04-06-2025 (Important News Clippings)

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04 Jun 2025
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Date: 04-06-25

Factory Factor

Manufacturing growth isn’t keeping up with GDP growth, indicating a problem that needs fixing

TOI Editorials

Taiwan, less than 0.4% the size of China, ensures its safety by making 90% of the world’s high-end chips. It’s indispensable, hence untouchable in a good way. That’s the power of manufacturing. So, when you read India’s GDP data for Jan-March, pay attention. The good news is that growth accelerated to 7.4%, better than China’s 5.4% in the same quarter. But most of it happened in construction, especially govt-funded projects. Manufacturing grew at a modest 4.8% despite govt’s PLI schemes for sectors like electronics and solar equipment, and the front-loading of orders by US importers anticipating Trump tariffs. Apple alone lifted five plane-loads of iPhones in the last week of March.

We are now in the third month of this fiscal’s first quarter, an d given the global un certainty, it’s time to assess manufacturing as a national priority. On paper, it has been govt’s focus for years, yet its share in GDP is stagnant – 15% in 2014, 17% now. Govt’s 25% target remains elusive. In China, despite its 4.5x larger economy and five years of “China+1” sourcing policies, manufacturing accounts for 26% of GDP.

India’s GDP is projected to grow at 6.5% t his fiscal, wellbelow the asking rate of 8% for reducing poverty. Manufacturing is key to the required quantum leap. It’s a political necessity to employ youth that GCCs and other white-collar operation s can’t absorb. After Op Sindoor, it’s also a security imperative. A nation of 1.4bn should be making its own drones, planes and missile shield.

But assembling iPhones is only a step, not a goal, because it does not giv e us Taiwan-like manufacturing clout. We need more foreign investment, but also domestic R&D to get ahead in emerging technologies. PLIs won’t get us there – half of India’s phone-making capacity is unutilised. Tamil Nadu, the lone state where 25% of GSDP comes from manufacturing, got there by actively fulfilling industry needs of manpower, regulation and infra. If TN can do it, so can Gujarat, Maharashtra, UP and others. What’s needed is political will.


Date: 04-06-25

मैन्युफैक्चरिंग में पिछड़ना हमारे लिए चिंताजनक

संपादकीय

एनएसओ द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2024-25 में आर्थिक विकास दर 6.5% रही। यह चार साल में सबसे कम है, लेकिन चीन, इंडोनेशिया, ब्राजील, अमेरिका, मैक्सिको, यूके और फ्रांस से ज्यादा है। चूंकि भारत की प्रति व्यक्ति आय इन सभी देशों से बहुत कम है, लिहाजा हमें उनसे विकास दर की तुलना करने की जगह यह देखना होगा कि चार साल में यह सबसे कम क्यों रहा। अर्थव्यवस्था के सभी आठ सेक्टरों में केवल तीन- कृषि, खनन और निर्माण ने ही पिछले वर्ष के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है। कृषि विकास दर पिछले साल के 0.9 से उछलकर 5.4% तक पहुंची, जिससे कुल विकास दर में वृद्धि हुई। अब सरकार की चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि मैन्युफैक्चरिंग की विकास दर पिछले साल के मुकाबले लगभग एक-तिहाई क्यों रह गई, जबकि बिजली की विकास दर 8.8 से घटकर 5.4% हो गई। अन्य तीन सेक्टर्स भी पिछड़े। भले ही वित्त मंत्री कहें कि पिछले चार साल से लगातार भारत दुनिया के मुल्कों में सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज करता रहा है लेकिन अगर मैन्युफैक्चरिंग की विकास दर इतनी गिरे तो योजनाकारों की चिंता उन कारणों को जानने की होनी चाहिए कि औपचारिक रोजगार देने वाला और भारत की इकॉनोमी की रीढ़ रहा यह सेक्टर ढलान पर क्यों है? चिंता इस पर भी करनी होगी कि आंकड़ों में अनौपचारिक सेक्टर्स- खासकर कृषि और अनपेड फैमिली वर्क में युवाओं को रोजगार प्राप्त बताने से सच नहीं छुप जाता है।


Date: 04-06-25

देश की प्रगति केवल जीडीपी से ही नहीं मापी जा सकती

कौशिक बसु, ( विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट )

किसी देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति का वर्णन करना जटिल कार्य है । अतीत में विद्वानों ने इस पर किताबें लिखी हैं कि क्या किसी कालखंड में एक देश दूसरे से बेहतर प्रदर्शन कर रहा था या नहीं। लेकिन आज एक ही युक्ति तमाम तरह की चर्चाओं पर हावी हो गई है और उसका नाम है- जीडीपी य ह एक वर्ष में किसी देश के भीतर उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के कुल मूल्य को बताती है। कुछ समायोजनों के साथ यह आबादी की कुल आय का भी अनुमान लगाती है। यह एक बेहद संक्षिप्त मीट्रिक है, जिसका उपयोग किसी देश की आर्थिक सेहत जांचने के लिए किया जाता है।

जैसा कि डायने कोयल ने जीडीपी के इतिहास पर अपनी 2014 में प्रकाशित किताब में उल्लेख किया है, इसका उद्भव आर्थिक नीति निर्माण में एक महत्वपूर्ण क्षण था। 1930 के दशक की शुरुआत में साइमन कुजनेट्स द्वारा विकसित जीडीपी की युक्ति ने नीतिगत बहसों में जरूरी ठोसपन ला दिया। अब राजनेताओं को आर्थिक प्रगति के सबूत के तौर पर सिर्फ ऊंची इमारतों की ओर इशारा करने की जरूरत नहीं थी (हालांकि कई अभी भी ऐसा करते हैं!), अब किसी भी देश के आर्थिक प्रदर्शन का आकलन करने का मतलब बन गया है उसकी जीडीपी वृद्धि को ट्रैक करना ।

निश्चित रूप से, राष्ट्रीय कल्याण का आकलन करने के अन्य तरीके भी हैं, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक और विश्व बैंक का साझा समृद्धि संकेतक । लेकिन जब यह निर्धारित करने की आती है कि क्या एक अर्थव्यवस्था दूसरे से बेहतर प्रदर्शन कर रही है, तो जीडीपी (या प्रति व्यक्ति जीडीपी) आज भी एक डिफॉल्ट बेंचमार्क बनी हुई है।

लेकिन जहां जीडीपी ने आधुनिक अर्थशास्त्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं इसकी सीमाओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता। राजनेता विकास के आंकड़ों का उपयोग सामाजिक और आर्थिक समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए करने लगे हैं। जीडीपी – केंद्रित नीतिगत सोच की कमियों की ओर संयुक्त राष्ट्र की 2021 की रिपोर्ट ‘अवर कॉमन एजेंडा’ में तब ध्यान खींचा गया था, जब वैश्विक नीति निर्माताओं से मानव विकास के संकेतकों के व्यापक पहलुओं को अपनाने का आग्रह किया गया था।

जीडीपी किसी देश की कुल आय पर ध्यान केंद्रित करके समृद्धि का भ्रम पैदा कर सकती है, जबकि हकीकत यह हो सकती है कि वहां आर्थिक असमानता बढ़ रही हो। किसी देश की प्रति व्यक्ति जीडीपी तब भी बढ़ सकती है, जब उसकी बहुसंख्यक जनता बदतर स्थिति में हो। जैसा कि जोसेफ ई. स्टिग्लिट्ज ने अपनी 2010 में प्रकाशित पुस्तक ‘फ्री-फॉल’ में लिखा है, एक बड़े केक का मतलब यह नहीं कि हर किसी को उसका बड़ा टुकड़ा मिलेगा।

जीडीपी को जरूरत से ज्यादा महत्व देना लोकतांत्रिक शासन को भी कमजोर करता है। आखिरकार, सुपर रिच होने का मतलब सिर्फ ज्यादा कारें, मकान, विमान होना ही नहीं है। इसका मतलब लोगों की सोच पर असंगत प्रभाव होना भी है।

जैसे-जैसे पैसा चंद हाथों में केंद्रित होता जा रहा है, मुट्ठी भर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म यह तय करने लगे हैं कि असंख्य यूजर्स क्या देखें और सुनें। लोगों को लग रहा है कि वे अपनी आवाजें खो रहे हैं। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज लुईस बैंडिस ने कहा था, देश में लोकतंत्र हो सकता है, या बहुत सारी संपत्ति कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो सकती है। पर दोनों चीजें एक साथ नहीं हो सकतीं।

सबसे आखिरी बात, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली और जलवायु परिवर्तन को गति देने वाली गतिविधियों में शामिल होकर जीडीपी वृद्धि को बढ़ावा दिया जाता है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप हमारे वंशजों को एक नष्ट हो चुकी धरती मिलेगी। एक सस्टेनेबल भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए हमें आर्थिक कल्याण को मापने के अपने उपायों में सुधार करना चाहिए।


Date: 04-06-25

चीन का सामान भले उपयोग ना करें, पर उससे सीखें जरूर

अभय कुमार दुबे, ( अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर )

1962 के युद्ध में हुई पराजय की कड़वी यादें हमें आज भी बेचैन करती हैं। उसके बाद से भी कई बार अपनी विस्तारवादी हरकतों के जरिए चीन ने इस कड़वाहट को बढ़ाया है। हाल ही में हमसे हुए संघर्ष में जो हथियार पाकिस्तान ने इस्तेमाल किए थे, उनमें से 80% चीन से आए थे। क्या यह बात ताज्जुब में नहीं डालती कि हमारी देशभक्ति और राष्ट्रवाद को इतनी ठेस लगाने के बावजूद आम भारतवासी पर चीनी माल न खरीदने की अपील का कोई उल्लेखनीय असर नहीं दिखाई पड़ता। यह विरोधाभास हमें चीन की लगातार बढ़ती हैसियत के कारणों पर गौर करने की तरफ ले जाता है। इन कारणों का ताल्लुक इतिहास से भी है। जोसेफ नीम नामक एक मशहूर विद्वान ने 1954 से 2008 के बीच में रची अपनी 27 खंडों की रचना साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चाइना में दिखाया है कि ईसा पूर्व पहली सदी से लेकर अगली 15 सदियों के बीच चीनी विज्ञान, प्रौद्योगिकी और सभ्यता पश्चिम से बहुत आगे थी। मानवीय जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के मामले में भी चीन का मुकाबला इस दौर का पश्चिम नहीं कर सकता था। नीम के अनुसार चीन की यह श्रेष्ठता उसकी साम्यतिक-सामाजिक विशेषताओं का परिणाम थी।

16वीं सदी से अगर हम सीधे 20वीं और 21वीं सदी में छलांग लगाएं तो हमें दिखाई पड़ता है कि चीन ने पिछले 75 साल में अपनी विशाल आबादी को सौ फीसदी शिक्षित करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर निवेश किया है। चीन की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता इस समय पश्चिम की उच्च शिक्षा से कहीं भी उन्नीस नहीं है। ज्ञान के अधिकतर क्षेत्रों में चीनी भाषा में लिखे शोध-आलेख न केवल संख्या में सबसे अधिक हैं, बल्कि सारी दुनिया में उन्हें सर्वाधिक उद्धृत किया जाता है। ऑस्ट्रेलियन स्ट्रैटेजिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट के मुताबिक चीन 2019 से 2023 के बीच 64 प्रमुख तकनीकों में से 57 में अमेरिका से आगे निकल गया है। चूंकि ट्रम्प ने अमेरिका में रिसर्च फंडिंग में कटौती कर दी है, और वहां गैर- अमेरिकी मूल के अनुसंधानकर्ताओं को नौकरियों से हटाया जा रहा है, इसलिए चीन बाकी में भी आगे निकल जाएगा।

दुनिया में सबसे ज्यादा इंडस्ट्रीयल रोबोट चीन में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। क्वांटम कंप्यूटिंग, जीन एडिटिंग और नई दवाएं खोजने में वह बहुत आगे है। पिछले साल दिसम्बर में चीन ने एंटीमनी, गैलियम और जर्मेनियम जैसे सुपरहार्ड पदार्थों को अमेरिका भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया, ताकि अमेरिका को उनका लाभ न मिल सके। इनके बिना अत्याधुनिक चिप और मशीनें नहीं बनाई जा सकतीं। अस्सी के दशक में ही चीन ने तय कर लिया था कि वह विदेशी पूंजी और उद्योग के लिए अपने दरवाजे तभी खोलेगा, जब उसे ठोस फायदा (तकनीक और विज्ञान हासिल करने के सौदे के रूप में) होगा। जबकि भारत अभी तक राफेल बनाने वाली फ्रांसीसी कम्पनी से इस विमान का सोर्स कोड हासिल नहीं कर पाया है। चीन ने अपने निजी क्षेत्र को नए आविष्कारों के लिए प्रोत्साहित किया और निर्यात से मिलने वाले अतिरिक्त मुनाफे को इंफ्रास्ट्रक्चर में लगाया। इस तरह उसने उच्च, मध्यम और निचले स्तर के कारखाना निर्माण में क्रांति कर डाली। चीन किसी को पसंद हो या न पसंद हो, उसके माल के बिना किसी का काम नहीं चलने वाला है।

भारत की चीन से नाराजगी जायज है। दुनिया के मंच पर भारत को चीन से भिड़ना होगा। लेकिन अपनी शिक्षा व्यवस्था का हुलिया दुरुस्त करने, पश्चिम से सौदा करने के मामले में अपने हित का ध्यान रखने और निजी क्षेत्र को रिसर्च – डिवलेपमेंट में लगाने के मामले में उसे चीन से सीखना होगा। यह एक दूरगामी प्रोजेक्ट है। चीन की मौजूदा सफलता पिछले पचास साल की कोशिशों का संचित परिणाम है। भारत को भी अपनी बड़ी आबादी को चीन की तरह लाभ में बदलना होगा।


Date: 04-06-25

मौजूदा दौर की एक नई महामारी बनती जा रही है फेक न्यूज

नंदितेश निलय वक्ता, ( एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक )

आज हम ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां हर दूसरे दिन हमें सत्य के नए रूप का सामना करना पड़ रहा है। चाहे वह घर हो, दफ्तर या अन्य कोई जगह। कई बार यह सत्य बड़ा झूठ साबित हो जाता है, और जब तक हम संभलें, तब तक एक दूसरी फेक न्यूज सत्य बनकर एक सायरन के साथ रिपीट होने लगती है। कौन-सा समाचार सत्य है और कौन-सा नहीं? किस बात पर यकीन क्या जाए, और किस बात पर नहीं? यह प्रश्न, इस दौर का यक्षप्रश्न बन चुका है।

खासकर इधर इसे और भी महसूस किया गया, जब एक तरफ देश युद्ध में फंसा था, और दूसरी तरफ टीवी मीडिया में फेक न्यूज की झड़ी लगी थी। इस तरह के फेक न्यूज युद्ध के समय आमराय और जनभावनाओं पर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं। बात जब देश की आती है, तो सबकुछ बहुत संजीदा हो जाता है।

फेक न्यूज से जनता को थोड़ी देर के लिए बरगलाया जा सकता है, सत्य को थोड़ी देर के लिए छिपाया भी जा सकता है, यह बात और है कि सत्य तो बाहर आकर ही रहता है। लेकिन उस थोड़ी देर में लोगों की मनःस्थिति पर जो प्रभाव पड़ता है, उसका क्या? फिर उसके बाद सत्य भी आशंका के घेरे में आ जाता है। महामारी और युद्ध के युग में हम सभी अभी भी वैक्सीनेशन के सत्य के साथ जीना सीख रहे हैं, और उम्मीद कर रहे हैं कि हमेशा कोई बूस्टर डोज इस दुनिया को बचा लेगा। यह सत्य है, और यहां सत्य सार्वभौमिक हो जाता है।

लेकिन ऐसे राष्ट्र भी हैं, जो सिर्फ आतंक को सत्य मानते है। सुनियोजित भ्रामक प्रचार और हथियार बेचकर यह पुष्टि करते हैं कि धर्म या मजहब के आधार पर जीना और मरना-मारना ही सत्य है। हम ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां हमें सत्य को धोखा देने, नकारने और चकमा देने के लिए तैयार किया जा रहा हैं। जब हम हिटलर और उसकी टीम के राजनीतिक दर्शन का आकलन करते हैं, तो पाते हैं कि एक खास तरह की फेक न्यूज का प्रचलन उन दिनों भी था।

और जैसा कि इतिहासकार जेफ्री हर्फ ने उल्लेख किया भी है कि नाजियों ने यहूदियों के खिलाफ भावनाओं को भड़काने और नरसंहार को सही ठहराने के लिए ‘बड़े झूठ’ के आइडिया का बखूबी इस्तेमाल किया। हर्फ का मानना रहा कि नाजी जर्मनी के मुख्य प्रचारक जोसेफ गोयबल्स ने वास्तव में बड़े झूठ की तकनीक का इस्तेमाल किया था, और उन्होंने इसका इस्तेमाल यूरोप में लंबे समय से चली आ रही यहूदी विरोधी भावना को सामूहिक हत्या में बदलने के लिए किया।

गोयबल्स का तो यह राजनीतिक दर्शन ही था कि अगर झूठ को बार-बार दोहराया जाए तो वह सच हो जाता है। इस बार-बार दुहराने की प्रक्रिया को बहुत सारे संस्थानों ने समझा, और हमारे पड़ोसी देश ने इसका अभी इस्तेमाल भी किया। तो क्या हम मान लें कि यह बड़े झूठ की तकनीक ही आज के दौर के सत्य का न्यू वर्जन है?

सुकरात का मानना था कि जब हम नीति या तर्क में हार जाते हैं तो अपमान बड़ा हथियार बन जाता है। और बड़ा झूठ उस अपमान का एक अहम हिस्सा है। एक लोकतांत्रिक और सम्प्रभु देश में लोगों को स्वतंत्रता के साथ-साथ बोलने का अधिकार भी प्राप्त है। लेकिन जब एरिक बर्न ट्रांजेक्शनल एनालिसिस संबंधी संचार की अहम अवस्थाओं पर चर्चा कर रहे थे, तो उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि डिजिटल युग में, संचार की बाल्य अवस्था उसकी पैरेंट या वयस्क अवस्था पर हावी हो जाएगी। क्योंकि चाइल्ड स्टेट के ट्रांजेक्शन में कोई जिम्मेदारी नहीं रहती।

जो भी लिखना है, जो भी बोलना है, बोल दिया। एक ट्वीट ही तो करना होता है, फैक्ट भला कौन चेक करे! और नहीं तो ग्रोक को फैक्ट चेक पर लगा दिया जाता है। कितने ही पैरोडी अकाउंट बन जाते हैं और उनसे हजारों फॉलोअर्स भी जुड़ जाते हैं। और इस युग के हर ट्रांजेक्शन में बिजनेस या रेवन्यू का पक्ष तो जुड़ा होता ही है।

नतीजा ट्रोलिंग और फर्जी खबरें हैं। ऐसा करने में न तो जुबान पर लगाम नजर आती है, और न ही अभिव्यक्ति में लज्जा। प्रश्न यह है कि एक बड़े झूठ के इर्द-गिर्द कोई युवा या बच्चा कैसे बड़ा होगा, और उसके मन-मस्तिष्क पर इस सबका कैसा प्रभाव पड़ेगा?


Date: 04-06-25

विदा होते हिमनदों का नाद सुनिए

जॉन पोमेरॉय, ( संयुक्त राष्ट्र से जुड़े पर्यावरण विषेशज्ञ )

समुद्र तल से 5,000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित याला ग्लेशियर एक ऐसा हिमनद है, जो विलुप्त होने के | कगार पर पहुंच चुका है। तेजी से बढ़ती गर्मी और सर्दियों में कम होती बर्फबारी के कारण बर्फ की यह नदी जल्द ही ‘आगे बढ़ने’ (आकार व द्रव्यमान बढ़ने के लिए पर्याप्त बर्फ जमाना बंद कर देगी और ग्लेशियर की अपनी हैसियत गंवा देगी। इसकी याद में बीती 12 मई को भू-वैज्ञानिकों, विभिन्न समुदायों व स्थानीय सरकार के प्रतिनिधियों ने इस ग्लेशियर की तलहटी में एक बैठक भी आयोजित की।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन की 2024 की वैश्विक जलवायु स्थिति रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है कि पिछला साल पृथ्वी के बीते 175 वर्षों के ज्ञात इतिहास में सबसे गर्म था। इसी तरह, मार्च में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट में वैश्विक तापमान और उत्सर्जन में लगातार हो रही वृद्धि से जमे हुए पर्वतीय संसाधनों पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बताया गया है और कहा गया है कि 21वीं सदी में कई पर्वतीय ग्लेशियर खत्म हो सकते हैं।
दुखद है, पहाड़ों के ग्लेशियर, बर्फ और पर्माफ्रॉस्ट (बर्फ से जमी हुई भूमि) में होने वाले ये बदलाव उस तरह सुर्खियों में नहीं आते, जिस तरह हीटवेव, जंगलों की आग या संघर्ष की खबरें आती हैं। जबकि, ये पृथ्वी के 60 से 70 फीसदी मीठे पानी के स्रोत हैं। इसीलिए, संयुक्त राष्ट्र का ताजा निष्कर्ष हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए।

बहुत से लोग यह जानते हैं कि ध्रुवीय बर्फ के तेजी से पिघलने से निचले तटीय इलाकों और क्षेत्रों में बाढ़ का गंभीर खतरा पैदा हो सकता है, मगर पर्वतीय ग्लेशियरों और बर्फ के पिघलने से हम कहीं जल्दी प्रभावित हो सकते हैं और वे उतने ही अधिक विनाशकारी साबित होंगे। कई बार तो इसका आर्थिक तंत्र और इंसानी आबादी पर सीधा प्रभाव पड़ता है। विडंबना यह है कि इतनी स्याह तस्वीर एशिया के

अलावा किसी अन्य महादेश में नहीं दिखती, जबकि यह एक ऐसा महाद्वीप है, जहां आधी आबादी नदी क्षेत्र के आसपास बसी है और इन नदियों का उद्गम हिंदू कुश हिमालय है। हिंदू कुश 3,500 किलोमीटर लंबी वह पर्वत श्रृंखला है, जहां दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों के अलावा किसी भी अन्य जगहों से अधिक बर्फ जमी है। हालांकि, बर्फ का यह पिघलना कोई आज की परिघटना नहीं है। वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस के एक अध्ययन से पता चलता है कि 2000 से 2023 के बीच पर्वतीय हिमनदों ने छह ट्रिलियन टन से अधिक बर्फ गंवाए हैं।

बेशक, यह ग्लेशियर के कुल द्रव्यमान का महज 5.4 प्रतिशत हिस्सा है, लेकिन ग्रीनलैंड की बर्फ में हुई कमी से यह 18 फीसदी ज्यादा है और अंटार्कटिका में बर्फ के पिघलने से दोगुना से अधिक बर्फ तेजी से पिघल रहे हैं, क्योंकि अध्ययन के पहले दशक से दूसरे दशक तक इसमें 36 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है। इसमें यूरोप के आल्प्स को सबसे अधिक नुकसान हुआ है, जहां सदी की शुरुआत से अब तक ग्लेशियर का 39 फीसदी हिस्सा पिघल चुका है। कनाड़ा के रॉकीज ने भी अपने द्रव्यमान का लगभग एक चौथाई हिस्सा गंवा दिया है। बेशक, उच्च पर्वतीय एशिया (चीन, अफगानिस्तान, नेपाल, भारत, पाकिस्तान, भूटान, कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान के पर्वतीय हिस्से) के हिमखंड और ग्लेशियरों के सबसे अंत में पिघलने की आशंका है, लेकिन यहां भी ग्लेशियर के कुल द्रव्यमान का पांचवां हिस्सा पिघल चुका है।

ग्लेशियर के द्रव्यमान में यह धीमी गिरावट भारत और पूरे उच्च पर्वतीय एशिया में नीति-निर्माताओं, अर्थशास्त्रियों और आम लोगों के लिए राहत की बात नहीं होनी चाहिए। इन पहाड़ों से निकलने वाली 10 प्रमुख नदियों की घाटियों से ही एशिया की आर्थिकी का एक बड़ा हिस्सा जुड़ा हुआ है। भारत के सालाना सकल घरेलू उत्पाद का करीब आधा हिस्सा सिर्फ गंगा और सिंधु नदी घाटियों से आता है। ग्लेशियर विशेषज्ञ हैदी सेवे के मुताबिक, गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु में घटते पानी से होने वाला जल तनाव इन नदियों को (जो यहां की चार बड़ी नदियों में शामिल हैं) ‘क्रायोस्फीयर परिवर्तन के लिहाज से सबसे अधिक संवेदनशील’ बना देता है। निस्संदेह, भारत ने हाल के वर्षों में मानव विकास में महत्वपूर्ण प्रगति की है, पर पूरे दक्षिण एशिया में खाद्य असुरक्षा आज भी काफी अधिक दिखती है।

ग्लेशियर पिघलने के कारण इस क्षेत्र की 10 प्रमुख नदियों के आसपास रहने वाले लोगों के लिए पानी की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है। ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट’ के अनुसार, इस क्षेत्र की अनुमानित आबादी दो अरब से अधिक है, जिनमें से 31 फीसदी लोग खाद्यान्न की कमी से जूझ रहे हैं और 50 फीसदी कुपोषण का सामना कर रहे हैं। आने वाले वर्षों में पानी की उपलब्धता में उतार-चढ़ाव और सूखा बढ़ने का डर है और 2050 के बाद से इन नदियों के पानी के बहाव में कमी आने की आशंका है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि पानी के प्रवाह में कमी और सूखा बढ़ने से हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में भोजन, पानी, ऊर्जा और आजीविका की सुरक्षा पर खतरा बढ़ सकता है, साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंच सकता है और संघर्ष व पलायन गहरा सकता है।

2025 में दुनिया असाधारण चुनौतियों का सामना कर रही है। तमाम संघर्ष, राजनीतिक अस्थिरता और भ्रामक सूचनाओं के बीच यह स्पष्ट है कि तापमान में एक डिग्री की वृद्धि न केवल शांति के लिए, बल्कि मानव अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा करती है। यह वह साल भी है, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने ‘ग्लेशियर संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय वर्ष’ घोषित कर रखा है। इसी वर्ष पेरिस समझौते के भी दस साल पूरे हो रहे हैं, जिसमें तमाम देशों ने औद्योगिक क्रांति के पहले के समय से 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि को सीमित करने की प्रतिबद्धता जताई थी। इस स्तर पर तापमान को रोकना ही ग्लेशियर के नुकसान को सीमित करने का एकमात्र तरीका है।

जाहिर है, इस वर्ष हमें अपने उत्सर्जन कम करने ही होंगे। भविष्य में लोग जब इस युग की चर्चा करेंगे, तो मुझे उम्मीद है कि वे यही कहेंगे, हमने सही मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित किया। और शायद, जब वे पीछे मुड़कर देखेंगे, तो वे इस वर्ष और एशिया को देखकर यह भी कहेंगे कि यही वह समय और भूमि थी, जब सही दिशा में पहला कदम उठाया गया था।


Date: 04-06-25

विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से सुधरेगी हमारी उच्च शिक्षा

रसाल सिंह, ( प्राचार्य रामानुजम कॉलेज, दिल्ली विवि. )

हाल ही में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विश्व के श्रेष्ठतम शिक्षण संस्थानों के कई सर्वेक्षण आए हैं। नेचर इंडेक्स की नवीनतम रैंकिंग के अनुसार, संसार के दस शीर्ष शोध संस्थानों में से नौ चीन के हैं, तो वहीं क्यू एस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग- 2025 में अमेरिका, ब्रिटेन और चीन जैसे देश भारत से बहुत ऊपर हैं। इसी प्रकार, द टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग- 2025 में भी एशिया के शीर्ष 10 विश्वविद्यालयों में चीन के पांच, हांगकांग के दो, सिंगापुर के दो और जापान का एक विश्वविद्यालय शामिल है। इस रैंकिंग में भी भारत की स्थिति अच्छी नहीं है। इससे भारत के उच्च शिक्षा तंत्र की बदहाली का पता चलता है। भारत के संकटग्रस्त शिक्षा तंत्र का पुनरुत्थान करने और उसे गुणवत्तापूर्ण, पेशेवर और प्रतिस्पद्ध बनाने के लिए लंबे समय से उसके अंतरराष्ट्रीयकरण की जरूरत महसूस की जा रही थी। इसी को ध्यान में रखते हुए अब प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपना परिसर खोलने की अनुमति दी जा रही है। विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश के अनिवार्य कारकों में से एक देश की विशाल और निरंतर बढ़ती छात्र आबादी है। भारतीय छात्रों के बीच अंतरराष्ट्रीय शिक्षा की भारी मांग है। सत्र 2023-24 में विदेश में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या जहां लगभग 15 लाख थी, वहीं 2024- 25 में यह संख्या करीब 18 लाख हो गई। पिछले 10 वर्ष के आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि यह संख्या क्रमशः 15-20 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ रही है।

भारतीय छात्रों के सबसे पसंदीदा तीन देशों कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन के संस्थान हैं। इनके बाद जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस जैसे देशों के संस्थान आते हैं। भारतीय छात्रों के विदेश जाने से हमारे देश का लगभग 70 अरब अमेरिकी डॉलर भी हर साल बाहर जा रहा है। वित्तीय नुकसान के अलावा देश को मानव प्रतिभा का भी नुकसान झेलना पड़ रहा है, क्योंकि विदेश में अध्ययन के लिए गए छात्र अक्सर वहीं बसने का विकल्प चुनते हैं। प्रतिभा और धन का यह बाहरी प्रवाह चिंताजनक है।

ऐसे में खुशी की बात है कि पांच प्रतिष्ठित विदेशी संस्थानों ने भारत में अपने परिसर खोलने की दिशा में कदम उठाया है। अभी हाल में ब्रिटेन की लिवरपूल यूनिवर्सिटी ने बेंगलुरु में अपना परिसर शुरू करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और शिक्षा मंत्रालय के साथ समझौता किया है। इसके अलावा ब्रिटेन की ही साउथैम्प्टन यूनिवर्सिटी गुरुग्राम में, अमेरिका का इलिनॉयस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी मुंबई में, ऑस्ट्रेलिया के डाकिन और वोलोंगोंग विश्वविद्यालय गिफ्ट सिटी, गुजरात में अपने परिसर खोल रहे हैं।

विदेशी विश्वविद्यालयों के पास बेहतर संसाधन उपलब्ध हैं। जैसे इनके पास पर्याप्त धन के अलावा प्रशिक्षित व पेशेवर शैक्षिक स्टाफ, आधुनिक बुनियादी ढांचा, बेहतर शोध पद्धत्तियां व तकनीकी संसाधन हैं। ये प्रतिभाशाली प्राध्यापकों को बेहतर काम करने के अवसर देते हुए देश में अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्साहित करेंगे। अनुमान है, यदि भारत में पर्याप्त संख्या में विदेशी विश्वविद्यालय आए, तो उच्च शिक्षा के लिए देश छोड़ने वाले छात्रों में 75 प्रतिशत की कमी आ सकती है। इससे पूंजी और प्रतिभा पलायन भी रुकेगा। इसके अलावा, ये शिक्षा केंद्र सस्ती व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देकर ‘ग्लोबल साउथ’ के बहुत से छात्रों को आकर्षित कर सकेंगे।

केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान की मानें, तो इस वर्ष कमसेकम 15 विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर देश में कामकाज शुरू कर देंगे। यह शैक्षणिक साझेदारी भारत को एक नॉलेज इकोनॉमी बनाते हुए उसकी सॉफ्ट पॉवर नीति को नई धार देगी। मौजूदा सरकार ने भारत में उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की गंभीर पहल की है। ऐसे प्रयास पहले भी हो चुके हैं, पर सफल नहीं हो सके। साल 2007 में यूपीए सरकार के दौरान भी ऐसा प्रस्ताव सामने आया था, जिसका क्रियान्वयन नहीं हो सका।

समय आ गया है कि भारत में उच्च शिक्षा का स्तर बढ़ाने के लिए विदेशी संस्थानों का स्वागत किया जाए। मगर इन विदेशी संस्थानों पर नजर रखे जाने की भी जरूरत है, ताकि ये भारत में अपने परिसरों की स्थापना सहयोग और ज्ञान की साझेदारी को बढ़ावा देने के लिए करें, न कि सिर्फ शिक्षा की दुकानें बनकर रह जाएं।