05-11-2018 (Important News Clippings)
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Date:05-11-18
Choppy Waters
Pursue economic reforms to withstand external turbulence
TOI Editorials
In what can be described as a double whammy for India, restrictions over import of oil from Iran are set to kick in today, even as the US has withdrawn duty-free concessions under the Generalised System of Preferences (GSP) that will affect at least 50 Indian products. The two measures are indicative of the Donald Trump administration’s continuing drive to crack down on what it describes as unfair trade practices and further its definition of American strategic interests, which includes sanctions on Iran.
The GSP was designed to promote economic development by allowing duty-free access to designated products from some developing countries. The Trump administration, however, views them with a jaundiced eye. Withdrawing the concessions is bound to hit Indian micro, small and medium enterprises (MSMEs), already reeling under domestic moves such as demonetisation and poor implementation of GST. Meanwhile, American sanctions on Iran will snap back today. This will hit Iranian oil that forms a significant portion of India’s energy basket.
True, the US administration has agreed to grant temporary exemptions to eight countries that import oil from Iran, including India. But this will be conditioned upon further reduction in Iranian oil imports with the aim of ultimately bringing this down to zero. India failed to take advantage of the good years when oil prices were low, and it’s clear from these measures that India’s external economic environment is turning distinctly adverse now with America gradually tightening the screws on trade.
But every crisis presents an opportunity to reform. In this respect, India needs to further cut red tape and streamline clearances for business. Despite the commendable jump in the latest Ease of Doing Business rankings, areas like enforcing contracts and time taken to start a business need further improvement. Labour laws continue to be stringent and must be reformed to attract big ticket foreign investments. Meanwhile, in the face of Iran oil curbs and global oil price rises that are expected to follow, there is a case for cutting fuel taxes as well as relaxing domestic exploration norms. Lastly, with the US rewriting international trade norms, it would benefit New Delhi to conclude a bilateral trade deal with Washington. It’s time to get smart and build domestic economic strength. The ‘Diwali package’ for MSMEs unveiled by Prime Minister Narendra Modi last Friday is a small step in the right direction.
Date:05-11-18
Iran Sanctions: Welcome Breather
ET Editorials
The Trump Administration’s decision to exempt India from enforcing the sanctions that the United States is slated to reimpose on Iran on November 5 comes as a welcome breather for New Delhi. India is among eight countries that could include South Korea, China and Japan, besides Turkey and Iraq. The economic benefits of the waiver are significant, diplomatically it is a recognition of India’s growing importance in the global arena and its place in US global engagement, particularly in Asia. As welcome as the waiver is, New Delhi must continue to step up its global engagement, particularly with the European Union and its member countries, and Japan.
India is the second-largest importer of Iranian oil, China being the first. Uninterrupted supply from Iran would help ensure that the Indian oil market remains stable. However, since September, India has been cutting back on its imports from Iran—down to 300,000 barrels per day compared to 685,000 barrels earlier. It is not certain whether the terms of the waiver require further and more drastic reduction in the amount of oil bought from Iran. Canada and the European Union, traditional US allies, have not been extended the waiver. The UK, France, Russia are among the countries that committed to continue honouring the Iran nuclear deal. The US sanctions against Iran will serve to strengthen the position of Washington’s traditional ally, Saudi Arabia, another major supplier of oil to India.
This is a temporary breather. New Delhi must persist with ongoing efforts to create a united front of major oil importers, to counter cartelised oil suppliers. Efforts must continue to create non-dollar payment mechanisms to settle transactions that do not involve a US counterparty. At the same time, India must accelerate its planned shift away from imported oil, substituting petrofuels with electric power for rail haulage and for domestic cooking. Preparedness for e-mobility also has to be scaled up and coordinated across departments and ministries. The immediate must not crowd out the long-term.
Date:05-11-18
स्वागतयोग्य कदम
संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत सप्ताह सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र के लिए 12 पहल वाले पैकेज की घोषणा की। इस पैकेज में वे उपाय शामिल हैं जो एमएसएमई की नए दौर में प्रवेश करने में मदद करेंगे। संक्षेप में कहा जाए तो ये उपाय न केवल इस क्षेत्र के लिए ऋण की उपलब्धता बढ़ाएंगे बल्कि उनके लिए कारोबार को और सुगम भी बनाएंगे। बीते दो वित्त वर्ष के दौरान एमएसएमई क्षेत्र को नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) क्रियान्वयन के रूप में लगातार दो झटके लगे। इनकी वजह से इस क्षेत्र की आय में काफी कमी आई। देश के गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी क्षेत्र का मौजूदा संकट जो आईएलऐंडएफएस की कमजोरी की वजह से पैदा हुआ है, उसने भी एमएसएमई को ऋण का प्रवाह बाधित किया है। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह अच्छी बात है कि सरकार अर्थव्यवस्था के इस अहम क्षेत्र की पूरी मदद कर रही है। देश में करीब 6.5 करोड़ ऐसे उद्यम हैं जिन्होंने 12 करोड़ लोगों को रोजगार दिया है। यह रोजगार तैयार करने वाला कृषि के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है।
नकदी के संकट से जूझ रहे इस क्षेत्र को तत्काल और तेजी से सहायता उपलब्ध कराने के लिए प्रधानमंत्री ने एक देशव्यापी वेब पोर्टल की शुरुआत करने की घोषणा की जहां एक करोड़ रुपये तक का ऋण केवल एक घंटे से भी कम समय में जारी किया जाएगा। पहले चरण में सरकार 78 एमएसएमई क्लस्टर में पांच सरकारी बैंकों में इसे अंजाम देगी। बैंक अधिकारियों को इन जगहों पर तैनात किया जाएगा ताकि ऋण आसानी से दिया जा सके। इसके बाद उन एमएसएमई को ऋण में दो प्रतिशत की छूट और नया ऋण दिया जाएगा जो जीएसटी के तहत पंजीयन करा चुके हैं। पैकेज में उन निर्यातकों को ब्याज में छूट देने की बात भी कही गई है जो माल भेजने के पहले और बाद में ऋण लेते हैं। ऋण आसान करने के अलावा पैकेज का ध्यान कारोबारी व्यवहार्यता बेहतर बनाने पर भी है। इसके लिए सभी सरकारी उपकमों से कहा जाएगा कि वे अपने कच्चे माल का 25 फीसदी एमएसएमई से खरीदें। पहले यह सीमा 20 प्रतिशत थी। इसी प्रकार 500 करोड़ रुपये से अधिक कारोबार करने वाली सरकारी कंपनियां और कारोबारी घरानों को अनिवार्य तौर पर ट्रेड रिसीवेबल्स इलेक्ट्रॉनिक डिस्काउंटिंग सिस्टम पोर्टल पर पंजीयन कराना होगा। इस कदम से उद्यमियों को अपनी आगामी प्राप्तियों के आधार पर बैंकों से ऋण मिल सकेगा। इतना ही नहीं एमएसएमई को तकनीकी उन्नयन का समर्थन भी मिलेगा। प्रधानमंत्री ने पर्यावरण मंजूरी, निरीक्षण और रिटर्न फाइल करने की प्रक्रिया को और सहज बनाए जाने की बात कही। कंपनी अधिनियम में संशोधन के लिए अध्यादेश को मंजूरी दी जा चुकी है ताकि कारोबारियों को अनावश्यक दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़े।
निस्संदेह ये उपाय एमएसएमई क्षेत्र के लिए काफी मददगार साबित होंगे। बहरहाल, इन कदमों को लेकर अति उत्साह से भरने के बजाय सतर्क रहने की भी पर्याप्त वजह हैं। प्रधानमंत्री द्वारा इनकी घोषणा अति उत्साह की वजह बन सकती है। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘मैं स्वयं इस बात की निगरानी करूंगा कि अगले 100 दिन में सरकार 100 जिलों के छोटे कारोबारों तक पहुंचे।’ ऐसे में अधिकारी लंबी अवधि के नकारात्मक परिणामों का आकलन किए बगैर जल्दी से जल्दी नतीजे देने का दबाव महसूस कर सकते हैं। उदाहरण के लिए एमएसएमई को जल्दी ऋण देने के प्रयास के साथ यह तय होना चाहिए कि ऋण अनुशासन का ध्यान रखा जाए। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर एन एस विश्वनाथन ने एक अलग संदर्भ में ही सही इससे जुड़ी चेतावनी दे दी है जिसकी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार सरकारी उपक्रमों के लिए खरीद की प्राथमिकता में यह जोखिम छिपा है कि कहीं इससे अव्यवस्था न पैदा हो।
Date:04-11-18
ये क्या जगह है दोस्तो !
हरिमोहन मिश्र
यकीनन यह दौर कुछ और ही है। इस हफ्ते की सुर्खियों पर जरा गौर कीजिए। सीबीआई के बाद आरबीआई खबरों में है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर संस्थागत स्वायत्तता की दुहाई दे रहे हैं, तो सरकार चेता रही है कि आरबीआई कानून के अनुच्छेद 7 पर अमल करके वह उसे अपना आदेश मानने पर बाध्य कर सकती है, जिस पर आज तक कभी अमल नहीं किया गया। फिर अहमदाबाद विश्वविद्यालय को एक छात्र संगठन ने चेताया कि महात्मा गांधी के जीवनीकार रामचंद्र गुहा जैसे ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘अर्बन नक्सल’ को न बुलाया जाए। गुहा ने खुद ही जाने से मना कर दिया। दूसरी तरफ, सरदार सरोवर में सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति का अनावरण प्रधानमंत्री मोदी करते हैं, तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी की ओर से खबर आती है कि अयोध्या के सरयू तट पर राम की उससे भी ऊंची मूर्ति स्थापित की जाएगी। स्थापित संस्थाओं के ढहने और दुनिया में सबसे ऊंची मूर्तियां स्थापित करने के मायने आखिर क्या हैं? मूर्तियां गढ़ना या मूर्तियां तोड़ना कोई नया शगल नहीं है, लेकिन असली सवाल ये हैं कि उसके जरिए क्या संदेश दिया जा रहा है? और कैसा जनमत तैयार करने की कोशिश की जा रही है?
सबसे चिंताजनक संस्थाओं का ढहना है क्योंकि उन्हीं की बुनियाद पर हमारा लोकतंत्र खड़ा है। ये संस्थाएं भी कोई एक दिन में नहीं बनी हैं, और कई थपेड़े झेल चुकी हैं, या उथल-पुथल के दौर से गुजर चुकी हैं। यहां तक कि अपने लंबे अध्ययन-अध्यापन के बल पर बौद्धिक भी संस्था का रूप ले लेते हैं, इसलिए उन पर चोट भी एक मायने में संस्थाओं को ढहाने जैसा ही कहा जा सकता है। याद कीजिए, एकाध साल पहले जब रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के बारे में ऐसी ही बातें कही गई थीं, और कई किताबों को पाठय़क्रम से हटाने या बदलने की बात चली थी, तो एनडीए की पहली सरकार में मंत्री रह चुके अरुण शौरी ने कहा था, ‘किसी बड़े बुद्धिजीवी से असहमत तो हुआ जा सकता है, लेकिन उसकी स्थापनाओं को काटने के लिए उससे अधिक गंभीर शोध और स्थापनाएं आगे लानी पड़ेंगी। सिर्फ गाल बजाकर यह नहीं किया जा सकता।’ गुहा से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उन्हें ‘राष्ट्रद्रोही’ बताना तो निहायत ही बुद्धि-विरोधी शगल है, और बोदे, भदेस बहुसंख्यकवाद की हिंसक प्रवृत्ति का परिचायक है।
खैर! क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर, पिछले चुनावों में अप्रत्याशित बड़ी जीत हासिल करके सत्ता में आई सरकार के आखिरी दौर में आते-आते सारी संस्थाएं ढहने क्यों लगी हैं? बड़े पदों पर कदाचार और भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के हाल तो जगजाहिर हैं, उसके साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), खुफिया ब्यूरो (आईबी) वगैरह भी कीचड़ में लथपथ हैं, जिनकी खबरों से अब देश अनजान नहीं रह गया है। इन संस्थाओं की साख पर सवाल खड़ा होने के पहले न्यायपालिका पर भी गहरे सवाल खड़े हो चुके हैं। हालांकि अब भी न्यायपालिका से ही उम्मीद है कि वह संस्थाओं की गिरावट पर अंकुश लगाए।
बहरहाल, अब जिस संस्था की स्वायत्तता पर सीधे सरकारकी ही टेढ़ी नजर है, वह आरबीआई हमारी अर्थव्यवस्था का मूलाधार है। कथित तौर पर सरकार चाहती है कि आरबीआई अपने करीब 3 लाख करोड़ रुपये के संरक्षित कोष में कुछ ढील दे यानी उससे कुछ रकम आगे बढ़ाए ताकि बैंक उद्योगों को कर्ज मुहैया करा सकें और मंदी में घिरी अर्थव्यवस्था कम से कम 2019 के आम चुनावों के पहले कुछ सुखद एहसास दे सके। सरकारी दलील यह भी है कि छोटे और मझोले उद्योगों को कर्ज मुहैया होगा तो कारोबार-धंधों में कुछ चमक आएगी। लेकिन महंगाई पर अंकुश रखने के कारण रिजर्व बैंक के अधिकारी यह रियायत नहीं देना चाहते। उस ओर से दलील यह भी है कि जिस तरह बैंकों के डूबत खातों के कर्ज (जिन्हें सरकारी भाषा में गैर-निष्पादित संपत्तियां या एनपीए कहा जाता है, जो एक मायने में छलावा हैं) बढ़ते जा रहे हैं (मोटे अनुमान से करीब 13.5 लाख करोड़ रु.)। ऐसे में अगर और कर्ज देने की रियायत बरती गई तो उससे वैसा ही संकट पैदा हो सकता है, जैसा नब्बे के दौर में चंद्रशेखर सरकार के दौरान खड़ा हुआ था, और सोना गिरवी रखकर कर्ज लेना पड़ा था। यह भी कहा जा रहा है कि दिवालिया संहिता के तहत जब बैंकों ने नोटिस देने शुरू किए तो बड़े कर्जदारों में हड़कंप मच गया। खासकर पिछले दिनों मंजूरी पा चुकीं ठप पड़ीं निजी क्षेत्र की बिजली परियोजनाओं का मामला गंभीर होने लगा है। हाल में ऐसी ही एक परियोजना के लिए अडानी समूह ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से राहत हासिल की है। कहा यह भी जा रहा है कि ये कंपनियां दिवालिया संहिता की कार्रवाई से बचने के लिए बैंकों से और कर्ज की मांग कर रही हैं। हालात जो भी हों मगर भारतीय रिजर्व बैंक जब अंकुश लगाए रखने की बात कर रहा है, तो उसे यह मोहलत दी जानी चाहिए।
रिजर्व बैंक के उच्चाधिकारियों का कष्ट इतना ही नहीं है। पहली बार सरकार के नियुक्त किए स्वतंत्र डायरेक्टरों का दबाव भी बढ़ रहा है। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की वह टिप्पणी याद कीजिए कि ‘केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता से छेड़छाड़ की गई तो अर्थव्यवस्था जल उठेगी।’ यह भी अटकलें हवा में हैं कि दबाव इतना बढ़ गया है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे सकते हैं। यह भी अफवाह है कि उनके साथ दो डिप्टी गवर्नर भी इस्तीफा दे सकते हैं। हालांकि यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि रिजर्व बैंक ने अपने ऊपर यह दबाव बनने दिया क्योंकि वह अगर नोटबंदी के फैसले का विरोध कर देता तो शायद आज न अर्थव्यवस्था की इतनी बुरी हालत होती और न सरकार उस पर इस कदर हावी हो पाती। अब तो यह साबित हो चुका है कि नोटबंदी और हड़बड़ी में लागू किए गए जीएसटी, दोनों ने अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर दिया। लेकिन तब उर्जित पटेल नये-नये गवर्नर बनाए गए थे। विडंबना यह भी देखिए कि नोटबंदी का बचाव करने वाले गुरुमूर्ति को कथित तौर पर आरबीआई पर नया दबाव बनाने का किरदार बताया जाता है। सरकार ने उन्हें और तीन-चार दूसरों को आरबीआई में स्वतंत्र डायरेक्टर नियुक्त किया है।
जो भी हो, इस कदर संस्थाओं का चौपट होना बेहद गंभीर मामला है। सत्तारूढ़ खेमे से चेतावनियां दूसरी भी आ रही हैं, जो बेहद संगीन हैं, और देश की संवैधानिक व्यवस्था को तार-तार कर सकती हैं। संघ प्रमुख की ओर से यह बयान आया है कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए। लेकिन संवैधानिक मर्यादाओं और राजनैतिक दिक्कतों से सरकार के ऐसा न कर पाने का अंदेशा हुआ तो कहा गया कि अध्यादेश लाया जाए। अदालत में मामला लंबित होने से जब यह भी संभव नहीं लगा तो राज्य सभा में सरकार की ओर से मनोनीत एक सदस्य अब निजी विधेयक पेश करने की बात कर रहे हैं। फिर, यह भी अपर्याप्त लगा तो सरयू तट पर राम की मूर्ति स्थापित करने की बातें चल पड़ीं। मूर्ति स्थापित करने में कोई दिक्कत नहीं है, न ही निजी विधेयक लाने में। लेकिन असली सवाल यही है कि चुनाव के नजदीक आते ही यह सब क्यों किया जा रहा है? जाहिर है, यह ध्रुवीकरण तेज करने और लोगों का ध्यान सरकार के कामकाज से हटाने की ही फितरत हो सकती है, जिसे लोग नहीं समझ रहे होंगे, यह असंभव है। लेकिन असली चिंता संस्थाओं का विघटन है। संस्थाएं टूट गई तो उन्हें फिर खड़ा करना आसान नहीं हो पाएगा। योजना आयोग इसका अच्छा उदाहरण है।
Date:04-11-18
संस्कृति की विभाजक रेखाएं
ऋषभ कुमार मिश्र
हम एक ऐसे दौर के गवाह बन रहे हैं, जहां भारत की ‘विविधता में एकता’ पर अस्मिता की राजनीति हावी होती जा रही है। भारत के बारे में होने वाली वैचारिक बहसें किसी भी विचारधारा से क्यों न उत्पन्न हों, इस शर्त पर अवश्य सहमत होती हैं कि यहां सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, आचार-व्यवहारों और प्रतीकों की विविधता है। इस विशेषता को विरासत मानते हुए हम अपनी ‘परंपरा’ से जोड़ते हैं। एक ऐसी आदर्श स्थिति की कल्पना करते हैं, जहां विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में कोई संघर्ष या द्वंद नहीं है, जबकि यथार्थ में यह परिकल्पना साकार होती नजर नहीं आती।‘विविधता में एकता’ भारतीय समाज के जिन सांस्कृतिक प्रतीकों पर निर्मिंत है, वे इन समूहों के सामाजिक-आर्थिक संबंध को ऐतिहासिक ढंग से नहीं प्रस्तुत करते। भारत की परिकल्पना करने वालों का एक धड़ा ऐसा है, जो एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा के नाम पर हर विविधता को एकरूपता में बदल कर ‘वृहद् भारत’ की रचना करना चाहता है। स्वाभाविक है कि यह तरीका प्रतिरोध को जन्म देगा। विडंबना यह है कि ये दोनों धाराएं हर सां न सम्मत है लेकिन इसकी उतनी स्वीकृति नहीं बन पा रही है क्योंकि अन्य दो धाराओं ने मीडिया जैसे साधनों के प्रयोग द्वारा ऐसी संकटकालीन स्थिति का प्रोपोगंडा किया है, जहां बिना मजबूत समूह की पहचान के अस्तित्व का संकट दिखाया जा रहा है। इसे ही स्टेन कोहेने ने ‘मोरल पैनिक’ की संज्ञा दी है। प्रत्येक समूह अपनी पहचान को कानूनी वैधता दिलाना चाह रहा है। दरअसल, ऐसा करके वे देश के हिस्से में अपना हक बढ़ाना चाहते हैं, जिसके लिए वे अपनी विशिष्ट स्थिति को न्यूनतम शर्त मान रहे हैं। इस सबके बीच देश हित का सवाल परे धकेला जा चुका है।
‘अस्मिता की राजनीति’ का एक ऐसा माहौल बन चुका है कि हर सांस्कृतिक समूह ने समुदाय के कल्याण के सापेक्ष अपने लोगों को लामबंद कर लिया है। ऐसे बहुत से क्षेत्रीय, जातीय, भाषायी समूहों को आप अपने आसपास देख सकते हैं। वे अपनी सामुदायिक पहचान को सबसे ऊपर रखते हैं। कहना न होगा कि अस्मिता की राजनीति के रास्ते सत्ता पर नियंत्रण की लालसा हमारे समय का एक बड़ा संकट है। हाल के दिनों की जिन घटनाओं को आप देश के लिए खतरा मान रहे हैं, उन्हें सांस्कृतिक समूहों के बीच टकराव के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जबकि ये घटनाएं राजनीतिक-आर्थिक नियंत्रण के प्रयास हैं। हमारी राजनीतिक रणनीतियां क्षेत्रीय-धार्मिंक-जातीय-भाषायी अस्मिताओं को पुष्ट करना चाहती हैं।
हर सांस्कृतिक समूह में यह राजनीतिक चेतना विकसित हो चुकी है कि शक्ति के केंद्रीकरण और अवसरों की असमानता की खाई को राजनीतिक व्यवस्था पर कब्जा करके ही पाटा जा सकता है। उनके लिए सत्ता पर कब्जा राज्य के हस्तक्षेप के रास्ते उत्पादन के साधनों पर कब्जा करना है। विडंबना यह है कि समूह विशेष में शक्ति का केंद्रीकरण ‘अन्य’ के लिए अवसरों की असमानता और शोषण के रूप में प्रकट होता है। वे इस असमानता के लिए राज्य की व्यवस्था को उत्तरदायी मानने लगते हैं। इस तरह जिस व्यवस्था को सकारात्मक भेदभाव करते हुए उपेक्षितों और शोषितों का पक्ष लेना था, वह उनके विरुद्ध खड़ी हो जाती है। एक तरह से हमारी राजनीतिक चेतना प्रतिशोधात्मक बनती जा रही है। हर समूह सत्ता के प्रतिष्ठानों पर वैसे ही नियंत्रण करना चाह रहा है, जैसे उसके पूर्ववर्तियों ने किया था। तो फिर राजनीतिक चेतना के प्रसार द्वारा लोकतंत्रात्मक मूल्य व्यवस्था- स्वतंत्रता, उदारता, सहिष्णुता और बंधुत्व का क्या? गरीबी, असमानता, विस्थापन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की चुनौतियों के समाधान का रास्ता कैसा हो? क्या ये चुनौतियां विविधता के आयाम-धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के सापेक्ष केवल एक राजनीतिक मुद्दे हैं? क्या इन आयामों पर किसी समूह के पीछे रहने का कारण उसकी सांस्कृतिक अस्मिता है, या वे सामाजिक-ऐतिहासिक कारण जो आर्थिक असमानता और राजनैतिक वर्चस्व के लिए उत्तरादायी हैं? ऐसी स्थिति में संभावित और सबसे सरल उत्तर है कि इनका समाधान राज्य द्वारा किया जा सकता है, लेकिन हमारे रोजमर्रा के आपसी संबंध, जो अपने समूह से भिन्न समूहों से या तो दूरी बनाए हुए हैं, या उनके साथ अन्त:क्रिया के दौरान संदेह का भाव रखते हैं, उसका क्या?
हमें एक नागरिक बोध विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके अनुसार साथ रहने की आवश्यकता केवल एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य के नागरिक होने की मजबूरी नहीं है, बल्कि एक भाव, एक अभिवृत्ति है, जो ‘भारतीय’ होने के कारण स्वाभाविक रूप से हमें एकजुट रखती है। ध्यान रखना होगा कि न तो हमारा संविधान और न ही हमारी परंपरा किसी प्रतीक या संस्कृति विशेष के चयन द्वारा एकरूपता का पक्ष लेती है। हम ‘अस्मिताओं’ वाले भारत की कल्पना करते हैं, और इसी अर्थ में भारतीय संज्ञा का प्रयोग करते हैं। ‘अस्मिताओं’ का स्वीकार भारतीय संस्कृति को संवर्धित करना है। हमें मानना होगा कि हर सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतिबद्धता भारत के साथ है। फर्क इतना है कि वे इस देश के वृहद् चित्र में अपनी अस्मिता का भी रंग चाहते हैं।