Trump And Europe: Both sides have legitimate concerns, they must establish a dialogue
European leaders have expressed concern over Trump administration policies – many of which go against deep-rooted assumptions of the Western alliance – when they met at an EU conclave in Malta. British Labour leader Jeremy Corbyn has advocated a path of confrontation by making the inflammatory proposal that President Donald Trump should be barred from his planned visit to the UK unless his administration drops its travel ban on visitors from seven Muslim countries, widely decried as a ‘Muslim ban’. But heads of European countries have wisely ignored such counsel. Instead, they plan to actively engage President Donald Trump while raising their concerns. That is by far the best course of action.
European concerns are multiple. The travel ban can create a generalised hatred of the West in Muslim countries. Moreover Trump has called Nato obsolete, questioned Western sanctions on Russia and turned his back on EU, wishing for its demise. But his policies may well be more nuanced than they look like. For instance, Trump’s defence secretary James Mattis has reaffirmed the importance of Nato and said that nations who thrive are the ones with strong allies.
That, in essence, is the argument that European leaders should be making to Trump, while being open to accommodating Trump’s concerns. It’s interesting that while French President François Hollande is now talking up the “indispensability” of Nato, France stayed out of the alliance for most of its history. So if Trump now argues that European countries should pick up more of the tab for Nato instead of free-riding on US military spending, or that accommodation with Russia would serve everybody’s interest, those arguments must be taken seriously. Once such a dialogue is established it should be possible to talk Trump into dropping his administration’s ‘Muslim ban’, which in any case has been blocked by a federal judge for now.
TOI Editorials
Northeast fires: Frequent subversion of law and order is preventing the region’s development
The violence in Nagaland last week that saw the torching of at least 20 government buildings by tribal organisations once again highlights the weak law and order infrastructure in the country’s Northeast. The agitators were protesting against 33% reservation for women in urban local body elections. They felt that such quotas violated traditional Naga customary rights that are guaranteed by the Constitution. The violence forced the state government to cancel the polls. However, the agitators are now demanding that chief minister TR Zeliang and his entire cabinet step down.
In the same vein, the three-month-old economic blockade in Manipur by Naga groups to protest against the state government’s decision to carve new districts out of Naga-dominated hill areas has caused severe hardship. National Highway-2 is a lifeline of landlocked Manipur, and its frequent blockade by agitating groups creates a massive shortage of essentials in the Imphal Valley region. Although tripartite talks between the Manipur government, Nagas and the Centre have recently yielded a deal to lift the blockade, such pressure tactics that hold the livelihood of ordinary people to ransom are condemnable.
Both the above incidents highlight a fundamental problem with the Northeast that is preventing the region from realising its true development potential. For long stakeholders in the Northeast have complained about being neglected by the rest of India. However, it’s also true that Northeast communities want to preserve their culture and traditional way of life. While this is already guaranteed by the Constitution, using identity as a weapon to attack the state is unacceptable. The Northeast can’t have it both ways – Manipur can’t demand better integration with the rest of India and yet try to prevent outsiders; the Nagas can’t ask for development and yet violently subvert state institutions at the drop of a hat.
Plus, law and order is the basic enabler of development. And only the state can have a monopoly over violence. The refusal of Northeast tribal groups to accept this is at the heart of the problem. Protests should be carried out peacefully. Agitators can seek legal remedies. If law and order is continually subverted, neither will the Northeast attract investments nor will it benefit from serving as a bridge between India and Southeast Asia. Development of the Northeast is crucial for India’s Act East policy. But frequent violence in the region will keep it trapped in backwardness.
TOI Editorials
Date:06-02-17
राजनीति में पारदर्शिता : अभी लंबा सफर तय करना बाकी
राजनीतिक दलोंको मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता के लिए बजट में दो प्रस्ताव किए गए हैं। इसके मुताबिक, कोई भी राजनीतिक पार्टी किसी व्यक्ति से 2,000 रुपए से अधिक कैश में चंदा नहीं ले सकेगी। इससे अधिक चंदा वे सिर्फ चेक या डिजिटल पेमेंट के माध्यम से ही सकेंगी। इसके अलावा बजट में चुनावी बाॅन्ड जारी करने का प्रस्ताव भी किया गया है। ये बाॅन्ड राजनीतिक दलों को गिफ्ट किए जा सकेंगे। पार्टियां अपने अधिकृत खाते में इन्हें जमा कर भुना सकेंगी। इस प्रस्ताव के पीछे आइडिया यह है कि चंदा देने वालों की गोपनीयता बनी रहे और इनका भुगतान भी टैक्स-पेड इनकम से हो।
लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर इनका उपयोग कैसे होगा? मान लें यदि आप भाजपा को 10 लाख रुपए चंदा देना चाहते हैं तो पहले आपको अधिकृत बैंक से यह बॉन्ड खरीदने होंगे। फिर इन्हें आप पार्टी को गिफ्ट कर सकते हैं। पार्टी इन्हें अपने अधिकृत खाते में जमाकर नकदी में बदल सकेगी। चुनावी बॉन्ड सिर्फ चेक और डिजिटल पेमेंट के जरिये अधिकृत बैंकों से ही खरीदे जा सकेंगे। इससे यह सुनिश्चित होगा कि ऐसे चंदे में सफेद धन का ही इस्तेमाल हुआ है। चंदा देने वालों की गोपनीयता बनी रहेगी, लिहाजा पार्टियां चंदा देने वालों में भेदभाव नहीं कर सकेंगी, ही प्रतिद्वंद्वी पार्टी को चंदा देने वालों को निशाना बना सकेंगी।
ये दोनों ही विचार सही दिशा में उठाए गए कदम हैं। लेकिन सिर्फ इन कदमों से राजनीति या चुनावों में कालेधन की समस्या हल नहीं होने वाली। जरा आप नकदी चंदे पर 2,000 रुपए की लिमिट पर विचार करें। फिलहाल यह लिमिट 20,000 रुपए है। ज्यादातर पार्टियां बड़ी मात्रा में चंदा कैश में प्राप्त करती हैं और क्लेम करती हैं कि उन्हें हर गोपनीय दानदाता से चंदे के रूप में 20,000 रुपए मिले हैं। मसलन, मायावती ने यही दावा किया है कि उन्हें चंदा देने वाले हर व्यक्ति से 20,000 रुपए से कम राशि मिली है। भविष्य में किसी भी पार्टी को कोई भी यह क्लेम करने से नहीं रोक पाएगा कि उसे सारा चंदा 2,000 रुपए से कम राशि में मिला है।
पहले एक करोड़ रुपए कैश में मिले चंदे को दिखाने के लिए सिर्फ 500 ऐसे लोगों की जरूरत पड़ती थी जिनमें से हर ने 20,000 रुपए दिए हों। अब जब यह सीमा 2,000 रुपए कर दी गई है तो उन्हें यह बताना होगा कि यह दो-दो हजार रुपए चंदे के रूप में यह राशि 5,000 लोगों से मिली है। एक पार्टी जिसे 200 करोड़ रुपए कैश में चंदा मिला, उसे यह बताना होगा कि यह राशि उसे 10 लाख दानदाताओं से मिली है। यह अविश्वसनीय है, लेकिन कई पार्टियां संभवत: ऐसा ही करेंगी।
चुनावी बाॅन्ड योजना का कोई मतलब नहीं है। इस योजना को लाने का आइडिया यह है कि भुगतान चेक से हो और चंदा देने वाले की गोपनीयता भी बनी रहे। लेकिन इसमें दूसरा पहलू सुनिश्चित नहीं किया जा सकता क्योंकि भुगतान चेक से होगा। मान लें, यदि कोई कंपनी 10 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड खरीदती है और वह इसमें से 7 करोड़ रुपए के बॉन्ड भाजपा को और 3 करोड़ रुपए के बॉन्ड कांग्रेस को देती है। कंपनी द्वारा दिए गए 10 करोड़ रुपए गोपनीय नहीं रह सकते क्योंकि उसे यह राशि अपने खातों में दिखानी होगी। यदि कल कांग्रेस को पता चले कि उसे 10 करोड़ रुपए में से सिर्फ 3 करोड़ ही मिले, तो वह आसानी से अंदाजा लगा सकती है कि बाकी के 7 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड कहां गए होंगे। यदि हम यह मान लें की पार्टी को यह पता चले कि किसे-कितना मिला, लेकिन वह यह जरूर जान सकती है कि उसे बड़ी मात्रा में चंदा नहीं मिला है।
अब दूसरे नजरिये से देखें, चेक से भुगतान अंतत: गोपनीय नहीं रह सकता। इसके अलावा चंदा देने वाले की गोपनीयता रखने से वोटर अंधेरे में रह जाता है। मान लीजिए एक बड़ा उद्योग समूह किसी पार्टी को चंदा देता है। चुनाव के बाद वही पार्टी सत्ता में आती है और वह उस चंदा देने वाले उद्योग समूह को मोटी कमाई वाला बड़ा कान्ट्रैक्ट देती है। चंदा देने और लेने के बीच की यह कड़ी वोटर के सामने नहीं पाएगी। इसलिए ऐसी गोपनीयता पारदर्शिता के लिए ठीक नहीं है। चंदा वोटर की जानकारी में भी आना चाहिए और जो कंपनियां पार्टियों को चंदा देना चाहती हैं उन्हें आगे आकर इसकी जानकारी देनी चाहिए।
राजनीति में पारदर्शिता और अच्छे प्रत्याशी लाने के लिए अभी एक और रिफॉर्म की जरूरत है। यह है चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग की। यदि हम हर लोकसभा चुनाव क्षेत्र के लिए पांच करोड़ रुपए आवंटित करें, और इस राशि को चुनाव में सबसे अधिक वोट पाने वाले तीन टॉप-प्रत्याशियों के बीच बांटें तो लोकसभा की कुल 543 सीटों के लिए सिर्फ 2,700 करोड़ रुपए की जरूरत होगी। आप इसकी तुलना में 20,000 करोड़ रुपए की उस रकम से करें जो हर पांच साल में सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (एमपीलैड्स) के तहत खर्च की जा रही है। इसके तहत लोकसभा और राज्यसभा के हर सदस्य को हर साल 5 करोड़ रुपए मिल रहे हैं। यह सुधार कर चुनाव आयोग सिर्फ पिछले साल के फंड में कटौती कर प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा मुहैया करा सकता है। सरकारी फंडिंग से जहां प्रत्याशियों को कम राशि मिलना सुनिश्चित होगा, वहीं, साफ छवि वाले लोग भी चुनाव लड़ना शुरू करेंगे।
इस तरह हम कह सकते हैं कि बजट के जरिये राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने की शुरुआत हुई है। इस मामले में बजट तारीफ के काबिल है। लेकिन राजनीति में पूरी पारदर्शिता लाने के लिए अभी काफी लंबा सफर तय करना बाकी है।
वीकली इकोनॉमी | आर.जगन्नाथन लेखक आर्थिक मामलों के वरिष्ठ पत्रकार,‘डीएनए’ के एडिटर रह चुके हैं।
Date:06-02-17
मजदूर संगठन और असंगठित क्षेत्र
अगर मजदूर संगठन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को अपने साथ जोड़ते हैं तो यह बात दोनों के परस्पर फायदे की साबित होगी। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं जैमिनी भगवती
हाल में मैंने मैक्सिको मूल के एक मजदूर नेता और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सीजर शावेज के बारे में एक वृत्तचित्र देखा। सन 1950 के दशक में अमेरिका में नैशनल फार्म वर्कर्स एसोसिएशन की स्थापना में उनकी अत्यंत अहम भूमिका थी। सन 1962 में इसका नाम बदलकर यूनाइटेड फार्मर वर्कर्स यूनियन (यूएफडब्ल्यू) हो गया। शावेज को तमाम बाधाओं का सामना करना पड़ा और उनके ‘यस वी कैन (हां हम कर सकते हैं)’ नारे का सफल इस्तेमाल अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने चुनाव प्रचार में किया। शावेज की जिंदगी इस बात की दास्तान है कि कैसे सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों को अमीरों और ताकतवर के लोगों के साथ मोलभाव करके अपनी बेहतरी हासिल करनी है। इस समय देश में करीब 20,000 मजदूर संगठन ट्रेड यूनियन ऐक्ट ऑफ 1926 के अधीन पंजीकृत हैं। हालांकि इस सूची को अद्यतन किए जाने की आवश्यकता है। देश के तमाम हिस्सों में बिखरे पड़े ये छोटे मजदूर संगठन देश के पांच प्रमुख केंद्रीय मजदूर संगठनों से जुड़े हुए हैं।
इन केंद्रीय मजदूर संगठनों का ब्योरा इस प्रकार है। इंडियन नैशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) के 3.3 करोड़ सदस्य हैं और यह कांग्रेस से संबद्घ है। भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के 1.7 करोड़ सदस्य हैं और यह भाजपा से संबद्घ है। आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के 1.4 करोड़ सदस्य हैं और यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य है। हिंद मजदूर संघ एक स्वतंत्र संगठन है जिसके 90 लाख सदस्य हैं। वहीं सेंटर ऑप्ऊ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के 57 लाख सदस्य हैं और यह माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से संबंधित है। इन संगठनों के दावों पर यकीन करें तो इनके कुल सदस्यों में से तकरीबन 90 फीसदी संगठित क्षेत्र से आते हैं जबकि 20 फीसदी असंगठित क्षेत्र से। श्रम आयोग या केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की ओर से इन आंकड़ों की स्वतंत्र पुष्टिï संभव नहीं है। देश के समस्त कामगारों की गिनती करें तो यह आंकड़ा करीब 50 करोड़ है। ऐसे में कहा जा सकता है कि ये आंकड़े बहुत बढ़ाचढ़ाकर नहीं पेश किए गए हैं। देश के समस्त श्रमिकों के प्रतिनिधित्व में उनकी हिस्सेदारी 15 फीसदी की है। यानी हर चार में से एक श्रमिक का प्रतिनिधित्व ये संगठन करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के विश्व आर्थिक पूर्वानुमान के अक्टूबर 2016 के आंकड़ों में भारत से कोई बेरोजगारी आंकड़ा शामिल नहीं किया गया है। ऐसा शायद इसलिए हुआ है क्योंकि हमारे आंकड़े असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का विश्वसनीय प्रतिनिधित्व नहीं करते। चीन में बेरोजगारी का स्तर वर्ष 2015 में चार फीसदी दिखाई गई और कहा गया कि वर्ष 2021 तक यह इसी स्तर पर बरकरार रहेगी। इससे स्पष्टï होता है कि आईएमएफ की नजर में चीन के बेरोजगारी आंकड़े विश्वसनीय हैं।
भारत की प्रति व्यक्ति आय क्रय शक्ति क्षमता के अनुसार भी विकसित देशों की सर्वोच्च आय के दशमांश के बराबर ही है। देश की श्रम शक्ति में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की हिस्सेदारी 90 फीसदी है और उनको पूरी सामाजिक सुरक्षा तक हासिल नहीं है। सन 1974 की रेलवे हड़ताल और सन 1982 की मुंबई कपड़ा क्षेत्र की हड़ताल को संगठित क्षेत्र के मजदूरों और मालिकों के बीच शह और मात का लंबा उदाहरण माना जाता है। संगठित क्षेत्र के मजदूर अन्यथा बेहतर स्थिति में होते हैं और उनकी हड़ताल ने ये सवाल उठाए कि क्या मजदूर संगठनों की ऐसी सक्रियता देश हित में है या नहीं?
पश्चिमी देशों में इन संगठनों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्ता सन 1980 के दशक से तेजी से कम हुई है। उदाहरण के लिए यूनाइटेड किंगडम की प्रधानमंत्री रही मार्गरेट थैचर सन 1983 में कोयला खननकर्मियों का सफल मुकाबला करने में कामयाब रहीं। थैचर की कंजरवेटिव पार्टी ने हड़ताल को कानूनन कठिन बनाकर इन संगठनों को कमजोर कर दिया। टोनी ब्लेयर की सरकार ने भी थैचर के इन निर्णयों में कोई बदलाव नहीं किया। यूनाइटेड किंगडम में इन संगठनों की सदस्यता सन 1979 के 13 करोड़ से घटकर वर्ष 2013 में 60 लाख तक आ गई। अमेरिका में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर ऐंड कांग्रेस ऑफ इंडस्ट्रियल ऑर्गनाइजेशन (एफएल-सीआईओ) मजदूर संगठनों का सबसे बड़ा संगठन है। एएफएल-सीआईओ की सदस्यता भी वर्ष 1983 के 1.77 करोड़ से घटकर वर्ष 2013 में 1.45 करोड़ रह गई। सन 1983 में अमेरिका में किसी संगठन में औसतन 20 फीसदी सदस्य थे जो अब 10 फीसदी रह गए हैं। सन 2013 में फ्रांस में यह सदस्यता 7 प्रतिशत, जर्मनी में 18 प्रतिशत और कनाडा में 27 प्रतिशत थी।
पश्चिमी देशों खासतौर पर पश्चिमी यूरोप में मजदूर संगठन खासे सफल रहे। वे सरकारों को शिक्षा, न्यूनतम मेहनताना, सुरक्षित कार्य परिस्थितियों, बेरोजगारी और स्वास्थ्य भत्ता और पेंशन आदि का लाभ दिलाने में सफल रहे। इससे श्रमिकों के बीच इन संगठनों की जरूरत भी कम होती गई। बहरहाल ब्रेक्सिट वोट और अमेरिका में टं्रप की जीत यह बताती है कि दोनों देशों के कामगार अत्यधिक खिन्न हैं। क्या दुनिया भर में बढ़ती आय और संपत्ति की असमानता ने उनको खिन्न और निराश किया है?
सन 1980 के दशक तक भारतीय मजदूर संगठनों के नेता रोजगार की परिस्थितियों और राजनीतिक-आर्थिक मुद्दों पर जो नजरिया रखते थे वह काफी हद तक मीडिया में नजर आता था। सन 1990 के दशक से इन संगठनों की मोलतोल करने की क्षमता और राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर राय रखने की उनकी क्षमता में लगातार गिरावट आती गई। अब अगर इन मुद्दों पर उनकी कोई राय सामने नहीं आ रही है तो इसकी वजह शायद यह है कि उनके पास राष्ट्रव्यापी समझ वाला नेतृत्त्व नहीं है और न ही उनके नेता अपना नजरिया विश्वासपूर्वक देश के सामने रख पा रहे हैं। एक अन्य वजह यह भी हो सकती है कि वे राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं इसलिए उनमें स्वतंत्र विचारशक्ति लगभग समाप्त हो चली है।
इन प्रमुख मजदूर संगठनों में नेतृत्व का मसला तभी हल होगा जब वे अपने आपको असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए प्रासंंगिक बना सकें। इन कामगारों को भी ऐसे प्रतिबद्घ नेताओं की आवश्यकता है जो उनके लिए जीवन परिस्थितियों को सही बना सकें और उनके अधिकारों के लिए लड़ सकें। आज से 10 साल पहले इन श्रमिकों को शामिल करना मुश्किल हो सकता था लेकिन अब 90 करोड़ आधार कार्ड बन जाने के बाद आसानी से ऐसा किया जा सकता है। अगर ऐसा किया जा सका तो इन संगठनों को अपने सदस्य जोडऩे में मदद मिलेगी और वे असंगठित मजदूरों को भी सदस्य बना सकेंगे। यह बात इन संगठनों के नेताओं और उन राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए भी उल्लेखनीय होगी जिनसे वे संबद्घता रखते हैं। इनकी मदद से वे न केवल दबाव बना सकते हैं बल्कि तत्काल किसी बात पर प्रतिपुष्टिï भी हासिल कर सकते हैं। यह बात इन मजदूरों को सरकार या प्रबंधन के साथ बातचीत में मजबूत बनाएगी।
जल्लीकट्टू के बचाव में सही नहीं देसी नस्लों के संरक्षण की दलील
सुनीता नारायण
चेन्नई के मरीना बीच पर बैलों से जुड़े पारंपरिक खेल जल्लीकट्टू पर लगे प्रतिबंध को हटाने को लेकर विरोध प्रदर्शन चला। अब यह शांत हो चुका है तो वक्त है कि संस्कृति, परंपरा और आधुनिक विश्व में उनके अमल को लेकर गंभीर और व्यापक बहस की जाए। मुझ जैसे पर्यावरणविद के लिए यह एक विवादास्पद और धु्रवीकरण वाला मुद्दा है। इसमें दोराय नहीं है कि पारंपरिक संस्कृतियों में पर्यावरण को लेकर संवेदना का भाव रहा है। लोगों ने प्रकृति के साथ जीना सीखा और उसके संसाधनों को बढ़ाने और जरूरत के वक्त उसे तार्किक ढंग से खर्च करना भी सीखा। यह स्थायित्व भरा उपयोग हमारी परंपराओं, रीति रिवाजों, व्यवहार और मान्यताओं के सहारे हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया। समय बदलता है और उसके साथ ही समाज का रुख और उसकी संवेदनाएं भी बदलती हैं। आखिर परंपराएं कैसे जीवित रहती हैं? क्या उनको बरकरार रहना चाहिए? या फिर हमारा ध्यान उन वजहों को तलाश करने पर लगना चाहिए कि हमने क्या और क्यों किया। हमें उन रीतियों पर ध्यान नहीं देना चाहिए जो अब केवल प्रतीकात्मक बन कर रह गई हैं।
मैं ये प्रश्न उस समय उठा रही हूं जब सारा देश जल्लीकट्टू के रूप में एक नया शब्द सीख रहा है। जल्लीकट्टू की परंपरा तमिल समाज में है। उनका कहना है कि यह स्पेन में होने वाली सांडों की लड़ाई से एकदम अलग है। जल्लीकट्टू में बैलों को मारा नहीं जाता है बल्कि उनकी सींग में बंधे सोने और पैसे को खोलते हुए उनके साथ खेला जाता है। पूरा खेल इस कौशल पर आधारित है कि बैल को काबू में करके उसकी सींग में से पैसे कैसे खोले जाते हैं। यही वजह है कि पशु अधिकार कार्यकर्ता इसे खेल करार देते हैं। उन्होंने इस मसले को केंद्र सरकार के समक्ष उठाया और वर्ष 2011 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बैल को उस सूची में शामिल करा दिया जिसमें शामिल जानवरों का इस्तेमाल प्रशिक्षण या प्रदर्शनी के लिए नहीं किया जा सकता। यह काम पशुओं के साथ क्रूरता अधिनियम 1960 के अधीन किया गया। उनके उत्तराधिकारी प्रकाश जावड़ेकर ने बैल का नाम इस सूची से बाहर करना चाहा लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें हस्तक्षेप किया। मई 2014 में अदालत ने कहा कि जल्लीकट्टू, बैलों की दौड़ और ऐसी तमाम अन्य गतिविधियां जानवरों के प्रति क्रूरता का प्रतीक हैं। उसने इस पर प्रतिबंध जारी रखा।
तब से हर पोंगल (इसी त्योहार के दौरान जल्लीकट्टू का आयोजन किया जाता है) पर इसे लेकर असहमति के सुर तेज होते गए। केंद्र सरकार ने उक्त अधिनियम में बदलाव का वादा करके इस आग को जिंदा रखा। इस वर्ष हजारों युवाओं ने पूरा सोशल मीडिया इससे संबंधित संदेशों से पाट दिया और वे चेन्नई के मरीना बीच और तमिलनाडु के अन्य शहरों में बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आए। इसने राज्य सरकार को कदम उठाने पर मजबूर कर दिया। रातोरात एक अध्यादेश पारित किया गया और उसे कानून बनाकर यह सुनिश्चित किया गया कि यह ग्रामीण खेल चलता रहे। लेकिन एक प्रश्न तो फिर भी बरकरार रहा। क्या यह परंपरा हमारे पर्यावास के लिहाज से अहम है या फिर यह महज एक खूनी खेल है?
इसके हिमायती कहते हैं कि यह केवल राज्य के पारंपरिक कंगायम प्रजाति के बैलों को बचाने का तरीका है। उनका कहना है कि इस खेल के जरिये बैल की शक्ति को प्रदर्शित किया जाता है और इसका चयन संरक्षण के लिए होता है। उनका तो यहां तक कहना है कि अगर इस खेल पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो इस प्रजाति के बैल पालने का ही कोई मतलब नहीं रह जाएगा। ऐसे में इनको मारा जाएगा और बैल और गाय का बिगड़ा हुआ अनुपात और अधिक बिगडऩे लगेगा।
प्रश्न यह है कि क्या हमने इस उद्देश्य को भलीभांति समझा है। इसका उत्तर है नहीं। पहली बात, जरा राज्य सरकार अथवा केंद्र सरकार द्वारा सर्वोच्च अदालत में दी गई दलील को ही सुनते हैं। इस खेल को जारी रखने के लिए दोनों ने केवल संस्कृति और परंपरा का ही हवाला दिया है। कहा यह गया है कि क्रूरता इस खेल का हिस्सा नहीं है और उसे विनियमित और नियंत्रित किया जा सकता है। इसके हिमायतियों ने इस खेल से जुड़े पर्यावासीय पहलुओं का उल्लेख कभी नहीं किया क्योंकि उसके समर्थन में दलील देनी होगी। तथ्यों की बात करें तो आज देश भर में देसी प्रजातियों के पालतू पशु खत्म होने के कगार पर हैं। इनके बचाव, संरक्षण और इनकी नस्ल तैयार करने के पक्ष में तमाम दलीले हैं। वे स्थानीय हैं और उनमें प्रतिकूल पर्यावास को झेलने की क्षमता है। आज देश के पारंपरिक नस्ल वाले पशु दूसरे देशों में समृद्घि की वजह बन रहे हैं। अफ्रीका में साहीवाल नस्ल तैयार हो रही है तो ब्राजील में नेलोर। यहां तक कि अमेरिका में बीफ के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पशु भारतीय ब्राह्मïण नस्ल के हैं। लेकिन हमने जर्सी और होल्स्टीन फ्रीजियन जैसी विदेशी नस्लों को पालना शुरू कर दिया है।
सन 2012 में जारी 19वीं पालतु पशु गणना के आंकड़े बताते हैं कि देसी पशु कम हो रहे हैं। इसके मुताबिक वर्ष 2007 से 2012 के बीच इनमें 19 फीसदी की गिरावट आई जबकि विदेशी नस्ल के पशुओं में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। सन 2003 की जनगणना से तुलना करें तो देसी दुधारू पशुओं में 65 फीसदी गिरावट दर्ज की गई है। तमिलनाडु में भी हालात अलग नहीं हैं। ऐसे में यह कहना सही होगा कि जल्लीकट्टू से देसी नस्लों के बचाव की दलील के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं नजर आता। मेरा मकसद जल्लीकट्टू के खिलाफ दलील देने का नहीं है बल्कि मैं यह कहना चाहती हूं कि अगर परंपरा को सही मायनों में जिंदा रखना है तो इसके हिमायतियों को अपनी कही बातों पर भी अमल करना चाहिए। देसी नस्ल के पशुओं को बचाए रखने और इनकी नस्ल को आगे बढ़ाने के लिए अभी काफी कुछ किया जाना शेष है। ये देश की पशु अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी अहम है। असली बात यही है।
चंदे पर धीमी शुरुआत
संपादकीय
राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता को इस बार के बजट में प्रमुख स्थान देकर सरकार ने उसे चर्चा के केंद्र में लाने का प्रयास किया है। यह सराहनीय पहल है क्योंकि कोई भी सरकार भारत में भ्रष्टचार और काला धन खत्म करने के प्रति गंभीर होने का दावा तब तक नहीं कर सकती है, जब तक वह यह सुनिश्चित न कर दे कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का कामकाज पूरी तरह पारदर्शी होगा। पिछले वर्ष 8 नवंबर को विमुद्रीकरण की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद से पारदर्शिता की ये मांगें और भी मुखर हो गई थीं। उसके बाद के महीनों में सरकार ने ऐसे नियम लागू किए, जिनके तहत आम आदमी को छोटे से छोटे लेनदेन को भी सही और पारदर्शी ठहराने के लिए पहचान का प्रमाण देना पड़ा और अपनी अंगुली पर स्याही तक लगवानी पड़ी। लेकिन सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी के नाम पर लोगों ने ऐसे तमाम कष्ट इस उम्मीद में सह लिए कि आम आदमी पर लागू होने वाले नियमों और राजनीतिक दलों पर लागू होने वाले नियमों में मौजूद अंतर को सरकार जल्द ही पाट देगी। बजट ने इस मामले में स्वागतयोग्य शुरुआत की है, लेकिन प्रावधानों को बारीकी से दखने पर लगता है कि इस अन्यायपूर्ण अंतर को कम करने के लिए सरकार को अभी बहुत कुछ करना होगा।
इस बार के बजट में चुनाव आयोग की सिफारिशों के अनुरूप पहला बदलाव यह किया गया कि अज्ञात स्रोत से राजनीतिक दलों को मिलने वाले अधिकतम नकद चंदे की सीमा 20,000 रुपये से घटाकर 2,000 रुपये कर दी गई। फिलहाल राजनीतिक दलों को 20,000 रुपये से कम के चंदों का ब्योरा नहीं देना पड़ता और यह बात किसी से नहीं छिपी है कि काला धन जमा करने वाले इसका भरपूर दुरुपयोग करते हैं। इस सीमा को घटाकर 2,000 रुपये कर देने भर से कोई सार्थक बदलाव आने की संभावना कम ही है। दूसरी बड़ी घोषणा भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव है। इस संशोधन के बाद चुनावी बॉन्ड जारी किए जा सकेंगे, जिन्हें चंदा देने वाले चेक अथवा डिजिटल भुगतान के जरिये खरीद सकेंगे और राजनीतिक दल उन्हें भुना लेंगे। इससे राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक और तरीका तो लोगों के पास आ जाता है, लेकिन राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता इससे नहीं बढ़ती।
दो अन्य प्रावधान घोषित किए गए हैं। पहला प्रावधान यह है कि राजनीतिक दल चेक अथवा डिजिटल माध्यम से चंदा लेने के अधिकारी होंगे और दूसरा है, दलों को आयकर में छूट पाने के लिए निर्दिष्टï अवधि के भीतर टैक्स रिटर्न भरना होगा। ये दोनों बजट से पहले ही लागू थे। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) द्वारा किया गया विश्लेषण बताता है कि पिछले पांच वित्त वर्षों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ऑडिट रिपोर्ट औसतन 182 दिन देर से निर्वाचन आयोग के पास जमा कराई और कांग्रेस ने औसतन 166 दिनों की लेटलतीफी दिखाई। इतना ही नहीं, सरकार आम आदमी के खातों की छानबीन में जितनी तत्पर दिखती है, बजट में उतनी तत्परता राजनीतिक दलों के वित्तीय स्रोतों की छानबीन का उपाय करने अथवा दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान रखने में नहीं दिखाई गई।
कुल मिलाकर बजट में की गई घोषणाओं से न तो आम आदमी के लिए यह पहेली बूझना आसान हुआ है कि राजनीतिक दलों को रकम कहां से मिलती है और न ही उनसे दलों के लिए अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करना अनिवार्य हो जाता है। इससे भी ज्यादा बुरी बात यह है कि आम आदमी और राजनीतिक दलों को अब भी एक नजर से नहीं देखा जा रहा है, जबकि दलों को आय के स्रोतों के मामले में और आय तथा व्यय के बीच अंतर होने पर कर में छूट मिल जाती है। सरकार अगर चाहती है कि ‘अधिक स्वच्छ’ भारत के उसके आह्वïान को गंभीरता से सुना जाए तो उसे वास्तविक और प्रभावी बदलाव लाने होंगे।