cited interdisciplinary science journal – and using the ‘optically stimulated luminescence’ method on ancient pottery shards, is correct then it substantially pushes back the beginnings of ancient Indian civilisation. It proves that it took root well before the heyday of the pharaohs of Egypt (7000-3000 BC) or the Mesopotamian civilisation (6500-3100 BC) in the valley of the Tigris and Euphrates.
The researchers have also found evidence of a pre-Harappan civilisation that existed for at least a thousand years before this, which may force a global rethink on the generally accepted timelines of so-called ‘cradles of civilisation’.
This is a quantum leap. The scientists are not just shifting a few years here and there. Their claim pushes back the mature phase of the Indus Valley Civilisation (with significant remains in Harappa and Mohenjo Daro in modern Pakistan and Dholavira in Gujarat) from its current dating of 2600-1700 BC to 8000-2000 BC and the pre-Harappan phase to 9000-8000 BC. This demands a fundamental rethink of old assumptions about Indian civilisation’s antiquity and reopens the debate on whether Aryans were the original inhabitants of the Indus Valley Civilisation.
Right from Arya Samaj founder Swami Dayanand Saraswati, to B R Ambedkar who rejected the idea of an ancient Aryan invasion as “absurd”, the Aryan question has been a lightning rod in debates over Indian identity. The Aryan invasion theory originated with William Jones, who postulated in 1786 that Sanskrit and other ancient languages were part of an Indo-European language family which must have had a common source, the subsequent identification in 1816 of a separate Dravidian language family and finally the discovery of the Indus Valley Civilisation by John Marshall in 1924.
The huge gap between the standard historical dating of 1500 BC for Rig Veda (though Bal Gangadhar Tilak used astrological evidence to argue for 4500 BC) and the much older physical remains of the Indus Valley drastically complicated the Indian story. That gap has now grown much wider and the questions it raises are even bigger.
The standard academic view so far, accepted in textbooks, is that Aryans were immigrants to India, entering around 1500 BC. The alternative view – that they were indigenous creators of Harappa and Mohenjo Daro – has often been scorned by traditional academics because this argument is also appropriated by the Hindu right wing.
On current evidence, both theories are inadequate. The standard view itself has changed from a theory of white-skinned Aryan invaders who subjugated dark-skinned locals to a notion of slow Aryan migration and diffusion over centuries. The invader theory was essentially based on a racial reading by colonial scholars like Friedrich Max Mueller, who thought the Rig Veda used racial terms for Aryans as having beautiful noses (susipra); and depicted their enemies, dasas, as nose-less or bull-nosed (vrsasipra). Language experts later showed this was a wrong reading.
Circumstantial evidence on which the Vedic “Indra stood accused” as the destroyer of Harappa simply because the archaeologist Mortimer Wheeler found a few skeletons there in 1946 and Rig Veda talked of Indra as the destroyer of forts (purandra) was debunked long ago. In 1964, the American George F Dales found that only two Harappan skeletons showed evidence of a massacre.
Just as Galileo changed the centuries old wrong understanding of the earth as the centre of the universe, new evidence should make us question old beliefs. Thomas Trautmann, who used mathematical modelling to date the Arthashastra, has pointed out gaps in both theories. The only reason why the standard one is still considered standard is because it came first and the “burden of proof must be on the shoulders of those who are urging us to abandon the standard view”. This is just semantics. If facts show either idea could be plausible, so be it.
In fact, there are a number of historical continuities such as prototype Shiva figures between Harappans and Aryans and cultural gaps are not as wide as previously thought. Even the absence of the horse, despite silly attempts to fake evidence, may not be unsurmountable. Horse-bones from Surkotda, for example, were identified as such by the late Sandor Bokonyi, one of the world’s leading archaeo-zoologists. We must step away from ideological hardlines of left and right for an objective reassessment.
Why should this matter? Whether Indians were the world’s first civilised nation or whether Aryans were indigenous is, of course, irrelevant to modern challenges. It does nothing for those struggling with drought or mired in deep poverty. The past may be irrelevant as a guide to the present. Yet the past has always cast a shadow on Indian politics, from Jyotiba Phule who argued that adivasis were the original Indians to the Ramjanmabhoomi movement today. To the extent that myth making remains a political pastime, it matters. Relying on received wisdoms is self-defeating.
Date: 06-06-16
Choppy waters: Looking to voice Indian interests, Modi circumambulates the globe
Prime Minister Narendra Modi’s ongoing five-nation tour of Afghanistan, Qatar, Switzerland, US and Mexico again exemplifies the robust foreign policy approach that New Delhi has adopted in the last two years. Starting with Afghanistan, Modi along with Afghan President Ashraf Ghani inaugurated the India-built Rs 1,700 crore Salma Dam – rechristened Afghan-India Friendship Dam – in Herat province, designed to irrigate 75,000 hectares of land and generate 42 MW of power. In order to be a functioning society and polity, Afghanistan needs to wean itself off foreign aid. Indian-sponsored infrastructure projects such as the Salma Dam aim to move the Afghan economy towards being self-sustaining, which will help everyone in the region.
There is no reason, therefore, for Islamabad to look askance at such efforts. In fact, rather than viewing Afghanistan through the narrow and foolish perspective of ‘strategic depth’, the tough task of rebuilding Afghanistan should be seen as an opportunity to establish a template of India-Pakistan cooperation, which can then be extended to other issues. Meanwhile, Modi’s visit to the US may be seen by critics to be a waste. It’s his fourth in two years, and Obama is a lame-duck president on his way out.
However, Modi’s upcoming address to a joint session of US Congress is significant as Congress plays a durable role in the US polity regardless of the coming and going of presidents. Protectionist fever is high in the US, which often translates into a search for means of blocking exports from India, particularly services exports. And other developed nations often take their cue from the US. Countering the many myths that are put out about India – ‘job stealers’ is the dominant trope here – will require a process of constant engagement with power brokers in the US whoever they may happen to be at the moment.
The immediate issue at hand is India’s membership of the Nuclear Suppliers Group (NSG). This is also where Modi’s visits to Switzerland and Mexico – two countries that have been reluctant on India’s NSG membership – come in. Modi will aim to convince the Swiss and Mexicans about India’s spotless non-proliferation track record and need for nuclear technology to achieve the dual aims of economic development and fighting global warming. Moreover getting Swiss and Mexican support is crucial to isolating – and ultimately convincing – Beijing on the issue. Hopefully, Modi’s energetic diplomatic overtures will bear fruit for India.
Date: 06-06-16
The weird future: Elon Musk, Jeff Bezos offer up extraordinary visions of the impact of technology
We are said to be headed towards a wired future. But that could equally be a weird future, going by what some tech entrepreneurs and artificial intelligence visionaries are saying about it. It’s going to get a lot weirder than self-driving smart cars. Elon Musk, who co-founded Paypal and started the Tesla electric car company – and thus has a track record of delivering on ambitious projects – also set up the SpaceX company, whose ultimate goal is to colonise Mars. He’s just announced, at this year’s Code Conference in Los Angeles, plans to send the first manned mission to Mars as early as 2024. Moreover cargo flights to Mars are also planned every two years, keeping in mind that a habitation on Mars will require regular supplies from earth.
Musk says he’s doing this to preserve humanity, since possibilities of a calamitous event that destroys human civilisation on earth – thanks to runaway advances in technology – are high. Perhaps we have a foretaste of this already when the Louvre museum packs up its treasures of human art and locks its doors due to floods in Paris, an event that has been linked to the pumping of greenhouse gases into the air that disrupt the earth’s climate. Amazon CEO Jeff Bezos comes at the same issue from the opposite end. He says heavy industry is too polluting and will need to be relocated to outer space to preserve the earth.
There is also the spectre of singularity, the point at which machines become so intelligent that humans are rendered superfluous. To head this off, according to Musk, we will need to add an artificial intelligence layer to the human brain itself. The future, it appears, is cyborg. We will all be Superman, or bust.