06-03-2018 (Important News Clippings)

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06 Mar 2018
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Date:06-03-18

Rationalise, Then Privatise

Else public sector banks will continue to be a bottomless hole for taxpayer’s money

Rashesh Shah, [The writer is President of FICCI]

Ever since the Indian government nationalised the Imperial Bank of India in 1955 and re-christened it State Bank of India, public sector banks (PSBs) have continued to be of immense systemic importance. This was further reinforced during the nationalisation of banks in 1969 and again in 1980.However, as with other sectors of the economy, privatisation in the banking sector came in the early 1990s and created a new breed of financial institutions which changed the face of banking in India. Not only did these private sector banks introduce newer paradigms around customer service, technology and so on, they also forced the PSBs to match up to these standards to compete in the marketplace.

Today, despite their shrinking market share, PSBs continue to be very important for the economy, particularly one like India. With their widespread and far-reaching network, PSBs are the only source of financial connectivity for large swathes of the population, mobilising deposits as well as providing credit for productive sectors. These banks have been the backbone of the financial social agenda for the government, including being the frontrunners for Jan Dhan Yojana. In any particular rural area, the role of a PSB is not confined to banking but encompasses a more holistic developmental agenda. They are the one-stop shop for all financial needs of the local rural populace including insurance, financial literacy, remittance amongst others. The strong uptake of payment banks licences indicates the vast unmet demand that still exists in India’s rural areas and provides a significant opportunity for PSBs to capture this. Clearly, the importance of PSBs in India even today cannot be belittled.

While the importance of sustaining and running PSBs cannot be understated, the accompanying drain on resources does make it important to consider the other side as well. As per some estimates, the government has infused close to Rs 1.5 lakh crore in PSU banks in the last 30 years with a plan to further infuse Rs 2.1 lakh crore in the current recapitalisation exercise. Clearly, the cost has ballooned significantly, even exceeding the value of the stake that the government owns in these banks! This has been a huge drain on the resources of the exchequer and the taxpayer – money which could have been utilised towards social programmes like the National Healthcare Policy announced in the last Union Budget.

It is also important to understand that the monetary cost is just one aspect of the story. The oversight required for the large number of PSBs often makes them unwieldy to manage and govern. The bandwidth cost associated with their management puts a significant restriction on the ability of the government to establish effective risk management controls and frameworks, creating the possibility of leakages which can be seen in the recent issues revolving around frauds in PSBs. Without a doubt, sustaining such a large number of PSBs is not a worthwhile proposition going forward.Several PSBs today are sub-scale and put significant additional strain on the government machinery. Consolidation of these will not only make government oversight much easier, it will also help induce economies of scale as these combined entities attain a sustainable size. The government should consider the possibility of keeping four to five good PSU banks with significant size. Other banks can then be gradually merged into these “anchor banks” or privatised, as may be appropriate.

This can be done over a period of time with a well-defined plan to ensure that the interests of all stakeholders, including clients, employees, shareholders and the nation at large are well represented. Even partial privatisation, like in the case of Axis Bank where the government still owns around 10% share through SUUTI and a further 15% through government-owned insurance companies can be an important step to start with. The government can then divest this gradually and exit the investment completely. Alternatively, the government can also consider retaining the stake to benefit from potential upside as improved oversight and governance help turn the banks around and make them an attractive proposition for investors.

The Indian economy needs a strong banking system to continue and expand on the current growth trajectory. PSBs will play a significant role in this. Mahatma Gandhi once said, “The future of India lies in its villages.” As the bulwark of financial services available to India’s rural masses, PSBs will form the backbone of the growth emanating from India’s villages.

However, to be truly effective and to be able to maximise their ability to influence this growth, it is important to embark on this journey of consolidation and privatisation. The government is targeting an acceleration in the growth rate to 8-9%, possibly even touching 10%. A focussed approach towards public sector banking is non-negotiable to achieving this target. While it would be a difficult decision to undertake, the government has till now been ready to bite the bullet on hard decisions. Be it GST, RERA or demonetisation, the government has put long term benefits ahead of short term discomfort. A similar approach towards banking will help create a more vibrant and effective banking system in the country.


Date:06-03-18

निरंतरता जरूरी

संपादकीय

नीरव मोदी और पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी) के घोटाले और उसकी आलोचना के बीच केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार के विरोध में कुछ खास कदमों की शुरुआत कर दी है। गत गुुरुवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भगोड़ा आर्थिक अपराधी (एफईओ) विधेयक को मंजूरी दे दी। इसका लक्ष्य है उन लोगों की संपत्ति जब्त करना जो एक अरब रुपये से अधिक की धोखाधड़ी के आरोप के बाद पुलिस या अदालती समन से बचते हैं। विधेयक में एक विशेष अदालत के गठन का प्रस्ताव रखा गया है जो ऐसे कथित धोखेबाजों को आर्थिक अपराधी घोषित कर सके। इससे इनकी संपत्ति जब्त करने, उसका निपटान करने में आसानी होगी।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह दलील भी दी कि अगले कदम के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता होगी ताकि विदेशों में एकत्रित की गई संपत्ति बरामद की जा सके। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इसके लिए क्या व्यवस्था बनाई जाएगी। कुछ अहम नियामकीय कदमों को भी मंजूरी दी गई। मिसाल के तौर पर राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण (एनएफआरए) का निर्माण जो सनदी लेखाकारों का नियमन करेगा। एनएफआरए का विचार सन 2013 में पारित कंपनी अधिनियम से आया है इसलिए किसी कानूनी बदलाव की आवश्यकता नहीं है। आखिर में सरकार ने भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए केंद्र के स्तर पर लोकपाल के गठन की प्रक्रिया भी शुरू करने की बात कही है। भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता पांच साल से भी अधिक समय से इसकी मांग करते रहे हैं।

बीते 10 दिनों में सरकार ने भ्रष्टाचार के विरोध में और धोखाधड़ी रोकने के लिए व्यवस्था बनाने में जो सक्रियता दिखाई है वह सराहनीय है। बहरहाल, अभी भी कुछ कमियां हैं जिन्हें दूर करना आवश्यक है। एफईओ विधेयक को लेकर अब जो सक्रियता है वह सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसी है। मौजूदा मामलों में आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्यर्पण के लिए अनुरोध किया जाए और बाकी कानूनी कदम उठाए जाएं।

उदाहरण के लिए भगोड़े शराब कारोबारी विजय माल्या के खिलाफ प्रत्यर्पण के मामले में हम मजबूती से दलीलें पेश कर सकते थे। इसी तरह एनएफआरए के बारे में सवाल उठ सकता है कि सरकार ने कंपनी अधिनियम द्वारा इसकी मंजूरी के बावजूद पांच साल प्रतीक्षा क्यों की? हालांकि इसे इस बात की स्वीकारोक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है कि सनदी लेखाकार आत्म नियमन के मामले में अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। बीते दशक के दौरान कई घोटालों के मामलों में अंकेक्षकों का आश्वस्त होना देखा गया है। वैसे भी इस क्षेत्र में किसी तरह का नियमन जरूरी था। कई अन्य अर्थव्यवस्थाएं ऐसी हैं जो लंबे समय से अंकेक्षण जगत के पेशेवरों के आत्मनियमन के साथ ही काम कर रही हैं।

लोकपाल की नियुक्ति के संबंध में पहल तब हुई है जबकि कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने सरकार द्वारा लोकपाल की स्थापना न कर पाने पर सवाल उठाया और सर्वोच्च न्यायालय ने लोकपाल अधिनियम के क्रियान्वयन पर सवाल उठाया। गत सप्ताह सरकार ने नए लोकपाल के गठन के लिए चयन समिति की एक बैठक आयोजित की। बहरहाल, लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने बैठक का बहिष्कार किया और कहा कि उन्हें समिति में विशेष आमंत्रित के रूप में बुलाया जा रहा था, न कि नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में। खडग़े ने कहा कि उन्हें इस पद के लिए प्रस्तावित लोगों के नाम तक मुहैया नहीं कराए गए। इस गतिरोध को सहज तरीके से समाप्त करना आवश्यक है। सरकार को विपक्ष को साथ लेकर चलना होगा। बदले में कांग्रेस को भी तार्किक और सहयोगी भूमिका निभानी होगी।


Date:06-03-18

ज्ञान की ये कैसी अंधी-महंगी दौड़!

गिरीश्वर मिश्र, (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)

भारत में शिक्षा को एक रामबाण औषधि के रूप में हर मर्ज की दवा मान लिया गया और उसके विस्तार की कोशिश शुरू हो गई बिना यह जाने-बूझे कि इसके अनियंत्रित विस्तार के क्या परिणाम होंगे? सामाजिक परिवर्तन की मुहिम शुरू हुई और भारतीय समाज की प्रकृति को देशज दृष्टि से देखे बिना हस्तक्षेप शुरू हो गए। दुर्भाग्य से ये हस्तक्षेप अंग्रेजी उपनिवेश के विस्तार ही साबित हुए हैं। स्मरणीय है कि भारत की इतिहास-पुष्ट नालंदा और तक्षशिला जैसी विश्वस्तरीय शैक्षिक संस्थाओं, गुरुकुलों, विद्यालयों और गांव-गांव में फैले स्कूलों की श्र्ाृंखला वाली समाज-पोषित शिक्षा व्यवस्था को अंग्रेजी शासन द्वारा विधिपूर्वक तहस-नहस किया गया। विकसित ज्ञान क्षेत्रों और उनके उपयोग की सारी व्यवस्था को अंग्रेजों ने अपने हित में परे धकेलकर अपने ही घर में विस्थापित कर दिया। उसमें से अपनी पसंद के रुचिकर ज्ञान को जीवन से काट जड़ बना इतिहास को समर्पित कर संग्रहालय की वस्तु बना दिया। यह भारत में शिक्षा के एक शून्य के निर्माण के लिए हुआ, ताकि सिरे से शिक्षा का एक नया प्रासाद निर्मित हो। इस शून्य को अपने एजेंडे के अनुसार अध्ययन-अध्यापन व्यवस्था से भरा गया, ताकि शिक्षा का ऐसे नव-निर्माण हो कि अंग्रेजी विचार-पद्धति और ज्ञान भारतीय चिंतन और ज्ञान का स्थान ले ले। भारतीय मानस के कायाकल्प की उनकी योजना सफल भी हुई। अंग्रेजी उपनिवेश के दौरान शिक्षा का जो ढांचा लादा गया, वह उपनिवेश उपरांत स्वतंत्र भारत में प्रश्नांकित होने की जगह ठीक ठहराया गया और उसे आंख मूंदकर आत्मसात कर लिया गया।

ऐसा भी नहीं था कि असंगतियों-विसंगतियों पर ध्यान नहीं दिया गया। इनकी समीक्षा के लिए विचार-विमर्श हुआ और राधाकृष्णन व कोठारी आयोगों और राममूर्ति समिति आदि के प्रतिवेदनों के माध्यम से बहुत संस्तुतियां भी हुईं। ऐसे विचार अभी भी जारी हैं, पर अधिकांश ठंडे बस्ते में हैं। ज्ञान में पश्चिमी वर्चस्व बरकरार है। विभिन्न् विषयों में सिद्धांत, अवधारणाएं और विचार पहले यूरोप और बाद में अमेरिका से थोक में आयातित हुए और उन्हीं के खांचे में फिट कर हमने देखना शुरू किया। इस प्रक्रिया में हमारे द्वारा जिस सामाजिक यथार्थ का निर्माण हुआ, वह केवल भ्रम का कारण बना और यथार्थ के साथ न्याय नहीं कर सका। देश और काल की सीमाओं को भुलाकर वैज्ञानिकता के घने आवरण में हमारी आधी-अधूरी समझ ने पश्चिमी ज्ञान को ही सार्वभौमिक ज्ञान का दर्जा दिया। दर्शन, विज्ञान और साहित्य की सारी की सारी भारतीय उपलब्धियां अंधकार में लुप्त होने को अभिशप्त होती चली गईं। हालांकि सरकारी और औपचारिक ज्ञान की श्रेणी से बहिष्कृत होने पर भी लोक जीवन में टूटे, बिखरे और बदले रूपों में उसके अवशेष देखे-सुने जा सकते हैं। योग, संगीत, चित्रकला, आयुर्वेद और आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में उनका बाजार जरूर कुछ चमक रहा है, पर ज्ञान की स्वीकृत परिपाटी में उनकी कोई जगह नहीं है। उनकी स्वीकृति अभी भी दोयम या तीसरे दर्जे की ही है। भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के जुमलों के बीच हमारी अपनी पहचान और अस्मिता का प्रश्न हमारे ही यहां गौण हो चला है।

देशज ज्ञान-परंपराओं को संदिग्ध की श्रेणी में डालकर पश्चिमी ज्ञान को प्रासंगिकता और आधुनिकता के कवच से सजाया गया। उसके वर्चस्व को अभेद्य बनाया। फलत: यहां का शिक्षा-तरु जड़ों से कटता हुआ सूखने लगा। उसकी जगह जो नया पौधा रोपा गया, उसने यहां का जो भी सहज और स्वाभाविक था, उसे खारिज कर दिया। अध्ययन की एक नई चाल में ढली पद्धति को आगे बढ़ाया गया, जिसमें ज्ञान, मूल्य, चरित्र और संस्कृति जैसे केंद्रीय सरोकारों को संबोधित करने की जगह सारी शैक्षिक प्रक्रिया सतही विमर्श तक सिमटती चली गई। ज्ञान के माध्यम का प्रश्न भी गंभीरता से नहीं लिया गया। आज अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण ज्ञान-सृजन में हम पिछड़ते जा रहे हैं, मौलिकता हमसे दूर जा रही है। ज्ञान की दृष्टि से सरकारी नीति में सिर्फ विज्ञान और प्रौद्योगिकी की चिंता ही प्रमुख है। उसी के लिए सुविधाएं जुटाने का संकल्प होता है। समाज के मानस, संस्कृति और जीवन का दायरा बड़ा है और मानविकी, समाज विज्ञान और कलाओं पर ध्यान ही नहीं जा पाता। प्राच्य विद्या और भाषा आदि तो इस क्रम में कहीं आते ही नहीं। ये सब ‘सॉफ्ट विषय हैं और इनका महत्व सिर्फ सजावट के लिए ही होता है।

उच्च शिक्षा की हमारी दिशाहीन कवायद का घातक नतीजा यथास्थितिवाद, अनुकरण और सृजनात्मकता के भीषण ह्रास के रूप में दिख रहा है। इससे निकले छात्र-छात्राओं की लंबी जमात की कुंठाएं जगजाहिर हैं। उनमें से बहुसंख्यक ज्ञान और प्रशिक्षण की दृष्टि से अपरिपक्व हैं और पात्रता नहीं रखते। जीविका के अवसर भी इतने कम हैं कि उसके लिए मारामारी मची है। सारी व्यवस्था को शर्मसार करती आज की स्थिति यह है कि योग्यता से निम्न स्तर के पद के लिए भी हजारों-हजार कहीं अधिक योग्य प्रत्याशियों की भीड़ लगी है। दूसरी ओर तमाम पद खाली भी पड़े हैं, क्योंकि उनके लिए योग्य अभ्यर्थी ही नहीं मिल रहे हैं। उच्च शिक्षा में शामिल हो रही भीड़ का अधिकांश तो सिर्फ जीवन का कुछ समय व्यतीत करता है। शिक्षा उनके लिए ‘टाइम पासहोती है। उनकी मूल रुचि शिक्षा में होती ही नहीं, पर विकल्प के अभाव में वे उच्च शिक्षा संस्थानों में जितने दिन हो सकता है, बने रहते हैं।

व्यवस्था की दृष्टि से आज उच्च शिक्षा संस्थाओं की स्थिति दयनीय होती जा रही है। इक्के-दुक्के संस्थानों को छोड़ दें तो राजनीति के अखाड़े बनते जा रहे शैक्षिक संस्थान अपनी स्वायत्तता खो रहे हैं। राज्याश्रय के कारण वे सरकारी कार्यालय में तब्दील होते जा रहे हैं। चूंकि शिक्षा का मसला शासन की वरीयता में नहीं, इसलिए उनकी समस्याओं को लेकर उदासीनता बनी हुई है और समस्याएं विकराल होती जा रही हैं। अध्यापकों का टोटा पड़ा है और निहित स्वार्थ वाले विश्वविद्यालयों को कार्य ही नहीं करने देते। बड़े-छोटे अनेक विश्वविद्यालयों में स्थायी कुलपति ही नहीं हैं और कामचलाऊ व्यवस्था जारी है। विश्वविद्यालयों की गरिमा घटती जा रही है, जिसमें निरंतर प्रायोजित होते आयोजनों के चलते अध्ययन-अध्यापन बाधित होता है। छुट्टियों के भी इतने प्रकार हैं कि लोग उनका अनुचित लाभ लेकर कार्य में कोताही बरतते हैं। विधिसम्मत छुट्टियों के बाद पढ़ने के अपेक्षित कार्यदिवस ही नहीं बचते। निरंतर उपेक्षा के चलते विश्वविद्यालयों के स्वभाव और उनकी जरूरतों को समझकर जरूरी कदम उठाने में सालों-साल लग रहे हैं। आज ज्ञान के केंद्रों में थकावट आ रही है, सन्न्ाटा पसर रहा है या फिर अर्थहीन कोलाहल की धूम मच रही है। उनके मानक घट रहे हैं, उनकी गुणवत्ता के साथ समझौता हो रहा है। विश्वस्तरीय शिक्षा का स्वप्न देखने के साथ जमीनी सच्चाई का आकलन कर सुधार भी बेहद जरूरी हो गया है।


Date:05-03-18

परिणाम की प्रतिध्वनि

संपादकीय

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव परिणामों से भाजपा का उत्साहित होना स्वाभाविक है। त्रिपुरा की आशातीत सफलता और नगालैंड में बेहतर प्रदर्शन उसके उत्साह का कारण है। मेघालय में कांग्रेस को बहुमत तक न पहुंचने देना भी उसकी रणनीतिक सफलता है।जाहिर है, कांग्रेस और वाम दलों के लिए यह परिणाम किसी आघात से कम नहीं है। कांग्रेस इस बात पर संतोष व्यक्त कर रही है कि मेघालय में वह आज भी सबसे बड़ी पार्टी है।

किंतु उसके विरोधी दलों की इतनी ज्यादा सीटें उसकी पेशानी पर बल डालने के लिए पर्याप्त हैं। त्रिपुरा की शानदार विजय ने माकपा नेतृत्व वाले वामदलों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा उनके गढ़ माने जाते थे। अब उनकी सरकार केवल केरल में है। वामदलों का नेतृत्व करने वाले माकपा को गहरे आत्ममंथन की आवश्यकता है।आखिर जिस भाजपा का त्रिपुरा में नामलेवा नहीं था उसने उसके किले को क्यों ध्वस्त कर दिया? इसे धनबल और बाहुबल का परिणाम बताना जनादेश को प्रकारांतर से अस्वीकार करना ही है।

चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं कर सकता।वास्तव में वामदल ईमानदारी से चुनाव परिणामों की समीक्षा करने को तैयार नहीं हैं। न उन्होंने पश्चिम बंगाल के दुर्ग ढहने की आज तक सही समीक्षा की, न वे त्रिुपरा की कर रहे हैं।जब तक आप ईमानदार समीक्षा नहीं करते, पुनर्गठित होने और चुनावी राजनीति में प्रभावी स्थिति में आने का कोई रोडमैप तैयार हो ही नहीं सकता। इस परिणाम का असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना बिल्कुल स्वाभाविक है। माकपा का इस तरह राजनीति में हाशिए पर जाना भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव डालेगा।

कम-से-कम वे तो इस स्थिति में नहीं हैं कि भाजपा एवं मोदी के खिलाफ किसी सशक्त गठबंधन की पहल कर सकें।दूसरी ओर, कांग्रेस जिस तरह त्रिपुरा एवं नगालैंड में दो प्रतिशत मतों के आसपास सिमट गई है, उसका असर उसके मनोविज्ञान पर पड़ेगा ही। वास्तव में इन परिणामों ने भाजपा विरोधी प्रभावी गठबंधन की संभावना को क्षीण किया है। अगर कांग्रेस जैसी पार्टी चुनावी दुर्दशा का शिकार होती है तो फिर भाजपा एवं मोदी का मुकाबला राष्ट्रीय स्तर पर कौन करेगा; यह इस समय बड़ा सवाल है। भाजपा विरोधी गठजोड़ बनाने की बात बहुत हो रही है, लेकिन प्रदेशों की स्थानीय राजनीति में यह व्यावहारिक शक्ल अख्तियार नहीं कर रहा।


Date:05-03-18

Avoid trade wars

Throwing free trade out of the window will make Americans and everyone else poorer

EDITORIAL

World leaders did well to avoid protectionist trade policies in the aftermath of the Great Recession of 2008. After all, they had learned their lessons from the global trade war of the 1930s which deepened and prolonged the Great Depression, or so it was thought. American President Donald Trump last week announced that his administration would soon impose tariffs on the import of steel and aluminium into the U.S. for an indefinite period of time. The European Union, one of the largest trading partners of the U.S., has since vowed to return the favour through retaliatory measures targeting American exporters. The EU is expected to come out with a list of over 100 items imported from the U.S. that will be subject to scrutiny. For his part, Mr. Trump has justified the decision to impose protective tariffs by citing the U.S.’s huge trade deficit with the rest of the world. He explained his logic in a tweet on Friday which exposed a shocking ignorance of basic economics. He likened his country’s trade deficit to a loss that would be set right by simply stopping trade with the rest of the world. International trade, like trade within the boundaries of any country, however, is not a zero-sum game. So the trade deficit does not represent a country’s loss either, but merely the flip side of a capital account surplus. This is not to deny that there are definitely some losers — for example, the U.S. manufacturing industry which lost out to competition from countries such as China due to increasing globalisation. But throwing free trade out of the window would only make Americans and everyone else poorer.

Despite the global backlash, it is unlikely that Mr. Trump will walk back on his decision, especially given its populist resonance. Steelworkers in key States in the U.S. played a significant role in Mr. Trump’s election win in 2016. In fact, these are the only people who will benefit from the steel and aluminium tariffs while American consumers as a whole will pay higher prices for their goods. Mr. Trump’s desire to appeal to populist sentiment also explains why his protectionist turn comes in the midst of steadily improving economic growth. With Mr. Trump’s tariffs not going down well with the EU, it will be important to see how China and other major trading partners respond to his opening salvo. They can take a leaf out of the books of major global central banks which have shown enough maturity to avoid using currency wars as a means to settle disputes. Instead of retaliating with more tariffs, which could cause the current dispute to spiral into a full-fledged global trade war, the U.S.’s trading partners must try to achieve peace through negotiations.