04-12-2023 (Important News Clippings)

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04 Dec 2023
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Date:04-12-23

 

Coal ko Uncoal, That Is the General Idea

ET Editorials

India is one of the bright spots in the global renewable and clean energy sector. Its RE portfolio is around 132 GW, with a target of 450 GW by 2030. India’s energy basket is now 43% nonfossil fuel-based, which will be ramped up to 50% by 2030. This shift is remarkable — sceptics would say ‘imaginative’ — for a country dependent on coal. Despite its RE push, however, on Saturday, India refrained from signing the pledge at COP28 in Dubai to triple the world’s current RE generation capacity to at least 11,000 GW by 2030. This stand, however, does not mean India opposes RE targets it had piloted and stated as a commitment at the G20 summit in New Delhi in September. However, the traditionally power-starved economy with an energy demand growth of 8% cannot afford to turn off the tap of its coal power units.

India has been self-financing its energy transition. In FY2020, domestic sources accounted for 83% of green finance for clean energy, transport and energy efficiency. Meeting the growing energy demand requires setting up new capacities. But India’s constrained fiscal space means it will continue to rely on the cheapest option to build. The cost of RE-plus storage is lower than coal’s. However, the cost of setting up a plant is the reverse.

Pledges, such as tripling the RE capacity, are part of the surround-sound at a UN climate conference. It is a statement of intent. There is no doubt of India’s intent. But, instead of defending coal, India must spotlight the fiscal constraints pushing it towards coal. It must also prepare granular transition plans to determine the costs and needs better. India must make clear that without financial support, the pace of transition will likely be slow, and coal will continue to be king.


Date:04-12-23

पर्यावरण अनुकूल व्यवहारों की जरूरत 

चेतनादित्य आलोक

प्रदूषण आजकल दुनिया भर में एक ज्वलंत विषय बना हुआ है। दरअसल, इसके दुष्प्रभावों से केवल मनुष्य नहीं, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों समेत जल-थल और नभ के समस्त चर-अचर प्राणियों का जीवन अब बुरी तरह प्रभावित होने लगा है। देखा जाए तो इस ब्रह्मांड को धूल, धुआं और विषैली गैसों से भरा ‘गुब्बारा’ बनाने में मनुष्य का ही हाथ है। मनुष्य अपने ही कर्मों के चलते आज प्रदूषण के क्रूर पंजों का भीषण प्रहार झेलने को विवश है। पर, बिल्कुल सहज, सरल और प्राकृतिक जीवन जीने वाले निरीह पशु-पक्षियों तथा कीट-पतंगों का भला क्या दोष, जिन्हें व्यर्थ ही प्रदूषण के भयावह परिणाम झेलने पड़ते हैं।

इसी वर्ष मार्च में थाईलैंड की राजधानी बैंकाक में केवल एक हफ्ते में दो लाख लोगों को वायु प्रदूषण के कारण सांस लेने में तकलीफ के बाद अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। वहां के ‘लोक स्वास्थ्य मंत्रालय’ के अनुसार बैंकाक की हवा में ‘पार्टिकुलेट मैटर’ यानी पीएम 2.5 कणों की मात्रा बहुत अधिक हो जाने के कारण केवल तीन महीनों में तेरह लाख लोग बीमार हुए थे। दरअसल, 2.5 माइक्रोमीटर या उससे भी छोटे आकार वाले ये बारीक कण सांस के जरिए आसानी से हमारे फेफड़ों में पहुंच और रक्त कोशिकाओं के साथ घुल-मिलकर पूरे शरीर में फैल जाते हैं। इसकी वजह से लोग घातक बीमारियों की चपेट में आने लगे हैं। अब तो उनकी जिंदगी भी छोटी होने लगी है।

पिछले वर्ष मई-जून में शिकागो विश्वविद्यालय ने सालाना ‘वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक’ यानी ‘एअर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (एक्यूएलआइ)’ जारी कर बताया था कि प्रदूषण के कारण दिल्ली के लोगों की जीवन प्रत्याशा दस वर्ष तक घट गई है। हालांकि उक्त रपट पर विश्वास नहीं होता, किंतु देखा जाए तो दिल्ली शहर ज्यादातर समय ‘गैस चैंबर’ ही बना रहता है। बहरहाल, इस रपट के मुताबिक अगर प्रदूषण के स्तर में कमी नहीं आई तो भारत, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान के नागरिकों की जीवन-प्रत्याशा में पांच वर्ष तक की गिरावट आ सकती है।

रपट के अनुसार भारत में प्रदूषण 2020 के 56.2 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से बढ़कर 2021 में 58.7 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हो गया, जो डब्लूएचओ के दिशानिर्देश पांच माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से लगभग ग्यारह गुना अधिक है। ऐसे में यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया गया तो देशवासियों की औसत आयु 5.3 वर्ष घट जाएगी, जबकि भारत के सर्वाधिक प्रदूषित उत्तरी मैदानी क्षेत्र में निवास करने वाली देश की 38.9 फीसद जनसंख्या की औसत आयु लगभग आठ वर्ष घट जाएगी। इसी उत्तरी क्षेत्र में अवस्थित सवा दो करोड़ की घनी आबादी तथा बेशुमार वाहनों के बोझ से त्रस्त दिल्ली शहर फिलहाल दुनिया का सर्वाधिक प्रदूषित शहर बना हुआ है, जिसका वार्षिक औसत वायु प्रदूषण 126.5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है। यह डब्लूएचओ के दिशा-निर्देश से पच्चीस गुना अधिक है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार नवंबर के पहले सप्ताह, यानी एक से छह-सात नवंबर के दौरान दिल्ली का एक्यूआइ 438 से लेकर 498 तक दर्ज किया गया, जो डब्लूएचओ की तय सीमा से लगभग बीस से पच्चीस गुना ज्यादा है। यानी दिल्ली का एक्यूआइ ‘अत्यधिक गंभीर’ श्रेणी में पहुंच चुका है। वहीं हरियाणा,पंजाब, पश्चिम बंगाल, बिहार, चंडीगढ़, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश की स्थिति भी इस मामले में बेहद खराब है। देश के अधिकतर शहर कमोबेश अब प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं। पिछले वर्ष मई-जून में जारी शिकागो विश्वविद्यालय के ‘वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक’ की रपट के अनुसार, अगर देश में प्रदूषण-स्तर कम नहीं हुआ, तो लगभग 51 करोड़ लोगों की आयु 7.6 वर्ष कम हो जाएगी।

दूसरी ओर, राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार प्रदूषण के कारण दिल्ली में पिछले अठारह वर्षों में कैंसर से होने वाली मौतें साढ़े तीन गुना तक बढ़ गई हैं। इसी प्रकार हाल ही में आई ‘दि लैंसेट कमीशन’ की रपट के अनुसार दुनिया में होने वाली हर छठवीं मौत प्रदूषण के कारण होती है। रपट बताती है कि 2019 में विश्व भर में लगभग नब्बे लाख लोगों की मौत प्रदूषण के कारण हुई थी, जिनमें से 66.7 लाख मौतें घरेलू और बाह्य वातावरण में मौजूद वायु प्रदूषण के कारण हुईं, जबकि जल प्रदूषण से 13.6 लाख और शीशे (लेड) से नौ लाख मौतों का अनुमान है। वहीं रोजगार स्थल पर मौजूद प्रदूषण के संपर्क में आने से दुनिया भर में 8.7 लाख मौतें हुई थीं। रासायनिक प्रदूषण की चपेट में आकर 2015 में 17 लाख, जबकि 2019 में 18 लाख मौतें हुई थीं। कमीशन की रपट में उल्लेख है कि प्रदूषण के मामले में भारत और चीन दुनिया में सबसे आगे हैं।

प्रदूषण के कारण 2019 में 24 लाख मौतों के साथ भारत सबसे ऊपर, जबकि चीन 21.7 लाख मौतों के साथ दूसरे स्थान पर था। राहत की बात है कि 2015 के 25 लाख के मुकाबले 2019 में देश में प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों का आंकड़ा घटकर 24 लाख हो गया, जबकि चीन में 2015 के मुकाबले 2019 में यह आंकड़ा 18 लाख से बढ़कर 21.7 लाख हो गया। लैंसेट की रपट के अनुसार भारत में प्रदूषण जनित बीमारियों से औसतन 6,500 मौतें नित्य होती हैं।

हाल ही में आई डब्लूएचओ की रपट ‘एयर पाल्यूशन एंड चाइल्ड हेल्थ प्रिस्क्राइबिंग क्लीन एयर’ के मुताबिक पिछले पांच वर्षों के दौरान देश में पांच वर्ष से कम आयु के मासूमों की सर्वाधिक मौतें जहरीली हवा के कारण हुई हैं। इनमें से 101,788 बच्चे केवल 2016 में मारे गए थे। रपट के अनुसार केवल खुले वातावरण के प्रदूषण से देश में प्रति घंटे लगभग सात बच्चे मरते हैं, जिनमें से आधी से अधिक संख्या लड़कियों की होती है।

‘दि लैंसेट कमीशन’ की रपट के अनुसार प्रदूषण जनित मौतों से 2019 में दुनिया को लगभग 356.66 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ, जो कुल वैश्विक आर्थिक उत्पादन का 6.2 फीसद है। प्रदूषण जनित 92 फीसद मौतों और इनसे होने वाले आर्थिक नुकसान का बोझ निम्न और मध्यम आय वाले देशों पर पड़ने के कारण उनकी स्थिति और बुरी हो जाती है। पिछले वर्ष आई ‘डलबर्ग एडवाइजर्स क्लीन एयर फंड’ तथा भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) की सम्मिलित रपट के अनुसार भारत में वायु प्रदूषण से प्रत्येक वित्तीय वर्ष में लगभग 95 अरब अमेरिकी डालर यानी सात लाख करोड़ रुपए की हानि होती है।

बहरहाल, प्रदूषण कम करने के उपायों को कमोबेश अब दुनिया के प्रमुख देश अपनाने लगे हैं, किंतु ‘दि लैंसेट कमीशन रपट’ के प्रमुख लेखक रिचर्ड फुलर का मानना है कि प्रदूषण के कारण सेहत पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर वैश्विक स्तर पर किए गए प्रयास अब भी कामयाब नहीं दिखते। हालांकि भारत सरकार प्रदूषण कम करने हेतु ‘पंचामृत सिद्धांत’ के अंतर्गत अपनी सकल ऊर्जा आवश्यकताओं का पचास फीसद नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करने के संकल्प के साथ आगे बढ़ रही है।

इसके लिए वह हाइड्रोजन नीति को बढ़ावा देने, बीएस-6 नियमों को अपनाने तथा वाहन कबाड़ नीति लागू करने जैसे कई कार्य कर रही है। मगर वास्तव में प्रदूषण का यह विकराल संकट नागरिकों के स्वस्थ और पर्यावरण अनुकूल व्यवहारों, जैसे प्राकृतिक जीवनशैली, पौधरोपण, नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग, साइकिल चलाने, पैदल चलने आदि को अपनाए बिना दूर नहीं किया जा सकता। इसलिए इस काम में प्रत्येक व्यक्ति की सीधी भागीदारी और प्रतिबद्धता सुनिश्चित करना आवश्यक है।


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