06-01-2020 (Important News Clippings)

Afeias
06 Jan 2020
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Date:06-01-20

Woods that aren’t dark or lovely enough

ET Editorials

The 2019 India State of Forest Report — the authoritative assessment of the country’s forest cover conducted by the Forest Survey of India since 1985 — records an increase in total area under green cover in the country. India’s forest and tree cover has increased by nearly 4,000 sq km since the last assessment report in 2017 and covers nearly 25% of the country’s total land area. With this, India appears to be on track to fulfil its forestry-related pledge under the Paris Agreement of creating a carbon sink of 2.5-3 billion tonnes through additional forest and tree cover by 2030. Despite these positive trends, India’s forests continue to present a cause for concern.

The report registers an increase in forest cover, defined as all tree patches irrespective of legal status and species composition that are at least one hectare in area and have a canopy density of more than 10%. This increase has been outside of the area that is legally notified as forest or recorded forest area, whose forest cover has dipped by 330 sq km. On the positive side, there has been a slight increase in the area under very dense forest or land with tree canopy density of more than 70%, from 99,158 sq km in 2017 to 99,278 sq km in 2019, as well as a marginal increase in the area with tree canopy density of 40-70% known as moderately dense forest. However, a major concern is the decline in forest area in places that had good forest cover, such as the northeast and tribal areas, containing the rise in the area with tree canopy density of 10-40%.

Tree cover outside recorded forests is noteworthy. However, there needs to be a better approach to conserving and improving original forest areas that are valuable not just as the carbon sink but also for the ecosystem services that sustain life as we know it.


Date:06-01-20

अमेरिका – ईरान टकराव

संपादकीय

अमेरिका ने ईरान के शीर्ष सैन्य अधिकारी मेजर जनरल कासिम सुलेमानी को निशाना बनाकर एक बार फिर पश्चिम एशिया को अशांति के मुहाने पर ला खड़ा करने का काम किया है। सुलेमानी की हत्या के बाद ईरान जिस तरह बदले की आग से भरा हुआ है और अमेरिका को सबक सिखाने की धमकी दे रहा है उसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। इन संभावित नतीजों से केवल पश्चिम एशिया ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया आशंकित है। इसका एक बड़ा कारण यही है कि यह वह क्षेत्र है जो विश्व की तेल जरूरतों को पूरा करता है। साफ है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने पूरी दुनिया के लिए समस्या खड़ी कर दी है।

इससे इन्कार नहीं कि सुलेमानी पश्चिम एशिया में अमेरिकी प्रभाव के खिलाफ हर तरह से सक्रिय थे और वह दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैले कई अतिवादी एवं आतंकी गुटों की मदद भी कर रहे थे, लेकिन इस सबके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति की यह दलील बहुत दमदार नहीं लगती कि वह अमेरिका के खिलाफ किसी बड़ी साजिश को अंजाम दे रहे थे। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने चुनावी अभियान को धार देने और इस्लामी जगत में ईरान विरोधी ताकतों को बल देने के लिए सुलेमानी को निशाना बनाया। नि:संदेह यह भी लगता है कि उन्होंने इस पर ज्यादा विचार-विमर्श करने की जरूरत नहीं समझी कि उनकी इस कार्रवाई का असर क्या होगा?

यह तय है कि यदि ईरान ने अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने की कोई कोशिश की तो अमेरिकी राष्ट्रपति भी चुप बैठने वाले नहीं हैं। वह पहले से ही ईरान को चेताने के साथ यह बताने में लगे हुए हैं कि अमेरिकी सेनाओं के संभावित लक्ष्य क्या होंगे? पश्चिम एशिया में अपना दबदबा बढ़ाने में जुटे ईरान के अनैतिक तौर-तरीकों की तरफदारी नहीं की जा सकती, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति सत्ता में आने के बाद से ही जिस तरह उसको अस्थिर करने में लगे हुए हैं उसे भी सही नहीं कहा जा सकता। गैर जिम्मेदाराना हरकत करने वाले देशों से निपटने की अमेरिका की रीति-नीति जिम्मेदार राष्ट्र के अनुकूल नहीं।

अमेरिकी प्रशासन में जिम्मेदारी का यह अभाव ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से और अधिक बढ़ा ही है। ट्रंप ने जिस आधार पर कासिम सुलेमानी को निशाना बनाना जरूरी समझा उससे बड़े आधार तो पाकिस्तानी सेना के जनरलों के खिलाफ मौजूद हैं। जब अनगिनत अमेरिकी अधिकारियों के साथ खुद राष्ट्रपति ट्रंप इस सच को स्वीकार कर चुके हैं कि पाकिस्तानी सेना तालिबान एवं हक्कानी नेटवर्क सरीखे आतंकी संगठनों को पाल-पोस रही है तब फिर यह सवाल तो उठेगा ही कि आखिर अमेरिकी ड्रोन पाकिस्तानी जनरलों को क्यों नहीं देख पा रहे हैं?


Date:06-01-20

पश्चिम एशिया में उबाल का असर

विवेक काटजू, (लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)

तीन जनवरी की सुबह बगदाद हवाई अड्डा परिसर में ईरान के मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या कर दी गई। ड्रोन हमले के जरिये हुई यह हत्या अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आदेश पर हुई। इससे ईरान में आक्रोश की लहर दौड़ गई। दुनिया भर में शिया समुदाय इससे कुपित हो गया। आखिर इस पूरे घटनाक्रम के क्या निहितार्थ हो सकते हैं और यह वैश्विक परिदृश्य को किस प्रकार प्रभावित कर सकता है।

इसकी पड़ताल के लिए हमें सबसे पहले ईरान के राष्ट्रीय एवं सामरिक जीवन में सुलेमानी की हैसियत को समझना होगा।

सुलेमानी ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स की अल कुद्स इकाई के प्रमुख थे। इस पद पर उन्हें बीस साल से अधिक हो गए थे। रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स का मुख्य मकसद 1979 में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई इस्लामिक क्रांति के मूल्यों एवं उद्देश्यों का संरक्षण करना है। इसके अंदरूनी दस्ते इस्लामिक क्रांति के आंतरिक दुश्मनों का सफाया करते आए हैं। वहीं बाहरी दस्ता विदेशी दुश्मनों से निपटता है। सुलेमानी की अगुआई वाला अल कुद्स बाहरी दस्ता है। वह बीते दो दशकों से इस्लामिक क्रांति के ढांचे को ध्वस्त करने की अमेरिकी कोशिशों का मजबूती से प्रतिरोध कर रहे थे।

वहीं शिया ईरान पर प्रभुत्व कायम करने के सुन्नी अरब देशों के प्रयासों का भी उन्होंने पुरजोर तरीके से मुकाबला किया। सुलेमानी ने पश्चिम एशिया और दुनिया के अन्य देशों में भी शिया समुदाय को संगठित करने की कोशिश की। उनमें ईरान के प्रति सहानुभूति के भाव को बनाए रखने और बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई।

यहां यह भी याद दिलाना होगा कि ईरान में निर्वाचित सरकार तो है जिसका नेतृत्व राष्ट्रपति करते हैं, लेकिन निर्णायक शक्ति सुप्रीम लीडर के हाथ में होती है। 1989 में अपनी मृत्य तक अयातुल्ला खुमैनी इस पद पर काबिज रहे। उनके बाद शिया धर्मगुरुओं ने अयातुल्ला खामनेई को इस गद्दी पर बैठाया। रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स सुप्रीम लीडर के प्रति उत्तरदायी हैं और उनके इशारे पर ही काम करते हैं। इस लिहाज से सुलेमानी खामनेई के बहुत करीबी तो थे ही, वहीं उन्होंने अपने जज्बे, काबिलियत और दिलेरी से ईरानी शियों के साथ-साथ दुनिया भर के शिया समुदाय में गहरी पैठ बनाई। इसीलिए उनकी हत्या पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है।

सुलेमानी शिया जगत के नायक थे तो अमेरिका और सुन्नी अरब देशों की आंखों में वह हमेशा खटकते रहे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि सुलेमानी की अल कुद्स और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों में कभी सहयोग नहीं रहा। उन्होंने इराक में आइएस जैसे साझा दुश्मन के खिलाफ साथ में मुहिम भी चलाई, लेकिन कभी भी दोनों पक्षों ने इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया। यह विरोधाभासी स्थिति आपको सामरिक संबंधों की जटिलताओं का आभास करा सकती है।

चूंकि यह मामला ही अमेरिकी राष्ट्रपति के इशारे पर घटित हुआ तो अमेरिका से इसका सरोकार होना स्वाभाविक है। अमेरिका की कमान संभालने के बाद से ही राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा की ईरान नीति को सिरे से पलट दिया। पहले तो वह परमाणु करार से पीछे हटे और फिर उस पर तमाम प्रतिबंध लगाने के साथ ही सुन्नी अरब देशों का साथ दिया। उन्होंने अपनी यह मंशा कभी नहीं छिपाई कि वह पश्चिम एशिया में ईरान का कद घटाना चाहते हैं। उन्होंने साफ कहा कि वह ईरान की मुश्किलें बढ़ाएंगे और उसे आर्थिक रूप से कमजोर करेंगे। यहां तक कि ईरान के क्रांतिकारी ढांचे और धार्मिक गुरुओं के नेतृत्व वाली प्रणाली को खत्म करने की अपनी इच्छा को भी उन्होंने नहीं छिपाया। उन्होंने ईरान की जनता को भी इसके लिए उकसाया।

इसके साथ ही ट्रंप ने अमेरिकी जनता को भी यह दिखाने का प्रयास किया कि जहां ओबामा की ईरान नीति कमजोर थी वहीं उनके नेतृत्व में पश्चिम एशिया में अमेरिकी हित पूरी तरह सुरक्षित हैं। सुलेमानी को लेकर लिया गया उनका फैसला इसकी बड़ी मिसाल है।

यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि घरेलू स्तर पर ट्रंप विपक्षी डेमोक्रेट पार्टी का भारी विरोध झेल रहे हैं जिसने हाल में अपने बहुमत वाली अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया आगे बढ़ाई। इस साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव भी होने हैं। इससे ट्रंप अमेरिकी जनता को याद दिलाना चाहते हैं कि वह डेमोक्रेट राष्ट्रपति जिमी कार्टर की तरह कमजोर नहीं हैं। याद दिला दें कि चालीस साल पहले कार्टर के कार्यकाल में ही तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास को ईरानियों ने ध्वस्त कर दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने 52 अमेरिकी राजनयिकों को 400 दिन तक बंधक बनाकर भी रखा। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान कार्टर लाचार ही बने रहे।

इसके उलट ट्रंप ने अपने दबंग तेवर अमेरिकी जनता को दिखा दिए कि बगदाद स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमले के कथित आरोपी सुलेमानी को ठिकाने लगाने में जरा भी वक्त जाया नहीं किया गया। ट्रंप की सोच की पुष्टि उनके ट्वीट से जाहिर है कि सुलेमानी की हत्या के खिलाफ अगर ईरान ने कोई दुस्साहस किया तो वह ईरान के 52 ठिकानों को निशाना बनाने से गुरेज नहीं करेंगे। यहां 52 का प्रतीक इसलिए महत्वपूर्ण है कि ईरानियों ने 52 अमेरिकी राजनयिकों को 400 दिनों तक ही बंधक बनाकर रखा था।

इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि ईरान की जनता और विश्व के शिया समुदाय के कई वर्ग अब दबाव डाल रहे हैं कि ईरान सुलेमानी की हत्या का बदला ले। प्रश्न यह है कि ईरान के समक्ष विकल्प क्या हैं? प्रतिबंधों के चलते उसकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल है। ईरानी नेता यह भी जानते हैं कि ट्रंप कई पहलुओं की परवाह नहीं करेंगे। यदि घरेलू राजनीतिक हितों और पश्चिम पश्चिमी एशियाई सुन्नी देशों में अमेरिकी साख को कायम रखने के लिए ईरान पर बड़ा हमला करना पड़ा तो भी वह गुरेज नहीं करेंगे। इसलिए संभवत: ईरान के नेता कुछ न कुछ कार्रवाई तो करेंगे, लेकिन वह सीमित दायरे में ही रहेगी। हां, यह जरूर कि इससे दुनिया में बेचैनी बढ़ेगी और तेल बाजार पर कुछ असर पड़ सकता है, लेकिन इससे ज्यादा असर का अनुमान अतिरेक ही होगा।

ट्रंप ने भारत को भी इसमें घसीटने का प्रयास किया कि सुलेमानी दिल्ली से लेकर लंदन तक आतंकी घटनाओं के पीछे थे। भारत सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देकर एकदम सही किया। भारत के पश्चिम एशिया में व्यापक हित जुड़े हैं। लाखों भारतीय कामकाज के सिलसिले में इन देशों में रहते हैं। भारत की ऊर्जा जरूरत भी इन देशों पर निर्भर है। ऐसे में भारत के लिए इस क्षेत्र में शांति एवं स्थायित्व बहुत जरूरी है।

भारत ने दोनों देशों से संयम बरतने की अपील की है, जो सही है, लेकिन भारत सरकार यह जानती है कि अमेरिका और सुन्नी अरब देशों में उसके विशेष हित हैं जिनकी रक्षा भी जरूरी है। इसलिए भारतीय कूटनीति को संभलकर कदम उठाना होगा। साथ ही पारंपरिक नीति पर भी कायम रहना होगा कि पश्चिम एशिया के आंतरिक मसलों से भारत दूर रहे और द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने पर जोर दे।


Date:06-01-20

लोगों की गतिविधियों पर तकनीक से निगरानी पर विवाद और चिंता

देवांग्शु दत्ता

नागरिकता संशोधन कानून और राराष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) पर देश में मचे घमासान ने सबका ध्यान ‘फेस रिकग्निशन’ तकनीक की तरफ खींचा है। प्रदर्शन के दौरान कई जगहों पर पुलिस ने ड्रोन का इस्तेमाल कर लोगों की तस्वीरें ली हैं और उसके बाद फेशियल रिकग्निशन सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल भीड़ में लोगों की शिनाख्त करने के लिए किया है। इस पूरे मामले से लोगों की गतिविधियों पर निगरानी से संबंधित राज्य के लगभग असीमित अधिकार चिंता का सबब बन गए हैं।

भारत में जल्द ही सबसे बड़ा फेशियल रिकग्निशन सूचना भंडार (डेटाबेस) तैयार होने वाला है। जून में राराष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने डेटाबेस तैयार करने में मदद के लिए सहयोग मांगा था। एनसीआरबी की निविदा के अनुसार, ‘इस प्रणाली के तहत पुलिस को एक वास्तविक माहौल में त्वरित एवं सटीक फेस रिकग्निशन करने की अनुमति दी जानी चाहिए।’ एनसीआरबी का कहना है कि इससे लापता हुए लोगों की पहचान करने में मदद मिलेगी। एनसीआरबी के अनुसार फेस रिकग्निशन तकनीक आधार से नहीं जोड़ी जाएगी। आधार में तस्वीर सहित अन्य व्यक्तिगत जानकारियां भी होती हैं।

एनसीआरबी ने इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन को एक लिखित जवाब में कहा कि जब तक कोई अपराध नहीं होता है तब तक प्रणाली सार्वजनिक जगहों से सीसीटीवी फुटेज नहीं लेगी। डेटा एक केंद्रीकृत ऐप्लीकेशन में रखा जाएगा और केवल पुलिस की इस तक पहुंच होगी। इसमें कोई शक नहीं कि विरोध प्रदर्शन के बाद ऐसी तकनीकों के इस्तेमाल को बढ़ावा मिलेगा। इस बात को लेकर सभी अटकलें लगाएंगे कि एनसीआरबी ऐसी सूचनाएं दूसरे डेटाबेस जैसे ‘आधार’ आदि से नहीं जोडऩे का अपना वादा पूरा करेगा या नहीं। डेटाबेस के अलावा सीसीटीवी सार्वजनिक जगहों और बंद जगहों पर निगरानी के लिए मुस्तैद हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि आम दिनों में भी आपकी छवि एवं गतिविधियां विभिन्न सीसीटीवी कैमरों में कैद की जा रही हैं और कई संगठन आपके आंकड़ों का भंडारण और इनका इस्तेमाल कर रहे हैं। पुलिस यातायात उल्लंघन पर जुर्माना जगाने के लिए पहले से ही सीसीटीवी में कैद तस्वीरों का इस्तेमाल कर रही है।

किसी लोकतांत्रिक देश में महत्त्वाकांक्षी निगरानी कार्यक्रम को निर्धारित सीमा का अतिक्रमण माना जाएगा। इस प्रणाली में लोगों की बिना अनुमति से उनके निजी व्यक्तिगत डेटा लिए जाएंगे। भारत के प्रस्तावित निजी डेटा सुरक्षा विधेयक (पर्सनल डेटा प्रोटेक्शनन बिल) में इससे सुरक्षा के लिए कोई प्रावधान भी नहीं किया गया है। यह विधेयक संसद में पारित भी नहीं हुआ है। इस विधेयक में बिना अनुमति के सरकारी एजेंसियों एवं संगठनों को डेटा जुटाने एवं इनका इस्तेमाल करने की खुली छूट होगी। इस विधेयक के वास्तविक मसौदे में इस बात का जिक्र था कि सरकारी एजेंसियां आवश्यक होने पर ही लोगों की सहमति के बिना डेटा का संग्रह करेंगे। दिसंबर के शुरू में लोकसभा में जारी मसौदे से यह प्रावधान समाप्त कर दिया गया। कुल मिलाकर इसका यह मतलब हुआ कि अगर यह विधेयक पारित हो गया तो सरकार की निगरानी से सुरक्षा के उपाय नाम मात्र के होंगे। डिजिटल तस्वीर ऐसी चीज है, जो लोगों की अनुमति के बिना आसानी से प्राप्त की जा सकती है। यूरोप में इसे निजी व्यक्तिगत डेटा (निजी पर्सनल डेटा) के तौर पर माना गया है और जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेग्युलेशन के प्रावधान ‘राइट टू फॉरगेट’ का इस्तेमाल कर ऐसे सूचनाएं हटाने के लिए कहा जा सकता है। यह स्पष्टï नहीं है कि प्रस्तावित पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल, 2019 के तहत ऐसा आग्रह किया जा सकता है या नहीं, हालांकि इस विधेयक में ‘राइट टू फॉरगेट’ का प्रावधान जरूर है।

फेस रिकग्निशन तकनीक कई तरह के होती हैं। उदाहरण के लिए वन ऑफ मैचिंग सिस्टम्स जैसे लैपटॉप या मोबाइल उपकरण किसी व्यक्ति का डिजिटल फोटो का भंडारण करता है और लॉग इन के समय यूजर के चेहरे से इसका मिलान करता है। वन वर्सस फ्यू सिस्टम किसी संगठन में कर्मचारियों का छोटा डेटाबेस तैयार करने के लिए इस्तेमाल होती है। इन दोनों मामलों में लोगों की सहमति ली जाती है और यह सहमति वापस भी ले सकती है। कई ऐसे मामले भी होते हैं, जिनमें पुलिस किसी व्यक्ति की तस्वीर का मिलान एक बड़े डेटाबेस से करते हैं। इसी तरह, पुलिस भीड़ की फोटो लेती है और प्रत्येक चेहरे का मिलान बड़े डेटाबेस से करते हैं। इनमें किसी भी मामले में सहमति या जानकारी नहीं होती है।

आधुनिक फेशियल रिकग्निशन कार्यक्रमों से बच निकलना आसान भी नहीं है, लेकिन कुछ चूक होने की गुंजाइश तो रह ही जाती है। एयर फिल्टर मास्क आधुनिक फेस रिकग्शिन प्रणाली को उलझन में नहीं डाल सकता है। मेक-अप आदि से चेहरा छुपाया जा सकता है, लेकिन यह भी आसानी से पकड़ में आ जाएगा। स्कार्फ या इयररिंग्स या किसी व्यक्ति के वास्तविक चेहरे के इर्द-गिर्द पहनी गई कोई चीज और चेहरे की शक्ल की तरह लगने वाली छवि सॉफ्टवेयर को धोखे में डाल सकती है।

फेस रिकग्निशन तकनीक और निगरानी के लिए सरकार द्वारा इसका इस्तेमाल विवाद का विषय है। विभिन्न देशों में इस पर पाबंदी लगा दी गई है। इसमें तकनीकी खामी है। उदाहरण के लिए तकनीक के धोखा खाने से निर्दोष व्यक्ति भी परेशानी में फंस सकते हैं। इन तकनीकों की सीमाएं या संभावनाएं जानने, समझने या इनके इस्तेमाल को समझने में न्यायालय एवं न्यायाधीश भी गच्चा खा सकते हैं। हालांकि भारत में बड़े पैमाने पर ऐसी निगरानी तकनीकों का इस्तेमाल होगा और डेटा सुरक्षा विधेयक के प्रावधानों के अनुसार यह पूरी तरह कानूनी एवं व्यापक होगा।


Date:05-01-20

आधी आबादी का गणतंत्र

संपादकीय

हम भारत के लोगों ने ही भारत के संविधान को बनाया है। संविधान सभा का गठन ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के सिद्धांत पर नहीं किया गया था, इसलिए यह सही मायने में लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं है। फिर भी, अंतिम नतीजे के रूप में इसे देखें तो संविधान सभा ने भारत के सभी लोगों के बारे में बात की है। यह एक ऐसा संविधान है, जिसने आपातकाल (1975-77) या 1979-80 में केंद्र सरकार के गिर जाने जैसे गंभीर हालात में भी अपने को लचीला साबित किया, और अपने बुनियादी ढांचे को खोए बगैर कई संशोधन झेल चुका है।

जब नानी पालखीवाला ने संविधान के अपरिवर्तनीय और असंशोधनीय ‘बुनियादी ढांचे’ के सिद्धांत को रखा था, तब कई अध्येताओं और कानूनी विशेषज्ञों ने इसका उपहास उड़ाया था। इन लोगों का कहना था कि संविधान में संशोधन (धारा 368) करने के संप्रभु संसद के अधिकार को कार्यपालिका द्वारा नियुक्त जज कैसे कम कर सकते हैं, या उसकी समीक्षा कर सकते हैं। आखिरकार तेरह में सात जजों ने पालखीवाला की उस आदर्श दलील को स्वीकार किया था। आज हम कह सकते हैं कि ईश्वर को धन्यवाद कि उन्होंने तर्क को स्वीकार किया।

क्या सबके लिए न्याय?

यह भारत का संविधान है, जो अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का संकल्प करता है। इसमें हरेक का अपना गहरा अर्थ है, उदाहरण के लिए सामाजिक न्याय। न्याय के ये संकल्प लाखों लोगों के दिल में उम्मीद की किरण पैदा करते हैं और उसे जलाए रखते हैं। 26 जनवरी, 2020 को हम संविधान की सत्तरवीं वर्षगांठ मनाएंगे।

यही वह समय है जब बड़े और कठोर सवाल पूछे जाने चाहिए, किसे सामाजिक न्याय मिला और किसे नहीं? आर्थिक न्याय क्या है और क्या सभी नागरिकों को आर्थिक न्याय मिलता है? और जब सारे नागरिकों के पास वोट का अधिकार है, तो क्या उन्हें राजनीतिक न्याय मिलता है?

सदियों से सबसे बड़ा वर्ग निचले तबके का अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का रहा है। अन्य पिछड़ी जातियां, इनमें भी सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियां और अल्पसंख्यक हर तरह के लाभ से वंचित वाले वर्ग रहे हैं। अमेरिका में अश्वेत समुदाय के लोग कई सौ साल तक ठीक उसी हालत में रहे थे, जैसे आज भारत में दलित, आदिवासी और मुसलमान हैं। दास प्रथा को समाप्त करने के लिए अमेरिका में गृहयुद्ध तक छिड़ा और 1963 में नागरिक अधिकार कानून बना ताकि उन्हें स्वीकार करने और बराबरी के अवसर प्रदान करने की दिशा में ठोस और सकारात्मक कदमों की शुरूआत की जा सके। भारत में, हमारे पास ऐसा संविधान है जो अस्पृश्यता को स्वीकार नहीं करता, धर्म के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव को खारिज करता है और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण प्रदान करता है। फिर भी हकीकत यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल (जो मानव विकास सूचकांक के दूसरे संकेतकों में से हैं) और सरकारी नौकरियों में नियुक्तियों के संदर्भ में सामाजिक न्याय उपेक्षित वर्गों की पहुंच से कहीं दूर है।

गरीबों के खिलाफ और भेदभाव

मैंने आवास, अपराध, विचाराधीन मुकदमे, खेल की टीमों में प्रतिनिधित्व आदि के आंकड़ों का जिक्र नहीं किया है, जो निर्णायक रूप से यह साबित करेंगे कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और मुसलमानों के साथ सामाजिक भेदभाव हो रहा है और उन्हें उपेक्षित, तिरस्कृत और हिंसा के लिए छोड़ दिया गया है।

आर्थिक न्याय सामाजिक न्याय की देन है। उपेक्षित और वंचित समूहों में शैक्षिक उपलब्धि कम है, संपत्ति कम है, सरकारी नौकरियां कम हैं या अच्छी नौकरियां नहीं हैं, और कम आमद-खर्च है।

राजनीतिक न्याय का तीसरा वादा सबसे ज्यादा आहत करने वाला है। भला हो आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों का जिसकी वजह से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को राज्य विधानसभाओं और संसद सहित सभी निर्वाचित निकायों में उचित प्रतिनिधित्व मिला है, लेकिन राजनीतिक न्याय वहां जाकर ठहर जाता है। कई राजनीतिक दलों में निर्णय करने वाले निकायों या स्तरों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों की प्रतिनिधित्व सिर्फ दिखावे भर का होता है। यहां तक कि यदि अनुसूचित जाति के लोगों ने अपनी पार्टी (बसपा, वीसीके) बनाई भी है तो भी अनुसूचित जाति के मतदाताओं में उनका आधार सीमित है, और जब तक कि वे बड़े सामाजिक गठजोड़ (बहुजन) या राजनीतिक गठजोड़ नहीं करते, तो वे वहीं पड़े रह जाते हैं जहां वे हैं। अल्पसंख्यकों खासतौर से मुसलमानों के मामले में तो हालात और खराब हैं। मुख्यधारा वाले राजनीतिक दलों में ‘अल्पसंख्यक सेल’ बने हुए हैं, लेकिन पार्टी की अग्रिम पंक्ति में मुशिकल से ही कोई इनमें से पहुंच पाता है। भाजपा ने तो खुलेतौर पर मुसलमानों को दूर किया और उन्हें एनआरसी, एनपीआर और सीएए की धौंस दिखाई। दूसरी ओर, आइयूएमएल या एआइएमआइएम जैसी मुसलिम पार्टियां गठबंधन की भागीदार हो सकती हैं, या खेल बिगाड़ने वाली हो सकती हैं, लेकिन कभी विजेता नहीं हो सकतीं।

मुसलमानों से संबंधित मामलों को कम समर्थन मिलता है या उनका भारी विरोध हो जाता है। जम्मू-कश्मीर का ही उदाहरण लें। मुझे लगता है कि घाटी में रह रहे पचहत्तर लाख लोगों का मामला ऐसा है जिसमें अब कुछ नहीं हो सकता। घाटी (जिसे आधा घटा कर एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया है) पिछले साल पांच अगस्त से कैद में है। पिछले साल घाटी में आतंकी हमलों की घटनाएं दस साल में सबसे ज्यादा रहीं। बड़ी संख्या में नागरिक मारे गए और जख्मी हुए। बिना किसी आरोप के छह सौ नौ लोग हिरासत में हैं, जिनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री भी हैं। मीडिया ‘सामान्य हालात’ वाली सरकारी विज्ञप्तियों ‘से ही ‘रिपोर्ट’ दे रहा है। देश का बाकी हिस्सा कश्मीरी लोगोंको भूल चुका है और दूसरे बड़े मुद्दों की ओर मुड़ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2019 में दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखा हुआ है।

लाखों लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय नहीं देकर प्रतिदिन संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। जहां तक जम्मू-कश्मीर का संबंध है, यह संविधान को अपवित्र करने जैसा है, लेकिन हमें अदालत के फैसले का इंतजार करना है। सभी नागरिकों को न्याय देने का जो संकल्प किया गया था, सत्तार साल बाद भी कम से कम आधे नागरिकों को भी वह न्याय नहीं मिला है, और बाकी आधों को जो मिला है, वह टुकड़ों-टुकड़ों में ।