06-01-2025 (Important News Clippings)
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Date: 06-01-25
Ugly is official
Monuments to museums, India does a generally poor, sometimes shoddy, job of preserving things of beauty
TOI Editorials
It’s peak tourist season in India, and people are traveling all over. But traveling here can come with its own set of problems. One example is the situation in Agra, which has made headlines recently. Despite the Uttar Pradesh (UP) government promising to protect a historic building called Mubarak Manzil, it was demolished anyway. This happened even though officials were planning to preserve it. It looks like the demolition may have been planned with the help of local police and officials. Sadly, this story is all too familiar in India, where small interests often get in the way of preserving important landmarks.
Last year, the Supreme Court was shocked to find that over 6,000 trees had been cut down in the Jim Corbett National Park. India has so many amazing tourist attractions, from tiger safaris and living root bridges to beautiful palaces and incredible food. Yet, countries like Dubai get more tourists, including many from India. More Indians are traveling abroad now, which is great, but the question is: should they not expect the same level of care and attention for India’s famous sites?
In many places, tourists have to struggle to take good pictures because the sites are messy. For example, if you try to take a picture at Kolkata’s Victoria Memorial or Ajmer’s Ana Sagar Lake, you’ll have to make sure you don’t capture all the cobwebs or garbage that surround them. In museums, priceless paintings are hidden behind yellowing glass and dim lights, which makes them look shabby. These problems make it less fun for both Indian and foreign visitors. Are the people responsible for running these museums, like those in Baroda or Shantiniketan, being properly trained to fix these issues? Sadly, in India, politicians and local leaders often interfere with the way museums and historical sites are run, which can make things worse.
And let’s not forget about places like mountain and beach towns that have been ruined by too many tourists. These spots need a break from over-tourism. The story from Agra is especially important because if India’s top tourist destinations can fix their problems, it might give hope to other places to do the same.
Date: 06-01-25
Data Privacy, Serious About a Public Good
Rules give runway for safe data collecting
ET Editorials
India’s draft rules for protecting privacy have adopted selective dynamic controls that should make them easier to implement. Sectoral requirements for data localisation are a step forward from a blanket clause for all types of data. Critical personal data, such as those dealing with health or finance, faces lower opposition over export control while less-sensitive information is relatively unrestricted, serving the needs of digital commerce. India’s approach to data flow is consistent with its conservative regulatory approach that has stood the test of time. A radical departure wasn’t to be expected over privacy protection. The same principle applies to categorisation of data fiduciaries with differentiated treatment based on volume and sensitivity of the information they process.
Phased implementation of the rules should provide enough runway for data collecting entities to implement safeguard provisions. Implementing data security measures and intimating breaches with consequences and mitigation efforts require process upgrades for which the draft rules have made adequate provision. Industry is expected to move faster on this than government agencies, which have to follow safeguards in how data of citizens can be processed. The data protection law came in for public scrutiny over carve-outs for GoI, and the rules are designed to put a framework in place for official data collection and processing.
Upfront declaration of data being collected, purpose of its processing and its end-use are basic privacy protection requirements the rules cover adequately. They go beyond to regulate consent management through intermediaries, thereby addressing needs of informed consumer interest. Specific rules on parental consent for minors could become a template for other jurisdictions grappling with the issue. The rules have benefited from intensive stakeholder engagement that led to the scrapping of a proposed law and an elaborately revised one replacing it. The new law has been awaiting rules, which are likely to go through with minor changes.
Date: 06-01-25
डिजिटल भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक
अश्विनी वैष्णव, ( लेखक केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी, सूचना और प्रसारण तथा रेल मंत्री हैं )
जब हम विश्व के भविष्य के बारे में बात करते हैं, तो मानव-केंद्रित दृष्टिकोण सबसे महत्वपूर्ण होना चाहिए।’ संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ये शब्द लोगों को सर्वोपरि रखने के भारत के दृष्टिकोण को दर्शाते हैं। इस दर्शन ने डिजिटल व्यक्तिगत डाटा संरक्षण (डीपीडीपी) नियम, 2025 के मसौदे को आकार देने में हमारे प्रयासों का मार्गदर्शन किया है। अंतिम रूप दिए जाने के बाद डिजिटल व्यक्तिगत डाटा संरक्षण अधिनियम, 2023 लागू हो जाएगा, जो नागरिकों के व्यक्तिगत डाटा सुरक्षा के अधिकार की रक्षा के लिए हमारी प्रतिबद्धता को रेखांकित करेगा।
भारतीय नागरिक ही डीपीडीपी नियम, 2025 के केंद्र में हैं। डाटा के बढ़ते वर्चस्व वाली दुनिया में हमारा मानना है कि व्यक्तियों को शासन की रूपरेखा के केंद्र में रखना अनिवार्य है। ये नियम नागरिकों को कई अधिकारों से सशक्त बनाते हैं, जैसे सूचना आधारित सहमति, डाटा मिटाने की सुविधा और डिजिटल रूप में नामांकित व्यक्ति को नियुक्त करने की क्षमता आदि। नागरिक अब उल्लंघनों या अनधिकृत डाटा उपयोग के सामने असहाय महसूस नहीं करेंगे। उनके पास अपनी डिजिटल पहचान को प्रभावी ढंग से सुरक्षित रखने के उपाय होंगे। इससे संबंधित नियमों को सरलता एवं स्पष्टता के साथ तैयार किया गया है। इसमें सुनिश्चित किया गया है कि प्रत्येक भारतीय, चाहे उनके पास तकनीकी ज्ञान कुछ भी हो, अपने अधिकारों को समझ सकता है और उनका प्रयोग कर सकता है। सहमति स्पष्ट शब्दों में मांगी जाती है तथा नागरिकों को अंग्रेजी या संविधान में सूचीबद्ध 22 भारतीय भाषाओं में से किसी में भी जानकारी देना अनिवार्य बनाया है। यह रूपरेखा समावेशिता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को दर्शाती है।
आज के इस डिजिटल युग में बच्चों की विशेष देखभाल की आवश्यकता है। इसे मान्यता देते हुए नियम नाबालिगों के व्यक्तिगत डाटा का इस्तेमाल करने के लिए माता-पिता या अभिभावक की सत्यापन योग्य सहमति को अनिवार्य बनाते हैं। अतिरिक्त सुरक्षा उपाय बच्चों को शोषण, अनधिकृत प्रोफाइल बनाने और अन्य डिजिटल नुकसान से बचाव सुनिश्चित करते हैं। ये प्रविधान भविष्य की पीढ़ी के लिए एक सुरक्षित डिजिटल परिदृश्य बनाने के प्रति हमारे समर्पण को दर्शाते हैं। भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था एक वैश्विक सफलता की गाथा रही है और हम इस गति को बनाए रखने के प्रति दृढ़ हैं। हमारी रूपरेखा डिजिटल अर्थव्यवस्था में नवाचार को सक्षम करते हुए नागरिकों के लिए व्यक्तिगत डाटा सुरक्षा सुनिश्चित करती है। विनियमन पर बहुत अधिक जोर देने वाले कुछ अंतरराष्ट्रीय प्रारूपों के विपरीत हमारा दृष्टिकोण व्यावहारिक और विकासोन्मुखी है। यह संतुलन सुनिश्चित करता है कि नागरिकों की सुरक्षा की जाए और नवाचार भावना को दबाया न जाए, जो हमारे स्टार्टअप और व्यवसायों को प्रेरित करती है। नई व्यवस्था से छोटे व्यवसायों और स्टार्टअप के लिए अनुपालन बोझ कम हो जाएगा। हितधारकों की अलग-अलग क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए नियमों को वर्गीकृत जिम्मेदारियों के साथ डिजाइन किया गया है। डाटा विश्वास के मूल्यांकन के आधार पर बड़ी कंपनियों के पास बड़े दायित्व होंगे, जो विकास को बाधित किए बिना जवाबदेही सुनिश्चित करेंगे।
इन नियमों के मूल में ‘डिजाइन से डिजिटल’ दर्शन है। डाटा सुरक्षा बोर्ड मुख्य रूप से एक डिजिटल कार्यालय के रूप में कार्य करेगा, जिसे शिकायतों का समाधान करने और अनुपालन लागू करने का काम सौंपा गया है। प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर हम दक्षता, पारदर्शिता और गति सुनिश्चित करते हैं। नागरिक शारीरिक उपस्थिति के बिना भी शिकायत दर्ज कर सकते हैं। प्रगति की निगरानी कर सकते हैं और समाधान प्राप्त कर सकते हैं। यह डिजिटल-प्रथम दृष्टिकोण सहमति व्यवस्था और डाटा प्रबंधन कार्य तक विस्तारित है। प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करके हम बड़ी कंपनियों के लिए अनुपालन और नागरिकों के लिए जुड़ना आसान बनाते हैं, जिससे प्रणाली में विश्वास बढ़ता है।
इन नियमों की यात्रा उनके अभिप्राय जितनी ही समावेशी रही है। डिजिटल व्यक्तिगत डाटा संरक्षण अधिनियम, 2023 के सिद्धांतों पर आधारित, मसौदा नियम विभिन्न हितधारकों से एकत्र किए गए व्यापक इनपुट और वैश्विक सर्वोत्तम तौर-तरीकों के अध्ययन का परिणाम है। नागरिकों, व्यवसायों और नागरिक समाज से प्रतिक्रिया और सुझाव आमंत्रित करते हुए हमने सार्वजनिक परामर्श के लिए 45-दिनों की अवधि निर्धारित की है। यह जुड़ाव सामूहिक ज्ञान और भागीदारीपूर्ण नीति निर्माण के महत्व में हमारे विश्वास का प्रमाण है, जबकि यह सुनिश्चित करना है कि यह व्यवस्था न केवल मजबूत हो, बल्कि हमारे सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य की अनूठी चुनौतियों के अनुकूल भी हो। यह सुनिश्चित करने के लिए कि नागरिक अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूक हैं, नागरिकों को उनके व्यक्तिगत डाटा से जुड़े अधिकारों के बारे में शिक्षित करने के लिए व्यापक जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा।
इन नियमों की शुरुआत के साथ हम न केवल वर्तमान चुनौतियों का समाधान कर रहे हैं, बल्कि एक सुरक्षित और अभिनव डिजिटल भविष्य की आधारशिला भी रख रहे हैं। डिजिटल व्यक्तिगत डाटा संरक्षण नियम, 2025 का मसौदा वैश्विक डाटा शासन मानदंडों को आकार देने में भारत के नेतृत्व को प्रतिबिंबित करता है। नागरिकों को केंद्र में रखते हुए नवाचार के लिए अनुकूल वातावरण को बढ़ावा देकर हम एक मिसाल कायम कर रहे हैं, जिसका दुनिया अनुसरण कर सकती है। हमारी प्रतिबद्धता स्पष्ट है कि इस डिजिटल युग में प्रत्येक भारतीय को सुरक्षित, सशक्त और सक्षम बनाना। मैं प्रत्येक नागरिक, व्यवसाय और नागरिक समाज समूह को परामर्श अवधि के दौरान टिप्पणियां और सुझाव साझा करके इस संवाद में भाग लेने के लिए आमंत्रित-प्रोत्साहित करता हूं। आइए हम सब मिलकर इन नियमों को परिष्कृत करें ताकि एक ऐसी व्यवस्था तैयार हो सके, जो वास्तव में एक सुरक्षित, समावेशी और संपन्न डिजिटल भारत की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती हो।
Date: 06-01-25
डेटा संरक्षण के नियम
संपादकीय
इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने हाल ही में ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन रूल्स 2025’ का मसौदा सार्वजनिक फीडबैक के लिए जारी कर दिया। इससे पहले ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन ऐक्ट 2023’ यानी डीपीडीपी आया था जो अगस्त 2023 में कानून बना। नियम इस लिहाज से अहम हैं कि ये इस अधिनियम के क्रियान्वयन ढांचे का विस्तृत ब्योरा मुहैया कराते हैं। अधिनियम तथा नियम दोनों व्यक्तिगत डिजिटल उपयोगकर्ताओं को ‘डेटा प्रिंसिपल’ (यानी जिसका डेटा है) के रूप में पेश करते हैं और अधिनियम से उम्मीद है कि वह लोगों को उनकी निजी सूचनाओं पर बेहतर नियंत्रण मुहैया कराएगा। ऐसा स्पष्ट सहमति की आवश्यकता और पहुंच के अधिकार, डेटा में सुधार तथा उसे मिटाने जैसे प्रावधानों की मदद से संभव होगा। डेटा जुटाने वाले संस्थानों को ‘डेटा फिड्युशरी’ कहा जाता है। मसौदे में ‘सहमति प्रबंधकों’ के पंजीयन की व्यवस्था है जो डेटा फिड्युशरी के साथ काम करके उपयोगकर्ताओं की सहमति जुटा सकते हैं। एक खास सीमा से अधिक उपयोगकर्ताओं वाली कंपनियों को ‘महत्त्वपूर्ण’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इनमें ई-कॉमर्स कंपनियां शामिल हैं जिनके पास भारत में कम से कम दो करोड़ पंजीकृत उपयोगकर्ता हैं। इसी तरह ऑनलाइन गेमिंग कंपनियों के पास 50 लाख पंजीकृत उपयोगकर्ता हैं। सोशल मीडिया कंपनियों के पास भी करीब दो करोड़ पंजीकृत उपयोगकर्ता मौजूद हैं। फिड्यूशरीज की जिम्मेदारियां रेखांकित की गई हैं और महत्त्वपूर्ण डेटा फिड्युशरी के लिए ज्यादा अनुपालन जरूरतें निर्धारित की गई हैं।
व्यापक तौर पर देखा जाए तो ये नियम प्रिंसिपल को अपने व्यक्तिगत डेटा पर मौजूदा की तुलना में अधिक नियंत्रण मुहैया कराता है। डेटा संग्रह और उसका इस्तेमाल ऐसे व्यक्तियों की स्पष्ट सहमति से ही किया जाना चाहिए। प्रिंसिपल अपना निजी डेटा मिटाने को भी कह सकता है। फिड्युशरी को न केवल डेटा संग्रह के लिए विशिष्ट सहमति हासिल करनी चाहिए बल्कि प्रिंसिपल को इसके उद्देश्य के बारे में भी बताना चाहिए। वे डेटा को जरूरत के बाद तीन साल से अधिक समय तक अपने पास नहीं रख सकते और डेटा को हटाने के कम से कम 48 घंटे पहले उसे इस बारे में सूचित किया जाना चाहिए और डेटा की समीक्षा का विकल्प दिया जाना चाहिए। अल्पवयस्कों, किसी खास किस्म अयोग्यता से ग्रस्त लोगों के निजी डेटा को और अधिक संरक्षण की आवश्यकता है। विधिक अभिभावकों या माता-पिता की स्पष्ट सहमति आवश्यक होगी। डेटा के उल्लंघन की स्थिति में फिड्युशरी को प्रिंसिपल को इसके बारे में सूचित करना होगा और संभावित परिणामों के बारे में बताते हुए नुकसान को न्यूनतम करने के उपाय करने होंगे। फिड्युशरी को डेटा संरक्षण अधिकारी नियुक्त करने होंगे ताकि अंकेक्षण कर सकें और सुनिश्चित कर सकें कि नए नियम प्रभावी ढंग से लागू हैं। भारतीय नागरिकों के डेटा का विदेशों में इस्तेमाल करने के लिए क्या अनिवार्यताएं होंगी यह स्पष्ट नहीं किया गया है। बहरहाल, कुछ अहम खामियां बरकरार हैं। अधिनियम अपने आप में सरकारी एजेंसियों को असीमित अधिकार देता है कि वे लोगों के डेटा संग्रहीत करें, अपने पास रखें और तमाम कामों के लिए उनका इस्तेमाल करें। अधिनियम और मसौदा दोनों डेटा संरक्षण बोर्ड की स्थापना की बात कहते हैं लेकिन उसे अब तक नहीं बनाया गया। इसी तरह सहमति प्रबंधकों की संस्था की दिशा में भी कोई प्रगति नहीं हुई। निजी डेटा की पूरी व्यवस्था इन्हीं प्रणालियों पर टिकी है। कारोबारों को भी नए प्रावधानों को लागू करने में चुनौतियों का सामना करना होगा। इसमें सहमति के लिए विधिक अनुबंध से लेकर डेटा संरक्षण अधिकारियों और सहमति प्रबंधकों की नियुक्ति, उन्नत इनक्रिप्शन अलगोरिद्म तथा सुरक्षित प्रोटोकॉल का इस्तेमाल आदि सभी शामिल हैं। इसके लिए कारोबारी मॉडल में व्यापक बदलाव की जरूरत होगी। इसके अतिरिक्त सॉफ्टवेयर उन्नयन और नई नियुक्तियों सहित खर्च बढ़ेगा। बहरहाल, नियमों से यह सुनिश्चित होना चाहिए कि देश की डेटा सुरक्षा में सुधार हो और निजता का बेहतर संरक्षण हो। इससे डिजिटल व्यवस्था में भरोसा बढ़ेगा जो बहुत जरूरी है।
Date: 06-01-25
सुविधा और पर्यावरण हित
संपादकीय
वायु प्रदूषण से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने होलोग्राम आधारित रंग कोड वाले स्टीकर को अनिवार्य बनाने पर विचार करने को कहा है। शीर्ष अदालत ने 2018 में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के प्रस्ताव को स्वीकार किया था जिसमें दिल्ली-एनसीआर इलाके में पेट्रोल – सीएनजी का इस्तेमाल करने वाले वाहनों में होलोग्राम आधारित अलग- अलग रंग के स्टीकर लगाने की परिकल्पना की गई थी। इनमें वाहन के पंजीकरण की तारीख भी शामिल होनी थी। अदालत के आदेश के बाद केंद्र ने होलोग्राम आधारित स्टीकर की योजना को कानूनी मान्यता देने के लिए केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम, 1989 के नियम 50 और उच्च सुरक्षा पंजीकरण प्लेट आदेश, 2001 में संशोधन किया। एनसीआर में हर साल सर्दियों में वायू प्रदूषण की बढ़ती समस्या को देखते हुए सख्त कदम उठाने की जरूरत बढ़ती जा रही है। एनसीआर में उप्र, राजस्थान, हरियाणा शामिल हैं। देश में 2022 में कुल पंजीकृत वाहनों की संख्या साढ़े पैंतीस करोड़ के करीब थी, जो इन दो सालों में तीव्र गति से बढ़ी है। दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सड़क नेटवर्क होने के कारण परिवहन उत्सर्जन से होने वाला प्रदूषण तेजी से बढ़ता जा रहा है। ये वहान पेट्रोल, डीजल और सीएनजी के अतिरिक्त मेथनॉल, ईथनॉल, ईंधन सेल हाइड्रोजन, एलएनजी, एलपीजी और सौर से भी चालित हैं। सबके लिए जरूरी है विशेष पहचान। इस स्टीकर के अलग-अलग रंग दूर से इनके ईंधन के संकेतक बन सकेंगे। देश के कई शहरों में वायु प्रदूषण जानलेवा स्तर तक पहुंचता है जिसमें सुधार लाने के प्रयास आवश्यक होते जा रहे हैं परंतु बार-बार नये नियम लाद कर जनता से वसूली करना भी सरकारी विभागों की उगाही का जरिया बन चुका है। देश में सबसे बड़ी संख्या दो पहिया वाहनों की 2.95 लाख बताई जाती है जो सड़क सुरक्षा के साथ ही खराब हवा में सांस लेने को भी मजबूर हैं। प्रदूषणजनित रोगों के अतिरिक्त सड़क हादसों पर लगाम लगाने में सरकारी तंत्र बुरी तरह असफल है। बात भले ही नंबर प्लेट बदलने की हो या किसी तरह के स्टीकर लगाने की, सरकारी स्तर पर ऐसे प्रयास होने चाहिए कि वाहन पंजीकरण के दरम्यान ही इन सबका एकमुश्त शुल्क वसूला जा सके। न कि बार-बार चालान काट कर वाहन चालकों से वसूली चालू की जाए। इससे न सिर्फ जनता परेशान होती है, बल्कि सरकारी संसाधनों और यातायात पुलिस का काम भी बढ़ जाता है। सुविधाओं या नियमों को लागू करने की भी संयमित व्यवस्था जरूरी है।
Date: 06-01-25
नया चीनी वायरस
संपादकीय
चीन में एक और वायरस संक्रमण की खबर ने दुनिया भर में चिंता का संचार कर दिया है, तो कोई आश्चर्य नहीं । ह्यूमन मेटान्यूमोवायरस (एचएमपीवी) नाम का यह वायरस श्वसन तंत्र पर हमला करता है। शुरू में फ्लू जैसे लक्षण दिखते हैं और किसी-किसी मरीज की स्थिति नाजुक हो जाती है। जैसा कि हम जानते हैं, चीन से आसानी से सूचनाएं पाना मुश्किल है। वह सूचनाओं को हरसंभव ढंग से छिपाता है और आधिकारिक रूप से वह अभी भी गोपनीयता बरत रहा है। सोशल मीडिया के जरिये एचएमपीवी वायरस के आतंक की खबरें आने लगी हैं। चीन के अस्पतालों में मरीजों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। चीन की जिम्मेदार एजेंसियां इस वायरस के दुष्प्रभाव को घटाने में लगी हैं और यह उम्मीद करनी चाहिए कि चीन इस रोग पर लगाम लगाने में कामयाब हो जाएगा। चीन अपने यहां कोरोना वायरस पर भी लगाम लगाने में एक हद तक कामयाब रहा था, लेकिन वह दूसरे देशों में उसे फैलने से नहीं रोक पाया। अब यह उम्मीद करनी चाहिए कि सजग चीन अपने यहां से किसी भी संदिग्ध को किसी देश की यात्रा करने नहीं देगा।
बहरहाल, एचएमपीवी का संक्रमण व्यक्तिगत संपर्क से बढ़ रहा है। अगर किसी संक्रमित व्यक्ति के किसी सामान को कोई स्वस्थ व्यक्ति छुए, तो भी संक्रमण का खतरा बताया जा रहा है। यह वायरस चूंकि नया है, तो इसका अभी कोई टीका नहीं है। इसकी कोई एंटीवायरल दवा भी नहीं है। यह अच्छी बात है कि अधिकांश मामलों में लोगों को मामूली समस्याएं आ रही हैं। ज्यादातर लोग लक्षण के अनुरूप उपचार और आराम से ही ठीक हो जा रहे हैं। चीन ने साफ तौर पर कुछ बताया नहीं है, मगर अनुमान यही है। कि गंभीर मामलों में लक्षणों को प्रबंधित करने के लिए अस्पताल में भर्ती होने, ऑक्सीजन थेरेपी या कॉर्टिकोस्टेरॉइड उपचार की आवश्यकता पड़ सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगर मानें, तो इस वायरस का संक्रमण अक्तूबर महीने से ही बढ़ रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि यह मौसमी रूप से फैलकर शांत हो जाए। वैसे भी, चीन में इस मौसम में वायरल और फ्लू का असर देखा जाता है। अच्छा यही कि यह बीमारी मौसमी साबित हो और कम से कम लोगों के जीवन पर असर डाले। ध्यान रहे, कोरोना महामारी के समय विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका बहुत संतोषजनक नहीं थी और वह चीन के प्रति अपेक्षाकृत ज्यादा उदार था। भारत ने उचित ही विश्व स्वास्थ्य संगठन से समय रहते सूचना की मांग की है, ताकि जरूरी तैयारी की जा सके। विश्व स्वास्थ्य संगठन से इस बार ज्यादा उम्मीद रहेगी।
Date: 06-01-25
हर बार गलत नहीं होता रुपये का गिरना
आलोक जोशी, ( वरिष्ठ पत्रकार )
रुपया डॉलर के मुकाबले गिरावट के नए-नए रिकॉर्ड बना रहा है। एक डॉलर की कीमत पिछले पखवाड़े 85 रुपये के पार चली गई। समझदार लोग कहेंगे कि रुपया गिर नहीं रहा है, बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है। मगर छुरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर, कटना तो खरबूजे को ही है। डॉलर का मजबूत होना अरसे से हमारे देश में फिक्र का कारण रहा है। इसे लेकर तरह- तरह की किंवदंतियां भी चलती हैं। जैसे, आजादी के समय एक रुपया एक डॉलर के बराबर था। यह बात कतई सही नहीं है, क्योंकि आजादी के वक्त भारत का खजाना ब्रिटिश व्यवस्था का हिस्सा था और भारतीय रुपये का अंतरराष्ट्रीय लेन-देन ब्रिटिश मुद्रा पाउंड के दाम से जुड़ा हुआ था। तब रुपये का भाव रोज-रोज बदलता भी नहीं था। तब एक फॉर्मूला तय था कि एक ब्रिटिश पाउंड की कीमत 13.333 रुपये होगी। उस वक्त बाजार में एक पाउंड करीब चार डॉलर का था, इस गणित से एक अमेरिकी डॉलर की कीमत करीब 3.333 रुपये बैठती थी।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि तब का भारतीय रुपया भी अलग था। उस वक्त रुपया आना, पाई वाली व्यवस्था चलती थी और एक रुपये में 64 पैसे होते थे। चार पैसे का एक आना और रुपया होता था सोलह आने का। आजादी के बाद भी यह आना सीरीज चलती रही, जिसमें एक रुपये में सोलह आने, 64 पैसे और 192 पाई होती थीं। चवन्नी और अठन्नी के नाम भी वहीं से आए थे। मगर साल 1957 में भारत ने मीट्रिक प्रणाली अपनाई और रुपये में सौ पैसे होने लगे। इसके साथ ही एक, दो, तीन, पांच, दस, पच्चीस और पचास नए पैसे के सिक्के जारी किए गए। बीस पैसे का सिक्का बाद में आया था, फिर रुपये और उसके ऊपर के सिक्के भी काफी समय तक बाजार में पैसे और नए पैसे साथ-साथ चलते रहे। फिर 1968 में नए पैसे को औपचारिक तौर पर पैसे कहा जाने लगा और पुराना पैसा चलन से बाहर हो गया।
इतना किस्सा इसलिए, क्योंकि यह समझना जरूरी है कि मुगलों के दौर के या उसके पहले के चांदी-सोने वाले रुपये या फिर आजादी के वक्त के रुपये की दुनिया के बाजार में जो भी कीमत थी, उसके साथ आज के रुपये के तुलना करना शायद ज्यादती होगी। और, यह भी समझना चाहिए कि किसी दूसरी मुद्रा के मुकाबले रुपये का कमजोर होना हमेशा नुकसानदेह नहीं होता । अंतरराष्ट्रीय व्यापार के हिसाब से कई बार अपनी मुद्रा का सस्ता होना बेहद फायदेमंद साबित होता है, क्योंकि इससे हमारा निर्यात खरीदारों की नजर में सस्ता हो जाता है। जैसे, भारत से सौ रुपये की चीज अगर अमेरिका जा रही है और डॉलर की कीमत पचास रुपये हो, तो खरीदार को दो डॉलर देने पड़ेंगे, लेकिन अगर आज डॉलर 85 रुपये के ऊपर है, तो खर्चा सवा डॉलर से भी कम हो गया। चीन ने अपना माल दुनिया भर के बाजार में भरने के लिए यही नुस्खा सफलतापूर्वक आजमाकर दिखाया है। कई दशकों से उस पर यह इल्जाम लगता रहा है कि वह अपनी मुद्रा को जान-बूझकर कमजोर रख रहा है, ताकि निर्यात के मोर्चे पर वह दूसरों को मात देता रहे।
आजादी के बाद लंबे समय तक भारत में विदेशी मुद्रा का भाव या विनिमय दर ( जिस दर पर कोई विदेशी मुद्रा खरीदी या बेची जाएगी) सरकार ही तय करती थी। पुराने आंकड़ों पर नजर डालें, तो यह पता चलता है कि 1950 से 1965 तक एक डॉलर की कीमत 4.76 रुपये पर स्थिर रही और उसके बाद 1967 से 1971 तक 7.57 रुपये पर। यह फर्क भी इसलिए आया कि 1962 व 1965 के युद्ध और 1966 के अकाल की वजह से हमारी अर्थव्यवस्था पर बहुत खराब असर पड़ा था और 1966 में केंद्र सरकार को रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा था।
1970 के दशक में पाकिस्तान से युद्ध व कच्चे तेल का संकट एक बार फिर मुसीबत बना और इसका दबाव रुपये की कीमत पर पड़ा। फिर भी डॉलर की कीमत सरकार ही तय करती थी और 1990 तक यह कीमत धीरे-धीरे बढ़कर 17.50 रुपये पहुंच गई।
यहीं सरकार ने डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में कटौती या अवमूल्यन का एलान किया। जुलाई में ही दो किस्तों में रुपये की कीमत घटाई गई। 1 जुलाई को नौ प्रतिशत और दो ही दिन बाद 3 जुलाई को 11 फीसदी की कटौती हुई। डॉलर झटके से महंगा हो गया। भारत से निर्यात तो सस्ता हुआ, लेकिन आयात महंगा । मगर साथ ही भारत में निवेश करना अब डॉलर लगाने वालों के लिए आकर्षक हो गया।
एक बेहद रोचक किस्सा है। उस वक्त वित्त मंत्री थे डॉक्टर मनमोहन सिंह, जो उससे पहले तीन साल तक जेनेवा में साउथ कमीशन नाम के पॉलिसी थिंक टैंक में काम कर चुके थे। मनमोहन सिंह के विदेशी बैंक खाते में कुछ रकम जमा थी। तब प्रधानमंत्री नरसिंह राव के एक निकट सहयोगी ने बताया कि यह फैसला होने के बाद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री कार्यालय गए और अवमूल्यन के कारण उनके बैंक खाते में जमा डॉलरों की कीमत में जो इजाफा हुआ, उस रकम का चेक काटकर उन्होंने प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा कर दिया। मनमोहन सिंह ने अपने हिस्से का मुनाफा तो राष्ट्र को दान कर दिया, लेकिन वहां से डॉलर की कीमत बढ़ने का सिलसिला भी तेज हुआ और देश की तरक्की की रफ्तार भी।
मुद्रा की मजबूती जरूरी है। आप ब्रिटेन या अमेरिका जैसे देशों में जाएं, तो वहां 100 डॉलर या 50 पाउंड से ज्यादा का नोट नहीं मिलता। दूसरी तरफ, ऐसे कई देश है, जहां का एक नोट लाखों का होता है। जब अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो जाए, देश के लोग इतने समृद्ध हो जाएं कि उन पर बाकी दुनिया से लेन- देन का कोई असर न पड़ता हो, तब तो ठीक है, वरना देश की मुद्रा का कमजोर रहना किसी कमजोरी की नहीं, दूरंदेशी की निशानी भी हो सकता है।
पुराने लोग याद भी करेंगे। एक वक्त था, जब एक- एक डॉलर दांत से पकड़कर खर्च होता था। घूमना- फिरना तो छोड़ दें। पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति पाकर या फिर व्यापार के दौरे या विदेश में नौकरी करने के लिए जाने वालों को भी कुल मिलाकर 125 डॉलर की रकम मिलती थी, जिसमें उन्हें गुजारा करना होता था। आज आप जहां चाहें, अपना घरेलू क्रेडिट कार्ड स्वाइप करके खर्च कर सकते हैं। यह कम हासिल नहीं है। हां, सफर बहुत बाकी है और रफ्तार बढ़ाने जरूरत भी है।