03-11-2018 (Important News Clippings)

Afeias
03 Nov 2018
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Date:03-11-18

Welcome Benefits for The MSME Sector

ET Editorials

The benefits announced by the Prime Minister for the micro, small and medium enterprises (MSME) are welcome. A plan to let MSMEs obtain a loan in 59 minutes has grabbed the headlines, but the substantive reform is mandating all large firms — defined as companies with a turnover over Rs 500 crore — to make their procurement from MSMEs eligible for factoring. This is to be achieved by compulsory listing of all bills of supply from MSMEs on the Trade Receivables electronic Discounting System (TReDS). The promise of higher interest subvention to exporters is welcome, too, although the real reform the sector needs is faster release of much-delayed input tax credit on exports. Factoring is like bill discounting, except that the factor, normally a bank, takes over from the supplier collection of the receivable from the buyer, making large companies negotiate with banks rather than with small vendors.

Factoring could not take off because large firms cut out from their supply chain small suppliers who took their receivables to a factor — big firms like free credit from small suppliers, whom they pay with a lag of four months or more. Forcing large companies to list all their receivables on TReDS will curb this practice and benefit the MSMEs. In addition, the government could altergoods and services tax (GST) rules to make large buyers collect and take credit for the GST on their purchases from the small sector, so that MSMEs do not have to bear the financing cost of the tax they pay till they are paid by their supplier.

The grandiose plan to give loans in 59 minutes begs the question, on what collateral, by which branch with what relationship with the borrower and with what guarantee of debt servicing? Without clear titles to land, what collateral will MSMEs offer? A well-functioning debt market is the solution to MSME finance, along with greater freedom for the emerging fintech sector to operate in trade credit. NBFCs, small finance banks, etc, can raise money from the debt market and service MSMEs that cannot access the debt market directly. The government and Reserve Bank of India must work to this end.


Date:03-11-18

चीन के विरुद्घ प्रतिरोध

टी. एन. नाइनन

चीन की आक्रामकता और उसके विस्तारवाद में हाल के वर्षों में जो तेजी आई है, क्या उसकी कीमत अब उसे चुकानी पड़ रही है? ऐसा लगता तो है। कई वर्षों तक चीन तकनीकी चोरी को वस्तु व्यापार तथा मौद्रिक नीति के साथ मिलाजुलाकर बच निकलता रहा। उसके बाद उसने विदेश नीति में आक्रामकता दिखानी शुरू की। डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका को चीन के निर्यात पर शुल्क बढ़ाया तो चीन के इस तेज सफर को पहला झटका लगा। इसका नुकसान अमेरिका को भी होगा क्योंकि अमेरिकी उपभोक्ताओं को अधिक कीमत चुकानी होगी लेकिन कुछ उत्पादन इकाइयां चीन से बाहर भी जा सकती हैं। इस वर्ष युआन की कीमत कई एशियाई मुद्राओं की तुलना में अधिक गिरी है। बेल्ट और रोड पहल भी कई देशों पर भारी पड़ रही है। श्रीलंका को अपना एक बंदरगाह 99 वर्ष के लिए देना पड़ा है। कोलंबो में सागर से जुड़े भाग का प्रमुख हिस्सा भी उसे सौंपना पड़ा है। मलेशिया में सरकार बदलने के बाद एक रेलवे लाइन और गैस पाइपलाइन को रद्द किया गया और तीन कृत्रिम द्वीपों पर बनने वाली बस्तियों का काम रोका गया। इसके जरिये चीन के अमीर लोगों को लुभाया जा रहा था। चीन के सदाबहार दोस्त पाकिस्तान को भी कुछ अनुबंधों के लिए घरेलू आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। इन अनुबंधों की अधिकांश शर्तें गोपनीय हैं। नई सरकार के अधीन पाकिस्तान परियोजनाओं की छानबीन कर रहा है और संभवत: उनमें से कुछ को लेकर नए सिरे से बातचीत भी करना चाहता है। मालदीव में भी सरकार बदली है और वहां भी ऐसा कुछ देखने को मिल सकता है। एशिया में विस्तारवाद की पहचान बनने वाली योजना असंतोष की वजह बन गई है।

स्पष्ट है कि सरकारें बदलने के बाद बेल्ट और रोड परियोजना का पुनर्आकलन चीन के नियंत्रण में नहीं है। परंतु चीन राजनीतिक बदलाव में छेड़छाड़ कर सकता है जिससे चुनाव नतीजे बेमानी हो जाएं। श्रीलंका की हालिया घटनाओं से तो यही संकेत मिलता है। मलेशिया, श्रीलंका, मालदीव और कुछ अफ्रीकी देशों में बड़ा मुद्दा यह है कि स्थानीय राजनीतिक वर्ग ने अव्यवहार्य परियोजनाओं से जुड़े अनुबंध पर हस्ताक्षर करने में समझौतापरक रुख दिखाया। अब अनुबंध को लेकर नए सिरे से बातचीत से नए विवाद उत्पन्न हो सकते हैं और महंगे साबित हो सकते हैं क्योंकि जब भी उन्हें रद्द करने की बात आती है तो चीन अनुबंध की शर्तों की दुहाई देता है। चीन को तकनीकी मोर्चे पर भी झटका लगा है। उस पर लंबे समय से पश्चिमी देशों से तकनीक चुराने और सुरक्षित नेटवर्क में सेंध लगाने का आरोप रहा है। उसके दूरसंचार उपकरणों को आशंका से देखा जाता है कि वे जासूसी कर सकते हैं। अब कुछ देश रक्षात्मक उपाय करने लगे हैं। अमेरिका और कनाडा के बाद जर्मनी ने भी उच्चस्तरीय इंजीनियरिंग कंपनियों की चीन से जुड़ी खरीद पर रोक लगा दी। पश्चिमी देश चौथी औद्योगिक क्रांति के नेतृत्व को लेकर चीन की महत्त्वाकांक्षा से परिचित हैं। जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने इस विषय पर समूचे यूरोप के एकजुट होने की बात कही है। ऑस्ट्रेलिया ने सुरक्षा कारणों से हाल ही में दो चीनी कंपनियों हुआवेई और जेडटीई के 5जी संचार नेटवर्क उपलब्ध कराने पर रोक लगा दी है। इससे पहले अमेरिका ने हुआवेई के फोन की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था और जेडटीई को अमेरिका में बने उपकरण अपने फोन में इस्तेमाल करने से रोक दिया था।

क्षेत्र के कई देश चीन को लेकर अपने पुराने रुख पर पुनर्विचार कर रहे हैं। इंडोनेशिया के समुद्र में चीन के मछुआरों की नौकाएं देखे जाने के बाद टकराव की स्थिति बन गई थी। इंडोनेशिया ने भारत के साथ गर्मजोशी दिखाते हुए भारतीय नौसैनिक पोतों को मलक्का खाड़ी के निकट सबांग बंदरगाह पर पहुंच मुहैया कराई। ऑस्ट्रेलिया की सरकार और मीडिया में भी चीन को लेकर ठंडापन नजर आ रहा है। ऑस्ट्रेलिया में पिछले वर्ष उस समय कानून बदल दिया गया जब पता चला कि राजनीतिक दलों को दान देने वाले कई चीनी, चीन की सरकार से ताल्लुक रखते हैं। कुछ ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय चीनी विद्यार्थियों पर इतने अधिक निर्भर हो गए हैं कि वे उनके बिना चल नहीं सकते। ट्रंप का शुल्क अमेरिका को भी नुकसान पहुंचाएगा। अधिकांश देशों के कारोबारियों को डर है कि अगर उनकी सरकार चीन के खिलाफ हो गई तो उन्हें चीन के बाजार में नुकसान होगा। ब्याज दरों में इजाफा होने पर अमेरिका में मंदी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। तब ट्रंप की आक्रामकता में कमी आएगी और चीन को एक बार फिर मौका मिलेगा।


Date:03-11-18

रोजगार, प्रतिस्पर्धा और प्रसन्नता की उलझन

देश में असमानता और सामाजिक तनाव बढ़ रहा है तथा विभाजनकारी राजनीति देखने को मिल रही है। जाहिर तौर पर देश खुशहाल नहीं है।

अजय छिब्बर

देश के दिग्गज कारोबारियों में शुमार रहे जेआरडी टाटा ने कहा था,’मैं नहीं चाहता कि देश आर्थिक महाशक्ति बने। मैं चाहता हूं कि हमारा मुल्क एक प्रसन्न देश बने।’ अगर आंकड़े सही हैं तो बीते एक दशक से अधिक समय से 7 फीसदी से अधिक की जीडीपी वृद्घि दर ने देश को दुनिया की सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की प्रमुख क्रिस्टीन लेगार्ड इसे भारत के लिए ‘सुनहरी स्थिति’ कहती हैं। देश की जीवन संभाव्यता बढ़ी है और गरीबी में कमी आई है। अधिक पिछड़े इलाकों, पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों और मुस्लिमों के बीच गरीबी में तेजी से कमी आई है। ये सभी तबके गरीबी के ऊंचे स्तर के लिए जाने जाते रहे हैं।

परंतु यह तेज वृद्घि इतने रोजगार नहीं तैयार कर पा रही है कि जो देश की युवा और तेजी से बढ़ती आबादी को चाहिए। यही वजह है कि देश में असमानता बढ़ रही है, सामाजिक तनाव में इजाफा हो रहा है और विभाजनकारी राजनीति देखने को मिल रही है। जाहिर तौर पर देश खुशहाल नहीं है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर कम खर्च तथा कमजोर वित्तीय तंत्र और संस्थानों के चलते भविष्य को लेकर खतरा उत्पन्न हो गया है। अतीत में देश ने तेजी से जो विकास किया वह सेवाओं पर आधारित था, श्रम आधारित विनिर्माण पर नहीं। जबकि पूर्वी एशिया के शेष देश श्रम आधारित विनिर्माण से प्रगति कर रहे थे। यही वजह है कि अधिक संख्या में लोग कृषि क्षेत्र से बाहर नहीं आ पाए। जाटों, पाटीदारों और मराठाओं के विद्रोह, किसानों की हड़ताल और बढ़ती अव्यवस्था के लिए अवसरों की कमी ही जिम्मेदार है।

वैश्विक प्रतिस्पर्धी सूचकांकों और विश्व बैंक के कारोबारी सुगमता सूचकांक पर भारत की स्थिति में जो सुधार हुआ है वह वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) की वजह से हुआ है। परंतु निर्यात अभी भी धीमा है और आयात में इजाफा हुआ है। बढ़ती तेल कीमतों ने देश को प्रभावित किया है और रुपये के मूल्य में तेजी से गिरावट आई है। चालू खाते का घाटा इस वर्ष जीडीपी के 3 फीसदी के स्तर तक पहुंच सकता है और राजकोषीय आंकड़ों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं दिख रही। भारत ने घाटे को कम करने के लिए प्रतिक्रियास्वरूप कई जिंसों के आयात शुल्क में इजाफा किया है। इससे दीर्घावधि की प्रतिस्पर्धा की कीमत पर अल्पावधि में लाभ हो सकता है।

अगर भारत सुधार के मोर्चे पर आगे और पीछे हटता है तो कई निर्यात क्षेत्रों की वृद्घि में और अधिक धीमापन आ जाएगा। अगर वृद्घि दर गिरकर 4 फीसदी के स्तर पर आ गई तो देश के जीडीपी का आकार सन 2030 तक बमुश्किल 4.3 लाख करोड़ डालर ही हो सकेगा और वह जापान से पीछे रहेगा। वहीं दूसरी ओर भूमि, श्रम और पूंजी बाजार में अहम सुधारों से वृद्घि दर सालाना 9 फीसदी के स्तर तक जा सकती है। उस स्थिति में 2030 तक अर्थव्यवस्था का आकार 9 लाख करोड़ डॉलर तक हो जाएगा और वह अमेरिका और चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश होगा। अगर वृद्घि दर 6-7 फीसदी के बीच रहती है तो का जीडीपी 6-7 लाख करोड़ डॉलर रहेगा।

वर्ष 2018 के डब्ल्यूईएफ वैश्विक प्रतिस्पर्धी सूचकांक में भारत को 140 देशों में 58वां स्थान दिया गया है। पहली नजर में यह प्रभावशाली लगता है लेकिन भारत की रैंकिंग में सुधार प्रमुख तौर पर उसके बाजार के आकार के कारण हुआ है। अगर भारत औसत आकार की एक अर्थव्यवस्था होता तो इसकी रैंकिंग गिरकर 70वीं हो जाती। आईएमडी प्रतिस्पर्धी सूचकांक जिसमें बाजार का आकार नहीं देखा जाता वहां भारत को 63 देशों में 44वां स्थान मिला। रोजगार और प्रतिस्पर्धा आपस में संबंधित हैं। एक प्रतिस्पर्धी भारत में घरेलू और बाहरी, दोनों बाजारों के लिए मेक इन इंडिया होना चाहिए। प्रतिस्पर्धा आधारित वृद्धि में और अधिक रोजगार भी तैयार होने चाहिए।

चीन श्रम की बढ़ती लागत और शुल्क वृद्धि के कारण वैकल्पिक विनिर्माण केंद्र तलाश कर रहा है। भारत इसका फायदा उठाकर वैश्विक मूल्य शृंखला में अपनी जगह बना सकता है। अभी भी हमें बांग्लादेश, इंडोनेशिया, वियतनाम और अफ्रीका के कई देशों से मुकाबला करना पड़ सकता है जो चीनी निवेश की ओर आकर्षित हैं। इनसे प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत को लॉजिस्टिक्स में सुधार करना होगा, कौशल विकास पर ध्यान देना होगा तथा भूमि बाजार और वित्तीय क्षेत्रों में आवश्यक सुधार करने होंगे। रुपये के अधिमूल्यन में कमी आने से भी कुछ मदद मिलेगी। एक नई सामरिक व्यापार और औद्योगिक नीति की आवश्यकता है ताकि बदलते विश्व की चुनौतियों का सामना किया जा सके और भारत समान सोच वाले देशों के साथ मुक्त व्यापार का लाभ उठा सके।

देश में किस पैमाने पर रोजगार तैयार हो रहा है यह अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है क्योंकि जरूरी तथ्यों का अभाव है। जब तक बेहतर आंकड़े उपलब्ध नहीं होते हैं तब तक अगर विश्व बैंक के आंकड़ों पर यकीन किया जाए तो भारत जीडीपी में हर एक प्रतिशत वृद्धि के साथ 7.5 लाख रोजगार तैयार कर रहा है। ऐसे में माना जा सकता है कि हम 50-55 लाख रोजगार तैयार कर रहे हैं। सन 2030 तक देश की कामगार उम्र की आबादी में सालाना 1.2 करोड़ का इजाफा होगा। देश की श्रम आबादी में पुरुषों का योगदान अधिक है। महिलाओं का योगदान पहले से ही कम है और उसमें आगे भी कमी आ रही है। भारत को 2030 तक हर वर्ष 60-65 लाख रोजगार तैयार करने होंगे। यानी हर वर्ष श्रम शक्ति में शामिल होने वाले सभी एक करोड़ लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा।

बीते दशक के करीब एक करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देने के लिए करीब 10 लाख रोजगार हर वर्ष अतिरिक्त तैयार करने होंगे। अगर भारत महिलाओं को अधिक अवसर देता है तो उनका योगदान भी बढ़ेगा। लब्बोलुआब यह कि भारत को 2030 तक अपना सालाना रोजगार बढ़ाकर 85 से 90 लाख करना होगा। इसके लिए जीडीपी में 12 फीसदी की दर से बढ़ोतरी करने की जरूरत है। बड़े सुधारों को अंजाम देकर भारत अगले 10 -15 वर्ष में तय लक्ष्यों को हासिल कर सकता है। तब वह अपने जननांकीय लाभ का भी पूरा फायदा उठा पाएगा। ऐसे में अधिक कठिन वैश्विक माहौल के बीच भारत एक आर्थिक महाशक्ति भी होगा और अपेक्षाकृत प्रसन्न देश भी बन सकेगा। दुनिया की कुल आबादी के छठे हिस्से का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि भारत कौन सी राह पर आगे बढ़ता है।


Date:03-11-18

अध्यादेश लाना है तो सर्वधर्म केंद्र के लिए लाएं

सर्वोच्च न्यायालय में राम मंदिर का मामला आगे टलना और इस पर अध्यादेश लाने की मांग

वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

अयोध्या में राम मंदिर का मसला 2019 के चुनाव के पहले हल होता हुआ मुझे नहीं लगता और यदि चुनाव के पहले यह हल नहीं होगा तो यह भाजपा के लिए गंभीर चुनौती सिद्ध हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को जनवरी 2019 तक के लिए टाल दिया है। उस बेंच को नियुक्त करने में वह अब से तीन महीने लगाएगा, जो यह तय करेगी कि 2010 में दिया गया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला ठीक है या नहीं। उस फैसले में जजों ने राम जन्मभूमि की 2.77 एकड़ जमीन को तीन दावेदारों में बांट दिया था। एक रामलला, दूसरा निर्मोही अखाड़ा और तीसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड।

जनवरी 2019 में राम-मंदिर विवाद का फैसला नहीं होगा। इस मुकदमे को सुननेवाली सिर्फ बेंच बनेगी। मुख्य न्यायाधीश ने पिछली बहस के वक्त यह स्पष्ट कर दिया था कि मंदिर-मस्जिद का मामला इतना संगीन नहीं है कि इस पर तुरंत विचार किया जाए। पिछले आठ साल से यह मामला सबसे ऊंची अदालत में जरूर अटका हुआ है लेकिन, जरा यह तो सोचिए कि 2019 के चुनाव के पहले वह इसका फैसला कैसे सुना सकती है? इस विवाद से संबंधित सदियों पुराने दस्तावेज कई हजार पृष्ठों में फैले हुए हैं और वे संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी और हिंदी में हैं। हमारे जजों को अंग्रेजी में काम करने की आदत है। वे इन दस्तावेजों से कैसे पार पाएंगे ? जब तक इनका अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध नहीं होगा, जजों को इंतजार करना पड़ेगा।

इसके अलावा मुख्य प्रश्न यह है कि अदालत किस मुद्‌दे पर फैसला देगी? उसके सामने मुद्‌दा यह नहीं है कि अयोध्या में राम मंदिर बने या मस्जिद बने बल्कि यह है कि उस 2.77 एकड़ जमीन पर किसकी मिल्कियत है? इलाहाबाद न्यायालय ने दो-तिहाई जमीन तो हिंदू संस्थाओं को दे दी है और एक-तिहाई मुस्लिम संस्था को। मान लें कि वह सारी जमीन दोनों में से किसी एक को दे दे तो क्या दूसरे लोग उस फैसले को मान लेंगे? यदि 2.77 एकड़ जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिल गई तो क्या हिंदू संगठन मान जाएंगे? अदालत के लिए मामला श्रद्धा का नहीं, कब्जे और कानून का है।

मान लें कि सर्वोच्च न्यायालय उसी फैसले पर मोहर लगा दे, जो उच्च न्यायालय ने दिया है तो क्या होगा? तो क्या निर्मोही अखाड़ा उस दो-तिहाई जमीन पर, जो दो एकड़ से भी कम है, मंदिर बनाना पसंद करेगा? और क्या वह यह भी पसंद करेगा कि मंदिर की दीवार से सटकर वहां एक बाबरी मस्जिद दुबारा खड़ी हो जाए? क्या उस राम जन्मभूमि में मंदिर और मस्जिद साथ-साथ रह पाएंगे? दूसरे शब्दों में इस मंदिर-मस्जिद के विवाद को हल करने के लिए अदालत की शरण में जाना बिल्कुल समझ में नहीं आता। अदालतों के सैकड़ों फैसले आज भी ऐसे हैं, जिन्हें कभी लागू ही नहीं किया जा सका। सर्वोच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का जो फैसला दिया है, उसकी कितनी दुर्गति हो रही है? केरल की मार्क्सवादी सरकार और केंद्र की सरकार क्या कर पा रही है? मंदिर-मस्जिद विवाद को अदालत की खूंटी पर टांगकर हमारे नेतागण खर्राटे खींच रहे हैं। यह स्थिति हमारी राजनीतिक दरिद्रता की परिचायक है। पिछले चार साल देखते-देखते निकल गए। अब चुनाव के बादल सिर पर मंडरा रहे हैं तो भगवान राम याद आ रहे हैं। सारे मसले को साम्प्रदायिक रंग दिया जा रहा है। कुछ संगठन कह रहे हैं कि वे 6 दिसंबर से ही मंदिर का निर्माण-कार्य शुरू कर देंगे और कुछ नेता अब मंदिरों और आश्रमों के चक्कर लगा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि राम मंदिर का मामला तूल पकड़ने वाला है। संघ ने अध्यादेश लाने की मांग की है।

यदि मंदिर-मस्जिद का मामला मजहबी रंग पकड़ता है तो यह भारत का दुर्भाग्य होगा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर का मोर्चा दुबारा खोल दिया है। मुझे आश्चर्य है कि ये पिछले चार साल मौन-व्रत क्यों धारण किए रहे? मेरे लिए अयोध्या में राम मंदिर मजहबी मसला है ही नहीं। उसे हिंदू-मुसलमान का मसला बनाना बिल्कुल गलत है। यह मसला है, देसी और विदेशी का! यह बात मैं अपने बड़े भाई तुल्य अशोक सिंघलजी, जो कि विश्व हिन्दू परिषद के बरसों-बरस अध्यक्ष रहे, से भी हमेशा कहता रहता था। विदेशी आक्रांता जब भी किसी देश पर हमला करता है तो उसके लोगों का मनोबल गिराने के लिए वह कम से कम तीन काम जरूर करता है। एक तो उसके श्रद्धा-केंद्र और पूजा-स्थलों को नष्ट करता है। दूसरा, उसकी स्त्रियों को अपनी हवस का शिकार बनाता है और तीसरा, उसकी संपत्तियों को लूटता है। जहां तक बाबर का सवाल है, उसने और उसके-जैसे हमलावरों ने सिर्फ भारत में ही नहीं, उज्बेकिस्तान और अफगानिस्तान में भी कई श्रद्धा-केंद्रों को नष्ट किया। वे मंदिर नहीं थे। वे दुश्मनों की मस्जिदें, उनकी औरतें और उनकी संपत्तियां थीं। यह जानना हो तो आप पठानों के महान कवि खुशहालखान खट्टक की शायरी पढ़िए। सहारनपुर के प्रसिद्ध उर्दू शायर हजरत अब्दुल कुद्दुस गंगोही का कलाम देखिए। उन्होंने लिखा है कि मुगल हमलावरों ने जितने मंदिर गिराए, उनसे ज्यादा मस्जिदें गिराईं। औरंगजेब ने बीजापुर की बड़ी मस्जिद गिराई थी, क्योंकि उसे बीजापुर के मुस्लिम शासक को धराशायी करना था। अयोध्या के राम मंदिर को मीर बाक़ी ने गिराया हो या किसी और ने, सवाल मज़हबी नहीं, राष्ट्रीय है।

अब मेरी राय यह है कि देश के मुसलमानों को पहल करनी चाहिए और राम जन्मभूमि की जगह विश्व का भव्यतम मंदिर ही बनने देना चाहिए और उस 70 एकड़ जमीन में एक शानदार मस्जिद के साथ-साथ दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों के पूजा-स्थल भी बन सकें, ऐसा एक अध्यादेश सरकार को तुरंत लाना चाहिए ताकि अयोध्या सर्वधर्म समभाव का विश्व केंद्र बन सके। अध्यादेश लाने के पहले देश के सभी प्रमुख नेताओं को संबंधित पक्षकारों से मिलकर सर्वसम्मति का निर्माण करना चाहिए ताकि उस अध्यादेश को कानून बनाने में कोई अड़चन आड़े नहीं आए। इसी आशय का अध्यादेश 1993 में तब के प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने जारी करवाया था और 1994 में संसद ने उसे कानून का रूप दिया था। इसी कानून को थोड़ा बेहतर और सर्वसमावेशी बनाकर यदि सर्वसम्मति से लागू किया जाए तो सर्वोच्च न्यायालय का भी कष्ट दूर होगा और भारत में साम्प्रदायिक सद्‌भाव की नई लहर चल पड़ेगी।


Date:03-11-18

श्रीलंका के घमासान पर रहे नजर

श्रीलंका में इस वक्त शीर्ष स्तर पर जैसी राजनीतिक उठापटक चल रही है, भारत को उस पर पैनी निगाह रखनी होगी।

डॉ. रहीस सिंह , (लेखक विदेश संबंधी मामलों के जानकार हैं)

किसी भी देश की सुरक्षा, प्रगति में उसके पड़ोसियों की स्थिति, प्रकृति एवं व्यवहार की भी अहम भूमिका हो सकती है। कारण यह है कि वे ‘रिंग फेंस(सुरक्षात्मक घेरा) के रूप में भी प्रयुक्त हो सकते हैं, एक अवरोधक दीवार भी बन सकते हैं और किसी दुश्मन देश के मोहरे के रूप में भी इस्तेमाल हो सकते हैं। भारत के कुछ पड़ोसी देश फिलहाल ऐसी ही चुनौतियां उत्पन्न् कर रहे हैं। उन्हें प्राय: ऐसी गैर-प्रगतिशील, रूढ़िवादी, विभाजक दुरभिसंधियों से संपन्न् देखा गया है, जो भारत को निरंतर नुकसान पहुंचा रही हैं। भारत के पड़ोसी देशों की व्यवस्थाओं में मुख्यत: तीन चीजें समान रूप से देखी जा सकती है- स्थायित्व का संकट, राजनीति का संकटापन्न् होना और चीनी कर्ज के कारण आर्थिक संकट की आसन्न्ता। पाकिस्तान को यदि छोड़ दें क्योंकि वह घोषित रूप से चीन का सदाबहार मित्र है, तो भारत के अन्य पड़ोसी देशों मसलन नेपाल, श्रीलंका, मालदीव आदि में चीन अपनी ‘सॉफ्ट पावर के साथसत्ता-व्यवस्था को अपने उद्देश्यों के अनुसार स्थापित करने में सफल हो रहा है। जबकि भारत का प्रयास होता है कि वह मुनरो सिद्धांत के आधार अपने पड़ोसी देशों में किसी तीसरी शक्ति को सक्रिय न होने दे।

पड़ोसी देशों में पिछले एक-दो साल के घटनाक्रमों पर नजर डालें। चीन पहले श्रीलंका में असफल हुआ। नेपाल में सफल हुआ और मालदीव में सफल हुआ। लेकिन अब वह श्रीलंका में पुन: सफल सफल होता दिख रहा है और मालदीव में फिलहाल असफल। क्या यह दक्षिण एशिया की नियति का परिणाम है या फिर भारतीय विदेश नीति में दूरदर्शिता और पैनेपन के अभाव का नतीजा? हाल ही में श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर उनकी जगह पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। जबकि संसद के स्पीकर कारू जयसूर्या ने विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने का समर्थन करने से इनकार कर दिया। उधर बर्खास्तगी के बाद जब रानिल विक्रमसिंघे ने संसद का आपात सत्र बुलाने की मांग की तो राष्ट्रपति ने 16 नवंबर तक के लिए संसद को निलंबित कर दिया। हालांकि ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि अगले हफ्ते संसद की बैठक बुलाई जा सकती है। इस घटनाक्रम में जो भी रहा हो, लेकिन हमारे लिए पहला सवाल तो यही उठता है कि भारत के शुभचिंतक और करीबी माने जाने वाले राष्ट्रपति मैत्रीपाल ने आखिर महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री क्यों नियुक्त किया, जिनसे शत्रुता मोल लेकर वे सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे थे? आखिर श्रीलंका में बढ़ते चीनी प्रभाव का विरोध करने वाले रानिल विक्रमसिंघे अब भारत की कूटनीतिक विजय का परिणाम माने जाने वाले राष्ट्रपति सिरिसेना की यकायक नापसंद कैसे बन गए और चीन के प्रबल समर्थक माने जाने वाले व उनके राजनीतिक दुश्मन राजपक्षे अकस्मात अच्छे कैसे लगने लगे? कहीं चीन श्रीलंका में अपने ‘गेम प्लान में सफल तो नहीं हो रहा है? यदि हां, तो फिर भारत कहां पर है?

सामान्यत: श्रीलंका में उपजे इस राजनीतिक संकट की पटकथा तीन वर्ष पहले उस समय लिख दी गई थी, जब चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था और बेमेल गठबंधन से सरकार बनी थी। दूसरा पक्ष यह है कि भारत के अधिकांश पड़ोसी देशों में लोकतंत्र बेहद कमजोर है, इसलिए वहां सेना, जनविद्रोह व न्यायपालिका मिलकर लोकतंत्र को समय-समय पर कमजोर करते रहते हैं, जिनमें एक श्रीलंका भी है। ध्यान रहे कि श्रीलंका के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति अपनी मर्जी से किसी प्रधानमंत्री को पद से हटा नहीं सकता। यह प्रावधान 19वें संविधान संशोधन के जरिए राष्ट्रपति सिरिसेना ने ही लागू कराया था। लेकिन अब वे स्वयं ही इसका उल्लंघन करते लग रहे हैं। इस स्थिति में यह भी संभव है कि उनके पीछे अन्य संस्थाएं भी खड़ी होंगी, विशेषकर सेना और न्यायपालिका। यहां तक तो ठीक हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन श्रीलंका के राजनीतिक घटनाक्रम में चीन की सक्रियता चिंता व संशय उत्पन्न् कर रही है। महिंदा राजपक्षे के शपथ लेते ही यदि कोलंबो में चीन के राजदूत उन्हें बधाई देने पहुंचेंगे तो फिर इसके निहितार्थ तलाशने भी जरूरी हो जाएंगे। सब जानते हैं कि अतीत में राजपक्षे का शासन चीन के जरिए श्रीलंका का अधोसंरचनात्मक पुनर्निर्माण कर रहा था। बीजिंग ने श्रीलंका में अरबों डॉलर की बड़ी परियोजनाओं में निवेश किया है। लेकिन जब सिरिसेना सत्ता में आए तो उन्होंने राजपक्षे के कार्यकाल में शुरू की गई चीन समर्थित परियोजनाओं को अत्यधिक खर्चीली, सरकारी प्रक्रियाओं के उल्लंघन और भ्रष्टाचार का हवाला देकर रद्द कर दिया। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन परियोजनाओं को विक्रमसिंघे के प्रधानमंत्रित्व वाली कैबिनेट ने रद्द करने की सिफारिश की थी। यही वजह है कि विक्रमसिंघे चीन की आंखों की किरकिरी बने। कुछ समय से सिरिसेना तो बदलने लगे और चीन की परियोजनाओं को पुन: बहाल करने की राह पर चल दिए। यानी संभव है कि सिरिसेना भारत का साथ छोड़कर चीन की गोद में बैठने को तैयार हों, पर शायद रानिल विक्रमसिंघे नहीं। ऐसे में यदि सिरिसेना उन्हें यूं पद से हटा दें, तो मन में संशय तो उठेगा ही कि इसका वास्तविक सूत्रधार कहीं चीन तो नहीं?

अगर श्रीलंका के राजनीतिक संकट का सार यही है तो फिर भारत के लिए यह चिंता की बात है। यह भी संभव है कि मालदीव में अबदुल्ला यामीन की हार और इबू यानि इब्राहिम मोहम्मद सोलुह की जीत को भारत ने अपनी कूटनीतिक जीत मान लिया हो और अतिउत्साह में चीन के अगले ‘गेम प्लानपर ध्यान ही न दे सका हो। वैसे मालदीव में भारत की कूटनीतिक विजय (यदि वास्तव में ऐसा है) को स्थायी नहीं माना जा सकता, क्योंकि 1965 में आजाद हुए इस देश ने अब तक कई बार तख्तापलट या लोकतंत्र की हत्या होते देखी है। मोमून अब्दुल गयूम का तख्तापलट करने की तीन बार कोशिश हुई, एक बार तो भारत ने ही ऑपरेशन कैक्टस के जरिए बचाया। मोहम्मद नशीद को पुलिस और सेना के विद्रोह के कारण इस्तीफा देना पड़ा। 2013 में हुए चुनाव में पहले दौर में नशीद को ज्यादा वोट मिले, मगर अदालत ने उन्हें अवैध घोषित कर दिया और अब्दुल्ला यामीन राष्ट्रपति बने। यामीन ने अपनी पुन: जीत के 2018 में आपातकाल लगाकर राजनीति से लेकर न्यायपालिका तक को बंधक बना लिया। कारण चीन और पाकिस्तान उनके पीछे खड़े होकर ताकत दे रहे थे। अखरने वाली बात यह थी कि इस दौर में यामीन ने भारत को पूरी तरह से दरकिनार कर किया। यहां तक कि आपात स्थिति के समय भारत के हेलीकॉप्टर लेने से यह कहकर मना कर दिया कि उसकी एक्सक्लुसिव इकोनॉमिक जोन की रक्षा करने के लिए पाकिस्तान की सेना पर्याप्त है। नेपाल की मौजूदा केपी शर्मा ओली तो चीन की समर्थक है ही, जिसके कारण नेपाल अब चीन की ओर खिसकता दिख रहा है।

बहरहाल, पड़ोसी देशों में जिस तरह के सियासी बदलाव दिख रहे हैं, उनमें एक खास किस्म की समानता है। उनका मंचन भले ही काठमांडू, माले या कोलंबो में हो रहा हो, लेकिन लगता यही है कि उनकी पटकथा कहीं और लिखी जा रही है। अत: जरूरी है कि भारत इन पर पैनी निगाह रखे।


Date:03-11-18

सरकार-रिजर्व बैंक की रस्साकशी

चूंकि सरकार अपनी कमाई बढ़ाने पर जोर दे रही है, इसलिए उसकी नजर रिजर्व बैंक के कंटिंजेंसी फंड पर भी है।

विवेक कौल , (लेखक अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने ईजी मनी ट्रायोलॉजी लिखी है)

भारतीय रिजर्व बैंकऔर भारत सरकार के बीच चल रही रस्साकशी धीरे-धीरे बाहर आ रही है। सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच थोड़ा-बहुत टकराव सिस्टम के लिए अच्छा होता है। मसलन, हर सरकार यह चाहती है कि ब्याज दरें कम से कम हों क्योंकि कम ब्याज दरों पर लोग जमकर कर्ज लेंगे और इससे अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी, लेकिन सरकारें यह जरूरी बात या तो भूल जाती हैं या फिर उसकी अनदेखी करती हैं कि ब्याज दरों पर केवल कर्ज नहीं लिया जाता। ब्याज दरों को देखकर लोग पैसा बचाते भी हैं। इसीलिए केंद्रीय बैंक इन दरों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है। यह काफी कठिन काम है, क्योंकि सरकार की ओर से हमेशा यह दबाव होता है कि ब्याज दरें कम रखी जाएं। करीब 19 साल तक अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन रहे एलन ग्रीनस्पैन ने कहा था कि मुझे याद नहीं, जब राजनीतिक क्षेत्र से किसी ने कहा हो कि हमें दरें बढ़ाने की जरूरत है।

अगर इस वर्ष 12 अक्टूबर तक का साप्ताहिक गैर-खाद्य ऋण का डाटा देखें तो यह करीब 14.5 फीसदी अधिक रहा। अगर पिछले दो साल का डाटा देखें तो गैर-खाद्य ऋण में यह सबसे उच्चतम वृद्धि रही। अब अगर बैंक कर्ज दे रहे हैं तो सरकार क्या चाहती है? इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि आखिर सरकार गैर-खाद्य ऋण में वृद्धि से खुश क्यों नहीं है? इसके लिए डाटा को थोड़े विस्तार से देखने की जरूरत होगी। अगर इस साल अगस्त 30 तक का डाटा देखें तो पाएंगे कि गैर खाद्य ऋण करीब 14.2 प्रतिशत बढ़ा। खुदरा ऋण करीब 18.2 प्रतिशत बढ़ा था। सेवाओं को दिया हुआ ऋण 26.7 प्रतिशत बढ़ा। कृषि कर्ज करीब 12.4 प्रतिशत बढ़ा, परंतु उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज सिर्फ 1.95 प्रतिशत बढ़ा। इसमें भी छोटे उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज 2.6 फीसदी ही बढ़ा। चूंकि बैंकों का करीब तीन चौथाई डूबा कर्ज उद्योगों की वजह से है और इसीलिए वे उद्योगों को कर्ज देने से कतरा रहे हैं। लगता है, दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पी रहा है।

पिछले कुछ सालों में निजी बैंकों ने सरकारी बैंकों से कहीं अधिक कर्ज दिया है, जबकि माना यह जाता है कि निजी बैंक उद्योगों को कर्ज देने से कतराते हैं। सरकार चाहती है कि जिन 11 सरकारी बैंकों को पीसीए के तहत रखा गया है, उन्हें और कर्ज देने की इजाजत मिले। अगर इस वर्ष मार्च 31 तक सरकारी बैंकों का कुल कर्ज देखें तो इन 11 बैंकों का करीब 27 प्रतिशत हिस्सा बनता है। बाकी 73 प्रतिशत उन 10 सरकारी बैंकों द्वारा दिया गया, जो पीसीए के दायरे में नहीं हैं। ये 10 बैंक सरकार के कुल 21 बैंकों में से कुछ बेहतर स्थिति में हैं। अगर सरकार चाहती है कि सरकारी बैंक छोटे उद्योगों को कर्ज दें तो यह काम ये 10 बैंक क्यों नहीं कर सकते? इन 11 बैंकों को पीसीए में इसलिए डाला गया है, ताकि उन्हें स्वस्थ होने का मौका मिल सके।

रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने हाल में कहा कि पीसीए के दायरे वाले बैंक अपनी बैलेंस शीट की परिसंपत्तियों को सुरक्षित करने में लगे हैं। इसलिए वे पूरा ध्यान गैर-जोखिम वाले क्षेत्रों को कर्ज देने और गवर्मेंट सिक्योरिटीज पर केंद्रित कर रहे हैं। पहली और सबसे बड़ी प्राथमिकता पीसीए वाले बैंकों में करदाताओं के नुकसान को बचाना और उनकी पूंजी की क्षति को रोकना है। इसलिए वित्तीय रूप से कमजोर बैंकों से निपटने का पीसीए का तरीका जारी रहना चाहिए। सुधार की प्रक्रिया में किसी भी तरह की ढिलाई हानिकारक होगी। पिछले कई सालों से हमारे सरकारी बैंक डूबे कर्ज के संकट से जूझ रहे हैं। रिजर्व बैंकने इस संकट से जूझ रहे 11 सरकारी बैंकों को प्रिवेंटिव करेक्टिव एक्शन ढांचे के तहत रखा है। सरकार का मानना है कि इसकी वजह से बैंकठीक तरह से कर्ज नहीं दे पा रहे हैं। क्या यह सही है? अगर हम गैर-खाद्य ऋण (नॉन-फूड क्रेडिट) के आंकड़े देखें तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता। भारतीय बैंक, फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और राज्य सरकारें खरीद एजेंसियों को कर्ज देती हैं, ताकि वे किसानों से धान और गेहूं सीधे खरीद सकें। जब इस कर्ज को कुल ऋण से घटाया जाता है तो गैर-खाद्य ऋण बचता है।

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि सरकार आतंरिक रूप से यह मान रही है कि नोटबंदी और जीएसटी के खराब क्रियान्वयन से छोटे उद्योगों का नुकसान हुआ है। चूंकि इसका बुरा असर आम चुनाव पर भी पड़ सकता है, इसीलिए सरकार चाहती है कि सरकारी बैंक आने वाले महीनों में छोटे उद्योगों को जमकर कर्ज दें। केंद्रीय बैंक और केंद्र सरकार में रस्साकशी का एक कारण यह भी है कि रिजर्व बैंक अपने कामकाज से जो लाभ कमाता है, उसका एक बड़ा हिस्सा सरकार को हर साल लाभांश (डिविडेंड) के रूप में देता है। कुछ हिस्सा कंटिंजेंसी फंड में चला जाता है। इससे सरकार को मिलने वाला लाभांश कम हो जाता है। सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक अपना अधिक से अधिक लाभ और हो सके तो पूरा, लाभांश के रूप में उसे दे। रिजर्व बैंक का मानना है कि अभी उसकी बैलेंस शीट को और भी मजबूत बनाने की जरूरत है।

गौरतलब है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कई बार कहा है कि सरकार को राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने का भरोसा है। सरकार का खर्च उसकी कमाई से कहीं अधिक होता है और इसी अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। अगर डाटा देखें तो ऐसा नहीं लगता। अप्रैल से सितंबर 2018 तक करीब 2.15 लाख करोड़ रुपए का सेंट्रल जीएसटी सरकार के पास जमा हुआ। पूरे वित्तीय वर्ष का लक्ष्य करीब 6.04 लाख करोड़ रुपए है। यह लक्ष्य पूरा होता दिखाई नहीं देता। इसके अलावा शेयर बाजार के गिरने की वजह से विनिवेश का 80,000 करोड़ का लक्ष्य भी पूरा होता दिखाई नहीं देता। अप्रैल से सितंबर 2018 के बीच राजकोषीय घाटा अपने सालाना लक्ष्य के 95 फीसदी तक पहुंच गया था। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार अभी किसी तरह अपनी कमाई बढ़ाने पर उतारू है। इसीलिए उसकी नजर रिजर्व बैंक के कंटिंजेंसी फंड पर भी है। वह चाहती है कि केंद्रीय बैंक सरकार को एक अंतरिम लाभांश भी दे। रिजर्व बैंक का उपयोग करके सरकारी दायित्वों को पूरा करना सकारात्मक नहीं। एक साल के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक ऐसे फंड का इस्तेमाल करना सही नहीं, जिसे बनाने में कई वर्ष लगे हों। सार्वजनिक रूप से भले ही सरकार यह कहे कि उसे राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने का भरोसा है, पर वह यह जानती है कि शायद ऐसा न होने पाए। अप्रैल से जून की तिमाही में अर्थव्यवस्था 8.2 प्रतिशत की दर से बढ़ी और 2018-2019 में यह उम्मीद है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत रहेगी। यह विश्व में किसी भी बड़े देश के लिए सबसे तेज बढ़ोतरी होगी। ऐसे में सरकार के लिए उतावलापन दिखाना ठीक नहीं है।


Date:02-11-18

स्वायत्तता का सवाल

संपादकीय

अभी सीबीआइ में मची घमासान थमी भी नहीं थी कि केंद्रीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआइ की स्वायत्तता पर हमले की चर्चा गरम हो गई। दरअसल, ताजा मामला इसलिए उठा कि केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक को अलग-अलग समय पर तीन पत्र लिख कर उसे आर्थिक मामलों में निर्देश दिए और अनुच्छेद 1934 की धारा सात की याद दिलाई। आमतौर पर सरकार रिजर्व बैंक के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करती है। अभी तक ऐसा कोई मौका नहीं आया जब सरकार ने रिजर्व बैंक को आदेश देकर कोई फैसला करने पर बाध्य किया। हालांकि धारा सात में सरकार को अधिकार है कि वह आम लोगों के हित और अर्थव्यवस्था की जरूरत के मुताबिक उसे निर्देश दे सकती है। जब रिजर्व बैंक के दूसरे नंबर के अधिकारी विरल आचार्य ने सार्वजनिक रूप से इस बात पर चिंता जताई कि सरकार आरबीआइ की स्वायत्तता में दखल दे रही है, तो मामला तूल पकड़ गया। कयास लगाए जाने लगे कि अगर सरकार ने धारा सात का उपयोग किया तो रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो यह और गलत होगा, क्योंकि आज तक दुनिया में कहीं ऐसा नहीं हुआ कि सर्वोच्च बैंक के मुखिया को कार्यकाल समाप्त होने से पहले ऐसी स्थिति में अपना पद छोड़ना पड़ा हो।

अच्छी बात है कि इस मामले में अब सरकार का कुछ लचीला रुख दिख रहा है। दरअसल, सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तनाव का रिश्ता इसलिए बन गया कि इस वक्त अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में नहीं है। कई क्षेत्र पैसे की भयानक कमी से गुजर रहे हैं। ऐसे में सरकार ने पत्र लिख कर रिजर्व बैंक को निर्देश दिया कि वह बिजली कंपनियों के कर्ज में छूट दे। फिर दूसरे पत्र में उसने आरबीआइ को राजस्व की कमी को पूरा करने का निर्देश दिया। तीसरे पत्र में छोटे और मझोले उद्यमों को कर्ज देने की शर्त में छूट देने को कहा। अगर रिजर्व बैंक ने सरकार की बात मान ली तो उसके सामने कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। इसलिए उसने वे बातें मानने से इनकार कर दिया। अब आलोचनाओं और आशंकाओं के मद्देनजर वित्त मंत्रालय का कहना है कि दोनों आपसी सहमति से काम करते रहेंगे, सरकार आरबीआइ को परामर्श देती रहेगी। अच्छी बात है, आरबीआइ की स्वायत्तता बनी रहे और सरकार के साथ तनातनी खत्म हो।

पहले ही कई संस्थाओं की स्वायत्तता पर हमले को लेकर सरकार को काफी किरकिरी झेलनी पड़ चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों ने पहली बार प्रेस वार्ता बुला कर असंतोष प्रकट किया था। फिर सीबीआइ के भीतर दो वरिष्ठ अधिकारियों के बीच अप्रिय विवाद और कई अधिकारियों के रातोंरात किए गए तबादले पर अंगुलियां उठ रही हैं। इसके पहले भी कुछ संस्थाओं के कामकाज और फैसलों में हस्तक्षेप को लेकर असंतोष जाहिर हो चुका है। स्वायत्त संस्थाओं के कामकाज में सरकार की दखलंदाजी से आखिरकार देश की व्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। दुनिया भर में बदनामी होती है। इसलिए सरकार आरबीआइ के मसले को अधिक तूल देने के बजाय व्यावहारिक रास्ता अपनाए, तो शायद बेहतर नतीजे निकल सकते हैं। पहले ही अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक न होने की वजह से अपेक्षित निवेश नहीं आ पाया है। नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों से बाजार और रोजगार पर बुरा असर पड़ा है। इन सबके बीच अगर रिजर्व बैंक को अपनी नीतियों से समझौता करने को बाध्य किया गया, तो उसके नतीजे अप्रिय हो सकते हैं।


Date:02-11-18

ट्रंप सरकार का झटका

संपादकीय

लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को हिलाने की ठान ली है। चीन से सामान के आयात पर उन्होंने जिस तरह से भारी टैक्स लगाया था, उसे तो दुनिया भर में टैरिफ वार नाम से ही जाना जाता है। यह ठीक है कि अमेरिका चीन का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है, लेकिन पिछले कुछ साल में चीन ने जिस तरह से दुनिया भर के बाजारों में अपने पांव फैलाए हैं, उसके चलते चीन को झटका भले ही लगा हो, लेकिन वह इससे उखड़ सा गया हो, ऐसा कम से कम कहीं भी दिखा नहीं। यह तकरीबन उसी समय साफ हो गया था कि अमेरिकी राष्ट्रपति के कदम यहीं पर रुकने वाले नहीं हैं। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों के बारे में उनकी आक्रामक बयानबाजी लंबे से जारी ही थी। अब उन्होंने टैरिफ को लेकर भारत के खिलाफ एक बड़ा कदम उठाया है। अब उन्होंने 50 भारतीय समानों पर दी जा रही शुल्क राहत को खत्म करने की घोषणा कर दी है। एक नवंबर से हटाई गई इस राहत में ज्यादातर वे सामान आते हैं, जो या तो कृषि क्षेत्र के हैं या फिर हस्तशिल्प क्षेत्र के। अभी तक अमेरिका में इनका आयात ड्यूटी फ्री प्राथमिकता के तहत होता रहा है, जो विकासशील देशों के सामानों को प्राथमिकता देने की अमेरिकी नीति का एक हिस्सा था। इस नीति की समीक्षा करते हुए ट्रंप प्रशासन ने यह फैसला किया है।

वैसे डोनाल्ड ट्रंप की सरकार इस तरह के कई फैसले ले सकती है, इसका अंदाज तो पिछले एक-डेढ़ महीने से मिलने लगा था। सबसे पहले खुद ट्रंप ने यह कहा था कि भारत अमेरिका से व्यापार समझौता करने के लिए बेताब है। लगभग एक महीने पहले उन्होंने फिर कहा कि भारत आयात पर भारी टैक्स लगाने वाले देशों का बादशाह है। हालांकि दुनिया भर के विशेषज्ञों ने इसे तार्किक रूप से गलत बताया था। यह ठीक है कि भारत में कभी आयात पर भारी टैक्स थोपा जाता था, लेकिन उदारीकरण के बाद से यह सब बदल गया है। कंप्यूटर वगैरह बहुत से आईटी उत्पादों पर तो भारत ने आयात शुल्क बहुत कम कर दिया है, जिसका सबसे बड़ा फायदा लंबे समय तक अमेरिका को ही मिला है। भारत ने यह काफी पहले समझ लिया था कि आयत कर लगाकर तकनीक को महंगा बनाने से अंत में घाटा उसी का होगा। देश को इसका फायदा भी मिला और जल्द ही भारत आईटी सेवाओं के निर्यात में दुनिया का अग्रणी देश बन गया।

भारत, चीन या दूसरे देशों से ट्रंप प्रशासन के व्यवहार को अगर अलग करके देखें, तो इस समय समस्या यह है कि अमेरिका उन नीतियों को तेजी से बदलने में जुट गया है, जिन पर अभी तक उसका व्यापार दर्शन खड़ा था और जिनके हिसाब से दुनिया की व्यापार व्यवस्था चल रही थी। पिछले न जाने कितने दशकों से अमेरिका दुनिया को यह सोच देता रहा है कि कोई भी उत्पाद दुनिया भर में जहां से भी सस्ता मिले, उसे खरीद लिया जाना चाहिए बजाय उसके अपने देश में महंगे उत्पादन के। ट्रंप मेड इन अमेरिका की सोच के तहत इस नीति को पूरी तरह बदलने को उतारू हैं। जाहिर है, दुनिया की व्यापार व्यवस्था इसके झटकों से लगातार परेशान हो रही है। जहां तक भारत की बात है, उसे अब अमेरिकी बाजार में मिलने वाली राहतों का मोह छोड़कर अपनी निर्यात व्यवस्था को तेजी से गुणवत्ता के आधार पर खड़ा करना चाहिए। दीर्घकालिक नीति अपनाने का समय आ गया है।


Date:02-11-18

Serious Business

Supply-side reforms boost India’s profile, but red tape and opaque systems continue to pull back growth.

Editorial

India’s ranking in the latest edition of the World Bank’s Ease of Doing Business Index has jumped 23 spots to 77 among 190 economies — a substantial improvement over the last couple of years. The Index seeks to measure 11 areas of business, among them the procedures, timelines and cost related to construction, protection of minority investors, payments of tax, time and cost to export a product or import it and to resolve commercial dispute, the quality of the judicial process and time taken and the cost for resolution or insolvency. The scores should improve further next time with recognition of the laws on GST and more companies taking the resolution route under the insolvency.

India’s score was boosted this time because of the strides in cross-border trading with the streamlining of paper work and documentation — the country’s score has moved up from 146 last year on this count to 80 this time. The other area of improvement is in construction permits. All these underline the importance of supply-side reforms. As the World Bank points out, economies with better business regulations are the ones that create more job opportunities and the countries with more transparent and accessible information have lower levels of corruption. The other important takeaway from the Index is that what is common among the top-ranked economies is the pattern of continuous reform. India has considerable ground to cover on this front: When it comes to enforcing contracts, the country’s score has barely moved in the latest ranking. The lesson here is the absence of judicial reforms, bureaucratic and legal hurdles are hurting the economy.

In a federal structure like India, cutting the red tape or easing procedures across states is not easy. However, the signs are that many states have recognised the need to remove hurdles to attract industry. Yet, businessmen complain about the steep cost of doing business and the constraints they face in translating ideas into viable commercial ventures. For sure, it is good to benchmark the country’s progress on various counts of starting a business, but it is also important not to lose sight of the fact that this does not measure macro stability policies and development of the financial sector. The boost to ranking has come at a time when investment activity is far from vibrant. The key is, of course, a revival in demand, but removing systemic constrains would help business and industry become more competitive.


Date:02-11-18

Always a fine balance

The RBI-government tussle must prompt a debate on defining the RBI Governor’s position

Raghuvir Srinivasan

Yaga Venugopal Reddy, a former Governor of the Reserve Bank of India, (RBI) known as much for his wit as his clever stewardship of the central bank, coined an interesting phrase, “open-mouth operation”, taking off from the Open Market Operation tool of the RBI. That phrase best describes RBI Deputy Governor Viral Acharya’s A.D. Shroff Memorial Lecture in Mumbai last week. Dr. Reddy had coined the phrase to describe his speech in Goa on August 15, 1997 at a conference of the Foreign Exchange Dealers’ Association. Then a Deputy Governor, Dr. Reddy (with the full support of the then Governor, C. Rangarajan) tried to talk down the rupee which the central bank felt was over-valued.

Compelling correctives

The objective of an “open-mouth operation” is clear: influence a target audience to behave in a manner favourable to you or your objectives. If the target was the forex market in Dr. Reddy’s Goa speech, it was the Central government in Dr. Acharya’s speech. The “open-mouth operation” worked beautifully in both instances. The rupee corrected immediately after Dr. Reddy’s speech; after Dr. Acharya’s speech, the government has been forced to acknowledge, even if grudgingly, that the RBI’s autonomy is “within the framework of the RBI Act”.

Shorn of the personalities, what we are witnessing now is a fascinating tussle between an institution covered by an Act of Parliament and the executive, with one fighting for its autonomy and the other for its interests. Where does the fair balance lie?

Before trying to answer that question, we need to understand the ‘autonomy’ that the RBI enjoys and the limits to that. This is not the first time that the RBI’s autonomy has come under focus, and it will surely not be the last. Successive Governors have fought against what they felt were transgressions — formal and informal — on the central bank’s autonomy by powerful Finance Ministers.

Dr. Reddy once famously quipped to a journalist: “I’m very independent. The RBI has full autonomy. I have taken the permission of my Finance Minster to tell you that.” On a more serious note, he clarified that the RBI is independent, but within the limits set by the government.

In his book, Advice and Dissent: My Life in Public Service, he explains his understanding of this autonomy under three functions: operational issues, policy matters, and structural reforms. In the case of the first, he believed in total freedom; on the second, he preferred prior consultation with the mandarins in North Block; and on the third, he worked in “very close coordination” with the government.

Dr. Reddy describes the interactions with the government as “walking on a razor’s edge” and concedes that the sovereign is ultimately supreme. That is because the RBI Act allows the government to give written directives to the RBI in the public interest (the infamous Section 7 that is now in the news). On critical issues, often the choice for the Governor is to concede to the government with or without a written directive. But tradition has been that both the government and the RBI have avoided recourse to this provision.

That has been due only to the mature handling of differences behind closed doors, something that has been absent in the current tussle. Duvvuri Subbarao, another former Governor, argues along similar lines in his book, Who Moved My Interest Rate?

Handled with care, till now

The existence of Section 7 in the RBI Act, even if it has never been used till now, proves that the RBI is not fully autonomous, says Dr. Subbarao. He points out that the fact that it has never been used is testimony to the sense of responsibility that the government and the central bank have displayed.

The statement put out by the government on Wednesday underlines this message very clearly: the RBI is autonomous but within the framework of the RBI Act. It is thus clear that the central bank cannot claim absolute autonomy. It is autonomy within the limits set by the government and its extent depends on the subject and the context. There is a clear reason why, even while it is conceded that control of the nation’s currency should be with an independent authority removed from the sway of elected representatives, the RBI Act has the veto option in the form of Section 7.

And that’s because it is not the technocrats and economists sitting in Mumbai’s Mint Street who carry the can for the policies they frame; it is the rulers in Delhi who do. Ultimately, it is the elected representative ruling the country who is answerable to the citizen every five years. The representative cannot split hairs before the voter while explaining the economy’s performance — he has to own up for everything, including the RBI’s actions, as his own.

In a democracy, it is unthinkable that we will have an institution that is so autonomous that it is not answerable to the people. The risk of such an institution is that it will impose its preferences on society against the latter’s will, which is undemocratic.

Seen from this perspective, the limits to the RBI’s autonomy will be clear. It is autonomous and accountable to the people ultimately, through the government. The onus is thus on responsible behaviour by both sides. There is enough creative tension between the two built into the system. The Governor has to be conscious of the limits to his autonomy at all times, and the government has to consider the advice coming from Mint Street in all seriousness, as indeed Dr. Reddy and Dr. Subbarao have pointed out.

Government’s failure

But what if they do have fundamental disagreements, as they seem to be having now, and are unable to arrive at a common ground? Well, the brahmastra of Section 7 is certainly available to the more powerful side; but just as the weapon is a deterrent never to be used, so is Section 7. The cleverness of the politician in Delhi lies in negotiating with the RBI and having his way without ever threatening to unleash the brahmastra — the other side knows it exists anyway. This is where the present dispensation in Delhi seems to have failed.

It is to avoid situations such as the one we are seeing now that former RBI Governor Raghuram Rajan argued for a clear enunciation of the RBI’s responsibilities. In his book I Do What I Do, he points out that the position of the RBI Governor in the government hierarchy is not defined. The Governor draws the salary of a Cabinet Secretary, and it is generally understood that he will explain his decisions only to the Prime Minister and the Finance Minister. Argues Dr. Rajan: “There is a danger in keeping the position ill-defined because the constant effort of the bureaucracy is to whittle down its power.”

The latest tussle between the executive and the central bank will eventually end, in all probability with a compromise. However, it’s purpose would have been served if the debate leads to greater awareness on both sides of the other’s compulsions. Better still, if it leads to a clear definition of the RBI’s responsibilities that would, to borrow Governor Urjit Patel’s words, be the pot of nectar coming out of this Samudra Manthan.


 

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