06-01-2017 (Important News Clippings)

Afeias
06 Jan 2017
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Date: 06-01-17

Food wastage is an area of prime concern

Food loss and waste is a global problem, but unaffordably high in India. Minimising food wastage should be taken up as a priority. According to the United Nations’ Food and Agriculture Organisation, one-third of all food produced for human consumption, roughly 1.3 billion tonnes, is lost or wasted. The Central Institute of Post-Harvest Engineering and Technology (CIPHET), Ludhiana, estimated the harvest and post-harvest loss of nearly Rs 93,000 crore in 2012-13 — nearly 16 per cent of fruit and vegetables and 6 per cent of cereals were lost. Missing processing capacity, transport links and storage facility are to blame for most wastage.

Reducing post-harvest loss can increase the amount of food available to farmers for their own consumption and for sale. It can contribute to addressing the country’s hunger and malnutrition problem. With nearly 200 million people undernourished, India ranks 97th among 118 countries on the 2016 Global Hunger Index. Food produced but unavailable for consumption exacts an environmental toll, using up water, degrading land and producing emissions of greenhouse gases. So far, governments and industry have stressed on the need for storage. The focus needs to be on moving the produce from the field to the consumer. This means marketing freedom for farmers, motorable roads, refrigerated vans and smooth movement across state borders, besides investing in the food processing industry, particularly close to the areas of production. This will minimise food loss during transport.

As the sale of packaged and processed food with an expiry date becomes more commonplace, better packaging to extend the life of packaged food and practices to distribute food bought but unused by the consumer also become salient.


Date: 06-01-17

केंद्रीय बजट और चुनाव के बीच फंसा हमारा लोकतंत्र

भारतीय लोकतंत्र पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और आम बजट के बीच फंस गया है। जहां सत्तारूढ़ भाजपा ने 28 फरवरी को पेश होने वाले आम बजट की परंपरा बदलते हुए उसे 1 फरवरी को पेश करने का संकल्प किया है, वहीं विपक्षी दलों की मांग है कि विधानसभा चुनावों की तारीख देखते हुए उसे मुल्तवी कर देना चाहिए। वजह साफ है कि नोटबंदी के बाद यह मोदी सरकार का बहुप्रतीक्षित बजट है, जिसमें सरकार जनता के लिए तमाम राहतों का एलान कर सकती है, जिनसे नोटबंदी से दुखी जनता की राय बदल सकती है।केंद्र सरकार यही चाहती भी है कि जनता को 50 दिनों तक पुरानेे नोट जमा करने और नकदी की कमी से जूझते हुए जो कष्ट हुआ है उसे तमाम योजनाओं के माध्यम से दूर किया जाए। विपक्ष चाहता है कि जिस तरह आचार संहिता का पालन सभी राज्य सरकारों को करने की अनिवार्यता है वैसी ही केंद्र सरकार के लिए भी होनी चाहिए।जहां वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि 2014 के आम चुनाव से पहले यूपीए सरकार ने अंतरिम बजट पेश किया था तो मौजूदा एनडीए सरकार को भी वैसा मौका देना चाहिए। किंतु 16 राजनीतिक दलों ने राष्ट्रपति और मुख्य चुनाव आयुक्त को ज्ञापन देकर यह नजीर दी है कि पांच साल पहले भी बजट मार्च मध्य में पेश किया गया था। ये विधानसभा चुनाव न सिर्फ बेहाल विपक्ष के लिए संजीवनी साबित हो सकते हैं, बल्कि मोदी सरकार के लिए भी वे सेमीफाइनल की तरह हैं। अगर यह चुनाव भाजपा की आशाओं के अनुरूप नहीं रहे तो उसे 2019 के आम चुनाव से पहले आर्थिक सुधार करना तो कठिन हो ही जाएगा और कई लोक-लुभावन योजनाओं का एलान भी जरूरी हो जाएगा। इस मसले पर मुख्य चुनाव आयुक्त को निर्णय लेना है और उम्मीद है कि आयोग लोकतंत्र की अहम संस्था के रूप में निष्पक्षता दिखाएगा।
यहां दो प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हैं। एक प्रश्न लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने का है ताकि ऐसी दिक्कतें बार-बार न आएं। दूसरा प्रश्न उदारीकरण के इस दौर में आम बजट के सहारे अर्थव्यवस्था को गति देने का है। अगर अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र में चला गया है तो आम बजट पर इतनी मारामारी क्यों? जाहिर है अर्थव्यवस्था के फैसलों को जनता और देश के हित में ध्यान रखकर लिया जाना चाहिए लेकिन, उसे चुनाव के तात्कालिक लाभ से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।

Date: 06-01-17

सुब्बाराव बोले- नोटबंदी का फैसला ‘रचनात्मक विध्वंस’

आरबीआई के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले को ‘एक रचनात्मक विध्वंस’ (क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन) बताया है। इसके साथ ही उन्होंने इसे 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद का अब तक का सबसे बड़ा ‘उलटफेर पैदा करने वाला नीतिगत नवप्रवर्तन’ करार दिया है।सुब्बाराव का कहना है कि इससे कालाधन नष्ट करने में मदद मिली है। बैंकिंग प्रौद्योगिकी में विकास और शोध संस्थान द्वारा गुरुवार को आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में सुब्बाराव ने कहा कि पिछले 8 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रिजर्व बैंक ने एक झटके में 86% मुद्रा चलन से बाहर कर दी। इसलिए कहा जा सकता है कि यह निश्चित रूप से 1991 के सुधारों के बाद सबसे बड़ा उलटफेर वाला नीतिगत नवप्रवर्तन है। यह एक विशेष प्रकार का रचनात्मक विध्वंस है क्योंकि इसने जो चीज नष्ट की है वह कालाधन है, जो कि एक विनाशकारी सृजन है।ऐसे में आप समझ सकते हैं कि नोटबंदी विध्वंस वाले एक सृजन (कालेधन) का रचनात्मक विध्वंस है। नोटबंदी से भारतीय वित्तीय क्षेत्र में भुगतान के डिजिटलीकरण के जरिए कई प्रकार के नवप्रवर्तन हो रहे हैं। सुब्बाराव ने कहा कि नोटबंदी की लागत और इसके लाभ एक लगातार बहस वाली प्रक्रिया हैं लेकिन नीतिगत नवप्रवर्तन पर कोई विवाद नहीं है।

Date: 06-01-17

प्रत्यक्ष कर सुधार

वित्त मंत्री अरुण जेटली को आगामी आम बजट 1 फरवरी को पेश करना है। इस दौरान उनके सामने कठिन चुनौती होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था कई मोर्चों पर चुनौतियों से जूझ रही है। वित्त मंत्री को उन चुनौतियों से निपटने के लिए मूलभूत दिक्कतों पर ध्यान देना होगा। मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार अर्थव्यवस्था में अहम बदलाव लाई है।

 मुद्रास्फीति अब हमारी प्रमुख चिंता नहीं है परंतु आर्थिक वृद्घि एक तय दायरे में ही रही है। एक तिमाही को छोड़ दिया जाए तो आठ फीसदी से अधिक की विकास दर हासिल करने का लक्ष्य हम नहीं पा सके हैं। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था सरकारी व्यय और निजी खपत पर टिकी हुई है। निर्यात और निजी निवेश के मोर्चे पर हमें कामयाबी नहीं मिली। निर्यात के मोर्चे पर तो खासी निराशा हाथ लगी। दिसंबर 2014 से मई 2016 के बीच भारतीय निर्यात ऋणात्मक रहा है, हालांकि इसके लिए काफी हद तक वैश्विक स्तर पर कमजोर मांग भी जिम्मेदार है।
निजी निवेश में भी पिछली तीन तिमाहियों की तुलना में तेजी से कमी आई है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि भारतीय उद्योग जगत में क्षमता का 75 फीसदी भी बमुश्किल इस्तेमाल हो रहा है। अधिकांश बैंक फंसे हुए कर्ज से जूझ रहे हैं और तमाम कारोबारों में नकदी हद से ज्यादा है। इसके बावजूद अर्थव्यवस्था निरंतर सात फीसदी की विकास दर हासिल कर रही थी लेकिन रोजगार निर्माण को लेकर चिंता बनी रही। आठ नवंबर को सरकार ने देश की 86 फीसदी मुद्रा चलन से बाहर कर दी। इस कदम ने खपत को बुरी तरह प्रभावित किया। डर तो यह था कि मांग में कमी के चलते वृद्घि दर कुछ तिमाहियों के लिए लुढ़क सकती है।
दूसरी ओर सरकार के राजस्व संग्रह पर भी इसका असर पडऩा लाजिमी था जो अंतत: सरकारी व्यय को प्रभावित करता। सौभाग्यवश ऐसा नहीं हुआ। बुधवार को जेटली ने कहा कि सरकार इस वर्ष प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के मामले में बजट अनुमान की तुलना में बेहतर राजस्व हासिल करेगी। बजट अनुमान में अप्रत्यक्ष कर में 10.8 फीसदी वृद्घि का अनुमान जताया गया था लेकिन अप्रैल से नवंबर तक यानी वित्त वर्ष पहले आठ महीनों के दौरान यह 26.2 फीसदी अधिक रहा।खासतौर पर उत्पाद कर संग्रह 12.15 फीसदी के अनुमान की तुलना में 43.5 फीसदी तक अधिक रहा। जबकि सेवा कर संग्रह 10 फीसदी के अनुमान की तुलना में 25.7 फीसदी अधिक रहा। सीमा शुल्क संग्रह जरूर अनुमान से कम रहा। प्रत्यक्ष कर के मोर्चे पर 19 दिसंबर तक शुद्घ बढ़ोतरी बजट लक्ष्य से अधिक थी। कॉर्पोरेट कर संग्रह लक्ष्य से पीछे रहा लेकिन व्यक्तिगत आय कर में 23.9 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। जबकि इसके लिए 18.1 फीसदी का लक्ष्य निर्धारित था।
चूंकि सरकार के राजस्व लक्ष्य हासिल करने की पूरी संभावना है इसलिए जेटली को वर्ष 2015 के बजट में किए गए वादे पर लौटना होगा। उस वक्त उन्होंने कहा था कि वस्तु एवं सेवा कर के रूप में अप्रत्यक्ष कर सुधार के साथ-साथ प्रत्यक्ष कर व्यवस्था में बड़े बदलाव की आवश्यकता है। उन्होंने कहा था कि देश में कॉर्पोरेट कर की दर ज्यादा है। इसके बावजूद तमाम रियायतों के चलते प्रभावी संग्रहण कम है। अब वक्त आ गया है कि प्रत्यक्ष कर दरों में भी कटौती की जाए और हर तरह की रियायत समाप्त की जाए। ब्याज दरों में कमी के साथ यह कदम देश में विकास की गति को एक बार फिर बढ़ा सकता है।