05-05-2021 (Important News Clippings)

Afeias
05 May 2021
A+ A-

To Download Click Here.


Date:05-05-21

Still too few women

New assemblies continue to have skewed gender representation

TOI Editorials

A crucial factor in the latest round of assembly polls was the women’s vote. But while issues seen to be prioritised by women attracted more attention from political parties, a commensurate increase in women representatives in assemblies remains elusive. Consider Bengal where Mamata Banerjee as the lone woman CM in the country heavily banks on her female support base. Her government has introduced a plethora of welfare schemes to empower and woo young women. Yet the number of women candidates fielded by TMC in the latest polls was just 50 out of 291. Women’s representation in the new Bengal assembly remains unchanged at 40 out of 294.

Similarly, in Tamil Nadu the winning DMK’s manifesto was replete with women-centric schemes ranging from enhanced maternity leave for women government employees to free bus passes for women. But at the level of representation, the number of women MLAs in the state assembly has actually declined from 21 in 2016 to just 12 out of 234 this time.

Kerala raises some hopes with an increase in women MLAs from eight to 11 out of 140. This includes state health minister K Shailaja’s historic 60,000 vote margin victory. But women MLAs have never exceeded 10% of the total strength of the Kerala assembly. This indicates that women continue to face structural hurdles in political representation despite an increase in their vote share over the decades. While parties say that winnability is the prime factor in ticket distribution, social biases often skew the perception of winnability. The merit argument will not have credibility until they make more space for women in their rank and file. Don’t expect women voters to be satisfied with welfare schemes in their name. They should demand and get a more just share in political representation.


Date:05-05-21

Why the RBI should buy NBFC bonds

ET Editorials

Uday Kotak has stated that the Reserve Bank of India (RBI) might inevitably have to expand its balance sheet to support the economy amidst the raging pandemic. The central bank does precisely that when it carries out long-term repo operations. However, there is scope for the RBI to provide direct liquidity support to large non-banking financial companies (NBFCs) that play a vital role in meeting the credit requirements of swathes of small and medium industry.

It is true that RBI has shored up liquidity conditions for the banking system in the past one year for onward lending, and is providing further liquidity support this fiscal. Note that the central bank has announced its pathbreaking G-SAP, government securities acquisition programme under which RBI would purchase government paper to the tune of Rs 1 lakh crore in the first quarter of FY22. Further, its targeted long-term repo operations (TLTROs) are meant to provide credit to smaller NBFCs, but, again, via bank funding. But NBFCs do have a critical role in India’s credit system, providing, as they do, credit for largely un-banked segments, and the way forward is for the RBI to directly purchase the paper issued by major league NBFCs. It would rightly and speedily step up credit support across the board.

The central bank is in the process of thoroughly revamping its oversight on NBFCs with a four-layered regulatory structure, based on such parameters as operational size, leverage, interconnectedness and nature of activity. The way ahead is for the largest NBFCs to issue bonds for direct subscription by RBI. The central bank needs to phase in making use of corporate bonds in its liquidity management operations, to boost demand for these bonds.


Date:05-05-21

जलवायु कूटनीति की मुखर होती चेतावनी

नितिन देसाई

ऐसा लगता है कि वैश्विक जलवायु कूटनीति एक नए एवं अधिक एक्टिविस्ट दौर में प्रवेश कर रही है। देशों के वर्ष 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प जताने जैसी घोषणा में यह नजर भी आता है। चीन ने भी वर्ष 2060 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य घोषित किया हुआ है। इसी तरह यूरोप, ब्रिटेन, अमेरिका एवं जापान ने वर्ष 2030 तक उत्सर्जन स्तर में कटौती की घोषणा की है।

अमेरिका और चीन के उत्सर्जन लक्ष्यों में बदलाव का ऐलान अहम है। वैश्विक जलवायु कूटनीति 40-40-20 शक्तिसंरचना पर काम करती है। पहले 40 फीसदी में दो बड़े उत्सर्जक चीन एवं अमेरिका (जी-2) शामिल हैं जो वैश्विक उत्सर्जन में 40 फीसदी अंशदान देते हैं और किसी भी प्रभावी समझौते के लिए इन दोनों देशों की सक्रिय भागीदारी एक पूर्व-शर्त है। दूसरे 40 फीसदी हिस्से में भारत समेत 18 देश शामिल हैं जिनमें से हरेक देश कम-से-कम 1 फीसदी वैश्विक कार्बन उत्सर्जन करता है। सामूहिक तौर पर ये देश इस समूह में जी-2 जितने ही अहम हैं और उत्सर्जन नतीजों पर कुछ हद तक निजी दखल रखते हैं। बाकी 20 फीसदी हिस्से में दुनिया के करीब 180 अन्य देश हैं जो उत्सर्जन की पीड़ा झेलने को अभिशप्त हैं।

तेजी से अहम होता जा रहा एक कारक वैज्ञानिक संगठनों एवं वैश्विक एक्टिविस्ट समूहों का सार्वजनिक हस्तक्षेप है। इसका एक उदाहरण वर्ष 2018 में जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट है जो तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस के बजाय 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के असर को दर्शाती है। इस रिपोर्ट ने पेरिस जलवायु समझौते में उल्लिखित संक्रमण की रफ्तार बढ़ाने पर विमर्श को तेज कर दिया है और देशों ने वर्ष 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प जताना शुरू कर दिया है।

21वीं सदी के मध्य तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि से कम नहीं रह पाएंगे, अगर अगले 30 वर्षों में हम मौजूदा नीतियों द्वारा लागू दरों पर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करना जारी रखते हैं। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक अंतराल 59 गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर रहने के आसार हैं और दुनिया की ताप वृद्धि को अगर 1.5 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित रखना है तो 25 गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड समकक्ष का फासला काफी बड़ा है। वर्ष 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य कोई मायने नहीं रखता है अगर हम उत्सर्जन कटौती में तेजी नहीं ला पाते हैं और पेरिस सम्मेलन में घोषित 2030-पश्चात के लक्ष्य नहीं बढ़ाते हैं।

पिछले दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने ऐलान किया कि 13 फीसदी ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार उनका देश वर्ष 2030 तक इसमें 50 फीसदी की कमी करेगा। इस वादे का एक अहम हिस्सा उन कदमों पर आधारित है जिन्हें अमेरिकी संसद कांग्रेस से मंजूरी हासिल करनी है। वैश्विक उत्सर्जन में 9.3 फीसदी अंशदान करने वाले यूरोपीय संघ एवं ब्रिटेन ने 2030 तक उत्सर्जन में 55 फीसदी कटौती करने की बात कही है, वहीं 2.8 फीसदी भागीदारी वाले जापान ने 46 फीसदी कटौती की घोषणा की है। इस तरह करीब 25 फीसदी उत्सर्जन वाले तमाम बड़े विकसित देशों ने वर्ष 2030 तक उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य घोषित किए हैं जो उन्हें ताप वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए करना चाहिए।

लेकिन क्या यही काफी है? हानिकारक उत्सर्जन में इन देशों के अपराध और विकासशील देशों के लिए कार्बन गुंजाइश बनाने की जरूरत को देखते हुए क्या उन्हें अधिक प्रयास नहीं करने चाहिए? अगर अमेरिका, यूरोपीय संघ एवं ब्रिटेन और जापान वर्ष 2030 तक उत्सर्जन स्तर में बड़ी कटौती करने और 2050 तक शून्य उत्सर्जन के अपने ऐलान को पूरा कर देते हैं तो भी उन्हें अब से 2050 तक उपलब्ध 150 गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड समकक्ष की कार्बन गुंजाइश का इस्तेमाल करना होगा। जिस समय तक वे शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य तक पहुंचते हैं, वे औद्योगीकरण-पूर्व काल से उपलब्ध कार्बन गुंजाइश का 976 गीगा टन इस्तेमाल कर चुके होंगे। इसी आधार पर चीन वर्ष 2060 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंचने तक 530 गीगा टन कार्बन डाई ऑक्साइड की कार्बन गुंजाइश पूरा कर चुके होंगे।

भारत चीन जैसी स्थिति में नहीं है। इसका कार्बन उत्सर्जन चीन के एक-चौथाई उत्सर्जन से थोड़ा ही अधिक है। इसके बावजूद भारत पर शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य की तारीख के ऐलान का दबाव होगा। अगर यह मान लें कि भारत वर्ष 2040 में 4.5 गीगा टन सीओ2 समकक्ष के कार्बन उत्सर्जन शिखर पर होगा जो इसके मौजूदा स्तर का करीब दो-तिहाई है और वर्ष 2070 तक भारत शुद्ध- शून्य उत्सर्जन स्तर तक पहुंच जाएगा तो फिर उसे सिर्फ 194 गीगा टन सीओ2 समकक्ष कार्बन गुंजाइश की ही जरूरत होगी। साझा कार्बन गुंजाइश के बिलगाव में इस फर्क के लिए जरूरी है कि औद्योगिक देशों को वर्ष 2050 के पहले ही शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने का लक्ष्य रखना चाहिए और आर्थिक समृद्धि की राह पर देर से चलने वाले भारत जैसे देशों के लिए जगह खाली रखी जाए।

भारत को अपने लक्षित शुद्ध-शून्य तारीख के बारे में किसी भी व्यवहार्य ऐलान के लिए अधिक व्यापक विश्लेषण के बाद ही राजी होना चाहिए क्योंकि वर्ष 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के बारे में उपलब्ध कुछ अध्ययन काफी हद तक अवास्तविक राह का खाका पेश करते हैं। भारत सावधानीपूर्वक अध्ययन के बाद शून्य उत्सर्जन की जो तारीख घोषित कर सकता है वह इस शर्त पर होनी चाहिए कि भारत को रियायती वित्त एवं तकनीकी प्रवाह बना रहे। जलवायु न्याय के नजरिये से ऐसा होना बेहद जरूरी है और आगे चलकर यह किसी शर्त के बगैर होगा।

इस अहम मसले पर ध्यानपूर्वक अध्ययन करने की जरूरत है कि भारत बिजली उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल बंद करने के लिए क्या समय-सीमा तय करे? राष्ट्रपति बाइडन द्वारा हाल ही में बुलाए गए सम्मेलन में चीन ने यह ऐलान किया कि वह 2026 में अपनी 15वीं पंचवर्षीय योजना शुरू होने के साथ ही कोयला उपयोग कम करना शुरू कर देगा। वहीं भारत में कोयला आधारित कुछ बिजली संयंत्र वर्ष 2026-27 तक उत्पादन शुरू करने की स्थिति में पहुंचेंगे। लेकिन भारत नवीकरणीय ऊर्जा के लिए एक महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम भी चलाए हुए है जिससे वर्ष 2030 तक वह 40 फीसदी बिजली पैदा कर पाएगा। उसके बाद के दौर में अतिरिक्तबिजली मांग की भरपाई नवीकरणीय ऊर्जा से ही होने की उम्मीद है। इसके साथ ही इस्पात एवं सीमेंट उत्पादन में कोयला उपभोग घटाने के लिए मुहिम चलाकर भारत कोयला उपभोग के 2030 के बाद अधिकतम स्तर पर पहुंचने और फिर उसमें क्रमिक गिरावट आने की तारीख दे सकता है।

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ये आकलन एवं प्रतिबद्धताएं उपभोग के बजाय उत्पादन से होने वाले उत्सर्जन पर आधारित हैं। उपभोग-आधारित विश्लेषण ने हमें दिखाया है कि दुनिया के सबसे धनी 10 फीसदी लोगों का कुल उत्सर्जन में 48 फीसदी अंशदान है और इनमें से आधे लोग उच्च-आय वाले देशों में रहते हैं और बाकी आधे लोगों में से अधिक मध्य-आय वाले देश के निवासी हैं। इस तरह समान लेकिन विभेदीकृत दायित्व के सिद्धांत का अंतर-देशीय नजरिया धनी एवं गरीब लोगों के बीच सामाजिक न्याय के कुछ बुनियादी सिद्धांतों से भी जुड़ा हो सकता है।

भारत ने पेरिस जलवायु सम्मेलन में की गई अपनी प्रतिबद्धताओं पर प्रभावी एवं सम्मानजनक ढंग से अमल किया है। उसे 2030 के उत्सर्जन लक्ष्यों की महत्ता पर जोर देने से पडऩे वाले दबावों का भी सामना करना होगा। भारत को सजग अध्ययन के बाद शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की भरोसेमंद तारीख तय करने की जरूरत है ताकि जलवायु न्याय के सिद्धांत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित प्रतिबद्धताओं और उनकी निगरानी एवं मूल्यांकन में भी नजर आएं।


Date:05-05-21

मोटा दाना–जैविक खाना

डॉ. शिप्रा माथुर

भारत की पैरवी पर संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को बाजरे का साल घोषित किया है। बाजरे से बने ‘मुरूक्कू’ खिलाकर भारत ने अपना स्वाद तो चढ़ा दिया सब पर लेकिन फिलहाल जो संकट है‚ उससे जूझने का कोई छोटा रास्ता नहीं है हमारे पास। हमें चिकित्सक चाहिए‚ तंत्र में चरित्र चाहिए और संकट की दस्तक सुनकर तुरंत खड़े होने वाले कान चाहिए। एक चिकित्सक जिन्होंने दवा की पर्ची पर पेड़ लगाने की सलाह लिखी‚ एक जिन्होंने बिगड़ते हालात में बेबस तंत्र की नाकामी लिखी। ऐसे अनगिनत जिन्हें जब–जब संवेदनाओं ने कचोटा तब उन्होंने गुहार लगाई‚ समझाइश की‚ नाराजगी जताई। हौसला भी भरपूर दिया। जैविक–जंग के हालात में हमें उस अदृश्य को हराना है‚ जो हमारे जैव अंश की उस दीवार को लांघने से कतराता है‚ जिसमें लड़ने का भरपूर माद्दा है। जिन झिल्लियों पर पोषण के पहरेदार हैं‚ वहां विषाणुओं को मात जल्द मिलने का पैगाम होता है। यह हमारी नस्ल को बचाए रखने की कुदरती किलेबंदी है।

ऐसे में हमारी परंपराओं‚ जंगलों‚ जीवों और धरती के साथ हिलमिलकर रहने वाले आदिवासियों की अनदेखी और उन्हें पिछड़ा मानकर ओझल कर देने वाली व्यवस्था अब कह रही है कि जिन्होंने हजारों साल पुराने जिन बीजों और पद्धतियों को सहेजा है‚ वही अच्छे जीवन की तिजोरियां हैं। जीन में छेड़छाड़ कर तैयार संकर बीजों ने‚ रसायनों के छिड़काव ने मिट्टी‚ पानी और फसलों को बेजान करके छोड़ दिया है। उनमें जहर घोल दिया है। किया–धरा हम सबका‚ मगर धकेले गए वो जिन्होंने बिगाड़ में नहीं‚ संभाल में हिस्सा लिया हमेशा। संयुक्त राष्ट्र की जुलाई‚ 2020 में मूलवासियों के हकों को लेकर आई खास रिपोर्ट ने कहा गया कि दुनिया की छह फीसद इस आबादी में डर है‚ उदासी है‚ दुश्वारियां हैं‚ जिन्हें हमने भुला दिया है और धकेल दिया है। जो धकेले नहीं गए थे‚ उन्हें भी अब अंतरात्मा को झकझोर देने वाली महामारी से दो–चार हाथ करने के बाद अपने खाने में कई तब्दीलियां करनी होंगी। पोषण वाले तिरंगे और सतरंगे खाने की पैरवी सरकारी संस्थाएं करती रही हैं। अब इन्हें रोजमर्रा की आदत में शामिल करने का वक्त है। बीमारियों को उलटे पांव लौटा देने की ताकत भी यही है। वनवासियों के अचूक नुस्खों और देसी उपज को बाजार का ठप्पा मिलने लगा है‚ लेकिन इससे उनकी उद्यमिता को कितना उठान मिला है‚ इसका आकलन भी किए जाने की जरूरत है।

जिन मामलों में हमारे यहां दो राय कभी थी ही नहीं वहां दुनिया अब एक राय हो रही है। कोविड महामारी के दौर में लगातार बदलते बयानों के कारण अपनी साख गंवा चुका विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ भी कहने को मजबूर है कि हर देश की अपनी पारंपरिक समझ‚ खान–पान की अच्छी आदतें और जीवन की सक्रियता इस महामारी से बचाए रखेंगी। दोहन की नीति और अनीति की राजनीति के दौर में आखिर गंभीरता से किसे लिया जाए‚ इस दोराहे पर खड़े होकर भी हमें अपने पांव‚ दिल और दिमाग का भरपूर साथ चाहिए अभी। यूं हर पुरानी जानकारी और सारा खान–पान वैज्ञानिकता की कसावट में हो यह जरूरी नहीं। बिना प्रमाण‚ बिना तथ्य कही बातों की काट के लिए गूगल भी है‚ और असल लोग भी। सनातन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान एक होकर पुख्ता तौर पर जब तक फैसला नहीं सुनाएंगे‚ तब तक परंपराओं के नाम पर गैर–वैज्ञानिक तीर–तुक्के खारिज नहीं हो पाएंगे। भारत में आज भी विज्ञान का जन–चेतना में पैरना बाकी है। दक्षिण भारत से शुरू हुई ‘पीपल्स साइंस मूवमेंट’ जैसी पहल ओझल है। मुख्यधारा के संवाद और लोकभाषाओं की गपशप में समाधान और विज्ञान की बात होती तो जोर से सुनाई भी देती। उत्तराखंड के ‘बीज बचाओ’ जैसे ढेरों आंदोलन भी अब याददाश्त से बाहर हैं। युवा पीढ़ी की ऑनलाइन दुनिया में सब खप गया है। जो खोजेगा‚ वो तो फिर भी पा ही जाएगा। यूं जैविक और ताकत वाले खाने के बढ़ते चाव का अंदाज भी यहीं से मिल रहा है।

इकोविया इंटेलिजेंशिया की रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल भर में जैविक उत्पादों की मांग बेतहाशा बढ़ी है। फिलहाल बाजार के बूते का नहीं कि इतनी मांग को पूरी भी कर पाए। आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए लोगों की खान–पान की पसंद पहचानने वाले एक स्टार्टअप ने जाना कि जैविक और सेहत से भरे खाने के बारे में जानकारी जुटाने में 27 फीसद बढ़ोतरी है। देश की स्थानीय और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को हमारी हाट संस्कृति ने जिंदा रखा था‚ अब उसी का नया कलेवर सामने है। आजकल किसान–बाजार लगने लगे हैं‚ जहां मंडियों और बिचौलियों की मनमानी से बचे रहकर किसान अपनी मेहनत के सीधे–सच्चे दाम पा रहे हैं। रोगों से लड़ने की ताकत वाले फल‚ सब्जियां‚ बीज‚ सबकी पूछ और उनकी पूछताछ बढ़ रही है। वैदिक और आधुनिक ज्ञान को परंपराओं के साथ जोड़ने और किसानों की आय बढ़ाने के लिए काम कर रही महाराष्ट्र की भव्यता फाउंडेशन ने सत्तू और मौरिंगा सहित ढेरों सेहत भरे खानों के नये उत्पाद बनाए हैं‚ जिन्हें युवा और बच्चे भी शौक से खा लें। सूखे इलाकों की खूबियां बढ़ाने के लिए जुटे हुए जोधपुर के केंद्रीय शोध संस्थान ‘काजरी’ ने बाजरे के बिस्किट सहित बाजार को भाने वाले ऐसे ढेरों उत्पाद तैयार किए हैं‚ जो सेहत भी दे रहे हैं‚ और स्वाद भी। राजस्थान में ऊंट के दूध से पनीर‚ घी और आइसक्रीम बन रही है‚ और साबुन‚ उबटन और सजने–संवरने का इतना सामान तैयार हो रहा है कि यदि इन्हें सही प्रचार मिले तो ये सब मिलकर अर्थव्यवस्था को चमकाने में कोई कसर ना छोड़ें।

जब ऑक्सीजन के लिए मारामारी मची है‚ तो ऐसे में खून की कमी यानी हीमोग्लोबिन कम न हो‚ इसकी खबर पूरी रखनी है। बाजरा‚ चना‚ मूंग‚ पत्तेदार सब्जियां‚ सहजन‚ लहसुन‚ खट्टे फल सबके साथ नाता करीब से जोड़े रखना है। खेती के नाते मोटा अनाज और देसी उपज बेशकीमती हो गए हैं। जलवायु संकट का सामना भी ये कर लेते हैं‚ और जैव–विविधता को बरकरार रखने का जरिया भी यही हैं। मोटा दाना–जैविक खाना‚ यह कायदा ही कायम रहेगा अब। जो नहीं समझे हैं‚ उन्हें मल्टीग्रेन‚ स्मार्ट फामिÈग‚ मल्टी क्रॉपिंग के फायदे जान लेने होंगे। भारत अन्न–धान‚ फलों–दालों को बाहर बेच रहा है यानी अपना पेट भरने को तो भरपूर है हमारे पास। अब पोषण सुरक्षा में पूरी ताकत झोंकनी है। कुछ लौटते हुए‚ कुछ आगे बढ़ते हुए ‘पोषणम’ को अपनी–अपनी दुनिया का ध्येय बनाकर ही जिंंदगी की जंग जीतेंगे हम सब। फिलहाल साथ देना‚ साथ निभाना और अच्छा खाना ही सबसे बड़ा हासिल है।


Date:05-05-21

शिक्षित, लेकिन कमजोर होता समाज

विजय कुमार चौधरी, ( शिक्षा एवं संसदीय कार्य मंत्री, बिहार )

शिक्षा का इतिहास मानव समाज एवं सभ्यता के विकास के इतिहास का सहचर रहा है। उसी तरह शुरू से ही शिक्षा एवं समाज का नाता धर्म से भी रहा है। सभी धर्मों में शिक्षा को सर्वोत्कृष्ट स्थान दिया गया है। गीता में कहा गया है न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र अन्य कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अभिप्राय विद्या से है और विद्या सीधे रूप से शिक्षा से जुड़ी है। इस्लाम के संस्थापक हजरत मुहम्मद ने कहा था, ‘मां की गोद से लहद तक ( यानी जन्म से मृत्यु तक) इल्म हासिल करो।’ ईसाई मिशनरियों द्वारा पूरी दुनिया में शिक्षण संस्थान स्थापित कर शिक्षा के साथ धर्म-प्रचार का कार्य जगजाहिर है। शिक्षा को मानव समाज के विकास की धुरी माना गया है। विकास के सभी प्रयासों का लक्ष्य मनुष्य के जीवन स्तर में सुधार होता है और समाज के किसी भी क्षेत्र में विकास की रीढ़ शिक्षा ही होती है।

इसके अलावा, शिक्षा के प्रत्यय पर प्राचीन काल से ही चिंतकों व विचारकों ने अलग-अलग विचार रखे हैं तथा अपने ढंग से इसे परिभाषित करने के प्रयास किए हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में महात्मा गांधी ने शिक्षा की सबसे उपयुक्त परिभाषा देते हुए कहा था, शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के मन, शरीर और आत्मा के उच्चतम विकास से है। गांधी धर्म-मर्मज्ञ के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे। उनके अनुसार, बच्चे के शारीरिक विकास के लिए जैसे मां का दूध जरूरी है, उसी तरह मनुष्य की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए शिक्षा आवश्यक है। वे साक्षरता और शिक्षा को बिल्कुल अलग मानते थे। उनके अनुसार, साक्षरता न तो शिक्षा का अंत है और न प्रारंभ। यह केवल मनुष्य को शिक्षित बनाने का एक साधन है। उन्होंने शिक्षा से मनुष्य के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास एवं चरित्र निर्माण का तात्पर्य दिया।

आज की हाईटेक दुनिया में किसी भी शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के लिए शिक्षा को पूर्वापेक्षित माना गया है। राष्ट्रीय एवं वैश्विक विमर्श में शिक्षा को सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति की बुनियाद माना गया है। यूनेस्को, विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक आदि द्वारा मिलकर गठित वल्र्ड एजुकेशन फोरम पूरी दुनिया में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अध्ययन एवं योजना बनाने का काम करता है। इसके द्वारा शिक्षा सभी के लिए (एजुकेशन फॉर ऑल) का नारा दिया गया एवं इस हेतु संगठित रूप से अभियान चलाया गया। इन सबके साथ भारत में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने वाला कानून बना एवं केंद्र तथा बिहार सहित अन्य राज्य सरकारों ने शिक्षा के सार्वजनीकरण पर जोर दिया। अभियान चलाकर यह सुनिश्चत करने की कोशिश की गई कि कोई भी स्कूल जाने की उम्र वाला बच्चा स्कूल से बाहर न छूटे। इसमें कोई शक नहीं कि ये सारे प्रयास बहुत हद तक सफल रहे हैं, जिसके कारण ग्रामीण इलाकों में भी साक्षरता दर बढ़ी है। हालांकि, कोरोना के बढ़ते संक्रमण के दौर में शिक्षा-व्यवस्था ही सबसे अधिक प्रभावित हो रही है।

इस मुकाम पर पहुंचकर हम यह सोचने को विवश हैं कि जो कुछ भी हो रहा है, वह सिर्फ साक्षरता है या लोग वास्तविक अर्थों में शिक्षित हो रहे हैं। उनके अनुसार शिक्षा का मकसद तो चरित्र-निर्माण व गुणवत्तापूर्ण जीवन है और मनुष्य के गुणवत्तापूर्ण जीवन की कल्पना सामाजिक परिवेश से अलग नहीं की जा सकती है। हमारी मान्यता रही है कि व्यक्ति और समाज में अन्योन्याश्रय संबंध है। फिर शिक्षा तो इन दोनों के रिश्ते को मजबूत करने वाली होनी चाहिए, परंतु इसके विपरीत कभी-कभी शिक्षित व्यक्ति समाज से अपने को अलग-थलग महसूस कराने लगता है। ऐसी शिक्षा अपूर्ण ही मानी जाएगी, क्योंकि यह समाज के ताने-बाने को जर्जर बनाती है। लोक प्रचलन में आज यह मान्यता जड़ पकड़ रही है कि समाज में जिसके पास अधिक साधन होंगे, वही अधिक प्रतिष्ठा का हकदार होगा। दूसरी तरफ, सफलता व उपलब्धियों की खुशी में अधिक सूझबूझ से सामाजिकता निभाने की भावना व परंपरा कमजोर पड़ती जा रही है। सामाजिकता और नैतिकता के बिना गुणवत्तापूर्ण जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।

वर्तमान व सामाजिक मान्यता में शिक्षा प्रणाली चरित्र निर्माण एवं राष्ट्र निर्माण की जगह शिक्षित व्यक्ति की सफलता का पैमाना उसके धनोपार्जन की क्षमता से जोड़ दी गई है। जितनी मोटी आमदनी होती है, वह व्यक्ति सफलता की सीढ़ी पर उतना ही ऊंचा दिखता है। ऐसी प्रथा चल पड़ी है कि शिक्षा को अंधाधुंध धनोपार्जन का जरिया मान लिया गया है। धनोपार्जन के एक सूत्री कार्यक्रम के तहत व्यक्ति समाज की बात तो दूर, परिवार की चिंता भूल जाता है। तेज गति से अधिक से अधिक कमाने की होड़ में सामाजिकता पिछड़ती चली जा रही है। समाज एवं इंसान आगे बढ़ता दिख रहा है, लेकिन सामाजिकता और इंसानियत पिछड़ती जा रही है।

सोच और मकसद दूषित हो जाने से शिक्षा के मूल अभिप्राय का क्षरण हो रहा है व सामाजिकता भौतिकता के आगे घुटने टेक रही है। यहां चौंकाने वाली बात समाज द्वारा इस प्रवृत्ति की सहज स्वीकार्यता है। जिस सोच के तहत समाज के बुनियाद पर आघात हो रहा है व इसके स्वरूप को विकृत किया जा रहा है, उसके प्रति समाज गाफिल दिखता है। समय आ गया है, समाज की संरचना को क्षत-विक्षत करने वाली इस मानसिकता से हमें बाहर निकलना पड़ेगा। अनुचित धनोपार्जन तभी तक बुरा लगता है, जब तक हमें मौका नहीं मिलता। स्वयं इससे लाभान्वित होने की स्थिति में सारे आदर्श धरे रह जाते हैं। शिक्षा के उद्देश्य को पवित्र रखने के लिए इस दोहरी मानसिकता से समाज को बाहर निकलना होगा।

शिक्षा को प्रभावी एवं उपयोगी बनाने के लिए पहल करना सरकार का दायित्व तो है ही, साथ-साथ समाज की भी अहम भूमिका है। सामाजिकता, नैतिकता एवं राष्ट्रीयता के मूल्यों का विद्यालयी पाठ्यक्रम के साथ पारिवारिक एवं सामाजिक मान्यताओं में समाहृत करना होगा। समाज को अपने मूल्य-प्रणाली (वैल्यू सिस्टम) में अपेक्षित परिवर्तन लाना होगा। अधिकतम धनोपार्जन करने वाले को सफलतम मानने की मानसिकता छोड़नी होगी। यह समझना होगा कि हमारी सफलताओं और उपलब्धियों में समाज तथा सरकार की भी अपनी भूमिका रहती है। शिक्षित मनुष्य को देखना होगा कि वह समाज के लिए क्या कर रहा है? शिक्षित व्यक्ति को अपनी अलग पहचान बनाने की प्रवृत्ति छोड़कर समाज में अपनी उपयोगिता व प्रासंगिकता बनानी होगी। अपने सार्वजनिक योगदान व चारित्रिक धवलता को सामाजिक प्रतिष्ठा की कसौटी बनानी होगी। तभी हम एक मजबूत समाज और दीर्घकालिक सभ्यता का निर्माण कर सकते हैं।