04-12-2019 (Important News Clippings)
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दुनियाभर का बदलता श्रम बाजार आईटी क्षेत्र में कम होते रोजगार
श्यामल मजूमदार
इन्फोसिस के पूर्व मुख्य वित्तीय अधिकारी मोहनदास पई ने हाल ही में यह कहकर हलचल मचा दी कि देश के सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग में 30,000 से 40,000 मझोले कर्मचारियों की नौकरी जा सकती है। हकीकत तो यह है कि इस उद्योग में आ रही परिपक्वता के बाद ऐसा आम हो जाएगा। पई फिलहाल मणिपाल ग्लोबल एजुकेशन सर्विसेज के चेयरमैन हैं। उनका यह कहना एकदम सही है क्योंकि जो लोग अपने वेतन के हिसाब से काम में उन्नयन नहीं कर रहे हैं उन्हें विकल्प तलाशने होंगे क्योंकि कंपनियों के पास लोगों की छंटनी करने और अपने आप को नए ढंग से समायोजित करने के अलावा विकल्प नहीं हैं।
हमें तकनीकी क्षेत्र की बेरोजगारी के लिए तैयार रहना होगा क्योंकि तकनीकी प्रगति कौशल, वेतन और रोजगार को गहराई से प्रभावित करेगी। उदाहरण के लिए कोडिंग संबंधी रोजगार आने वाले समय में तमाम आईटी कंपनियों में अप्रासंगिक होते जाएंगे। दुर्भाग्य तो यह है कि न तो मानव और न ही संगठन, तकनीक की दुनिया की गति से तालमेल बिठा पा रहे हैं। उदाहरण के लिए हर 18 महीने में कंप्यूटर प्रोसेसर की शक्ति दोगुनी हो जाती है जबकि हर पांच साल में ये 10 गुना तेज हो रहे हैं। तेज और सस्ते कंप्यूटर तथा कहीं अधिक ‘समझदार’ सॉफ्टवेयर मशीनों को वे क्षमताएं प्रदान कर रहे हैं जो एक वक्त इंसानों के पास होती थी। आवाज को समझना, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना और तय रुझानों को पहचानना इसका उदाहरण है।
अब जबकि यह उद्योग उच्च मूल्य सेवाएं देने पर केंद्रित हो रहा है तो आईटी कंपनियों का ध्यान भी अब बड़े आकार के बजाय छोटे लेकिन विशेषज्ञता वाले लोगों के समूह पर है। ऐसे लोग जिनके पास अपने-अपने क्षेत्र की विशेषज्ञता हो। आश्चर्य नहीं कि अब तक काम में आ रहे कॉल सेंटरों का स्थान अब सवाल जवाब वाली स्वचालित व्यवस्था ले रही है।
इन्फोसिस के पूर्व प्रबंध निदेशक विशाल सिक्का ने बहुत पहले इस खतरे के बारे में बात की थी। उन्होंने कहा था कि सबसे बड़ा खतरा स्वचालन और कृत्रिम मेधा से है जो आसानी से तकनीकी क्षेत्र के रोजगारों का स्थान ले सकती हैं। ऐसे में आगे बने रहने के लिए उन्हें मौजूदा तयशुदा काम के अलावा ग्राहकों के लिए मूल्यवर्धित काम करना होगा। सिक्का ने कहा था कि देश की सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां अगर समस्या दूर करने वाली और कम लागत पर काम करने वाली कंपनियों के रूप में सीमित रहीं तो उनका बचे रहना मुश्किल होगा।
कई अध्ययनों से पता चला है कि कृत्रिम मेधा की तकनीक अमेरिका में महज कुछ दशक के भीतर मौजूदा रोजगारों में से आधे पर कब्जा कर लेगी। यानी उत्पादन सबंधी पेशों में बहुत बड़ी तादाद में रोजगार समाप्त होंगे।
बॉस्टन कंसल्टिंग समूह का अनुमान है कि अमेरिका में प्रति घंटे एक इंसानी वेल्डर की सेवा लेना रोबोटिक वेल्डर की तुलना में तीन गुना तक महंगा पड़ सकता है। यानी कंपनियां रोजगार तो देंगी लेकिन केवल उनको जिनमें उच्चस्तरीय काम करने का कौशल हो। विश्व आर्थिक मंच ने 2018 में ‘रोजगार का भविष्य’ शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में कहा था कि रिपोर्ट में शामिल 12 उद्योगों के कुल कार्य घंटों में से औसतन 71 फीसदी मनुष्यों द्वारा किए गए जबकि 29 फीसदी मशीन द्वारा। कहा गया कि सन 2022 तक यह औसत 58 फीसदी मनुष्य और 42 फीसदी मशीन में तब्दील हो जाएगा। उदाहरण के लिए सन 2022 तक किसी संस्थान में सूचना और डेटा प्रसंस्करण तथा सूचनाओं के खोज तथा पारेषण का 62 फीसदी काम मशीनों द्वारा किया जाएगा जबकि सन 2018 में यह प्रतिशत महज 46 था।
बहरहाल कई विशेषज्ञ कहते हैं कि ये आशंकाएं गलत हैं क्योंकि तकनीक के उन्नयन के साथ लोग काम के दोहराव से बचेंगे। जब भी तकनीक में अचानक कोई बड़ा परिवर्तन आता है तो ऐसी स्थिति बनती ही है। परंतु यह भी देखा गया है कि तथाकथित नुकसान उठाने वाले नए उद्योग में कहीं न कहीं अपनी जगह बना ही लेते हैं। यह बहस चलती रहेगी लेकिन सीधा तथ्य यह है कि रोजगार चाहने वालों को अपने कौशल उन्नयन पर जम कर काम करना होगा। विशेषज्ञों का कहना है कि सन 2022 तक वैश्विक श्रम शक्ति के आधे से अधिक को कौशल में भारी सुधार की आावश्यकता होगी। कौशल संपन्न नए स्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति की संभावनाएं नया कौशल अपनाने में पीछे रह गए कर्मचारियों से तकरीबन दोगुनी हैं। जरा सोचिए भारत जैसे देशों पर इसका क्या असर होगा जहां एक करोड़ से अधिक लोग हर वर्ष रोजगार बाजार में शामिल होते हैं। विडंबना यह है कि एक ओर जहां देश की कंपनियों का आधा से अधिक शीर्ष प्रबंधन यह मानता है कि पारंपरिक रोजगार समाप्त हो जाएंगे, वहीं उनमें से एक चौथाई से भी कम ऐसे हैं जिन्होंने अपने संस्थानों में रोजगार उन्नयन या उनके स्वरूप में बदलाव के लिए कोई प्रयास किया है। जबकि यह लगभग अनिवार्य हो चुका है।
कानून नहीं, सोच में बदलाव से होगा दुष्कर्म का निदान
संपादकीय
पूरा देश नाराज है, संसद गुस्से में है और सरकार फिर एक बार ‘एक्शनमोड’ में। दिल्ली में निर्भया कांड के सात साल अब हैदराबाद की एक महिला पशु-चिकित्सक पुरुषों की इस ‘दानवता’ का शिकार हुई है। पुलिस के अनुसार दरिंदे दुष्कर्म के बाद मृत शरीर के साथ भी कई बार कुकृत्य करते रहे। पहली घटना के बाद भी कानून सख्त किया गया। इस बार भी रक्षामंत्री व गृह राज्यमंत्री इसे और सख्त बनाने का वादा कर रहे हैं। पहली सख्ती से दुष्कर्म तो रुका नहीं, बल्कि अब गैंगरेप ज्यादा होने लगे हैं। हमें समझना होगा कि दुष्कर्मी जब कुकृत्य करता है तो वह यह नहीं सोचता कि आईपीसी में सजा कितने साल की है। दरअसल, यह घृणित सोच से उपजी एक व्यक्तिगत मानसिक बीमारी है, जो प्रभावी ढंग से न रोके जाने के कारण गैंगरीन बन समाज में फैल रही है। नई तकनीक से एक 12-14 साल का बच्चा भी नेट पर वह सबकुछ देख सकता है जो उसके दिमाग को इस अपराध की ओर उन्मुख करे। कुछ वर्षों पूर्व की लांसेट की एक रिपोर्ट बताती है कि एशियाई देशों के पुरुष समाज की सोच में ही समस्या है, जिसमें 70 प्रतिशत दुष्कर्मी इस किस्म के घृणित काम को अपना अधिकार मानते हैं और उनमें 50 फीसदी दुष्कर्म के बाद भी खुद को अपराधी नहीं मानते। जब तक माता-पिता, परिवार, धर्मगुरु, शिक्षक और सभी सामाजिक संगठन जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसके लिए नई क्रांति के भाव से काम नहीं करेंगे, यह बीमारी फैलती जाएगी। संघ एक बेहद सक्षम, सामाजिक स्तर पर स्वीकार्य और व्यापक संस्था है। इसके तमाम प्रकल्प उत्थान के अनेक प्रयास कर रहे हैं। लेकिन, अब समय आ गया है नए दौर और तकनीक के कुप्रभाव में विलुप्त हो रही नैतिकता को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए सीधे तौर पर प्रकल्प बनाया जाए। यहां तक कि मां-बाप या चाचा जैसी संस्थाएं जो एक जमाने में युवाओं को बहकने से बचाने में पुलिसिंग का काम करती थीं, वे भी अब इसमें दिलचस्पी नहीं दिखातीं कि रोजाना पढ़ने की जगह किशोर क्यों मोबाइल पर लगा रहता है। चूंकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जन-स्वीकार्यता अभी भी बनी हुई है, लिहाज़ा उन्हें भी अपने उद्बोधनों में इसे व्यापक रूप से शामिल करना होगा। एक ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने अभिभावकों को कहा था कि वे शाम को बेटी कहां जा रही है, इसकी चिंता तो करते हैं, लेकिन बेटा क्या कर रहा है यह चिंता उन्हें नहीं रहती।
Date:04-12-19
इंटरनेट का नियमन 1885 के कानून से क्यों ?
ऑनलाइन जासूसी से जनता के जीवन और निजता की सुरक्षा के लिए प्रभावी कानूनी तंत्र बनाए सरकार
विराग गुप्ता , सुप्रीम कोर्ट के वकील
वाट्सएप के बाद अब गूगल के माध्यम से भी जासूसी के खुलासे से भारत में असुरक्षा की स्थिति बन रही है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्रीकृष्णा ने कहा है कि इंटरनेट कंपनियों ने जॉर्ज ऑरवेल के बड़े भाई की तरह देश में निगरानी तंत्र बना लिया है। जस्टिस श्रीकृष्णा की टिप्पणी का बहुत महत्व इसलिए है, क्योंकि उनकी रिपोर्ट और सर्वोच्च न्यायालय के नौ जजों के फैसले के बावजूद केंद्र सरकार ने डाटा सुरक्षा के लिए प्रभावी कानून नहीं बनाया है। दस साल पहले भारत में वाट्सएप का किसी ने नाम भी नहीं सुना था और अब गांव से लेकर शहर तक यह हर जगह व्याप्त है। वाट्सएप न तो सरकार को कोई फीस देता है और न ही जनता से कोई पैसा लेता है। इसके बावजूद टेलीकॉम कंपनियों का नेटवर्क जहां नहीं पहुंचता, वहां पर वाट्सएप के माध्यम से लोग संपर्क कर लेते हैं।
वाट्सएप को पांच साल पहले फेसबुक ने 19 अरब डॉलर में ख़रीदा था। निःशुल्क सेवा देने वाले वाट्सएप ने भारत में आम चुनावों के पहले पांच महीनों में सिर्फ विज्ञापनों पर ही लगभग 120 करोड़ से ज्यादा रकम खर्च की थी। लेकिन, वाट्सएप ने भारत में जो कंपनी बनाई है, उसका इस साल का मुनाफ़ा सिर्फ 57 लाख रुपए है। वाट्सएप और इंस्टाग्राम के स्वामित्व को हासिल करके फेसबुक ने भारत की आधी आबादी और सभी सरकारों के डाटा पर कब्ज़ा कर लिया है। भारत के डाटा को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में नीलाम करके फेसबुक ने भारतीयों को तांक-झांक और जासूसी की जलालत झेलने को मजबूर कर दिया।
इंटरनेट देशों के भूगोल से भले ही परे हो, लेकिन अधिकांश इंटरनेट कंपनियों का नियंत्रण अमेरिका के पास है। इंटरनेट कंपनियों के माध्यम से विश्व व्यापार के साथ सूचना तंत्र पर नियंत्रण, अमेरिकी नवसाम्राज्यवाद का सबसे बड़ा एजेंडा है, जिसका सामरिक आयाम जासूसी है। अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के पूर्व अधिकारी एडवर्ड स्नोडेन ने इंटरनेट कंपनियों और अमेरिकी खुफिया संगठनों की सांठगांठ से चल रहे ऑपरेशन ‘प्रिज्म’ का 6 साल पहले खुलासा किया था। इन ताकतवर कंपनियों का तो कुछ भी नहीं बिगड़ा पर स्नोडेन निर्वासित होकर अब दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। प्रिज्म के तहत भारत के निजी और सरकारी क्षेत्र की छह अरब से ज्यादा सूचनाओं को नौ इंटरनेट कंपनियों ने अमेरिका में साझा किया था। इसके बावजूद पूर्ववर्ती यूपीए सरकार और बाद में एनडीए सरकार ने इन कंपनियों के खिलाफ कोई भी आपराधिक कारवाई नहीं की।
भारत समेत विश्व के अनेक देशों में वाट्सएप के माध्यम से जासूसी के लिए इजराइल के पेगासस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल हुआ। शुरू में इक्का-दुक्का नामों का खुलासा होने के बाद भारत में जासूसी से पीड़ित लोगों की संख्या 121 से ज्यादा हो गई है। संसद में बहस के दौरान सरकार ने गोलमोल जवाब देते हुए, इस मामले से पल्ला झाड़ लिया है। कानून और आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पीड़ित लोगों को पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की सलाह दी है। आईटी कानून के अनुसार ऐसे मामलों में दोषी लोगों को तीन साल तक की सजा और पांच लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। पीड़ितों द्वारा जासूसी के खिलाफ पुलिस में यदि शिकायत दर्ज भी कराई जाए, तो विदेशी कंपनियों को भारत में जांच के लिए कैसे बुलवाया जा सकेगा और दोषी लोगों को दंड देने के लिए सबूत कहां से आएंगे? केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों पर बेहतर नियंत्रण के लिए नए कानून का मसौदा पिछले साल जारी किया था। फेक न्यूज़ और लिंचिंग की घटनाओं में बढ़ोतरी के बाद आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने वाट्सएप समेत सभी कंपनियों को भारत में कार्यालय खोलने और शिकायत अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश भी दिया था। वाट्सएप ने न तो भारत में अपना प्रभावी ऑफिस बनाया और न ही शिकायत अधिकारी नियुक्त किया। केंद्र सरकार ने गूगल और कैंब्रिज एनॉलिटिका मामले में सीबीआई जांच के आदेश दिए थे तो अब वाट्सएप को सिर्फ माफ़ीनामे से क्यों बरी किया जा रहा है ?
भारत में टेलीग्राम की व्यवस्था बहुत पहले खत्म हो गई है, लेकिन इंटरनेट कंपनियों का नियमन और संचालन अभी भी सन 1885 के टेलीग्राफ कानून से हो रहा है। जब संविधान बना, उस समय इंटरनेट और कम्प्यूटर नहीं थे, इसलिए इस बारे में राज्यों के पास कोई भी अधिकार नहीं होना संघीय ढांचे के लिए भी चिंताजनक है। राज्यों में स्थानीय प्रशासन धारा 144 के तहत इंटरनेट भले ही बंद कर दे, परंतु इंटरनेट कंपनियों और एप्स पर नियमन और कार्रवाई के लिए सिर्फ केंद्र सरकार के पास ही अधिकार हैं। मोबाइल फोन के पहले परंपरागत टेलीफोन व्यवस्था में जासूसी को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1996 में पीयूसीएल मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया था। ई-मेल, मोबाइल और इंटरनेट की नई दुनिया में जासूसी रोकने के पुराने कानून और न्यायिक व्यवस्था अब अर्थहीन हो गई है। भारत में परंपरागत अपराधों से निपटने के लिए पुलिस के पास बल और संसाधन नहीं है और अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमों की भरमार है। विधि का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि ‘जो करे सो भरे’। विदेशी इंटरनेट कंपनियां भारत में घास खाकर अमेरिका और आयरलैंड में दूध दे रही हैं। डिजिटल इंडिया के प्रसार के साथ अब इंटरनेट कंपनियों पर लगाम के लिए बड़े जुर्माने और कठोर सजा की व्यवस्था बने तो ऐसे मामलों पर रोक लग सकेगी। संविधान की 70वीं जयंती पर आम जनता को संवैधानिक कर्तव्यों का बोध कराने के लिए सरकार बड़े अभियान चला रही है। इंटरनेट कंपनियों की जासूसी से जनता के जीवन और निजता की सुरक्षा के लिए प्रभावी कानूनी तंत्र बनाने की जिम्मेदारी भी तो सरकार और संसद की है। जासूसी कांड से जल्द सबक लेकर इंटरनेट कंपनियों की व्यवस्था को भारत में जवाबदेह बनाना ही होगा।
Date:04-12-19
शहरी प्राथमिक हेल्थ सेवा को संजीवनी की जरूरत
शुगर व बीपी जैसी बीमारियों की वजह से लोगों की जरूरत बन रहे ‘मोहल्ला क्लीनिक’
डॉ चंद्रकांत लहारिया , नेशनल प्रोफेशनल ऑफिसर डब्ल्यूएचओ
पिछले दिनों मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य के शहरी क्षेत्रों में ‘संजीवनी क्लीनिक’ शुरू करने की घोषणा की। राज्य सरकार ने कहा है कि ये क्लीनिक दिल्ली के बहुचर्चित मोहल्ला क्लीनिक से प्रेरित हैं। मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री ने घोषणा की है कि शुरुआत में संभागीय मुख्यालयों इंदौर, भोपाल, जबलपुर एवं ग्वालियर में कुल 88 ‘संजीवनी क्लीनिक’ खोले जाएंगे। 50 से 60 हज़ार की आबादी पर एक क्लीनिक होगा। यह घोषणा एक अच्छी शुरुआत मानी जा सकती है। जुलाई 2015 में दिल्ली में ‘मोहल्ला क्लीनिक’ की शुरुआत के बाद इसकी तर्ज पर कई राज्यों ने क्लीनिक शुरू करने कि घोषणा की। इनमें से मुख्य हैं: तेलंगाना में ‘बस्ती दवाखाना’, झारखंड में ‘अटल क्लीनिक’, राजस्थान में ‘जनता क्लीनिक’, मुंबई में ‘आपला क्लीनिक’ तथा केरल में ‘फैमिली एंड हेल्थ सेंटर’। इसके अलावा जम्मू और कश्मीर, पंजाब, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ एवं कुछ अन्य राज्यों ने भी शहरी क्षेत्रों में आम जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान के लिए इस तरह के क्लीनिक शुरू करने की घोषणा की। नवंबर के अंतिम सप्ताह तक दिल्ली में करीब 311 मोहल्ला क्लीनिक और हैदराबाद में करीब 115 बस्ती दवाखाना हैं।
भारत की लगभग एक तिहाई जनसंख्या यानी करीब 40 करोड़ से अधिक लोग शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। अधिकतर सरकारी अस्पताल शहरों में होते हैं, लेकिन लोगों की सामान्य स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के लिए अस्पताल की बजाय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की जरूरत होती है। देश के शहरी इलाकों में स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है। ऊपर से शुगर एवं ब्लड प्रेशर की बीमारियों ने इस जरूरत को और बढ़ा दिया है। भारत के 71वें राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि जिन लोगों को स्वास्थ्य संबंधी सलाह की जरूरत थी, उनमें से केवल 3.5 प्रतिशत लोग ही किसी सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र गए थे। इस जरूरत को पहचाना गया और 2013 में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत की गई और हर 50 हजार की आबादी के लिए एक शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का प्रावधान किया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का प्रावधान हर 20 से 38 हज़ार की आबादी पर है। तब से अब तक कई नए शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोले तो गए, लेकिन ज्यादातर राज्यों में लोग इन केंद्रो पर नहीं आते हैं। कारण अलग-अलग होते हैं, जैसे कि डॉक्टर और दवाइयों की अनुपलब्धता, सेवाएं मुख्यतः जच्चा-बच्चा के लिए होना या इनकी दूरी।
दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक में एक डॉक्टर, एक नर्स कम फॉर्मासिस्ट और एक सहायक होता है और एक क्लीनिक हर 10 हज़ार की आबादी पर खोले जाने का प्रस्ताव है। यानी मोहल्ला क्लीनिक में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता वर्तमान प्रावधान से 5 गुना अधिक है। मोहल्ला क्लीनिक वास्तव में ऐसी जगह पर खोले गए हैं, जहां पहले कोई अन्य स्वास्थ्य केंद्र नहीं है, जैसे कि झुग्गी-झोपड़ी कॉलोनी, ऐसी बस्तियां, जहां बाहर से आए लोग रहते हैं। क्लीनिक की जगह का चुनाव भी लोगों के साथ मिलकर किया गया है। यही सब इनकी लोकप्रियता एवं सफलता के कारण हैं।
अब तक मोहल्ला क्लीनिक का सबसे सफल अनुकरण तेलंगाना में बस्ती दवाखाना के रूप में किया है, बल्कि कुछ मामलों में हैदराबाद के क्लीनिक दिल्ली से कुछ कदम आगे हैं। हैदराबाद में बस्ती दवाखाना वहां के नगर निगम की पहल पर शुरू किए गए और राज्य सरकार इसमें पूरी भागीदारी निभा रही है। इस नजर से हैदराबाद के बस्ती दवाखाने अपने आप में एक बड़ी पहल एवं शुरुआत हैं। मोहल्ला क्लीनिक मुख्य रूप से बीमारियों से जुड़ी हुई चिकित्सा सेवा प्रदान करते हैं, जबकि बस्ती दवाखाना जनस्वास्थ्य (बीमारियों की रोकथाम एवं स्वास्थ्य संवर्धन) सेवाएं भी प्रदान करते हैं। एमपी सरकार की संजीवनी क्लीनिक की घोषणा एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन इसे हर 10 से 20 हजार की आबादी में स्थापित किया जाना चाहिए। मप्र के पास एक और सुनहरा मौका है, राज्य में स्वास्थ्य के अधिकार पर भी चर्चा चल रही है, इसलिए ‘संजीवनी क्लीनिक’, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने का एक पूरक कदम होगा। यह उत्तर भारत के अन्य राज्यों के लिए भी एक प्रेरणा साबित हो सकता है, लेकिन यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि आने वाले महीनों में राज्य में कितने ‘संजीवनी क्लिनिक’ बनाए जाते हैं।
स्त्री का भय
संपादकीय
इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि हमारे देश में विकास के नारे के बीच बड़ी तादाद में महिलाएं खुद को, अमूमन हर जगह, असुरक्षित महसूस करती हैं। वे शायद ही कोई ऐसी जगह पाती हैं, जहां इस बात को लेकर आश्वस्त हों कि उनके खिलाफ कोई आपराधिक घटना नहीं होगी। खासतौर पर वे यौन हिंसा की प्रकृति की घटनाओं के खौफ से लगातार खुद को घिरी पाती हैं। यों यह एक आम और त्रासद हकीकत है, जिस पर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति गौर कर सकता है, लेकिन अक्सर इस सामाजिक पहलू पर होने वाले अध्ययनों की रिपोर्टों में यही तथ्य उभर कर सामने आता है। इसी क्रम में सामाजिक उद्यम ‘सेफ्टीपिन’, सरकारी संगठन कोरिया इंटरनेशनल कॉरपोरेशन एजेंसी और एक स्वयंसेवी संगठन एशिया फाउंडेशन के संयुक्त अध्ययन में एक बार फिर यही विडंबना दर्ज हुई है कि देश के कई शहरों में महिलाएं लगातार खुद को भयग्रस्त पाती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक भोपाल, ग्वालियर और जोधपुर में करीब नब्बे फीसद महिलाएं सुनसान और खाली इलाकों की वजह से खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। खासकर अविवाहित महिलाओं और छात्राओं को यौन हिंसा का खतरा ज्यादा है।
हालत यह है कि करीब दो तिहाई महिलाएं सार्वजनिक परिवहन की खाली या कम लोगों को ले जाती गाड़ियों में सफर करने से डरती हैं या सुरक्षा इंतजामों की कमी की वजह से वे लगातार एक आशंका से घिरी रहती हैं। लगभग छियासी फीसद महिलाएं आसपास शराब या दूसरे नशीले पदार्थों की बिक्री से असुरक्षित महसूस करती हैं। आखिरकार ये कमियां किसकी लापरवाही से मौजूद हैं? विचित्र है कि महिलाओं को घूरने, पीछा करने, फब्तियां कसने और गलत तरीके से छूने जैसी घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इन्हें यौन उत्पीड़न के मामलों में गंभीर प्रकृति का नहीं माना जाता है। जबकि शुरुआती तौर पर घटने वाली ऐसी ही घटनाओं की अनदेखी और उनसे निपटने में बरती जाने वाली लापरवाही के बाद अपराधी प्रवृत्ति वालों का मनोबल बढ़ता है। यह बलात्कार या यौन हिंसा की बड़ी वजह है। इसके अलावा, घर की दहलीज से बाहर घटने वाली ऐसी घटनाओं के समांतर महिलाओं के लिए घर की चारदिवारी भी कितनी सुरक्षित है, यह सभी जानते हैं। इस मसले पर भी अनेक अध्ययनों में बताया गया है कि महिलाओं और बच्चियों के यौन उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में आरोपी उनका कोई परिचित, यहां तक कि संबंधी भी होता है।
हाल ही में हैदराबाद की घटना के अलावा ऐसी तमाम घटनाओं ने देश भर में लोगों के भीतर आक्रोश पैदा किया है। दूसरी ओर, सरकारें अक्सर यह दावा करती रहती हैं कि कानून-व्यवस्था और सुरक्षित माहौल मुहैया कराने के मोर्चे पर कोई कमी नहीं की जाती है। लेकिन अगर यह दावा सच है तो ऐसा क्यों है कि सौ में नब्बे महिलाओं को लगभग हर वक्त खौफ से गुजरना पड़ता है। सवाल है कि जब पितृसत्तात्मक मानसिकता से लैस पुरुषों का एक बड़ा हिस्सा अपनी यौन कुंठा की वजह से कभी भी यौन हिंसा या उत्पीड़न करने को तैयार रहता है, तो ऐसी स्थिति में महिलाएं खुद को कैसे सुरक्षित महसूस करें? निश्चित रूप से सख्त कानूनी व्यवस्था और समयबद्ध न्यायिक प्रक्रिया ऐसे अपराधों पर लगाम लगाने का एक सबसे जरूरी हिस्सा हैं। लेकिन जब तक सामाजिक विकास नीतियों और उनमें समाज को पितृसत्तात्मक मूल्यों से मुक्ति के सूत्रों को प्रमुखता नहीं दी जाएगी, तब तक स्त्री के लिए अपने आसपास की दुनिया खौफ ही पैदा करेगी
A Judicious Balance
Supreme Court’s recent judgments reaffirm its role as a vigilant monitor
Soli J. Sorabjee , [ The writer is a former attorney general of India. ]
One may criticise our Supreme Court for some of its judgments, but no person can describe it as a passive judiciary. The recent judgments of the Court clearly portray it as an active, rather an overactive judiciary.
No one can claim unrestricted entry to any temple or religious institution or a public meeting. A person with proven criminal antecedents may be rightly denied entry. But, surely, it is irrational to deny entry to a certain class of citizens, for example, women, because of a natural physical phenomenon like menstruation. Menstruation is not a crime. This practice, prevalent at the Sabarimala temple in Kerala, ignited the jurisdiction of our Supreme Court which battled with this issue, and occasioned the dissenting judgment of Justice Indu Malhotra.
Lengthy and erudite arguments were advanced by parties who championed a woman’s right of entry based on the guarantees of equality and prohibition of discrimination inter alia on the ground of sex. Parties supporting the no-entry practice relied on Article 25 which guarantees the right to practise and profess religion. They overlooked that this Article is “subject to other provisions of the Constitution”. In other words, subject to Articles 14 and 15, which prohibit discrimination inter alia on grounds of gender.
Another argument was the right of the “Deity” Ayyappa, who is believed to be in disfavour of the entry of women of certain ages in a temple and whose divine right, it is argued, should be respected.
Ordinarily, the Supreme Court judgment should finally settle any controversial issue, but not in our country. This is evident from the heated debates on the issue on TV channels and in public meetings. Interestingly, many women support the no-entry rule, not on legal or constitutional grounds, but on the misconception that a menstruating woman is not “clean” and, therefore, allowing her to enter the temple would be a desecration of a holy place. To keep the pot boiling, the issue has been referred to a larger bench of seven judges. It is debatable whether the seven judge bench judgment will finally put a lid on the matter. The real remedy would be to cleanse the minds of the supporters of no-entry to women doctrine.
The Rafale case is another instance worth noting. The Supreme Court dismissed the review petitions filed against its previous order, which found nothing wrong with the Rafale transaction. This has not excited the public. What has is the Supreme Court’s dismissal of the contempt petition against Rahul Gandhi for him attributing his comment — “chowkidar chor hai” — to the Court itself. Rahul Gandhi tendered an unconditional apology, which was accepted, but with a strong warning to him to be careful in the future. I think Rahul Gandhi was dealt with leniently. He is an influential political leader who should not make statements which are untrue and betray disrespect for the Court.
Another Supreme Court judgment which has hit the headlines is its decision to uphold the Karnataka Speaker’s orders disqualifying 17 defectors. The Supreme Court, however, quashed the Speaker’s order to the extent that it prevented the disqualified candidates to contest elections till 2023. The Court’s exposition of the law relating to the inter-play between resignation and defection is welcome.
It ruled that the resignation does not take away the effect of a prior act that incurs disqualification. The Supreme Court made instructive observations about the role and function of the Speaker in dealing with cases of disqualification of a candidate on the grounds of defection. It ruled that Speakers are not given a free pass to sit on resignation letters indefinitely. Once it is demonstrated that a member is willing to resign out of his free will, the Speaker has no option but to accept the resignation. The Speaker is not empowered to consider the motives and circumstances whenever a resignation letter is submitted. The Supreme Court deplored that Speakers sometimes tend not to be neutral.
Hopefully, Speakers will pay serious heed to the Court’s observations. When the anti-defection law was enacted in the Tenth Schedule of the Constitution, it was believed that the vice of defection would be effectively curtailed. Regrettably, subsequent developments have belied the hope. The remedy lies not so much in amending the law or introducing fresh legal provisions, but in arousing the conscience of every honest citizen to reject the defector at the poll booth.