06-01-2024 (Important News Clippings)
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मजदूरों में काम की चाहत घटने के कारण तलाशें
संपादकीय
सीएमआईई की ताजा रिपोर्ट के अनुसार लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट यानी एलएफपीआर (15 से 60 वर्ष की कामकाजी उम्र के लोगों में काम तलाशने वालों की दर) पिछले सात वर्षों में लगातार घटती हुई वर्ष 2022-23 में मात्र 39.5% रह गई है। यह दुनिया में सबसे कम है। यह किसी भी सरकार व अर्थशास्त्रियों के लिए चिंता का विषय है। काम की उम्र वाले सौ में अगर 60 फीसदी लोग रोजगार की इच्छा छोड़ घर बैठ जाएं तो देश का भविष्य कैसा होगा? दुनिया में सर्वमान्य अवधारणा है कि ऐसी निराशा तब बनती है, जब लगातार वर्षों तक रोजगार नहीं मिलता और लोग यह सोचने लगते हैं कि रोजी तलाशना बेकार है। इसी रिपोर्ट में यह भी पता चला कि भारत में काम की उम्र वाली हर दस में केवल एक महिला रोजगार की चाहत रखती है। उनका एलएफपीआर तो मात्र 8.8% ही है। ये कामगार – स्त्री और पुरुष – अगर औद्योगिक उत्पादन या सेवा क्षेत्र में भाग लें तो इनकी आय भी बढ़ेगी और देश का उत्पादन भी। श्रमिकों की उदासीनता का नतीजा यह है कि वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बोझ बनते जा रहे हैं। चीन के विकास के तरीके से अलग भारत में विकास का पहिया अर्थशास्त्र की कई अवधारणाएं तोड़ता हुआ औद्योगिक विकास के रास्ते न होकर सीधा सेवा क्षेत्र में आ गया है। योजनाकारों को सोचना होगा।
Date:06-01-24
मजबूत सरकार और आर्थिक तरक्की का मेल नजर आएगा
प्रताप भानु मेहता, ( प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर )
2024 के आम चुनाव एक ऐसे समय में होने जा रहे हैं, जब दुनिया में भारत का प्रभाव निरंतर बढ़ रहा है। वह दुनिया की उन कुछ अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जिसकी जीडीपी अगले दशक में 6 प्रतिशत या उससे अधिक की दर से बढ़ने की उम्मीद है। वैश्विक जीडीपी की वृद्धि दर में भारत की हिस्सेदारी 15% के करीब होगी। भारत की राजनीति में निरंतरता नरेंद्र मोदी को विश्व राजनीति में वरिष्ठ बनाएगी, जबकि अन्य प्रमुख लोकतंत्रों जैसे इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका में इस साल होने जा रहे चुनावों में सरकार बदल सकती है।
लेकिन जहां भारत की ग्लोबल पॉवर बढ़ेगी, वहीं उसके लोकतंत्र का ह्रास भी होगा। मोदी-राज के चार मुख्य आधार स्तम्भ रहे हैं। पहला है भारत की प्रमुख विचारधारा के रूप में हिंदू राष्ट्रवाद का सुदृढ़ीकरण। 22 जनवरी को प्रधानमंत्री अयोध्या में भगवान राम के मंदिर के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करेंगे। यह हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीतिक शक्ति का प्रतीक होगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई लोग इसे एक कैथार्टिक क्षण के रूप में देखेंगे, जिसके माध्यम से एक सभ्यतागत विरासत पर पुनः अपना दावा प्रस्तुत किया जाएगा। लेकिन इससे भारत को एक जातीय राष्ट्रवादी राज्य (एथनो-नेशनलिस्ट स्टेट) के रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया भी तेज होगी। इससे देश में थोड़ी शांति जरूर कायम होगी, लेकिन इतिहास, स्मृति और प्रतिनिधित्व के विचारों पर हिंसक टकराव भी तेज होंगे।
दूसरा स्तम्भ है नित्य गहराता जा रहा अधिनायकवाद। यह कई नीतियों में दिखाई देता है : मीडिया और शिक्षा जगत पर नियंत्रण, विपक्षी राजनेताओं को बाकायदा टारगेट करने के लिए राज्यसत्ता की एजेंसियों का उपयोग और स्वतंत्र संस्थानों पर नियंत्रण। नए क्रिमिनल कोड विधेयक से लेकर पीएलएमए तक के हालिया कानून राज्यसत्ता को नागरिकों पर अद्वितीय शक्तियां प्रदान करते हैं। लेकिन राजनीतिक गिरावट के विपरीत भारत में आर्थिक संकट की कोई स्थिति नहीं बनने वाली है। मोदी की सरकार ने मैक्रो इकोनॉमी की दृष्टि से बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। मुद्रास्फीति और भुगतान संतुलन को उचित सीमा के भीतर रखा गया है। जीडीपी की वृद्धि अब 6 प्रतिशत के दायरे में है और इसमें अधिक तेजी आने की उम्मीद है। भारत अब खुद को निवेशकों के स्वर्ग के रूप में चीन के विकल्प के रूप में स्थापित करने की पूरी कोशिश कर रहा है। वह खुद को वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में पुन: प्रतिष्ठित कर रहा है।
सरकार ने भारत में मैन्युफैक्चरिंग को प्रोत्साहन देने के लिए नई उद्योग नीति शुरू की है। यह नीति कहां तक सफल होगी, यह यक्षप्रश्न है। लेकिन भारत ऊर्जा, लॉजिस्टिक्स की लागत और बुनियादी ढांचे के स्तर पर बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। इसका रेगुलेटरी और कर प्रशासन, व्यापार नीति पर अनिश्चितता और मानव-पूंजी के निर्माण में धीमी प्रगति जरूर उसकी प्रतिस्पर्धात्मकता को संभावित रूप से धीमा कर सकते हैं। लेकिन आर्थिक बेहतरी पर चिंता की छाया यह है कि भारत की वर्कफोर्स का मन खेती से उचट रहा है और हम अभी भी उच्च गुणवत्ता वाली नौकरियां पैदा नहीं कर पा रहे हैं। स्नातक बेरोजगारी अधिक है। इस बात के भी प्रमाण हैं कि पूंजी एक जगह पर अधिक एकाग्र होती जा रही है। इस कारण बेरोजगारी और पूंजी के कंसंट्रेशन जैसे बदनुमा दाग भारत की आर्थिक प्रगति की गौरव-गाथा पर बने रहेंगे। लेकिन इनसे सरकार को राजनीतिक विरोध का सामना नहीं करना होगा। इसकी अभिव्यक्ति सामाजिक टकरावों या अपराध आदि में बढ़ोतरी में ही होने की अधिक संभावना है।
शासन का चौथा स्तम्भ भारत की लोक-कल्याणकारी व्यवस्था को और गहराना है। सरकार ने मुफ्त खाद्यान्न की उपलब्धता को 80 प्रतिशत आबादी तक बढ़ा दिया है। चार योजनाओं पर बहुत अधिक दांव लगाया गया है : सीधे नगदी का हस्तांतरण (डायरेक्ट कैश ट्रांसफर), स्वच्छता, रसोई गैस और पेयजल की सुविधाएं। हालांकि इनमें सरकार का रिकॉर्ड उतना शानदार नहीं है जितना कि वह दावा करती है। लेकिन यह उसके पक्ष में राजनीतिक समर्थन पैदा करने के लिए काफी है। तो 2024 में हमें एक विरोधाभासी भारत देखने को मिल सकता है, जिसमें ताकतवर सरकार आर्थिक गतिशीलता के साथ समाज पर अपनी पकड़ को मजबूत करेगी, राजनीतिक रूप से अधिनायकवाद उदारवाद पर भारी पड़ेगा, साम्प्रदायिकता बहुलतावाद को और राष्ट्रवाद उदारवाद को मात देगा। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी लोकप्रिय बने रहेंगे।
आपराधिक कानूनों में सुधार की सही पहल
ए. सूर्यप्रकाश, ( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
कई वर्षों के कठोर परिश्रम के बाद केंद्र सरकार ने तीन नए आपराधिक कानूनों को हरी झंडी दिखाई है। नए कानूनों में भारतीय न्याय संहिता जहां भारतीय दंड संहिता की जगह लेगी, वहीं भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता आपराधिक प्रक्रिया संहिता, तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम पुराने इंडियन एविडेंस एक्ट की जगह लेगा। आपराधिक कानूनों में व्यापक सुधारों पर केंद्रित इन कानूनों पर संसद ने मुहर लगा दी है। केंद्र के भगीरथ प्रयासों से आपराधिक कानूनों के भारतीयकरण और मानवीयकरण के साथ ही उन्हें समय के अनुरूप सुसंगत भी बनाया गया है, जो कानून अंग्रेजी राज के दौरान से ही अपने पुराने स्वरूप में कायम थे। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा भी कि पुराने कानून औपनिवेशिक शासकों के अनुकूल होने के साथ ही कई मायनों में दासता के प्रतीक भी थे। पुराने कानून औपनिवेशिक शासकों की मदद की मंशा के साथ ही बनाए गए थे और देश की जनता उनके केंद्र में नहीं थी। नए कानूनों में दंड से अधिक न्याय की भावना पर जोर दिया गया है। यह परिवर्तन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस दृष्टिकोण के अनुरूप भी है कि अंग्रेजी राज के सभी कानूनों की समीक्षा के साथ ही अनावश्यक कानूनों को तिलांजलि दी जाएगी। सवाल है कि तमाम अप्रासंगिक कानून अभी भी क्यों बने हुए हैं? प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ‘कल्पनाशक्ति के अभाव’ का परिणाम बताया, जिसकी वजह से देश आजादी के कई दशकों बाद तक इतना पिछड़ा रहा। इसके अतिरिक्त, देश की कमान संभालने वालों की अकर्मण्यता भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार रही।
यह सही है कि स्वतंत्रता के बाद इन कानूनों में कुछ परिवर्तन किए गए, लेकिन इनके संपूर्ण एवं समयानुकूल कायाकल्प का काम अधूरा ही रहा। मिसाल के तौर पर जब दिल्ली के भयावह निर्भया सामूहिक दुष्कर्म कांड के एक आरोपित की उम्र का पेच फंसा, तब जाकर आपराधिक कृत्यों के मामले में किशोरों की उम्र के पैमाने को घटाकर 18 से 16 वर्ष किया गया। इसी तरह इससे पहले पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक में जब उत्तर भारत में दहेज के मामलों की तमाम घटनाएं सामने आनी लगीं, तब जाकर दहेज-हत्या से जुड़े विशेष प्रविधान और उसमें कड़ी सजा आपराधिक कानूनों में जोड़ी गई। इसमें किसी महिला की शादी के सात वर्षों के भीतर संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के मामले में अपनी किसी प्रकार की संलिप्तता न होने के सुबूत देने का दारोमदार महिला के ससुराल पक्ष पर डाला गया। ऐसे परिवर्तनों के बावजूद किसी भी सरकार ने आपराधिक कानूनों और आपराधिक न्याय प्रणाली के भारतीय दृष्टिकोण से कायाकल्प करने और उन पर अंग्रेजी ठप्पे को छुड़ाने के बारे में गंभीरता से विचार नहीं किया।
कानूनों को सामयिक बनाना भी नए आपराधिक कानूनों का एक उल्लेखनीय पहलू है। नए कानून में तलाशी और जब्ती अभियान के दौरान पुलिस के लिए उसकी रिकॉर्डिंग कराना अनिवार्य किया गया है। नया कानून वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये गवाही के साथ ही मोबाइल फोन, कंप्टूयर या पेन ड्राइव में रिकॉर्ड बयान को साक्ष्य के रूप में मान्यता देता है। इसलिए तकनीकी प्रगति की कानूनों के साथ उचित कदमताल हुई है। साक्ष्य जुटाने में फोरेंसिक साइंस के उपयोग को प्रोत्साहन भी सराहनीय कदम है। आधुनिकीकरण के अतिरिक्त मानवीयकरण भी नए कानूनों के मूल में है, क्योंकि तलाशी और जब्ती अभियान के दौरान इलेक्ट्रानिक रिकॉर्डिंग और गवाही की रिकॉर्डिंग आरोपितों के पक्ष को बेहतर रूप से रखेगी, वहीं इससे सुनवाई की प्रक्रिया में भी तेजी आएगी। ये सभी उपाय आरोपितों के मानवाधिकारों से जुड़े हैं। सीआरपीसी की जगह लेने वाले नए कानून में जेल अधीक्षकों को यह भी अधिकार दिया गया है कि वे उन विचाराधीन कैदियों की रिहाई पर विचार कर सकते हैं, जो कैदी अपने मामलों में अधिकतम दी जाने वाली सजा का एक तिहाई समय जेल में पहले ही काट चुके हों। इससे तमाम कैदियों को बड़ी राहत मिलने के साथ ही क्षमता से कहीं अधिक कैदियों से भरी भारतीय जेलों पर बोझ भी घटेगा। अप्राकृतिक यौन संबंधों को भी नए कानूनों में अपराध के दायरे से बाहर किया गया है।
नए कानूनों के संदर्भ में राजद्रोह की चर्चा भी आवश्यक है। जहां सरकार ने ‘राजद्रोह’ को आपराधिक कृत्यों से बाहर करने की मांग पर ध्यान दिया है, वहीं उसने देश की एकता एवं अखंडता और संप्रभुता को चुनौती देने वाली गतिविधियों के मामले में आंखें भी नहीं मूंदीं। दूसरे शब्दों में कहें तो राजद्रोह (जिन्हें सरकार विरोधी गतिविधियों के रूप में देखा जाता है) अब अपराध नहीं रह गया है, लेकिन राष्ट्रद्रोह यानी राष्ट्र-विरोधी गतिविधियां अवश्य कड़ी सजा की हकदार हैं। आइपीसी में राजद्रोह से जुड़ी धारा (धारा-124 ए) में ‘भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा, अवमानना या असंतोष उत्पन्न करने या भड़काने के प्रयास में’ शब्दों, संकेतों या किसी अन्य प्रकार का उपाय करने वालों के लिए कड़ी सजा का प्रविधान है। यही राजद्रोह कानून के मूल में था। अब उसकी जगह धारा-150 ने ली है, जिसके अनुसार-यदि कोई अलगाववाद या सशस्त्र विद्रोह अथवा विध्वंसक गतिविधियों को भड़काता या भड़काने का प्रयास करता है या अलगाववादी भावनाओं को प्रोत्साहित करता है अथवा भारत की संप्रभुता या एकता एवं अखंडता को खतरे में डालता है तो उसे आजीवन कारावास या सात वर्षों की सजा दी जाएगी। जहां देश की एकता एवं अखंडता के लिए धारा-150 अनिवार्य है, वहीं राजद्रोह की विदाई सुनिश्चित करती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित नहीं होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने राष्ट्र विरोधी गतिविधियों और सत्ता के विरोध के बीच एक महीन रेखा खींचने का काम किया है। धोखाधड़ी और फर्जीवाड़े से जुड़ी जो धारा-420 भारतीयों के बीच कुछ मनोविनोद का विषय भी रही, वह अब धारा 99 हो गई है। इसी प्रकार हिंदी फिल्मों से लेकर अपराध कथाओं ने हत्या के मामले में जिस धारा-302 से आम भारतीयों को परिचित कराया, वह अब धारा 316 हो जाएगी।
Date:06-01-24
यूपी के आर्थिक उभार को धार्मिक पर्यटन की धार
आर जगन्नाथन
सन 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही भारत नियति के साथ एक नए साक्षात्कार की राह पर है। मंडल राजनीति के उभार और राम जन्मभूमि आंदोलन की इसमें अहम भूमिका रही है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 1998 से 2004 के बीच राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के पहले कार्यकाल के दौरान दोनों के बीच की संपूरकता के चरम पर पहुंचने का पूरा लाभ उठाया। हालांकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल के दौरान इसकी धार कुछ कम हुई लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इसने एक बार फिर गति पकड़ी है। नियति से दूसरा साक्षात्कार उस समय पहली बड़ी मंजिल को छुएगा जब आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर की प्रतिष्ठा होगी।
इस आलेख में हम अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के आर्थिक और सामाजिक प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करेंगे जो इस प्राचीन शहर की तात्कालिकता से परे होगा। आर्थिक प्रभाव महत्वपूर्ण होगा। इसका संबंध उन 85,000 करोड़ रुपयों के अधोसंरचना निवेश से नहीं है जिसकी योजना अयोध्या और उसके आसपास बनाई गई है। इसमें करीब 1,200 एकड़ में विस्तारित एक नए शहर की योजना भी शामिल है। अगर भारत को अगले कुछ वर्षों में 5 लाख करोड़ डॉलर की और 2030 के मध्य तक 10 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना है तो यह काम केवल महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, दिल्ली-हरियाणा और तेलंगाना जैसे राज्यों के भरोसे नहीं हो सकता। इस चुनौती पर उत्तर प्रदेश और बिहार को भी खरा उतरना होगा।
राज्य सकल घरेलू उत्पाद के मामले में उत्तर प्रदेश शीर्ष पांच राज्यों में शामिल है लेकिन पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च और सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अनुसार अनुमानित प्रति व्यक्ति आय के मामले में 2023-24 में यह अंतिम पांच राज्यों में रहा। शीर्ष पांच राज्यों में महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने इस वर्ष 39 लाख करोड़ रुपये और 28 लाख करोड़ रुपये का सकल घरेलू उत्पाद रहने का अनुमान जताया है। अगले तीन राज्यों गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश का आंकड़ा 24-25 लाख करोड़ रुपये का है। उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 83,000 रुपये के निराशाजनक स्तर पर है जो राष्ट्रीय औसत से तो कम है ही पड़ोसी हिंदी भाषी राज्य हरियाणा से भी कम है।
अगले कुछ वर्ष में अयोध्या प्रमुख धार्मिक केंद्र के रूप में उभरेगा और उत्तर प्रदेश के लिए वृद्धि और आय का नया वाहक बनेगा। प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा पहले ही स्टार्ट अप और विनिर्माण का केंद्र है। इसका श्रेय नोएडा को जाता है जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का हिस्सा है। बीते कुछ दशकों में गुरुग्राम और हरियाणा ने दिल्ली से नजदीकी का फायदा उठाया है और आने वाले दशक नोएडा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं। इसकी एक वजह राज्य की राजनीतिक स्थिरता है तो दूसरी वजह एक्सप्रेस वे तथा नए हवाई अड्डों की स्थापना। उत्तर प्रदेश में आर्थिक और राजनीतिक केंद्र पूर्व की ओर खिसक रहा है। प्राचीन भारत में भी अयोध्या और पाटिलीपुत्र (वर्तमान पटना) केंद्र थे। दिल्ली-आगरा और फतेहपुर सीकरी के पर्यटन के स्वर्णिम त्रिकोण के बाद अब पूर्व में अयोध्या-प्रयागराज और काशी नए त्रिकोण के रूप में उभरेंगे।
अयोध्या की क्षमता को बढ़ाचढ़ाकर पेश करना मुश्किल है। इसलिए नहीं कि भगवान राम के साम्राज्य की राजधानी का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। मेरा अनुमान है कि अगर सऊदी अरब केवल मक्का और मदीना के रूप में दो मुस्लिम धार्मिक शहरों के जरिये तेल से इतर पर्यटन आधारित व्यवस्था कायम कर सकता है तो अयोध्या में यह क्षमता है कि वह एक दशक के भीतर दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र बन सके। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि सऊदी अरब का पर्यटन जहां दुनिया भर के मुस्लिमों पर निर्भर है जो हज और उमरा के लिए आते हैं (सभी मुस्लिम इतने सक्षम नहीं हैं) वहीं अयोध्या दुनिया के सबसे बड़े हिंदू आबादी वाले देश की धार्मिक जरूरतों का ध्यान रखेगा। भारतीयों की बड़ी आबादी को न बाहर जाना होगा न ही बहुत अधिक खर्च करना होगा।
सऊदी अरब में सालाना करीब 1.6 से 1.7 करोड़ पर्यटक आते हैं। अयोध्या में हर महीने करीब 45 लाख पर्यटकों यानी सालाना 5.4 करोड़ पर्यटकों के आने की उम्मीद है। यह तिरुपति के सालाना तीन करोड़ पर्यटकों से अधिक होगा। अगर हम मान लें कि प्रति व्यक्ति 2,500 रुपये खर्च किए जाएंगे तो भी यह राशि 13,500 करोड़ रुपये से अधिक होगी। यह न्यूनतम अनुमान है क्योंकि कई भारतीय और विदेशी पर्यटक इसकी 10 से 20 गुना तक राशि खर्च करेंगे यानी यह राशि करीब 20,000 करोड़ रुपये तक जा सकती है।
विश्व यात्रा एवं पर्यटन परिषद का अनुमान है कि सऊदी अरब के जीडीपी में पर्यटन की हिस्सेदारी 2032 तक बढ़कर 17 फीसदी हो जाएगी जबकि भारत के जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी फिलहाल केवल सात फीसदी है। उत्तर भारत में धार्मिक पर्यटन बढ़ने के साथ यह हिस्सेदारी तेजी से बढ़ सकती है।
ट्रैवेल एजेंट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक 2028 या 2029 तक पर्यटन क्षेत्र देश के जीडीपी में 512 अरब डॉलर का योगदान करेगा और इस दौरान 5.8 करोड़ रोजगार तैयार होंगे। अगर उत्तर प्रदेश में अयोध्या के साथ-साथ काशी और मथुरा में भी धार्मिक पर्यटन आरंभ हो जाता है तो यह आंकड़ा बढ़ भी सकता है। कोविड के पहले देश के जीडीपी में पर्यटन का योगदान सात फीसदी था जिसे बहुत आसानी से बढ़ाया जा सकता है। इस दिशा में उत्तर प्रदेश अग्रणी भूमिका निभा सकता है। किसी न किसी मोड़ पर उसे महाराष्ट्र के बाद देश की दूसरे नंबर की अर्थव्यवस्था बनना होगा। वह अपने जननांकीय लाभ और धार्मिक आकर्षण की बदौलत ऐसा कर सकता है।
इससे सामाजिक सौहार्द बढ़ाने में भी मदद मिलेगी जो पिछले कुछ समय में राम जन्मभूमि को लेकर उपजे हिंदू-मुस्लिम संघर्ष तथा काशी और मथुरा को लेकर कानूनी कार्रवाई से बिगड़ा है। वास्तव में हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को असली नुकसान अयोध्या मुद्दे के कारण नहीं बल्कि वामपंथी इतिहासकारों के कारण हुआ जिन्होंने इस्लामिक शासन के दौरान मंदिरों को तोड़े जाने को लेकर झूठा कथानक गढ़ने का प्रयास किया। इसके चलते ही बाबरी मस्जिद के नीचे हिंदू मंदिर की मौजूदगी को लेकर नकार का भाव पैदा हुआ। यही बात काशी और मथुरा पर भी लागू होती है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि आम हिंदू और मुस्लिम इस बात को समझेंगे कि अतीत में इस्लाम को मानने वालों द्वारा मूर्तियां तोड़ने को नकार कर सौहार्दपूर्ण रिश्ते नहीं बन सकते। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 370 के मामले में जिस प्रकार के सत्य और सुलह आयोग की बात कही है वह उत्तर प्रदेश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। खासकर यह देखते हुए कि उत्तर प्रदेश के मुसलमान मोहम्मद अली जिन्ना की पाकिस्तान परियोजना के केंद्र में थे। विभाजन का सबसे अधिक समर्थन उन इलाकों से हुआ जो आज उत्तर प्रदेश में आते हैं।
अयोध्या मामले का निर्णय देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के पीठ को शायद अहसास हो गया था कि हिंदुओं और मुसलमानों को ऐतिहासिक अविश्वास से पार पाना होगा। यही वजह है कि उन्हें लगा कि मंदिर और मस्जिद के लिए अलग-अलग स्थान आवंटित करने के साथ समय का अंतराल बेहतर काम करेगा। अगर अयोध्या के निकट प्रस्तावित नई मस्जिद भी योजना के मुताबिक बनती है तो वहां भी बड़ी तादाद में श्रद्धालु पहुंचेंगे और वह भी उत्तर प्रदेश के आर्थिक उभार में मदद करेगी।