05-01-2018 (Important News Clippings)

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05 Jan 2018
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Date:05-01-18

एक नेता पर निर्भर होते सियासी दल

डॉ. एके वर्मा (लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक व राजनीतिक विश्लेषक हैं)

नव वर्ष की पूर्वसंध्या पर तमिल सुपरस्टार रजनीकांत ने राजनीति में प्रवेश की घोषणा कर दी। हालांकि उन्होंने ‘अच्छा करो, बोलो तो केवल अच्छा होगा को अपना मार्गदर्शक नारा बताया, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वह आखिर किस तरह की राजनीति करने वाले हैं। इधर, दिल्ली में नई तरह की राजनीति के दावे के साथ सियासी मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी यानी ‘आप के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने राज्यसभा के तीन में से दो बाहरी उम्मीदवार तय करके यह स्पष्ट कर दिया कि पार्टी में कोई और नेतृत्व उभरे, यह उन्हें स्वीकार नहीं। इसके पहले राहुल गांधी जिस तरह कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए, वह सबको पता ही है। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए कुल 89 नामांकन भरे गए और सभी में केवल एक ही नाम राहुल गांधी का था। महाराष्ट्र से एक कांग्रेसी शहजाद पूनावाला अध्यक्ष पद का नामांकन पत्र भरना चाहते थे, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सके।

हालांकि नेतृत्व संरचना के मामले में अन्य राजनीतिक दलों का रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं है। कांग्र्रेस को तो नेहरू-गांधी परिवार के वर्चस्व के लिए जाना जाता था, पर सबसे बड़ा परिवर्तन भाजपा में देखने को मिल रहा है। 2013 में भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किए जाने के बाद जनता को ऐसा लग रहा है कि पार्टी में सामूहिक नेतृत्व में गिरावट आई है। 2014 का लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा गया और उसमें प्रचंड जीत के बाद मोदी सरकार बनने पर ऐसा लगता है जैसे पार्टी के और नेता हाशिये पर चले गए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान ऐसा महसूस नहीं हुआ था।यह ठीक है कि प्रधानमंत्री मोदी की शासन के प्रति प्रतिबद्धता और कर्मठता का कोई सानी नहीं, लेकिन क्या संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री को सभी अच्छे-बुरे का उत्तदायित्व केवल स्वयं ही वहन करना ठीक होगा? क्या सरकार और दल के पास वरिष्ठ मंत्रियों और नेताओं का कोई ‘बफर-जोन नहीं होना चाहिए, जो किसी तरह की विषम परिस्थिति में प्रधानमंत्री को ‘कवर दे सके?

इससे भाजपा और मोदी सरकार के सामने दो संकट आ रहे हैं। एक तो प्रत्येक राज्य के चुनाव में प्रधानमंत्री को खुद उतरना पड़ रहा है, जो उनके समय, स्वास्थ्य और ऊर्जा का बहुत अंश ले लेता है। जबकि इनका प्रयोग पूरे देश और दूसरे अन्य कार्यों के लिए होना चाहिए। दूसरा यह कि लोकतंत्र में अनेक कठिन परिस्थितियां आती रहती हैं और उन सभी से निपटने की जिम्मेदारी केवल प्रधानमंत्री ही क्यों उठाएं? अन्य मंत्री धीरे-धीरे कतराने लगेंगे, उनमें आत्मविश्वास की कमी होती जाएगी और वे हर चीज के लिए प्रधानमंत्री की ओर देखेंगे। इससे न केवल प्रधानमंत्री हमेशा अनावश्यक दबाव में रहेंगे, वरन सामूहिक नेतृत्व का भी ह्रास होगा। एक लंबी पारी खेलने के लिए संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होता है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं को जिस तरह शासन, दल-संचालन और चुनावी स्पर्द्धाओं में पूरी तरह झोंक-सा दिया है, वह वांछनीय नहीं।

कांग्रेस और भाजपा, देश की दो महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियां हैं और दोनों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक नेतृत्व और सामूहिक उत्तरदायित्व को वास्तविकता कैसे बनाया जाए? इतना ही नहीं, उनकी दूसरी कमजोरी यह है कि राज्यों के स्तर पर उनके नेता तो होते हैं, लेकिन प्रादेशिक नेतृत्व नहीं होता। दलों में नेतृत्व निर्धारण की कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं, जिससे जनता को पता चल सके कि प्रदेश स्तर पर किसी पार्टी का मुख्य चेहरा कौन है? ये दोनों पार्टियां चुनाव के दौरान इसका खामियाजा भुगतती हैं, क्योंकि प्राय: उनको मोदी या राहुल के चेहरे पर ही चुनाव लड़ना पड़ रहा है। हाल के गुजरात चुनाव में भी यही देखने को मिला। यही हाल इसके पहले दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में रहा। कांग्रेस में ‘आलाकमान संस्कृति है, जो राज्यों में नेतृत्व को पनपने नहीं देती और भाजपा में यह दुहाई दी जाती है कि वह ‘कैडर वाली पार्टी है, जिसमें सभी में नेतृत्व की क्षमता है और समय आने पर किसी को भी प्रदेश नेतृत्व के लिए चुना जा सकता है। यह भ्रामक स्थिति है और नेताओं को स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर प्रतिबद्ध होकर काम करने से विचलित करती है। साथ ही जनता के मन-मस्तिष्क में पार्टियों के प्रादेशिक नेता की छवि को स्थापित नहीं होने देती। यह अनेक क्षेत्रीय नेताओं को अपनी पार्टी छोड़ने और नई क्षेत्रीय पार्टी बनाने को विवश करती है। कांग्रेस में तो इसके अनेक उदाहरण हैं ही, भाजपा भी अब इसमें

पीछे नहीं दिखती।आखिर क्यों राजनीतिक दलों द्वारा कोई ऐसी संस्थात्मक व्यवस्था नहीं की जाती, जिससे लोकतांत्रिक पद्धति से नेतृत्व चयन हो सके? क्यों इसे केंद्रीय नेताओं की कृपा पर छोड़ा जाता है? क्यों देश में स्थानीय से लेकर राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों का चयन भी पार्टियों के कुछ बड़े नेता करते हैं? क्या यही लोकतंत्र का तकाजा है?

क्षेत्रीय दलों का तो कहना ही क्या! बसपा कहने को तो राष्ट्रीय दल है, लेकिन मायावती उसे अपनी व्यक्तिगत पार्टी के रूप में देखती हैं। न राष्ट्रीय स्तर पर और न ही प्रांतीय स्तर पर, उनके बाद कोई भी किसी बसपा नेता को जानता है। बाबूसिंह कुशवाहा, स्वामीप्रसाद मौर्य और नसीमुद्दीन जैसे जो इक्का-दुक्का नेता थे, उन्हें भी मायावती ने निकाल बाहर किया। मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की सपा प्रादेशिक पार्टी है, लेकिन उसमें भी समाजवाद के ऊपर परिवारवाद हावी है। जिस तरह की कलह परिवार में विगत एक वर्ष में देखने को मिली, उससे पार्टी की उत्तर प्रदेश के चुनावों में काफी दुर्गति हुई। देखना है कि नए साल में अध्यक्ष अखिलेश यादव सपा को किस तरह आगे ले जाते हैं। कमोबेश यही हाल तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक, ओडिशा में बीजद और बिहार में राजद का है। राजनीतिक दलों का ‘कॉर्पोरेटीकरण सा हो गया है और उनके मुखिया ‘सीईओ की तरह आचरण कर रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान दलों के आम कार्यकर्ता का हो रहा है। उनके हिस्से में केवल दरी बिछाने और पार्टी का झंडा लेकर नारे लगाने का काम रह गया है। उनके अच्छे काम का पुरस्कार कोई और हड़प लेता है, जो केंद्रीय नेतृत्व या आलाकमान का चहेता होता है। इससे दलों के आम कार्यकर्ता का मनोबल टूटता है और पार्टियां जमीन पर कमजोर होती जाती हैं। आम आदमी पार्टी इसका ताजा उदाहरण है, जहां केजरीवाल ने अपने लोगों को किनारे करके दो बाहरी नेताओं को राज्यसभा भेजना बेहतर समझा।

भारत जैसे त्रिस्तरीय संघात्मक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में राजनीतिक दलों को भी त्रिस्तरीय नेतृत्व व्यवस्था अपनानी होगी। राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय नेतृत्व स्पष्ट रूप से घोषित होना चहिए। ऐसा कैसे हो, इस पर सभी दलों को गंभीर विचार-विमर्श करना चाहिए। चुनाव जीतना एक बात है, लेकिन दलों को अपने-अपने नेताओं के माध्यम से प्रत्येक स्तर पर जनता का दिल जीतने की कोशिश करनी चाहिए। फिर चुनाव तो वे खुद-ब-खुद जीत जाएंगे। जनता का दिल जीतने के लिए दलों और नेताओं को संपर्क, संवाद और समाधान की त्रिवेणी प्रवाहित करनी पड़ेगी। अहम सवाल यही है कि क्या वे ऐसा करना भी चाहते हैं?


Date:05-01-18

सभी वर्गों के लिए सहनशीलता से पैदा होगी सहज राष्ट्रीयता

संपादकीय

भीमा कोरेगांवमें यल्गार परिषद के आयोजन और उसके बाद भड़की हिंसा और बंद ने यह साबित कर दिया है कि इस देश के राष्ट्रीय आख्यान में कई परतें और धाराएं हैं और किसी एक आख्यान से समाज के सभी तबकों की सहमति बनाना तो संभव है और ही जरूरी। इसमें कोई दो राय नहीं कि पुणे में पेशवाशाही के सत्ता केंद्र शनिवारवाड़ा के ठीक सामने दलित संगठनों की ओर से भीमा कोरेगांव की विजय के दो सौ साल के उत्सव मनाने के लिए जो आयोजन हुआ वह दलित राष्ट्रीयता की एक अभिव्यक्ति थी जो हिंदुत्व के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भीमा के बहाने एक चुनौती दे रही थी। इसीलिए इस दौर के प्रभावी आख्यान की पैरोकारी कर रहे मीडिया ने उसे राष्ट्रद्रोह की संज्ञा दी और आयोजकों और विरोधियों के बीच समझौता होने के बावजूद आखिरकार टकराव हो ही गया।

भीमा कोरेगांव के युद्ध का एक आयाम अंग्रेजों की खैरख्वाही के साथ ब्राह्मणवाद और अछूतों के साथ होने वाले अत्याचार के विरोध का है। इसका दूसरा आयाम भारतीय शासक बाजीराव पेशवा से जुड़े भारतीयता और देशभक्ति के आख्यान का है। विस्तार में जाएंगे तो दोनों ओर के आख्यान में खामियां हैं और दोनों इमारतें शौर्य और देशभक्ति की काल्पनिक कथाओं पर निर्मित की गई हैं। अगर संघ परिवार देश में पेशवा पद पादशाही लाने का सपना देखता है तो सामान्यतः बेहद कमजोर दलित राष्ट्रीयता महार सैनिकों, दलित संतों और बाबा साहेब आम्बेडकर के जीवन में मिली कामयाबियों के आधार पर अपनी कथा निर्मित करती है।

अंग्रेज अगर भारतीय समाज को हिंदू मुस्लिम और सवर्ण-अवर्ण के आधार पर विभाजित करने में सिद्धहस्त रहे हैं तो संघ परिवार दलित संघर्षों की उपेक्षा करते हुए हिंदू-मुस्लिम लड़ाई को प्रमुखता देता रहा है। आज भले ही संघ परिवार डॉ. भीमराव आम्बेडकर को प्रातः स्मरणीय मानने लगा है लेकिन दलित संघर्षों और उन्हें आदर देने की उसने उपेक्षा की है। दलितों की मौजूदा आक्रामकता और प्रतिरोध यह बताता है कि उसके राम विलास पासवान और रामदास आठवले जैसे नेता भले सरकार के हिस्से हो गए हों, लेकिन बाबा साहेब की जाति उन्मूलन की विचारधारा अभी भी जिंदा है। इसलिए भारतीय राष्ट्रीयता तभी सहज हो सकती है जब वह अपनी विभिन्न जातियों और सम्प्रदायों की सुने और उनके प्रति एक सहनशीलता विकसित करे।


Date:04-01-18

भारत फूंकेगा नई जान

संपादकीय

तारीख 1 जनवरी 2018 को केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्यग मंत्री सुरेश प्रभु ने कहा कि पिछले दिनों ब्यूनस आयर्स (अज्रेटीना) में आयोजित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के 11वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर वार्ता असफल हो गई है। अतएव भारत ने खाद्य सुरक्षा और कृषि संबंधी अन्य मुद्दों पर डब्ल्यूटीओ के अमीर और विकासशील देशों की छठी मंत्रिस्तरीय बैठक फरवरी 2018 में बुलाई है। जिसमें डब्ल्यूटीओ के 40 सदस्य देशों के भाग लेने की उम्मीद है। इस बैठक में डब्ल्यूटीओ के तहत बहुपक्षीय व्यापार में नई जान फूंकने के तरीके भी ढूंढे जाएंगे। डब्ल्यूटीओ में भूख एवं खाद्य सुरक्षा के मसले पर अमेरिका और विकसित देशों के नकारात्मक रवैये के विरोध में न्यायोचित मांग के लिए अगुवाई करते हुए भारत के द्वारा आयोजित की जा रही लघु मंत्रिस्तरीय बैठक की ओर पूरी दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं। गौरतलब है कि डब्ल्यूटीओ के ब्यूनस आयर्स सम्मेलन में भारत ने स्पष्ट कहा कि देश की गरीब आबादी को पर्याप्त अनाज मुहैया कराने से जुड़े खाद्य सुरक्षा कानून से वह कोई समझौता नहीं करेगा।

भारत की ओर से यह भी कहा गया कि खाद्य पदार्थो के सार्वजनिक भंडारण का स्थायी हल निकाला जाना चाहिए। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि इस सम्मेलन में विकासशील देशों के समूह जी-33 के 47 देशों ने कृषि मुद्दे पर भारत को पूरा समर्थन दिया। साथ ही खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम पर भारत और चीन में भी एकता देखी गई। लेकिन इस सम्मेलन में अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की नकारात्मक भूमिका रही। भारत के द्वारा उठाई गई खाद्य सुरक्षा की मांग को लेकर इन देशों ने एक साझा स्तर पर पहुंचने से न केवल मना कर दिया वरन् ये देश खाद्य भंडारण के मुद्दे का स्थायी समाधान ढूंढने की अपनी प्रतिबद्धता से भी पीछे हट गए। उल्लेखनीय है कि डब्ल्यूटीओ दुनिया को नियंतण्र गांव बनाने का सपना लिये हुए एक ऐसा नियंतण्र संगठन है, जो दुनिया में उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य को सहज एवं सुगम बनाने का उद्देश्य रखता है। 1 जनवरी, 1995 से प्रभावी हुआ डब्ल्यूटीओ केवल व्यापार एवं बाजारों में पहुंच के लिए प्रशुल्क संबंधी कटौतियां तक सीमित नहीं है, यह नियंतण्र व्यापारिक नियमों को अधिक कारगर बनाने के प्रयास के साथ-साथ सेवाओं एवं कृषि में व्यापार पर बातचीत को व्यापक बनाने का लक्ष्य भी संजोए हुए है। लेकिन न केवल ब्यूनस आयर्स में वरन् डब्ल्यूटीओ के गठन के बाद पिछले 22 वर्षो में यह पाया गया है कि डब्ल्यूटीओ के तहत अमेरिका और अन्य विकसित देशों की स्वार्थपूर्ण गुटबंदी ने कृषि एवं औद्योगिक टैरिफ कटौती सहित कई मुद्दों पर विकासशील देशों के हितों को ध्यान में नहीं रखा है। इस संगठन से दुनिया के विकासशील देशों को कई सार्थक लाभ प्राप्त नहीं हुए हैं। भारत जैसे विकासशील देशों को सेवाओं एवं कृषि उत्पादों सहित अनेक सामानों के निर्यात में भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा रहा है। ख्यात अर्थशास्त्री एवं नोबल पुरस्कार विजेता जसेफ ई स्टिग्लिट्ज का कहना है कि डब्ल्यूटीओ का एजेंडा एवं उसके परिणाम दोनों ही विकासशील देशों के खिलाफ हैं। यह पाया गया है कि अमेरिका और विकसित देश आर्थिक संरक्षणवाद की अधिक ऊंची दीवारें खड़ी करते जा रहे हैं।

आऊटसोर्सिग जैसे संरक्षणवादी कदम के अलावा अंतरराष्ट्रीय व्यापार को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। विकसित देशों में घरेलू स्तर पर नौकरियों को बढ़ावा देने की अंतमरुखी नीति का परिदृश्य भारत सहित विकासशील देशों के लिए एक बड़ी आर्थिक चुनौती बन गया है। वस्तुत: विकसित देशों के वीजा रोक और कई वस्तुओं के आयात नियंतण्रसंबंधी प्रतिबंध डब्ल्यूटीओ के उद्देश्य के प्रतिकूल हैं। यही कारण है कि विकासशील देशों के करोड़ों लोग जोर-शोर से यह कह रहे हैं कि जब डब्ल्यूटीओ के तहत पूंजी का प्रवाह पूरी दुनिया में खुला रखा गया है, तो सेवा एवं श्रम के मुक्त प्रवाह और गरीब की खाद्य सुरक्षा पर विकसित देशों के द्वारा तरह-तरह के प्रतिबंध अनुचित और अन्यायपूर्ण हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि डब्ल्यूटीओ के सदस्य देशों ने सब्सिडी, सीमा शुल्क में कटौती, व्यापार की अन्य बाधाओं को दूर करने के लिए 2001 में दोहा दौर की व्यापार वार्ता शुरू की थी, जिसे वर्ष 2004 में समाप्त होना था।

परंतु यह वार्ता विकसित एवं विकासशील देश के आर्थिक हितों की टकराहट के कारण अब तक पूरी नहीं हुई है। मंत्रिस्तरीय वार्ताओं की असफलता की वजह यह है कि अमेरिका सहित कई विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडी जारी रखना चाहते हैं, लेकिन वे अपेक्षा कर रहे हैं कि विकासशील देश किसानों की सब्सिडी कम करें और गरीबों की खाद्य सुरक्षा को भी कम करें। ब्यूनस आयर्स में पिछले दिनों सम्पन्न डब्ल्यूटीओ के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन की असफलता की वजह भी यही है। लेकिन डब्ल्यूटीओ के मंत्रिस्तरीय सम्मेलनों की कृषि मुद्दों पर बार-बार असफलताके बाद भी हमें यह मानना ही होगा कि अभी भी दुनिया के तमाम देशों के लिए आपसी व्यापार का एक साझा ताना-बाना होना जरूरी है। डब्ल्यूटीओ सदस्य देशों की संख्या तेजी से बढ़कर 164 हो जाना इस बात का सबूत है कि डब्ल्यूटीओ की व्यवस्था नियंतण्र व्यापार की सरलता और नियंतण्र व्यापार बढ़ाने के लिए अब भी महत्त्वपूर्ण है। इसके अभाव में उलझनों और दिक्कतों से भरी हुई द्विपक्षीय विदेश व्यापार समझौते की राह ही बचती है, जिसके चलते दुनिया अलग-अलग व्यापार समूह में बंट सकती है। चूंकि डब्ल्यूटीओ के ब्यूनस आयर्स सम्मेलन में भारत द्वारा उठाई गए खाद्य सुरक्षा और खाद्य पदार्थ के सार्वजनिक भंडार के न्यायोचित मुद्दे को ध्यान में नहीं रखा गया। ऐसे में भारत के द्वारा खाद्य सुरक्षा से जुड़े विकासशील देशों की आवाज को डब्ल्यूटीओ के तहत आगे बढ़ाने के लिए फरवरी 2018 में आयोजित की जाने वाली लघु स्तरीय बैठक सार्थक सिद्ध हो सकती है। आशा की जानी चाहिए कि भारत के द्वारा अभूतपूर्व रूप से खाद्य सुरक्षा पर आयोजित की जाने वाली डब्ल्यूटीओ देशों की लघुस्तरीय इस बैठक की न्यायोचित आवाज डब्ल्यूटीओ के आगामी मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में विकसित देशों को लचीला रवैया अपनाने के लिए बाध्य करेगी।


Date:04-01-18

चंदे पर नजर

संपादकीय

केंद्र सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वित्त वर्ष 2017-18 के बजट के दौरान संसद में इस योजना को शुरू करने की घोषणा की थी. सरकार दावा कर रही है कि यह योजना राजनीतिक दलों को मिलने वाले नकदी चंदे के प्रचलन को हतोत्साहित करेगी और इस तरह चुनावों में काले धन के इस्तेमाल पर रोक लग पाएगी.अब आगामी चुनावों में सरकार के दावे की असलियत का पता चल पाएगा. फिर भी, आशावादी नजरिये से यह तो कहा ही जा सकता है कि पूरी तरह तो नहीं लेकिन एक सीमा तक काले धन के इस्तेमाल को रोकने में यह योजना कारगर हो सकती है.इस योजना के मुताबिक, राजनीतिक दलों के लिए एक हजार से लेकर एक करोड़ रुपये के मूल्य तक के चुनावी बांड एसबीआई बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीदे जा सकेंगे और इसकी मियाद पंद्रह दिनों की होगी अर्थात इन्हें केवल अधिकृत बैंक खातों के जरिए इस मियाद के भीतर भुनाना होगा.चुनावी बांड लेने की कुछ अर्हताएं भी निर्धारित की गई हैं. मसलन, राजनीतिक दल का पंजीकरण और पिछले चुनाव में कम से कम एक फीसद वोट पाना अनिवार्य है. चुनाव के मौसम में काले धन को सफेद करने के इरादे से कुकुरमुत्ते की तरह उग आने वाली नई राजनीतिक पार्टियों को ये चुनावी बांड नहीं दिए जा सकेंगे.

सरकार के इस कदम को चुनाव सुधार की दिशा में महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है क्योंकि ये राजनीतिक दल विसनीय नहीं होते और लोकतंत्र की प्रक्रिया को पीछे धकेलते हैं. अलबत्ता, चुनावी बांड में दानदाता के नाम को गोपनीय रखने का प्रावधान राजनीतिक फंडिंग को पारदर्शी और स्वच्छ बनाने के उद्देश्य को धूमिल करता है. माना जा रहा है कि यह प्रावधान राजनीतिक दलों और कॉरपोरेट जगत के गठजोड़ को तोड़ने में बाधक बनेगा.सरकार भले यह कह रही है कि दानकर्ता को अपनी बैलेंस शीट में चुनाव बांड का जिक्र करना होगा लेकिन सवाल यह है कि आम जनता को कैसे पता चल पाएगा कि किसने किस राजनीतिक दल को कितना चुनावी चंदा दिया? इस नजरिये से राजनीतिक फंडिंग पारदर्शी बनाने का मकसद आधा-अधूरा ही रह जाता है.


Date:04-01-18

चंदे पर फंदा

संपादकीय

आखिरकार सरकार ने चुनावी बांड की रूपरेखा पेश कर दी। चुनाव सुधार की दिशा में कठोर कदम उठाने वालों की लंबे समय से मांग थी कि इसके लिए चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने की जरूरत है। केंद्र सरकार के इस फैसले से निस्संदेह ऐसे लोगों को कुछ संतोष मिलेगा। अब कोई व्यक्ति या संस्था किसी राजनीतिक दल को चुनावी चंदा देना चाहती है, तो वह स्टेट बैंक आॅफ इंडिया की चुनिंदा शाखाओं से एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपए मूल्य के बांड खरीद सकेगी। इन बांडों को खरीदने वालों के लिए अपने बैंक को अपने बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध करानी होगी। हालांकि बांड पर दान देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाएगी।

चुनावी बांड के जरिए सिर्फ उन्हीं पार्टियों को चंदा दिया जा सकेगा, जो चुनाव आयोग में पंजीकृत हैं और पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत मत प्राप्त कर चुकी हैं। इस तरह माना जा रहा है कि नकदी के रूप में दिए जाने वाले चुनावी चंदे पर रोक लगेगी और काले धन पर काफी हद तक अंकुश लगेगा। मगर कुछ लोगों को इससे चुनाव सुधार की दिशा में किसी गुणात्मक परिवर्तन को लेकर संदेह है।पिछले कुछ सालों में जिस तरह चुनाव खर्च लगातार बढ़ता गया है और निर्वाचन आयोग की तमाम सख्तियों के बावजूद राजनीतिक दल अपने खर्च पर अंकुश लगाने की चेष्टा करते नहीं दिखते उसमें ऐसे कदम की अपेक्षा की जा रही थी। चुनावी खर्च पर अंकुश न लग पाने का एक बड़ा कारण चंदे के रूप में काले धन को छिपाया जाना है। कुछ साल पहले तक पार्टियां लोगों से नगद चंदा लेने और उनकी पहचान छिपाने को स्वतंत्र थीं। इस तरह कंपनियों और कारोबारियों को अपने काले धन को बड़े पैमाने पर छिपाने में मदद मिलती थी। फिर उसके बदले वे नाजायज लाभ लेने का प्रयास करते थे।

पर मोदी सरकार ने नगद चंदे पर अंकुश लगाते हुए उसकी सीमा पहले बीस हजार रुपए और फिर बाद में उसे घटा कर महज दो हजार रुपए कर दिया। फिर भी पिछले दिनों हुए चुनावों में पार्टियों और प्रत्याशियों के खर्च में कहीं से कोई कमी नहीं दिखाई दी। इसलिए कि राजनीतिक दलों ने चंदा जुटाने के दूसरे रास्तों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। ऐसे में वे सिर्फ बांड के जरिए चंदा लेंगे, दावा करना मुश्किल है।पिछले साल अप्रैल में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले ट्रस्टों पर संदेह जाहिर किया था। 2013 से पहले छह चुनावी ट्रस्ट पंजीकृत हुए थे। कायदे से इन चुनावी ट्रस्टों को निर्वाचन आयोग के पास अपने दानदाताओं के बारे में जानकारी उपलब्ध कराना अनिवार्य है, पर वे ऐसा नहीं करते। 2014-15 में इन ट्रस्टों ने 177.55 करोड़ रुपए चंदे के रूप में कमाए और नियम के मुताबिक इसका पंचानबे फीसद अलग-अलग राजनीतिक दलों को वितरित किया। इसी तरह यह भी देखने में आया है कि कई लोग फर्जी कंपनियां खोल कर चेक या फिर चुनावी ट्रस्टों के माध्यम से पार्टियों को चंदा देते रहे हैं। ऐसे में चुनावी चंदे को पूरी तरह पारदर्शी बनाने के लिए कोई व्यावहारिक रास्ता अपनाने की दरकार अभी खत्म नहीं हुई है। चुनावी बांड की तरह दूसरे रास्तों से आने वाले चंदों को भी पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। पार्टियों के आय-व्यय के ब्योरे भी पारदर्शी और व्यावहारिक बनाने के उपाय होने चाहिए।


Date:04-01-18

नागरिकता के सवाल पर उलझा असम

चंदन कुमार शर्मा, प्रोफेसर, तेजपुर विश्वविद्यालय, असम

असम की हवा में इन दिनों एक तरह की तुर्शी महसूस की जा सकती है। हालांकि हिंसा की कहीं से कोई खबर नहीं है, मगर अमन-पसंद लोगों के चेहरों पर चिंता की लकीरें देखी जा रही हैं। इसका कारण है नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का पहला ड्राफ्ट। इस ड्राफ्ट में राज्य के 3.29 करोड़ लोगों में से 1.9 करोड़ को ही भारत का वैध नागरिक माना गया है। फिलहाल दो और सूची आने वाली है, लेकिन पहली सूची का संकेत यही है कि राज्य की एक बड़ी आबादी अवैध तरीके से यहां रह रही है। मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने स्पष्ट कर दिया है कि एनआरसी के अंतिम ड्राफ्ट में जिन लोगों के नाम नहीं होंगे, उन्हें मौलिक अधिकार नहीं दिया जाएगा। साफ है, सूबे के बडे़ हिस्से को यह सवाल अब मथने लगा है कि अगर उनका नाम इस सूची में नहीं आ सका, तो फिर क्या होगा?

एनआरसी को नवीनतम बनाने की मांग कोई नई नहीं है। अब तक सिर्फ एक बार इसके आंकड़े जारी हुए हैं, वह भी 1951 में। तब से अब तक इसमें कोई सुधार नहीं किया गया है। असम में इसलिए नए आंकड़े जारी किए गए हैं, क्योंकि यहां अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा काफी ज्वलंत रहा है। असम देश का संभवत: एकमात्र ऐसा सूबा है, जहां 1971 तक काफी संख्या में प्रवासी पहुंचे हैं, खासकर पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से। यही वजह है कि 1979 से 1985 तक घुसपैठियों के खिलाफ यहां व्यापक आंदोलन भी चला। हालांकि पहले भी गैर-कानूनी रूप से घुस आए प्रवासियों को लेकर सवाल उठते रहे थे, लेकिन इस पर गंभीरता नहीं दिखाई गई। नतीजतन, सूबे की जनसांख्यिकी में व्यापक बदलाव आ गया। इसी कारण से 1980 में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन, यानी आसू ने एनआरसी को नवीनीकृत करने की मांग मुखर की। तब 1951 के बाद आए तमाम बाहरी लोगों को सूबे से बाहर भेजने की जरूरत बताई गई थी। मगर 1985 में हुए ‘असम समझौता’ के तहत आसू को मानना पड़ा कि 25 मार्च, 1971 से पहले जो भी प्रवासी असम पहुंचे हैं, उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा।

असम के हालात आईएमडीटी (इलीगल माइग्रेंट्स डिटर्मिनेशन बाई ट्रिब्यूनल) कानून ने भी बिगाडे़ हैं। 1983 में यह कानून बना था। कहने को तो यह अवैध बांग्लादेशियों की पहचान करने के इरादे से बनाया गया, पर इसके कई प्रावधान ऐसे थे, जिससे प्रवासियों की पहचान करना काफी मुश्किल था। यही कारण है कि 1985 में पहली बार बनी असम गण परिषद सरकार भी अवैध बांग्दालेशियों के खिलाफ कुछ खास नहीं कर सकी। बाद के वर्षों में आसू ने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जहां 2005 में इस कानून को असांविधानिक करार दे दिया गया। मगर तब तक प्रवासी बांग्लादेशियों की चौथी-पांचवीं पीढ़ी भी जन्म ले चुकी थी। बाद में फिर एनआरसी को अद्यतन करने की बहस तेज हुई, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह संभव न हो सका।

अभी एनआरसी को लेकर तेजी सुप्रीम कोर्ट के दबाव के कारण आई है। साल 2005 में ही केंद्र सरकार, राज्य सरकार और आसू के बीच इसे लेकर समझौता हुआ था, पर जब बात 2009 के विफल पायलट प्रोजेक्ट से आगे नहीं बढ़ी, तो आसू इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। हालांकि अभी इस पर आखिरी फैसला नहीं आया है, पर अदालत ने दिसंबर, 2017 तक इसे पूरा करने की बात कही थी। 2013 में एनआरसी को नवीनीकृत करने का काम शुरू हुआ है। अच्छी बात है कि इसकी पहली सूची आ गई है।यह सही है कि अभी बहुतेरे लोग ऐसे हैं, जिनका नाम पहले ड्राफ्ट में नहीं है। मगर वैध नागिरकों को पहचानने के लिए कई दस्तावेज मांगे गए थे, जिनके सत्यापन में वक्त लगता है। लिहाजा जिनके पास सही दस्तावेज हैं, उन्हें देर-सवेर भारत की नागरिकता मिल ही जाएगी। लेट-लतीफी की दूसरी वजह असम को अन्य राज्यों का साथ न मिल पाना भी है। देश के दूसरे हिस्सों से आकर कई लोग यहां बसे हैं। उनके दस्तावेज को मूल राज्य में भेजा गया है, पर अब तक इनमें से करीब 20 फीसदी मामले ही निपटाए जा सके हैं। एनआरसी दूसरे राज्यों के लिए भले मायने न रखता हो, पर असम के लिए है। इसीलिए इसमें दूसरे राज्यों को भी सहयोगी रुख अपनाना होगा।

असम में अवैध बांग्लादेशी ऐसा संवेदनशील मसला है, जिसे कोई भी केंद्र सरकार हल करने से कतराती रही है। कांग्रेस ने जहां अल्पसंख्यकों का वोट हासिल करने के लिए लेट-लतीफी की, तो वहीं भाजपा का इरादा भी कुछ खास नहीं लगता। असम में लोग उस ‘नागरिकता (संशोधन) विधेयक’ को लेकर भी चिंतित हैं, जिसे लेकर केंद्र सरकार संजीदा दिख रही है। अगर इस विधेयक को मंजूरी मिल जाती है, तो पड़ोसी देशों से आए वहां के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी। इससे असम में आए अवैध हिंदू बांग्लादेशी भारत के स्वत: नागरिक बन जाएंगे। इससे जाहिर तौर पर एनआरसी का उद्देश्य बेमानी हो जाएगा, जो असम के मूल बाशिंदों के लिए किसी धक्के से कम नहीं होगा।जरूरत तमाम प्रवासियों को उनके मूल देश में ही रखने की व्यवस्था करने की है। असम विदेशी मुक्त एनआरसी की मांग कर रहा है। यह काम सरकार के स्तर पर ही हो सकता है।यहां ऐसे दुर्गम इलाके हैं, जहां बाहरी लोग आसानी से छिपे रह सकते हैं। अभी तक होता यह है कि यदि किसी अवैध नागरिक की पहचान होती है, तो पहले विदेशी ट्रिब्यूनल में उनकी पहचान कराई जाती है और फिर जरूरत पड़ने पर हाईकोर्ट में। उसके बाद ही उसे सीमा पार यानी पुश बैक किया जाता है। इस प्रक्रिया की कमजोरी यह है कि सीमा पार करने के बाद भी कई लोग वापस असम में दाखिल हो जाते हैं। कई ऐसे लोगों ने तो बाद में स्थानीय चुनाव भी लड़ा है। इस प्रक्रियागत छिद्र को भरना जरूरी है। लोकसभा चुनाव के वक्त यह वादा किया गया था कि अवैध बांग्लादेशियों के प्रति सख्त कदम उठाया जाएगा, लेकिन अब तक केंद्र सरकार ने उचित इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है। जब तक बांग्लादेश के साथ इसे लेकर कोई प्रत्यावर्तन संधि नहीं होगी, तब तक यह समस्या बनी रहेगी और असम यूं ही भीतर-भीतर खदबदाता रहेगा। साफ है, एनआरसी का तर्कसंगत नतीजा बांग्लादेश के साथ प्रत्यावर्तन संधि और नागरिकता संशोधन विधेयक पर केंद्र सरकार के रुख पर निर्भर करता है।