05-06-2019 (Important News Clippings)

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05 Jun 2019
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Date:05-06-19

सरकार को मिला है बहुमत अपार विधिक क्षेत्र में लाएं जरूरी सुधार

एम जे एंटनी

नई सरकार बन चुकी है और देश इस बात की प्रतीक्षा में है कि डिजिटल इंडिया, सौर ऊर्जा और अंतरिक्ष उड़ान के क्षेत्र में किए गए सैकड़ों नए कदमों के वादे पूरे किए जाएंगे। इस बीच एक क्षेत्र जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है वह है न्यायपालिका का सम्मानित क्षेत्र। हाल के वर्षों में उच्च न्यायपालिका को काफी कठिनाई के दौर से गुजरना पड़ा। एक ओर जहां वित्त, दूरसंचार, ऊर्जा और अन्य क्षेत्रों में लॉबीइंग करने वालों की भरमार है, वहीं न्यायाधीशों के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए ऐसे लोग नहीं होते। उन्हें जो कुछ मिलता है उसी से संतुष्ट रहना पड़ता है और साथ ही उन्हें अपनी स्वायत्तता की रक्षा भी करनी होती है। इस सिलसिले में कई बार उनको खुलकर भी सामने आना पड़ता है।

वर्षों से इस क्षेत्र की एक प्रमुख शिकायत यह रही है कि लोकतंत्र के इस तीसरे स्तंभ को बजट में भी उसका पर्याप्त हिस्सा नहीं मिल पा रहा है। इस अहम क्षेत्र के लिए बजट में औसतन 0.2 फीसदी का प्रावधान है। आगामी बजट में इसे बढ़ाकर सम्मानजनक स्तर तक पहुंचाया जाना चाहिए। न्यायाधीश अपने निर्णयों में और सार्वजनिक रूप से भी न्यायालयों के बुनियादी ढांचे पर खेद जता चुके हैं लेकिन सरकारों ने इस पर शायद ही कभी ध्यान दिया हो। अगली गंभीर समस्या है न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच निरंतर असहजता। सभी स्तरों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी होती रही है। हालांकि अब सर्वोच्च न्यायालय में पूरे 31 न्यायाधीश हैं। हाल के कई दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है। परंतु उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में हालत अब भी बुरी है। न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके स्थानांतरण के तरीके को लेकर भी कोई सहमति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित कॉलेजियम व्यवस्था पर इस पेशे के ही ढेर सारे लोगों का यकीन नहीं है। प्रस्तावित प्रक्रिया ज्ञापन, जिसे अभी न्यायपालिका और कार्यपालिका की मंजूरी की जरूरत है, उसे जल्द से जल्द अंतिम रूप देकर न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव की आशंका को समाप्त किया जाना चाहिए।

बीते दशकों में सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज की समीक्षा के बाद उसके अधिकारों पर दोबारा नजर डालने की आवश्यकता है। हमारे पुरखों ने सर्वोच्च न्यायालय की परिकल्पना एक संवैधानिक अदालत के रूप में की थी लेकिन यह एक अपील अदालत बनकर रह गई। बीते तीन महीनों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए अनेक निर्णय संपत्ति के बंटवारे, किराये के विवाद और सेवा संबंधी मसलों से जुड़े रहे हैं। वर्षों से लंबित इन मामलों के निपटारे में व्यस्त न्यायाधीशों के पास सैकड़ों पुराने संवैधानिक मसलों पर नजर डालने का वक्त ही नहीं है। हर सप्ताह बहुत बड़ी तादाद में अपील के नए मामले देश की सबसे बड़ी अदालत के समक्ष आ जाते हैं। अक्सर उच्च न्यायालयों और पंचाटों के निर्णयों के खिलाफ विशेष अवकाश याचिकाएं दायर की जाती हैं जो न्यायाधीशों का ढेर सारा समय ले लेती हैं। ऐसे में संवैधानिक अदालत की लंबे समय से लंबित मांग को पूरा किया जाना चाहिए, भले ही इसके लिए कानून में जरूरी बदलाव करना पड़े।

सर्वोच्च न्यायालय में हाल में जो घटनाएं घटीं, उन्हें देखते हुए न्यायाधीशों पर लगे आरोपों से निपटने के लिए एक व्यावहारिक प्रक्रिया की आवश्यकता है। महाभियोग अव्यावहारिक साबित हुआ है। ऐसे में इस प्रकार की परिस्थितियों से निपटने के लिए एक विधिक प्रक्रिया स्थापित की जानी चाहिए। देश के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने चेतावनी दी है कि अगर न्यायाधीशों को गलत आरोपों का सामना करते रहना होगा तो अच्छे न्यायाधीश मिल पाना मुश्किल होता जाएगा। कारोबारी सुगमता के कानूनी पहलुओं में से एक है मध्यस्थता। परंतु मध्यस्थता का प्रावधान भी विवाद वाले पक्षकारों को आकर्षित करने में कामयाब नहीं हो सका। अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अब अमूमन विदेशी केंद्रों तक जाती है। घरेलू मध्यस्थता बीते कई वर्ष से प्रक्रियात्मक उलझनों में पड़ी हुई है। नई दिल्ली को मध्यस्थता के मामलों का केंद्र बनाने संबंधी एक अध्यादेश फिलहाल दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती का सामना कर रहा है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि मजबूत संस्थानों की सहायता से इस प्रक्रिया को तेज किया जाए और वैकल्पिक विवाद निस्तारण प्रणाली को पेशेवर बनाया जाए।

कई ऐसे पंचाट हैं जो आर्थिक मसलों से संबंधित हैं। उनमें से कई में जरूरत से काफी कम सदस्य हैं। उनमें से कुछ में तो अध्यक्ष तक नहीं हैं। ऐसे में इन अद्र्घ न्यायिक संस्थानों में नियुक्तियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट और उसकी अपील संस्था सक्रिया हैं लेकिन उनके समक्ष लंबित 12,000 से अधिक मामलों में से आधे से अधिक अभी प्रतीक्षारत हैं। विलय एवं एकीकरण के मामलों को लेकर हो रहे विवादों के मद्देनजर प्रतिस्पर्धा कानून पर भी दोबारा दृष्टि डालने की आवश्यकता है। यह प्रक्रिया लंबी है। बहरहाल, सत्ताधारी दल ने जो भारी भरकम जीत हासिल की है, उसका फायदा विधिक सुधारों के क्षेत्र में भी उठाया जाना चाहिए। इसकी बहुत लंबे समय से अनदेखी की जा रही है।


Date:05-06-19

नई तकनीक लाती है नई किस्म की नौकरियां

डॉ. भरत झुनझुनवाला , ( लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं )

एटीएम के आने से बैंक में कैशियर की नौकरियां कम हो गईं। मोबाइल फोन के आने से एसटीडी बूथ का धंधा चौपट हो गया। ऐसी अंतहीन मिसालें हैं। मगर इसकी हकीकत यही है कि नई तकनीक अपने साथ जहां कुछ पुराने रोजगारों को समाप्त करती है तो वहीं कुछ नई किस्म की नौकरियां भी सृजित करती है। यानी तकनीक के साथ रोजगार पर बड़ा संकट नहीं आया है। मसलन एटीएम आया तो उसके रखरखाव और संचालन के क्षेत्र में नौकरियां सृजित हुईं तो मोबाइल फोन के आने से उनकी मरम्मत का काम कई लोगों की आजीविका चला रहा है।

कुल मिलाकर नई तकनीक हमेशा कुछ न कुछ हलचल भी मचाती है और आने वाले समय में इससे जुड़ी उठापटक और तेज होने के आसार हैं। इस कड़ी में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ का नाम बड़े जोर-शोर से लिया जा रहा है। इसमें शोध के लिए वैज्ञानिकों की जरूरत कम होगी। स्वचालित गाडिय़ों से वाहन चालकों का रोजगार चौपट हो सकता है। हम इन नए अविष्कारों को रोक नहीं सकते हैं और उन्हें रोकना भी नहीं चाहिए। प्रश्न इन तकनीकी आविष्कारों को रोकने का नहीं है। प्रश्न है कि नए कार्यों में नए रोजगारों का पर्याप्त मात्रा में सृजन हो। एम्प्लॉयमेंट एनालिसिस नाम की वेबसाइट के अनुसार 1900 में अमेरिका में 1,09,000 घोड़ा गाड़ी चलती थीं और बिजली मिस्त्री नगण्य थे। 2002 में घोड़ा गाड़ी शून्य प्राय हो गईं जबकि बजली मिस्त्रियों की संख्या 8,82,000 हो गई। यानी जितना पुराने रोजगार का हनन हुआ उससे दस गुना नए रोजगार सृजित हुए। अर्थशास्त्रियों के बीच सहमति नहीं है कि नई हलचल से कितने रोजगारों का हनन होगा। कार्ल बेनेडिट द्वारा किए गए एक अध्ययन में आकलन किया गया कि अमेरिका के 47 प्रतिशत रोजगार संकट में पड़ सकते हैं। विश्व बैंक ने इस आकलन का गहन अध्ययन कराया और अनुमान लगाया कि केवल नौ प्रतिशत रोजगार का हनन होगा। यदि 47 प्रतिशत रोजगार का हनन होता है और 60 प्रतिशत रोजगार नए बनते हैं तो सुखद है। यदि नौ प्रतिशत का हनन होता है और केवल चार प्रतिशत नए बनते हैं तो दुखद है। अत: हमारा ध्यान होना चाहिए कि नए रोजगार सृजित हों।

मैं आशावादी हूं। मुझे भरोसा है कि कितने भी पुराने रोजगारों का हनन हो, उससे ज्यादा नए रोजगार बन सकते हैं। मान लीजिए कोई किसान अपनी फसल के लिए सप्ताह में छह दिन काम करता था। अब बिजली, ट्रैटर और इंटरनेट ने उसके लिए संभव बना दिया है कि वह चार दिन के काम से भी उतना ही उत्पादन कर सकता है। इससे दो दिन अतिरित मिल गए। इन दो दिनों में वह कोई नया काम सीखकर उससे फायदा उठा सकता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के एक अध्ययन के अनुसार नई तकनीकों के कारण उच्च क्षमता के इंजीनियरों के रोजगार का भारी मात्रा में सृजन होगा। मध्यम क्षमता के कर्मियों की जरूरत बहुत कम हो जाएगी और निम्म क्षमता के कर्मियों के रोजगार में भी वृद्धि होगी। आने वाले समय में केवल उच्च और निम्म वर्ग रह जाएंगे। माध्यम वर्ग का सफाया हो जायेगा। अत: चुनौती इस बात की है कि हम उच्च क्षमता के अधिक संख्या में रोजगार बनाएं। उच्च रोजगार नई तकनीकों पर आधारित होते हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिकी दबदबे का मूल कारण है कि अमेरिकी सरकार ने नई तकनीकों के विकास को व्यापक आर्थिक समर्थन दिया है। जैसे इंटरनेट का आविष्कार अमेरिकी वाणिज्य विभाग द्वारा दिए गए अनुदान से हुआ था। परमाणु ऊर्जा का आविष्कार द्वितीय विश्व युद्ध के समय अमेरिकी सेना द्वारा किया गया था, लेकिन अपने देश में सरकार अनुदान उन लोगों को देती है जो नई तकनीक के सृजन को रोकते हैं। कुछ समय पहले एक सेवानिवृा प्रोफेसर से चर्चा हुई। मैंने उनसे पूछा कि आपका मन कैसे लगता है? वह बोले कि मैं तो 40 साल से ‘कुछ न करने का आदी हो गया हूं। उन्हें 1.50 लाख रुपये प्रति माह का वेतन मिलता होगा।

वैज्ञानिक बताते हैं कि यदि कोई वैज्ञानिक वास्तव में शोध करना चाहता है तो पूरी व्यवस्था उसका विरोध करने लगती है। यही कारण है कि देश में इतने सस्ते मूल्य पर उच्च वैज्ञानिक उपलब्ध होने के बावजूद हम तकनीकी आविष्कार में पीछे हैं। भारतीय वैज्ञानिक अमेरिका में जाकर अच्छा कार्य करते हैं और अपने देश में अपनी ही सरकार उन्हें अच्छा कार्य करने से रोकती है। राजग सरकार दूसरे कार्यकाल में वाईफाई को पूरे देश में फैलाएगी जो कि सही दिशा में कदम है, लेकिन रोजगार सृजन तभी हो पाएगा जब शिक्षा व्यवस्था में सुधार होगा। सरकार को शिक्षा में सुधार के लिए कुछ बिंदुओं पर विचार करना चाहिए। पहली बात है कि विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दबाव में कुलपतियों की नियुति पर रोक लगानी चाहिए। सरकार एक विशेष विचारधारा की होती है और सरकार को अधिकार है कि अपनी विचारधारा के अनुरूप लोगों को नियुत करें, लेकिन अपनी विचारधारा के अक्षम लोगों की नियुति उचित नहीं है। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था वैचारिक भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो गई है। सरकार पहले सक्षम लोगों का पैनल बनाए। उसके आधार पर ही नियुति का निर्णय ले।

दूसरा काम यह है कि सभी विश्वविद्यालयों और वैज्ञानिक संस्थाओं में अध्यापकों एवं वैज्ञानिकों को स्थायी नौकरी देने के स्थान पर पांच वर्षीय अनुबंध पर रखा जाए। मैं फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में पड़ता था। हमारे 40 में से केवल दो प्रोफेसरों को स्थायी नियुति दी गई थी। बाकी सभी का पांच वर्ष पर मूल्यांकन होता था और उसी आधार पर नवीनीकरण। मूल्यांकन में छात्रों, एक बाहरी संस्था और अपने ही सहयोगियों तीनों की सहभागिता होनी चाहिए। तीसरा कदम है कि शैक्षिक संस्थाओं को दी जा रही रकम को उनके द्वारा किए गए कार्य से जोड़ देना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में प्रोफेसरों के कितने पर्चे प्रकाशित हुए, सेल्फ फाइनेंसिंग कोर्स से कितनी रकम जुटाई, इत्यादि को देखते हुए ही इन संस्थाओं को रकम देनी चाहिए। इन कदमों को लागू कर नई सरकार भारत में उच्च कोटि के तमाम रोजगार का सृजन भी कर सकेगी और भारत वास्तविक मायने में महाशति भी बन सकेगा।


Date:04-06-19

बिम्सटेक नेताओं की मौजूदगी

आशीष शुक्ला

बीती  23 मई को घोषित चुनाव परिणाम ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय जनता का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भरोसा न केवल बना हुआ है, बल्कि उसमें कहीं-न-कहीं इजाफा हुआ है। भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 2014 के चुनाव के बनिस्बत मिली अभूतपूर्व सफलता इस बात की परिचायक है। चुनाव परिणाम आने के साथ ही भारतीय कूटनीतिक क्षेत्र में मोदी के दूसरे कार्यकाल के लिए होने वाले शपथ ग्रहण समारोह के संदर्भ में सर्वाधिक चर्चित विषय इसमें शामिल होने वाले विदेशी मेहमानों की संभावित सूची थी। गौरतलब है कि 2014 के समारोह में हिस्सा लेने के लिए भारत के सभी दक्षिण एशियाई पड़ोसियों, जिनमें पाकिस्तान भी शामिल था, को न्योता भेजा गया था।

पाकिस्तान के साथ पिछले कार्यकाल के अनुभव, पुलवामा हमले में उसकी संलिप्तता, बालाकोट में भारत की जवाबी कार्रवाई एवं दोनों देशों की वायु सेनाओं के बीच सीमित हवाई झड़प को देखते हुए निश्चित था कि पाकिस्तान को इस बार आमंत्रित नहीं किया जाएगा। भारत द्वारा पाकिस्तान को क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने के प्रयास जारी रहेंगे। चूंकि भारत अपनी विदेश नीति में ‘‘पड़ोसी प्रथम’ दृष्टिकोण का अनुगमन करता है, इसलिए पाकिस्तान के अतिरिक्त अन्य सभी महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देशों को आमंत्रित करने का फैसला किया गया। गौरतलब है कि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की तुलना में वर्तमान प्रधानमंत्री इमरान खान को पाकिस्तानी सेना के हाथ की कठपुतली से अधिक कुछ नहीं माना जाता। चूंकि पाकिस्तानी सेना खुद को देश की राजनीति में प्रभावशाली बनाए रखने के लिए भारत-विरोध का सहारा लेती है, इसलिए उससे और उसके कठपुतली प्रधानमंत्री से सकारात्मक सहयोग की अपेक्षा करना भारत में एक विशेष व प्रभावी तबके को बेमानी प्रतीत होता है।

यही वजह है कि 2014 के शपथ ग्रहण समारोह की तुलना में इस बार के विदेशी मेहमानों की फेहरिस्त में कुछ जोड़-घटाना करते हुए अंतत: सात सदस्यीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन बिम्सटेक के नेताओं को प्रमुखता दी गई। बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार के राष्ट्रपति अब्दुल हामिद, मैथिरिपाला सिरिसेना, यू विन मिंट; नेपाल और भूटान के प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली और लोटे शेरिंग के अतिरिक्त थाईलैंड के विशेष दूत ग्रिस्दा बून्राच ने शपथ ग्रहण की शोभा बढ़ाई। इन नेताओं के इस समारोह में शामिल होने के मायने का विश्लेषण करने से पहले बिम्सटेक के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें जान लेना आवश्यक होगा। सर्वविदित है कि भारत-पाकिस्तान के बीच संबंधों का असर दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन की प्रभावशीलता और सफलता पर नकारात्मक रूप से पड़ा है। दक्षिण एशियाई क्षेत्र के आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया न केवल धीमी पड़ी, बल्कि कहीं न कहीं रु कती हुई प्रतीत हो रही थी। इस समस्या से निपटने, क्षेत्रीय एवं आर्थिक एकीकरण को गति देने और उसका विस्तार करने के उद्देश्य से जून, 1997 में बैंकाक घोषणा के जरिए बिम्सटेक का प्रादुर्भाव हुआ। प्रारंभ में इस आर्थिक ब्लॉक में केवल चार सदस्य-बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका और थाईलैंड-थे और संगठन को बिस्टेक के नाम से जाना जाता था। दिसम्बर, 1997 में बैंकाक में विशेष मंत्रिस्तरीय बैठक में म्यांमार को भी शामिल कर लिया गया और संगठन का नाम बदल कर बिम्सटेक कर दिया गया।

बिम्सटेक का अब मतलब था-बांग्लादेश, भारत, म्यांमार, श्रीलंका, और थाईलैंड के बीच आर्थिक सहयोग। फरवरी, 2004 में थाईलैंड में छठी मंत्रिस्तरीय बैठक में नेपाल और भूटान को भी शामिल करने का निर्णय लिया गया और संगठन का नाम बदल कर ‘‘बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्निकल और आर्थिक सहयोग’ कर दिया गया। हालांकि यह अपने छोटे नाम बिम्सटेक से ही जाना जाता रहा। अब यह एक तरह से दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच पुल की तरह काम करने लगा। बिम्सटेक न केवल विश्व की बीस प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का नेतृत्व करता है, बल्कि सम्मिलित रूप से बिम्सटेक देशों की अर्थव्यवस्था 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अघिक है। पिछले कुछ वर्षो में नियंतण्र आर्थिक मंदी के बावजूद बिम्सटेक देशों ने 6.5 प्रतिशत से अधिक विकास दर बनाए रखी, जो इनकी आर्थिक क्षमता और संभाव्यता को व्यक्त करती है। इन तयों के आलोक में बिम्सटेक नेताओं का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण में शामिल होना बड़ा कूटनीतिक कदम है, जिसकी गूंज शीघ्र ही क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय पटल पर सुनाई देगी।

भारत की विदेश नीति में पड़ोस-दोनों निकटतम और विस्तारित-की भूमिका हमेशा महत्त्वपूर्ण रही है। यही वजह है कि 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने ‘‘पड़ोसी प्रथम’ के दृष्टिकोण को प्रमुख रूप से आगे बढ़ाया और अपने पहले विदेशी दौरे के लिए भूटान को चुना। साथ ही साथ भारत की ‘‘पूर्व की ओर देखो’ की नीति ‘‘पूर्व की ओर कार्यवाही करो’ की नीति में बदल दी। इन सब प्राथमिकताओं का सम्मिलित परिणाम हुआ कि भारत ने दक्षिण एशिया के साथ-साथ दक्षिण-पूर्व एशिया को भी साधने के लिए सकारत्मक प्रयास शुरू कर दिया। यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि उपरोक्त बातों के होते हुए भी कुछ विश्लेषकों को जिस तय ने सर्वाधिक चौंकाया वह है तिब्बत की विस्थापित सरकार के मुखिया को निमंतण्रन भेजना। 2014 के शपथ ग्रहण समारोह में विस्थापित तिब्बती सरकार के मुखिया लोबसांग संगे ने शिरकत की थी। उस समय चीन ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए आधिकारिक विरोध दर्ज कराया था।

भाजपा की इस चुनाव में भारी विजय के पश्चात संगे ने अपने बधाई संदेश में स्पष्टत: कहा था कि ‘‘जितना भारत और इसकी दरियादिल लोगों ने तिब्बत के लिए किया है, उतना किसी अन्य देश ने नहीं किया है। मैं आशा करता हूं कि भारत और तिब्बत के बीच का साझा संबंध मजबूत बना रहेगा और भारत तिब्बत के न्यायसंगत ध्येय का समर्थन करता रहेगा।’ कुछ विश्लेषकों ने इसकी व्याख्या इस रूप में की है कि भारत ने अपने ताकतवर और महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश चीन की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए ऐसा निर्णय लिया है। कुल मिलकर भारत ने इस शपथ ग्रहण समारोह के माध्यम से निकटतम और विस्तारित पड़ोस को साथ लेकर आगे बढ़ने की नीति का संदेश देने की सकारात्मक पहल की है।


Date:04-06-19

Safety Net That Works

Before contemplating new rural programmes, government must expand MGNREGA

Shonar Lala , [ The writer is a development economist who has previously worked at the World Bank and consults at 3ie ]

In the run up to the elections, a plethora of redistributive programmes, including farm loan waivers, cash transfers and minimum income guarantees came to the forefront as campaigners sought to balm rural distress. Amongst these is a proposal to launch a revised NREGA 3.0, in which 150 days of employment would be guaranteed to the rural poor. Almost 15 years after it was enacted, the Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act (NREGA) still makes waves in the news, but very little is known about its impact on the poor. Has the world’s largest workfare programme worked ?

To elicit a fair answer to this question begs another question. What does the NREGA intend to do? Enacted as a legal right, the NREGA’s primary goal is social protection for the most vulnerable. But like all good things, expectations of the programme have ballooned — with some believing it could even enable most poor households in rural India to cross the poverty line. Measured against such ambitious objectives, any workfare programme would most likely not live up to its expectations. But India has had relative success with workfare, with the Maharashtra Employment Guarantee Scheme being the most important precursor to the NREGA.

The primary advantage of workfare programmes over farm loan waivers, cash transfers and minimum income programmes is that the poor self-select themselves into the programme, thus reducing the identification costs. The ability of a programme to parsimoniously target the ultra-poor without elaborate means testing is critical for its long-term success, particularly when fiscal resources are scarce.

Crucially, the most basic tenet of the NREGA — its self-targeting mechanism — does work. Poorer and disadvantaged households are more likely to seek NREGA work. In practice, however, not all those who demand NREGA work receive it. In 2009/10, almost half the households in rural India wanted NREGA jobs but only a quarter received them, according to estimates by Liu and Barrett (2016). More recently, employment provided under NREGA in 3,500 panchayats in 2017/18 was a third less than that demanded.

Given the enormous, though sometimes unmet, demand, has NREGA enabled the rural poor to cross the poverty line? Whilst the three available national counterfactual-based studies show modest increases in household per capita expenditures and consumption in the first few years of the programme, the picture is entirely different for marginalised groups, who have benefited greatly due to NREGA. A study by Klonner and Oldiges in 2014 find that Scheduled Caste and Scheduled Tribe recipients increased their real monthly per capita expenditure by 37 per cent in the lean season of 2008, cutting poverty by almost half.

Likewise, state-level studies show NREGA favours the most disadvantaged. In Andhra Pradesh, monthly per capita food consumption amongst the very poor who received work under NREGA increased by estimates of 9-10 per cent in the first year of implementation (Ravi and Engler 2015, Deininger and Liu 2019). The poorest SC/ST households and those with a disabled member saw even higher growth in consumption and nutritional intake in the short-run, and in the medium-term, substantially increased their non-financial assets. In Bihar, Dutta et al (2014) estimate that NREGA reduced poverty by roughly 1 percentage point in 2009, a figure that could be closer to 8 percentage points if it was rolled out to all those who wanted it.

Aside from its impact on the poorest, NREGA also plays a critical role in reducing vulnerability. Research indicates that NREGA provides employment after an adverse rainfall shock, enables workers to smoothen their consumption with variations in rainfall, and reduces risk during the lean season. Despite been severely rationed, NREGA acts, as per its mandate, as a very desirable social protection mechanism amongst the most disadvantaged classes. Compared to other proposals on the table, NREGA efficiently allows the most disadvantaged to spur their consumption in times of rural distress.

As a new administration weighs policy options at a time of rural unemployment and weakening consumption, pre-monsoon, it would be prudent not to eschew this proven pro-poor programme. Instead, they should quickly and substantially ramp up NREGA so all those who demand jobs, receive them. Why reinvent the wheel when NREGA would provide a vital safety net — and the dignity of rightful employment — to those who are most vulnerable ?


Date:04-06-19

For Skilling India

It requires tapping of technology and creation of conducive governance.

K P Krishnan, Roopa Kudva , [ Krishnan is secretary, ministry of skill development and entrepreneurship, government of India. Kudva is managing director, Omidyar Network India]

Over the last 10 years, the Indian government has undertaken significant efforts in improving both the scale and quality of skilling, like setting up the National Skills Development Corporation (NSDC) in 2009, launching the Skill India mission in 2015, and the flagship skilling initiative, the Pradhan Mantri Kaushal Vikas Yojana (PMVKY) in 2016. This, in turn, is expected to drive economic gains and social mobility for individuals as well as trigger a productivity dividend for enterprises.

Despite the progress made so far, today, learners face a multitude of challenges on their skilling journey. Two ecosystem barriers contribute directly to this: Informational asymmetries and limited quality assurance.

As far as the first barrier is concerned, there is a fundamental lack of awareness around why skills matter at the individual level. There is also a paucity of timely and reliable data on the supply of and demand for jobs, which makes it difficult for those seeking employment to identify what opportunities they should pursue. There also exists limited access to impartial and credible sources of information on high-quality service providers and high-potential opportunities, which means that jobseekers and learners end up relying on personal networks or proximate training providers. As a result, they end up training in skills that are not responsive to the local and changing market needs.

Regarding quality assurance, currently, there are three primary overseeing bodies that manage the quality assurance process. The National Council for Vocational Training (NCVT) manages long-term skilling programmes while the National Skills Development Agency (NSDA) and the NSDC regulate short-term programmes. There is also an imbalance at various levels of the process that need correction, for example, incentives for different service providers are misaligned leading to situations where outcome-based disbursement models favour assessment agencies over training providers.

To unlock the potential of the skills ecosystem, these frictions must be smoothened through technology-led change, as well as through market-enabling governance. Until now, technology has played an enabling role in making existing systems and processes become smoother and more efficient (for example, digitisation of course curriculums). Moving to a technology-led transformation will help reach scale, promote inter-operability and create digital public goods for all to use, that is, the internet equivalent for skills. Automated and scalable forms of interactions can help improve trust and credibility in the ecosystem and enable better decision-making by learners, service providers and employers. Two leading initiatives in this direction are (i) creating and adopting digital certificates that allow consent-based sharing of information in a machine-readable format, to ensure better security and authenticity and ii) open APIs that can enable stakeholders in the ecosystem to tap into large, centralised sets of information (e.g. public registries of trainers, students etc.) and build market solutions (e.g. ratings for training centres).

Consolidated and market-enabling governance can also help create the right incentives for service providers to cater to the needs of learners and employers effectively. A seminal step in this direction has been the creation of an overarching skilling regulator, the National Council for Vocational Education and Training (NCVET) by merging NCVT, NSDA and regulatory functions of NSDC. Over the next year, it is expected that NCVET will develop minimalistic and user-friendly guidelines to recognise and regulate two of the most important stakeholders in the skilling ecosystem — the awarding bodies, who accredit training institutions, and, the assessment agencies, who assess learner performance. In turn, it will be incumbent upon the awarding bodies to monitor and regulate the functioning of affiliated training providers. NCVET will be a forward-looking regulator and will support disruptive innovation in the ecosystem like models that reduce the gap in market-based data between learners and service providers. NCVET will be a presence-less and paper-less regulator: It will take decisions that are rooted in evidence and real-time data driven, and, adopt a spirit of disclosure and transparency in its interactions. Most significantly, NCVET will adopt a learner-centric lens to its decision making.

To push the skilling agenda forward, it is important for the government to adopt the role of an ecosystem facilitator. This can foster informed decision-making by learners and employers, increase employer trust, and, enable upward and horizontal mobility of skilled workers. Technology and governance must work closely together to drive this transformative change.


Date:04-06-19

Crisis Defused

Compulsory learning should be limited to the child’s mother tongue

EDITORIAL

The Centre has moved quickly to defuse a potentially volatile controversy over the charge of Hindi imposition. It is quite apparent that the Narendra Modi government did not want the language issue to acquire disproportionate importance at a time when it is embarking on its second innings with a huge mandate. Further, given the impression that the ruling party does not have much of a presence in South India, barring Karnataka, it did not want to be seen as being insensitive to the concerns of southern States, especially Tamil Nadu. The reference in the newly unveiled draft National Education Policy to mandatory teaching of Hindi in all States was withdrawn following an outcry from political leaders in Tamil Nadu, a State that is quite sensitive to any hint of ‘Hindi imposition’ by the Centre. The modified draft under the heading ‘Flexibility in the choice of languages’, has omitted references to the language that students may choose. However, the broader recommendation regarding the implementation of a three-language formula remains, something Tamil Nadu, which will not budge from its two-language formula, is averse to. The gist of the original sentence in the draft NEP was that students could change one of the three languages of study in Grade 6, provided that in Hindi-speaking States they continued to study Hindi, English and one other Indian language of their choice, and those in non-Hindi-speaking States would study their regional language, besides Hindi and English. The revised draft merely says students may change one or more of their three languages in Grade 6 or 7, “so long as they still demonstrate proficiency in three languages (one language at the literature level) in their modular Board examinations some time during secondary school”. It may not amount to a complete reversal , but is still important in terms of conciliatory messaging.

However, there is a larger issue here. Ever since the Constitution adopted Hindi as the official language, with English also as an official language for 15 years initially, there has been considerable tension between those who favour the indefinite usage of English and those who want to phase it out and give Hindi primacy. In Tamil Nadu, it is seen as a creeping imposition of Hindi in subtle and not-so-subtle forms. The tension has been managed based on the statesmanship behind Jawaharlal Nehru’s assurance in 1959 that English would be an associate language as long as there are States that desire it. One would have thought that with the ascent of coalition politics the instinct to stoke differences based on language would die out. Unfortunately, it keeps coming up, especially in the form of imposing the three-language formula on States. Language is primarily a utilitarian tool. While acquisition of additional tools can indeed be beneficial, compulsory learning should be limited to one’s mother tongue and English as the language that provides access to global knowledge and as a link language within India. It is time attempts to force Indians proficient in their mother tongue and English to acquire proficiency in a third are given up.