05-04-2025 (Important News Clippings)

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05 Apr 2025
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 Date: 05-04-25

The Factory Factor

Low-cost labour is India’s best weapon in trade war

TOI Editorials

Trump fired the first shot, and now the battle is joined. China on Friday imposed an additional 34% tariff on US goods – matching Trump’s impost from Wednesday. The effective rates, taking into account tit-for-tat tariffs from Feb and March, are much higher. It looks like the world’s biggest buyer and biggest seller – together accounting for over 40% of global GDP – are unwilling to do business with each other. Which is not a good omen for the rest – India included – who are links in the global supply chain turning around these two cogs.

India, which got off relatively lightly with a 26% Trump tariff on Wednesday, was looking at $8-10bn in lost export earnings over six months. But China’s strong retaliation has increased uncertainty to a different level. Right now, investors are in panic. On Tuesday, investment bank Goldman Sachs had raised the probability of a US recession to 35%. By Friday, its bigger rival JP Morgan Chase was predicting a 60% chance of a global recession this year.

For India, a global recession – if it occurs – couldn’t strike at a worse time. The last one in 2008-09 came after five years of strong growth. This time, we are in the midst of a slowdown. So, govt must act fast. Trump wants a counterweight to China. AI and semiconductors aren’t our forte, but we have abundant cheap labour. However, our industrial estates are tiny compared with the competition. To become a manufacturing hub, we need to offer scale across the country, not just in a handful of industrialised states. While trade with US has grown steadily, we now need to diversify. That means striking deals with other nations and blocs. China, despite all reservations, is a manufacturing superpower, and the recent thaw in relations should be nurtured by India.


 Date: 05-04-25

Taken to task

The Supreme Court is right in pushing Speakers to act decisively on defections

Editorial

The issue of defections in Legislative Assemblies has become a vexed one in public life in recent years. Ruling parties — the Bharatiya Janata Party in particular — have adopted an unabashed approach to augment their legislative support by encouraging defections. A commonly used modus operandi — used egregiously in Manipur in the late 2010s and later in Maharashtra — involves the Speaker, invariably from the ruling party, sitting on disqualification petitions from Opposition parties against legislators who have defected. Some defectors have even been sworn in as Ministers, pending adjudication on their party-switching by the Speaker. Many States have seen the unedifying sight of mass defections to the ruling party just after elections, making a mockery of the democratic exercise. The latest is the situation in Telangana where the petitions filed by the Bharat Rashtra Samiti (BRS) in March-April 2024, to disqualify 10 of its legislators who defected to the Congress, were notified by the Speaker only in January this year. The Supreme Court, hearing a petition by the BRS seeking timely action by the Speaker, has rightly observed that it was not “powerless” if a Speaker chose to remain indecisive. Justice B.R. Gavai’s observation that the courts cannot tell a Speaker how to decide, but that they could ask the Speaker to decide within a reasonable period, is a rational one.

A five-judge Constitution Bench, in May 2023, had reposed its faith in the Speaker’s “propriety and impartiality” to decide on defections, but “within a reasonable period”. Flowing from this judgment, the Court had, in October 2023, fixed a deadline for the Maharashtra Speaker to decide defection pleas from the Opposition after the undue delay by him in hearing them. Yet, the issue is persistent. This is inevitable as Speakers are invariably elected from ruling parties and rarely act in a non-partisan manner, despite the expectation that they will do so. In 2020, the Court had asked Parliament to amend the Constitution to strip Legislative Assembly Speakers of their exclusive power to decide upon whether legislators should be disqualified or not under the Tenth Schedule which frames the anti-defection law. It had also asked for an independent tribunal, instead of the Speaker, to be appointed for the task. No such action has been taken by Parliament since then and the problem of defections going unaddressed by Speakers within a reasonable time frame persists. If the Court forces the hand of the Speaker in Telangana, it might be one more blow for decisive action. But the scourge of defections and how it is dealt with will remain as long as voters do not punish those who indulge in such practices.


 Date: 05-04-25

बढ़ते तापमान के चलते नई कृषि नीति जरूरी है

संपादकीय

देश के 85% हिस्से में लू के दिन दूने यानी 10-12 दिन होंगे। नतीजतन रबी का रकबा तो असाधारण रूप से 14% बढ़ेगा, लेकिन उत्पादन मात्र 2 – 4% । इस आंकड़े से किसानों की बढ़ती आर्थिक दयनीयता समझी जा सकती है । रकबे के मुताबिक उत्पादन न बढ़ना यह बताता है कि किसान श्रम या लागत तो ज्यादा लगाएगा लेकिन प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम रहेगा। उधर ट्रम्प अमेरिका के कृषि उत्पाद खरीदने के लिए भारत को मजबूर कर रहे हैं। जाहिर है अमेरिका में प्रति हेक्टेयर उत्पादन कई गुना ज्यादा है लिहाजा वहां का अनाज भारत में किसानों के उत्पाद को सस्ता रखने को मजबूर करेगा। भारतीय किसान अमेरिकी लागत का मुकाबला इसलिए भी नहीं कर पाएगा क्योंकि अमेरिका के किसानों को औसत सब्सिडी 26.80 लाख रु. की मिलती है जबकि भारत के एक किसान को अनेक स्कीमों के नाम पर – जिनमें खाद, बिजली, पानी, एमएसपी, सम्मान निधि, फसल ऋण, बीमा आदि हैं- 45 हजार ही मिलते हैं। अमेरिका में जहां 18 लाख किसान हैं और प्रति- किसान 178 हेक्टेयर जोत है, वहीं भारत में 10-11 करोड़ किसान (किराए पर खेती वाले 6 करोड़ और ) हैं और औसत जमीन एक हेक्टेयर से भी कम है। औसत प्रति व्यक्ति आय से सवा गुनी (98 हजार डॉलर) ज्यादा है जबकि भारत के किसान की देश की औसत आय की तीन-चौथाई । बढ़ता तापमान कृषि को और संकट में डालेगा।


 Date: 05-04-25

ट्रम्प ने अपने पैरों पर टैरिफ की कुल्हाड़ी मार ली है

कौशिक बसु, ( विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट )

अमेरिका के द्वारा आयात की जाने वाली सभी कारों और लाइट-ड्यूटी ट्रकों पर 25% टैरिफ लगाने वाले ट्रम्प के कार्यकारी आदेश 3 अप्रैल से प्रभावी हो गए। यह अमेरिका द्वारा अपने व्यापारिक साझेदारों पर जैसे को तैसा टैरिफ लगाने के एक दिन बाद हुआ। हालांकि ट्रम्प ने घबराए हुए अमेरिकियों को यह कहकर आश्वस्त करने की कोशिश की कि हमारा ऑटोमोबाइल व्यवसाय पहले की तरह फलेगा-फूलेगा।

सच्चाई यह है कि ऐसा नहीं होगा। जहां ट्रम्प के टैरिफ पारंपरिक आर्थिक सूझबूझ- एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो से लेकर जॉन मेनार्ड कीन्स और मिल्टन फ्रीडमैन तक- को ताक पर रखने वाले हैं, वहीं उनका अति-आत्मविश्वास कुछ लोगों को यह सोचने पर मजबूर करता है कि इसके पीछे कोई छिपा हुआ तर्क जरूर होगा। संभवतः, कारों और ट्रकों पर टैरिफ लगाने का मकसद ऑटोमेकर्स को अमेरिका में कारखाने लगाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। लेकिन बारीकी से मुआयना करने पर साफ होता है कि यह तर्क दोषपूर्ण है। और जहां यह कई देशों- विशेष रूप से कनाडा, मैक्सिको और जापान पर नकारात्मक असर डालेगा, वहीं सबसे बुरी मार तो अमेरिका पर ही पड़ेगी।

टैरिफ से अमेरिका में कारों की कीमतें बढ़ेंगी, लेकिन यह तो केवल एक ही पहलू है। ऑटोमोबाइल और सेमीकंडक्टर जैसे उद्योगों की एक निश्चित उत्पादन लागत होती है। भूमि अधिग्रहण, कारखाने और परमिट में आने वाली निश्चित लागतों के बाद अचानक टैरिफ में कमी से काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में निवेशकों को यह आश्वासन देने की आवश्यकता होगी कि टैरिफ कम से कम 10-15 वर्षों तक लागू रहेंगे। तभी इस बात की संभावना है कि अमेरिका में नई कार फैक्टरियां स्थापित होंगी, जिससे श्रम की मांग बढ़ेगी।

लेकिन अमेरिकी ऑटोमोबाइल को फिर से ‘ग्रेट’ बनाने के उलट, पारंपरिक श्रम की मांग में कृत्रिम वृद्धि अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक रूप से नुकसान पहुंचा सकती है। अमेरिकी बाजार के टैरिफ की दीवार के पीछे सुरक्षित होने से घरेलू उत्पादन तेजी से महंगा होता चला जाएगा। इससे चीन, भारत, मैक्सिको और इंडोनेशिया जैसे स्वाभाविक रूप से कम श्रम-लागत वाले देश बहुत कम कीमतों पर कारों का उत्पादन करने में सक्षम होंगे। वे अमेरिका से आगे निकल जाएंगे और वैश्विक बाजार में मजबूती से पैर जमा लेंगे।

ऑटो मैन्युफैक्चरिंग को वापस लाने के लिए ट्रम्प के प्रयास अमेरिका द्वारा अपने कपड़ा उद्योग में गिरावट को संभालने के तरीके से बिल्कुल अलग हैं। 19वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका कपड़ा उद्योग में अग्रणी था और वहां कपास और ऊन की मिलें पूरी क्षमता से चल रही थीं। लेकिन जैसे-जैसे अमेरिका अमीर होता गया और श्रम लागत बढ़ती गई, उसने अपना तुलनात्मक लाभ खो दिया और उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया, जिनमें रिसर्च और इनोवेशन की आवश्यकता थी। वह इन क्षेत्रों में नेतृत्व करने के लिए अच्छी स्थिति में था। वहीं कपड़ा उद्योग पर वियतनाम, बांग्लादेश और तुर्किये जैसे देशों का दबदबा हो गया।

अगर अमेरिका ने घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए 20वीं सदी के उत्तरार्ध में आयातित वस्त्रों और परिधानों पर भारी टैरिफ लगाने का फैसला किया होता, तो वह शायद गारमेंट मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बना रहता। लेकिन उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती : अमेरिकी अर्थव्यवस्था आज जिस मुकाम पर है, वहां नहीं होती। इसके बजाय, उसके पास बड़ी-बड़ी फैक्टरियां होतीं, जहां कर्मचारी लेबर-इंटेंसिव नौकरियों में काम करते।

इसका मतलब यह नहीं है कि टैरिफ प्रभावी नहीं होते। लेकिन जब वे किसी देश की प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त को कमजोर करते हैं- जैसा कि ट्रम्प के टैरिफ करेंगे- तो वे केवल नुकसान ही पहुंचा सकते हैं।

धुर-राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद के खिलाफ इतिहास हमें सचेत करता है। 20वीं सदी की शुरुआत में अर्जेंटीना तेजी से बढ़ रहा था और जर्मनी और फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक बन गया था। लेकिन 1930 में सब बदल गया, जब खोसे फीलिक्स उरीबुरू ने सैन्य तख्तापलट करके खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया। तीन साल के भीतर ही उन्होंने इमिग्रेशन पर रोक लगा दी और टैरिफ को लगभग दोगुना कर दिया। दूसरी तरफ, अमेरिका अपनी अर्थव्यवस्था को लगातार खोल रहा था, उच्च शिक्षा में निवेश कर रहा था और अत्याधुनिक शोध कर रहा था। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उछाल आया जबकि अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था स्थिर बनी रही और धीरे-धीरे उसने अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने की तमाम क्षमताएं गंवा दीं।


 Date: 05-04-25

एक और आवश्यक सुधार

संपादकीय

वक्फ संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों से स्वीकृति मिलने से यह धारणा फिर से ध्वस्त हुई कि बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा के 240 सीटों पर सिमट जाने से मोदी सरकार अपनी तीसरी पारी में अपने एजेंडे के अनुरूप कार्य करने में सक्षम नहीं होगी। वक्फ संशोधन विधेयक पर संसद की मुहर इसलिए लग सकी, क्योंकि भाजपा के सभी सहयोगी दलों ने उसका साथ दिया। स्पष्ट है कि विरोधी दलों का यह दांव काम नहीं आया कि यदि भाजपा के सहयोगी दलों ने वक्फ संशोधन विधेयक का समर्थन किया तो उन्हें राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ेगा। विपक्षी दल वक्फ संशोधन विधेयक के संसद से पारित होने के बाद भी इस पर जोर देने में लगे हुए हैं कि यह न केवल अंसवैधानिक है, बल्कि मुस्लिम विरोधी भी। वे जानबूझकर इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि अनेक मुस्लिम नेता और संगठन इस विधेयक का समर्थन कर रहे थे। इसके अतिरिक्त ऐसे लोग वक्फ बोर्डों के भ्रष्टाचार के किस्से बयान करने के साथ यह भी बता रहे थे कि वक्फ बोर्ड किस तरह गरीब मुसलमानों की मदद नहीं कर पा रहे। हालांकि, वक्फ संशोधन विधेयक का विरोध करने वाले यह बताने में सक्षम नहीं थे कि आखिर वक्फ बोर्डों ने कितने स्कूल, अस्पताल आदि बनवाए, लेकिन इसके बाद भी उनकी जिद यही थी कि पुराने वक्फ कानून में किसी तरह के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं। यह एक और आवश्यक सुधार से मुंह मोड़ने के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

आखिर ऐसे किसी कानून में कोई बदलाव क्यों नहीं होना चाहिए, जो खामियों से भरा हो और जो उन उद्देश्यों को पूरा न कर पा रहा हो, जिनके लिए उसे बनाया गया? वक्फ कानून में बदलाव इसलिए आवश्यक हो गया था, क्योंकि उसमें एक तो वक्फ बोर्डों को मनमाने अधिकारों से लैस कर दिया गया था और दूसरे, उसके फैसलों के खिलाफ सुनवाई उसके ही ट्रिब्यूनल में संभव थी। यदि ट्रिब्यूनल का फैसला प्रतिकूल हो तो फिर उच्च न्यायालय जाने के सीमित अधिकार ही थे। यह व्यवस्था न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ थी। आश्चर्य है कि इसके बाद भी पुराने वक्फ कानून की हिमायत की जा रही थी। इसमें हर्ज नहीं कि अनेक विपक्षी नेता वक्फ संशोधन विधेयक के कानून बनने के पहले ही उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की घोषणा कर रहे हैं। ऐसा करना उनका अधिकार है, लेकिन यह कोई बेहतर स्थिति नहीं कि संसद से पारित हर कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाए। कई बार ऐसा केवल इसलिए किया जाता है, ताकि विरोध के लिए विरोध वाली राजनीति को धार दी जा सके। इसी के चलते अतीत में मोदी सरकार के कई कानूनों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सैकड़ों याचिकाएं दर्ज की जा चुकी हैं। संशोधित वक्फ कानून के खिलाफ भी दर्ज की जाएं तो हैरानी नहीं।


 Date: 05-04-25

सार्क जैसा न बनने पाए बिम्सटेक

ऋषि गुप्ता, ( लेखक एशिया सोसाइटी पालिसी इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में सहायक निदेशक हैं )

पिछली सदी के अंतिम दशक में स्थापित वैश्विक आर्थिक व्यवस्था, जिसने व्यापार और बहुपक्षीय संगठनों के माध्यम से शांति और स्थिरता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई थी अब तेजी से बदल रही है। एक और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा नए टैरिफ की घोषणा के चलते वैश्विक बाजारों में हलचल मची है तो दूसरी और अमेरिका को चुनौती देने के लिए तैयार चीन अपने आक्रामक रवैये से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए विभिन्न आर्थिक और सामरिक नीतियां अपना रहा है। ऐसे में बंगाल की खाड़ी बहु क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल यानी बिम्सटेक देशों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे न केवल आर्थिक सहयोग को मजबूत करें, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने के लिए सुरक्षा रणनीतियों पर भी ध्यान दें, क्योंकि नए भू-राजनीतिक एवं आर्थिक परिदृश्य में बंगाल की खाड़ी के क्षेत्र का इन सभी परिवर्तनों से प्रभावित होना तय है। तमाम बाहरी चुनौतियों के अलावा इस समय बिम्सटेक देशों में आंतरिक उथल- पृथल मची हुई है। म्यांमार और थाइलैंड में भूकंप ने जान-माल को भारी क्षति पहुंचाई तो बांग्लादेश राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है। इन चुनौतियों के बीच बांग्लादेश भारत से बैर रखने मैं कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस की हालिया चीन यात्रा के दौरान पूर्वोत्तर भारत को लेकर की गई अप्रिय टिप्पणी ने भारत-बांग्लादेश संबंधों में तनाव बढ़ा दिया। इस तनाव का प्रभाव छठे बिम्सटेक शिखर सम्मेलन में भी स्पष्ट दिखा।

भारत, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, थाइलैंड एवं म्यांमार बिम्सटेक के सदस्य हैं। जब दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी सार्क भारत-पाकिस्तान तनाव के चलते लगभग निष्क्रिय हो चुका है, तब सार्क के पांच सदस्य देशों का बिम्सटेक के मंच पर साथ आना नए अवसरों का संकेत है। हालांकि ऐसी भौगोलिक संरचना में जहां भारत केंद्र में हो और बांग्लादेश एवं नेपाल जैसे देश भारत विरोधी रवैया अपनाते रहे हों, क्या वहां बिम्सटेक वास्तव में क्षेत्रीय प्रगति, जुड़ाव और आर्थिक एकीकरण को गति दे सकता है? बिम्सटेक की उपयोगिता और भारत की प्रतिबद्धता को लेकर विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि बंगाल की खाड़ी से जुड़े देशों को ऐतिहासिक मतभेद पीछे छोड़कर नई संभावनाओं की और बढ़ना होगा, क्योंकि यह क्षेत्र भू-राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है और यहां उपजा कोई संकट पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र को प्रभावित करेगा। इसलिए, बिम्सटेक देशों को क्षेत्रीय सहयोग और सामूहिक समाधान की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।

चूंकि बिम्सटेक के कई देश आंतरिक रूप से भी विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, इसलिए क्षेत्रीय एकजुटता उनके लिए और अपरिहार्य हो जाती है। इन्हीं चुनौतियों के बीच थाइलैंड में आयोजित बिम्सटेक शिखर सम्मेलन के दौरान पीएम मोदी की ओर से पेश 21 सूत्रीय कार्ययोजना को अपनाने पर सहमति बनी। इसमें प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण, ऊर्जा और युवा कौशल विकास संपर्क और संस्कृतिक आदान-प्रदान, सुरक्षा और अंतरिक्ष सहयोग, आपदा प्रबंधन, व्यापार, डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना को मजबूत करना शामिल है। यह कार्ययोजना सदस्य देशों के समक्ष वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों के प्रति एक मजबूत प्रतिबद्धता को दर्शाती है। इस शिखर सम्मेलन का मुख्य आकर्षण बैंकाक विजन 2030 रहा, जो आर्थिक एकीकरण, संपर्क और मानव सुरक्षा को मजबूत करने पर केंद्रित है। इसके अलावा ‘प्रो- बिम्सटेक’ की पहल भी है, जो बिम्सटेक को समृद्ध, सशक्त और खुला क्षेत्र बनाने की रणनीति प्रस्तुत करती है। एक अन्य महत्वपूर्ण निर्णय के तहत भारत में सतत समुद्री परिवहन केंद्र की स्थापना की घोषणा की गई। इस सबके बाद भी इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि इस समूह में विश्वास की कमी के चलते बिम्सटेक चार्टर को अपनाने में देरी हुई है। यह क्षेत्र आर्थिक रूप से सबसे कम जुड़ाव वाला रहा है। सदस्य देशों के बीच क्षेत्रीय व्यापार का महज छह प्रतिशत होना इसका एक प्रमाण है। मुक्त व्यापार संबंधी समझौता भी बातचीत के दौर में ही अटका हुआ है।

बिम्सटेक अपनी सफलता के लिए केवल राजनयिक बैठकों और घोषणाओं पर निर्भर नहीं रह सकता। इस समूह को आपसी विश्वास को मजबूत करने पर ध्यान देना होगा। इसमें भारत की भूमिका अहम होगी। राजनीतिक मतभेदों को कूटनीतिक संवाद के माध्यम से सुलझाने में नेतृत्व प्रदान करने के दृष्टिकोण से भारत और भी अहम हो जाता है। इस कवायद में छोटे सदस्य देशों को आश्वस्त करना होगा कि आपसी संपर्क, व्यापार और निवेश से सभी को समान लाभ मिलेगा। इसके लिए संस्थागत ढांचे को मजबूत करना और वित्तीय सहयोग बढ़ाना आवश्यक है। वैश्विक आर्थिक अस्थिरता के बीच बिम्सटेक के भीतर व्यापारिक संबंधों को बनाए रखने में भारत अग्रणी भूमिका निभा सकता है। अगर भारत अपनी क्षमताओं का सही उपयोग करे तो बिम्सटेक सार्क जैसा निष्क्रिय समूह बनने के बजाय प्रभावशाली क्षेत्रीय सहयोग का आधार बन सकता है भारत को अपनी क्षमता और शक्ति अनुसार प्रयासों को आगे लेकर जाना होगा ताकि बिम्सटेक का हश्र सार्क जैसा न हो ।


 Date: 05-04-25

बुलडोजर न्याय का अंत हो

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय ने प्रयागराज विकास प्राधिकरण द्वारा 2021 में छह लोगों के घरों को बुलडोजर से गिराए जाने की कार्रवाई को ‘अमानवीय और अवैध’ ठहराते हुए ‘बुलडोजर न्याय’ पर अपनी नाराजगी जाहिर की है। उसे हर घर के मालिक को 10-10 लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश भी प्राधिकरण को दिया है। दो न्यायाधीशों के पीठ ने 1 अप्रैल को जिस घटना पर यह फैसला दिया है वह सर्वोच्च न्यायालय के नवंबर 2024 के आदेश (एक अलग पीठ) से पहले की है। उस आदेश में राज्यों को बुलडोजर से संपत्तियां गिराने के बारे में बाध्यकारी निर्देश दिए गए थे। हालिया आदेश उसी से आगे का है और कानून को मजबूत करता है।

घर ढहाने के पीछे भूमि अधिग्रहण को वजह बताया गया था किंतु न्यायमूर्ति अभय एस ओका और उज्जल भुइयां के पीठ ने उस पर कुछ नहीं बोला और एक स्वर में कहा कि प्रयागराज प्राधिकरण का कदम अवैध था। पीठ ने यह भी कहा कि याची को संविधान से आश्रय का बुनियादी अधिकार मिला है। आश्रय का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार है, जिसमें हर नागरिक को आवास मिलना सुनिश्चित किया जाता है। इसमें केवल भौतिक ढांचे की नहीं बल्कि सुरक्षा और निजता की भी बात है। समुचित पुनर्वास और उचित प्रक्रिया के बगैर लोगों को उनके घर से बाहर निकालना इस अधिकार का उल्लंघन है। प्रयागराज मामले में न्यायधीशों ने उचित प्रक्रिया की कमी बताई। उत्तर प्रदेश शहरी नियोजन एवं विकास अधिनियम, 1973 में अवैध ढांचे ढहाने से संबंधित प्रक्रिया धारा 27 में दी गई है। उसके अनुसार किसी को भी नोटिस दिए बगैर और उसका जवाब देने के लिए उपयुक्त समय दिए बगैर इमारत ढहाने का आदेश नहीं दिया जा सकता। मौजूदा मामले में अधिकारियों ने दिसंबर 2020 के मध्य में कारण बताओ नोटिस मकानों पर चिपका दिए। इसमें लिखा गया था कि नोटिस को व्यक्तिगत रूप से तामील कराने के दो प्रयास किए गए थे। जनवरी 2021 के आरंभ में मकान गिराने के आदेश भी चिपका दिए गए। बाद में पता चला कि रजिस्टर्ड डाक से पहली चिट्ठी ही 1 मार्च 2021 को भेजी गई थी, जो 6 मार्च 2021 को पहुंची। अगले दिन मकान गिरा दिए गए और आवेदकों को कानून के तहत अपील करने का मौका ही नहीं मिला। दूसरे शब्दों में प्रयागराज प्राधिकरण ने राज्य के कानूनों का उल्लंघन किया।

बुलडोजर न्याय अब उत्तर प्रदेश से निकलकर दिल्ली, मध्य प्रदेश, गुजरात, असम और महाराष्ट्र तक फैल चुका है, इसलिए प्रयागराज प्राधिकरण को चेतावनी देने और जुर्माना लगाने की सर्वोच्च न्यायालय की कार्रवाई नवंबर 2024 के उसके ही फैसले को पुख्ता करती है। संविधान के अनुच्छेद 142 से मिली असाधारण और विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल कर सर्वोच्च न्यायालय ने बुलडोजर के इस्तेमाल से पहले की प्रक्रिया बताकर लोक सेवकों की जवाबदेही तय की है। इसमें इमारत गिराने से 15 दिन पहले निवासियों को नोटिस देना, उन्हें उल्लंघन के बारे में बताना, भवन स्वामी को इस कदम को चुनौती देने का सही अवसर देने, अंतिम आदेश की तार्किक परिणति और भवन गिराए जाने की वीडियोग्राफी शामिल है। इससे भी अहम बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इन नियमों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों पर व्यक्तिगत जवाबदेही निर्धारित की है। इसमें न्यायालय की अवमानना और अभियोजन भी शामिल हैं। अप्रैल के निर्णय और नवंबर के निर्णय राज्य प्रशासन का दंड देने का उत्साह कम कर सकते हैं। परंतु असली इम्तहान निचली अदालतों का है, जहां पीड़ित सबसे पहले अपील करते हैं। उन्हें सुनिश्चित करना होगा कि आम नागरिकों के आश्रय के वैध अधिकार को राजनीति का बुलडोजर ध्वस्त न करे।


 Date: 05-04-25

ट्रंप टैरिफ में भारत के लिए छिपा है अवसर

लवीश भंडारी

अमेरिका ने आखिरकार वह टैरिफ लागू कर दिया है जिसकी धमकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप दे रहे थे। सभी उत्पादों पर 10 फीसदी टैरिफ और व्यापार साझेदारों द्वारा लगाए जा रहे शुल्क के बराबर का टैरिफ लागू होने पर अमेरिका को निर्यात होने वाला हमारा काफी सामान पहले से महंगा हो जाएगा। भारत उन देशों में काफी ऊपर है, जिन्हें अमेरिका अनुचित कारोबारी व्यवहार करता हुआ बताता है। भारत ने अमेरिकी धमकियों पर खामोश रहकर समझदारी ही दिखाई है और मुझे लगता है कि अमेरिका की कार्रवाइयों पर वह संयम भी बरतेगा। मेरे हिसाब से भारत ने अब तक समझदारी दिखाई है और वह आगे भी कोई जवाबी कार्रवाई नहीं करना ही समझदारी होगी।

साफ है कि यह घोषणा केवल शुरुआत है और अमेरिका दोस्त-दुश्मन देखे बगैर भारी टैरिफ लगाएगा। अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इसका फौरी असर बुरा होगा। माना जा रहा है कि कीमतें बढ़ेंगी और उत्पादकता तथा मुनाफा कम होगा। ट्रंप को अमेरिका में भारी समर्थन हासिल है, इसलिए उपभोक्तों और उत्पादकों पर कितना भी बुरा असर हो, शुरुआती दिन और महीने ट्रंप के लिए आसानी से गुजर जाएंगे। इसलिए यह नीति वह जल्दी तो नहीं बदलेंगे।

भविष्य में अमेरिका को कुछ टैरिफ कम करने पड़ सकते हैं और पश्चिमी देशों तथा विकासशील देशों की प्रतिक्रिया बता रही हैं कि शुल्क और उसके अलावा दूसरी बाधाओं में हलचल हो सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अगले दो-तीन सालों में टैरिफ की दिशा समझ नहीं आ रही। ऐसे में शुल्कों की सीमा और अनिश्चितता से जुड़ी दो बड़ी चुनौतियां हैं और इन दोनों में ही इजाफा होना तय है।

पिछले कुछ समय से भारत में शुल्क दरें बढ़ रही हैं। कई लोग मान रहे हैं कि शुल्क इजाफे ने देश की विनिर्माण कंपनियों को सुरक्षा दी है और वे अर्थव्यवस्था के आकार में इजाफा कर सकती हैं। परंतु आंकड़े एकदम स्पष्ट हैं: संरक्षणवादी रुख ने विनिर्माण की होड़ में खास फायदा नहीं पहुंचाया है। इक्का-दुक्का उदाहरण हो सकते हैं लेकिन वैश्विक निर्यात में भारतीय उद्योग जगत की हिस्सेदारी ठहरी रही बल्कि गिर ही गई। आयात पर ऊंचे शुल्क ने भारतीय उद्योगों को वैश्विक मूल्य श्रृंखला से जुड़ने में दिक्कत भी पैदा की।

इसलिए जरूरी है कि भारत ट्रंप की धमकियों का इस्तेमाल अपने फायदे में करे और शुल्क घटाए। इससे देश के उद्योग जगत और अर्थव्यवस्था को कई लाभ होंगे। पहला, दूसरे देश भी अमेरिका पर जवाबी शुल्क लगाते हैं या अपने शुल्क कम नहीं करते तो भारत के लिए निर्यात के नए बाजार हासिल करने का मौका होगा।

दूसरा, शुल्क घटने के कई फायदे होंगे, जो सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) के क्षेत्र में ज्यादा होंगे। शुल्क कम होंगे तो भारतीय कंपनियों को वैश्विक मूल्यवर्धन नेटवर्क में शामिल होने का भी मौका मिलेगा। कई वैश्विक कंपनियां कच्चे माल के लिए चीन की जगह दूसरा स्रोत तलाश रही हैं, जो भारत के लिए अच्छा मौका हो सकता है।

मगर भारतीय उद्योग का कुछ हिस्सा अमेरिकी आयात से पटने का जोखिम भी है क्योंकि कई क्षेत्रों में होड़ करने की क्षमता नहीं है। ऐसे में भारत को समझदारी से प्रतिक्रिया देनी चाहिए। सबसे पहले भारत को अपने शुल्क घटाने चाहिए मगर अमेरिका की तरह झटके से नहीं बल्कि चरणबद्ध तरीके से। किंतु इस चक्कर में यह काम टाला नहीं जाना चाहिए। भारतीय और विदेशी कंपनियों को अपने निवेश संबंधी निर्णय लेने के लिए समय सीमा तय की जानी चाहिए और योजनाबद्ध तरीके से क्षमताओं का विकास करना चाहिए।

दूसरा, भारत को अपने उद्योग जगत की मदद के लिए अन्य क्षेत्रों की तलाश करनी होगी। देश की औद्योगिक नीति को अब बचाव नहीं बल्कि सहारे के मंत्र पर चलना होगा। शुल्क और दूसरे अवरोधों के जरिये उद्योगों को बचाने के बजाय हमें अन्य तरीकों से कारोबारों की मदद की राह तलाशनी होगी। उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना ऐसी ही व्यवस्था है मगर इकलौती नहीं है। उदाहरण के लिए देश में जमीन की कीमतें बेजा तरीके से ऊंची हैं। किसानों को उत्पीड़न से बचाना भी इसकी एक वजह है। सरकार को इस लागत का बड़ा हिस्सा उठाना होगा क्योंकि ऐसा नीतिगत कदमों की वजह से है। इसी प्रकार देश में बिजली वितरण कंपनियों की खामियों के कारण बिजली बहुत महंगी है। कृषि और घरेलू उपभोक्ताओं को रियायती दरों पर बिजली मुहैया कराना भी इसकी एक वजह है। उद्योग जगत पर यह बोझ नहीं थोपा जाना चाहिए। ऐसा करना न केवल अनुचित है बल्कि रोजगार को नुकसान पहुंचाने वाला भी है। ऐसे में यदि क्रॉस सब्सिडी जारी रहती है तो लागत उद्योग को नहीं सरकार को वहन करनी चाहिए।

इसमें शक नहीं कि दोनों अर्थव्यवस्थाओं के बीच कई किस्म के तालमेल हैं। अमेरिका के आर्थिक ढांचे में पूंजी बहुत है और भारत के पास किफायती श्रम शक्ति है। अमेरिका तकनीकी रूप से अत्यधिक कुशल है और भारत की प्रतिष्ठा प्रशिक्षित कर्मचारियों की है। अमेरिका में स्टार्ट अप की मजबूत व्यवस्था है और भारत की स्टार्टअप संभावनाएं भी बेहतर हैं। दोनों अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे की पूरक हैं। भारत-अमेरिका मुक्त व्यापार समझौते की संभावनाओं को देखें तो भारत इसे एक बड़े आर्थिक अवसर में बदल सकता है।

हमें शुल्क में कमी को एक सामान्य नीतिगत प्रतिक्रिया के रूप में देखना चाहिए, जो संतुलित होनी चाहिए। चरणबद्ध कमी एक पहलू है जबकि अन्य माध्यमों से उद्योगों का समर्थन दूसरा। कुछ उत्पादों को शुल्क कटौती से बाहर रखना अलग मसला है। कृषि ऐसा ही क्षेत्र है- अनाज, मत्स्य पालन और डेरी आदि को संरक्षण की जरूरत होगी। कृषि के भीतर भी ऐसे क्षेत्र हैं जहां भारत और अधिक खुलापन ला सकता है। मेवे, बेरीज और कई तरह के फल जो भारत में नहीं उगाए जाते वे इसके उदाहरण हैं। एथनॉल के क्षेत्र में भी भारत खुलापन ला सकता है। जो कृषि उत्पाद जो भारत की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित नहीं करता और बड़ा रोजगार नहीं देता उसमें व्यापार अवरोध कम किए जा सकते हैं।

कुछ उत्पाद ऐसे हैं जिन्हें न्याय और सुरक्षा की दृष्टि से बचाना आवश्यक है, उन्हें छोड़कर भारत को शुल्क में चरणबद्ध कमी आरंभ कर देनी चाहिए। ये घोषणाएं विश्वसनीय होनी चाहिए। उन्हें अमेरिका की भविष्य की नीतियों पर निर्भर नहीं होना चाहिए। अगर भविष्य में अमेरिका शुल्क में एकतरफा कमी करता है तो भी भारत को इस दिशा में बढ़ते रहना चाहिए। भारत को अपने बचाव के लिए नहीं बल्कि 2047 तक विकसित भारत बनाने के लिए शुल्क घटाने चाहिए।


 Date: 05-04-25

पसमांदा के हित में

संपादकीय

उम्मीद विधेयक राज्य सभा से भी पारित हो गया और अब इसके विधिवत कानून बनने में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर की औपचारिकता भर रह गई है। इस पर करीब 13 घंटे की लंबी बहस राज्य सभा में भी हुई। सरकारी पक्ष ने अपने उन्हीं तर्कों को और अधिक वजनदारी के साथ आगे बढ़ाया जो उसने लोक सभा में रखे थे। यहां उम्मीद थी कि विपक्ष के खामियों का समुचित जवाब देंगे जो खामियां इस विधेयक को लाने का कारण बनी, लेकिन मुस्लिम वक्ताओं के साथ-साथ विपक्षी वक्ता भी इसे असंवैधानिक बताते रहे। यानी वे मुसलमान के इसी तर्क की पुष्टि करते रहे कि वक्फ बोर्ड अल्लाह के लिए है, इस्लामी कानून के तहत है, शरीयत की विधियों से संचालित है। इसलिए इसमें दुनियावी दखलअंदाजी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। इस बहस ने कथित धर्मनिरपेक्षता का वह चेहरा फिर से उजागर कर दिया कि इस्लामी विधियों और प्रावधानों के साथ खड़े होना, भले ही वह आधुनिक युग में कितने भी निरर्थक क्यों ना हो गई हो, धर्मनिरपेक्षता है। यह धर्मनिरपेक्षता अंततः उन्हें कहां ले जाएगी यह तो भविष्य बताएगा, लेकिन हाल- फिलहाल इसकी बुरी तरह पराजय हुई है। विपक्ष अगर सचमुच इस मामले में अपनी साख बचाना चाहता है तो उसे यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वक्फ कानून नये संशोधनों के साथ अस्तित्व में आ गया है। अब उसको ध्यान इस पर केंद्रित करना चाहिए कि इस नये कानून के आलोक में वक्फ बोर्ड भू-माफियाओं और निजी लाभ को पाने वाले स्वार्थी समूह की गिरफ्त से बाहर आए और उसका लाभ मुसलमान तक पहुंचे जो उसके वास्तविक हकदार हैं। विपक्ष को मुल्ला, मौलानाओं और मुसलमान की राजनीति करने वाले राजनेताओं का मोह त्याग कर पसमांदा और सबसे निचली पायदान पर खड़े मुसलमानों के हित की वास्तविक लड़ाई लड़नी चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि मुस्लिम राजनीति गरीब मुसलमानों की आंख पर पट्टी बांधकर उनका दोहन, शोषण करती रही है और उन्हें अपने राजनीतिक हितों का मोहरा बनती रही है। इन मुसलमानों को कट्टरपंथी और स्वार्थी समूहों के चंगुल से बाहर निकलना समय की मांग है। उम्मीद की जानी चाहिए कि विपक्ष इस मांग को सुनेगा और अपनी मौजूदा नीति से बाहर निकाल कर निम्नवर्गीय मुसलमानों के हित में संघर्ष करेगा ।