04-06-2019 (Important News Clippings)

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04 Jun 2019
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Date:04-06-19

Not About Hindi

Educational excellence will come from expanding choices and institutional autonomy

TOI Editorials

Union HRD minister Ramesh Pokhriyal has gotten a baptism by controversy, with the new Draft National Education Policy drawing fire due to its attempt at Hindi imposition. Government’s response has been to issue a swift revision, with different ministers clarifying that no language will be imposed on any state. Yet, it remains a fact that this sweeping policy document fetishises beyond reason the hoary three language formula, formulated half a century ago and flogged since then without much success.

That children can learn languages very quickly and that multilingual children are better placed to tackle today’s complex environment is an unexceptional thesis. But in a country with over 10 lakh teacher vacancies, where language teachers are being tasked with say handling mathematics as well, and where acceptable reading levels are often not to be found in even one language, a centrally mandated three language policy is quite pointless. A variety of schools with a variety of choices, with states, schools and parents at liberty to choose their own priorities and how to make the best use of their resources, is the only way forward.

The micromanaging spirit of NEP can be judged from its outlandish prescription even to all doctoral students, that they must take a unit in at least one Indian language. All this is because English is accused of lacking ‘apnapan’ and being the language of elites. But if that’s the case, shouldn’t it follow that it should no longer be the preserve of elites alone? Even a secondary school student learning a foreign language like Chinese can only take it as an elective, on top of the three-language formula, in a system that’s already extraordinarily exam-centred. This kind of nativist mindset is quite out of tune with the requirements of a 21st century globalised economy.

NEP has several praiseworthy goals such as moving away from rote learning in schools and breaking the silos that separate humanities from STEM fields in early college – as the best way to prepare students for the fourth industrial revolution. Given that government capacity is limited, it can best be utilised by focussing on a select handful of critical targets. A focus on improving school learning outcomes and radically expanding autonomy of higher education institutions would prove very rewarding. In fact the standard of public universities will improve only when governments detach themselves from control.


Date:04-06-19

Free Metro Rides or Clean Water for All ?

ET Editorials

Delhi chief minister Arvind Kejriwal’s promise of free metro and bus rides for women in Delhi is ludicrous. It is a transparent bid to curry populist favour with women voters. The state government should stop such reckless and open-ended giveaways that kill investment needed to expand the public transport network and strengthen last-mile connectivity. Of course, public transport options should be affordable, reliable and safe, especially for women. Different modes of transport should be integrated and last-mile connectivity, be it through local buses, must be easy. This requires the state to levy reasonable tariffs and create the fiscal space to step up investment in mass public transport. In the medium term, it would help drive down the cost of public transport and increase its convenience.

The proposed free ride scheme would be optional: women who can afford to buy tickets need not take the subsidy. It is not just hare-brained, but will pose implementation challenges. Kejriwal has said the Delhi government, that holds a 50% stake in Delhi Metro Rail Corporation, will absorb the subsidy cost. This is fiscally imprudent and public money can be put to better use. Free transport, power and water will only dent the state finances, and non-tax revenues. States should raise user charges on electricity, given the concerns over mounting losses of state power utilities, while ending theft.

We need rational tariffs, whether in public transport, power or water, to support fiscal consolidation, and enable the government spend in sectors where the social returns are the highest. Cutting expenditure in sectors such as health and education to fund populist schemes would be counterproductive and is likely to impact the return on capital assets in the economy, besides welfare.


Date:04-06-19

मोदी की जीत और समाजवाद, साम्यवाद में लगा पलीता

संपादकीय

पिछले सप्ताह बहुत कुछ ऐतिहासिक घटा। कुछ कीर्तिमान हैं। कुछ राजनीतिक हादसे हैं। हिंदुस्तान में यह दूसरी ऐसी गैर-कांग्रेसी सरकार थी, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया फिर चुनाव में उतरी। इसके पहले अटलजी की सरकार ने कार्यकाल पूरा किया था। इससे पहले कोई भी गैर-कांग्रेसी सरकार पांच साल नहीं चल पाई थी। न मोरारजी की जनता सरकार, न वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल और खुद अटलजी की पहली सरकार। संघ की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाकर चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडीस और मधु लिमये ने जनता सरकार गिरा दी थी। वीपी सरकार खुद ही अपने पिछड़े आरक्षण में उलझकर गिर गई। चंद्रशेखर की सरकार को यह कहकर गिरा दिया गया कि उन्होंने राजीव गांधी की जासूसी के लिए उनके घर के आगे हरियाणा पुलिस के दो सिपाही लगा रखे थे। देवेगौड़ा और गुजराल सरकार खुद का बोझ ही नहीं उठा पाईं और अटलजी की पहली सरकार फ्लोर टेस्ट में एक वोट से हार गई थी। लेकिन मोदी सरकार इतिहास की ही ऐसी गैर कांग्रेसी सरकार साबित हुई जो दोबारा प्रचंड बहुमत से चुनी गई। देश ने पाकिस्तान को उसके घर में घुसकर मारने की मोदी की स्टाइल को गले लगा लिया। यही वजह थी कि जिन राज्यों में हाल ही में कांग्रेस सत्ता में आई थी वहीं उसमें पलीता लग गया।

इंदिरा गांधी के बाद राहुल पहले ऐसे कांग्रेस अध्यक्ष हुए जो अपनी परंपरागत सीट अमेठी से चुनाव हार गए। इमरजेंसी के बाद राजनीति के मसखरे कहे जाने वाले राजनारायण ने रायबरेली से इंदिराजी को हरा दिया था। इस चुनाव में एक और हादसा यह हुआ कि समाजवाद और साम्यवाद का दम भरकर जो भी चल रहे थे वे सब खेत रहे। हालांकि, यह लंबी कहानी है। मार्क्सवाद के पंडित तो तभी परेशान थे जब समाजवाद शब्द के साथ गांधीवाद जुड़ा। तब लगता था लोहिया और जयप्रकाश ने साम्यवाद में गांधीवाद घोला और उसे नरम कर समाजवाद बना लिया। कालांतर में नेहरू और कृष्ण मेनन की सीख पर समाजवाद का नारा कांग्रेस ने चुरा लिया। यह नारा समाजवादियों को हराने में काम आने लगा। फिर कम्युनिस्ट पार्टी दो हिस्सों में बंट गई। इधर लोहिया संविद सरकार बनवा-बनवाकर एनर्जी बर्बाद करने लगे अर्थात समाजवाद उन्होंने जनसंघ को सौंप दिया। जनसंघ ने सत्ता संभाली, समाजवाद नहीं उठाया। वही इस चुनाव में भी हुआ। जनता ने जनसंघ वाली भाजपा को चुना और समाजवाद को छोड़ दिया।


Date:04-06-19

न्यायिक सुधार की बात

जरूरी है कानून मंत्री के रूप में रविशंकर प्रसाद इस बार न्यायिक सुधारों को गति देने के मामले में ठोस उपायों पर अमल करते दिखें।

संपादकीय

कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पदभार ग्रहण करते हुए अपनी यह पुरानी प्रतिबद्धता एक बार फिर दोहराई कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में उनके मंत्रालय की भूमिका सीमित नहीं रहेगी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि फिलहाल ऐसी ही स्थिति है। न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में सरकार कोलेजियम की सिफारिशों पर मुहर लगाने तक ही सीमित है। यह अभी हाल में देखने को भी मिला। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम की ओर से भेजे गए दो नामों पर सरकार ने आपत्ति जताई तो उसे खारिज कर यही दो नाम फिर से आगे बढ़ा दिए गए। चूंकि सरकार के समक्ष और कोई उपाय नहीं था, इसलिए उसने वही किया जो कोलेजियम की ओर से चाहा जा रहा था। यह स्थिति बदली जानी चाहिए, क्योंकि दुनिया के किसी भी श्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां नहीं करते। बेहतर है सुप्रीम कोर्ट भी यह समझे कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में कोलेजियम व्यवस्था लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं के अनुकूल नहीं है। बेशक न्यायपालिका को स्वतंत्र और स्वायत्त होना चाहिए, किंतु इसका यह आशय नहीं कि वह न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में खुद को जवाबदेही व पारदर्शिता से परे रखे। खुद सर्वोच्च न्यायालय यह मान चुका है कि कोलेजियम व्यवस्था दोष रहित नहीं है। क्या कोई बताएगा कि आखिर इस व्यवस्था के दोष कब दूर होंगे ?

समस्या केवल यही नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियां उस कोलेजियम व्यवस्था के तहत हो रही हैं, जिसकी विसंगतियां सामने आ चुकी हैं। समस्या यह भी है कि न्यायिक क्षेत्र की अन्य अनेक विसंगतियां भी दूर होने का नाम नहीं ले रही हैं। न्याय हासिल होने के बजाय तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम रहना एक हकीकत है। यह हकीकत निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक है। आखिर न्याय के लिए प्रतीक्षारत करोड़ों लोगों की चिंता कौन कर रहा है? यह ठीक नहीं कि चिंता के नाम पर कार्यपालिका और न्यायपालिका एक-दूसरे को नसीहत देती दिखें। आखिर दोनों पक्ष मिलकर न्यायिक क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने के लिए कोई ठोस रूपरेखा तैयार करने के लिए आगे क्यों नहीं आते? यह अनिवार्य है कि कानून मंत्री के रूप में रविशंकर प्रसाद इस बार न्यायिक सुधारों को गति देने के मामले में किन्हीं ठोस उपायों पर अमल करते हुए दिखें। उनके पास कानून मंत्रालय के साथ-साथ सूचना-प्रौद्योगिकी और दूरसंचार मंत्रालय भी है, इसलिए उन्हें यह जरूर देखना चाहिए कि आधुनिक तकनीक और खासकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर न्यायिक तंत्र के उस मकड़जाल को कैसे काटा जाए, जो करोड़ों लोगों की परेशानी का कारण है और जिसके चलते हमारी न्याय प्रणाली सुस्ती के लिए बदनाम है। वकील होने के नाते कानून मंत्री इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि मुकदमों को लंबित रखने के तौर-तरीके किस तरह न्याय प्रणाली का अलिखित हिस्सा बन गए हैं। यह ठीक नहीं कि जब हर क्षेत्र में सुधारों पर जोर है, तब न्यायिक क्षेत्र में सुधार बहस तक सीमित हैं।


Date:04-06-19

हिंदी को लेकर हल्ला

राष्ट्रभाषा का दर्जा न हासिल करने के बावजूद हिंदी देश की सबसे प्रभावशाली संपर्क भाषा बन गई है।

संपादकीय

नई शिक्षा नीति का मसौदा सामने आते ही तमिलनाडु में जिस तरह हिंदी का विरोध शुरू हो गया उससे यही साबित होता है कि हमारे देश में कुछ नेता किस तरह विरोध के नाम पर विरोध की राजनीति करने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। नि:संदेह नई शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषा फार्मूले की चर्चा की गई है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी लागू करने का फैसला ले लिया गया है। कम से कम नेताओं को तो यह अच्छी तरह पता होना चाहिए कि प्रस्ताव और फैसले में अंतर होता है। शिक्षा नीति के संदर्भ में तो यह न जाने कब से स्पष्ट है कि पहले उसका मसौदा आता है और फिर उस पर व्यापक चर्चा के बाद आम सहमति से उसे लागू किया जाता है।

समझना कठिन है कि तमिलनाडु के कुछ नेताओं ने यह निष्कर्ष कैसे निकाल लिया कि नई शिक्षा नीति में जो कुछ कहा गया है वह अंतिम फैसले के रूप में है? यह आश्चर्यजनक है कि इस तरह का निष्कर्ष निकालने वालों में पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम भी शामिल हैं। स्पष्ट है कि तमिलनाडु के नेता लोगों की भावनाओं को भड़काकर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाह रहे हैं। उनके इस रवैये के चलते तमिलनाडु में कुछ अन्य संगठन भी हिंदी के विरोध में आगे आ जाएं तो हैरत नहीं। वैसे भी यह एक तथ्य है कि तमिलनाडु में रह-रहकर हिंदी के खिलाफ आवाज उठती रहती है। यह आवाज उठाने के लिए तरह-तरह के बहाने इसलिए खोज लिए जाते हैं, क्योंकि कुछ लोगों ने हिंदी विरोध को अपनी राजनीति का जरिया बना लिया है। यह बात और है कि यही लोग जब चुनाव आते हैं तो तमिलनाडु के हिंदी भाषी लोगों को लुभाने के लिए अपने पोस्टर-बैनर हिंदी में लगवाते हैं !

तमिलनाडु अथवा देश के अन्य राज्यों के लोग हिंदी के विरोध में कुछ भी क्यों न कहें, इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि राष्ट्रभाषा का दर्जा न हासिल करने के बावजूद हिंदी देश की सबसे प्रभावशाली संपर्क भाषा बन गई है। आज यदि देश में कोई भाषा संपर्क भाषा का स्थान लेने की योग्यता रखती है तो वह हिंदी ही है। वास्तव में इसी कारण देश के गैर हिंदी भाषी इलाकों में हिंदी का तेजी से विस्तार हुआ है। इस विस्तार का एक बड़ा कारण हिंदी की उपयोगिता है।

यदि हिंदी की उपयोगिता को देखते हुए उसके प्रचार-प्रसार की कोई पहल की जाती है तो आखिर इसमें किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? आपत्ति करने वालों को इस सच्चाई से परिचित होना चाहिए कि दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत के लोगों के लिए हिंदी एक आवश्यकता बन गई है। आज जब नौकरी, व्यापार आदि के कारण हर प्रांत के लोगों की देश के दूसरे हिस्सों में आवाजाही और साथ ही बसाहट बढ़ती जा रही है तब फिर यह समय की मांग है कि संपर्क भाषा का पर्याय बन गई हिंदी को सहर्ष अपनाया जाए। कई राज्यों ने ऐसा ही किया है और इनमें अरुणाचल सबसे बढ़िया उदाहरण है। इस उदाहरण की अनदेखी करना सच से मुंह मोड़ना ही है।


Date:04-06-19

नई सरकार और पर्यावरण से जुड़े हुए मसले

सुनीता नारायण

वर्ष 2019 के आम चुनाव के नतीजे आ चुके हैं और पुरानी सरकार एक बार फिर चुनी गई है। ऐसे में पर्यावरण और विकास का एजेंडा क्या होना चाहिए? कृषि क्षेत्र का संकट ऐसी अहम समस्या है जिससे तत्काल निपटने की आवश्यकता है। सच तो यह है कि खेती तेजी से अलाभकारी व्यवसाय बनती जा रही है और इससे लाखों लोगों की आजीविका को लेकर संकट उत्पन्न हो गया है। इससे निराशा फैल रही है और उनके पास शहरी इलाकों की अवैध बस्तियों में भीड़ बढ़ाने के अलावा अन्य विकल्प शेष नहीं रह गया है। मौसम का उतार-चढ़ाव किसानों के संकट में और अधिक इजाफा कर रहा है और वे कभी अधिशेष उपज के कारण कीमत में गिरावट का सामना करते हैं तो कभी ऐसा संकट उत्पन्न हो जाता है कि आयात करना पड़ता है।

बीते पांच वर्ष में सरकार ने दो अहम पहलुओं पर काम किया। पहला, फसल के नुकसान से परेशान किसानों को बीमा सुरक्षा और मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सबसे गरीब परिवारों को आवास, शौचालय तथा गैस सिलिंडर के रूप में बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराना। परंतु किसानों की खेती की लागत उनके उपज मूल्य से अधिक न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए अभी काफी कुछ किया जाना है। उन्हें उपज बढ़ाने के लिए सिंचाई की समुचित सुविधा मुहैया करानी होगी और उनकी फसल को आवारा और जंगली पशुओं द्वारा नष्ट किए जाने से भी बचाना होगा। बीमा योजना में ऐसे बदलाव होने चाहिए कि किसानों के हाथ में नकद राशि आए और वे जलवायु परिवर्तन के जोखिम के समय से निपट सकें।

दूसरा, वानिकी को लेकर नीतियों में तत्काल बदलाव की आवश्यकता है। बीते पांच वर्ष में इस क्षेत्र को लेकर सरकार की नीतियां किसी काम की नहीं थीं। गरीब आदिवासियों को वानिकी से किस प्रकार जीविका मुहैया कराई जानी चाहिए इसे लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। एक ओर सरकार ने बांस को घास घोषित कर उसे उगाने की इजाजत देने वाला नियम बनाया और उसने लघु वन उपज के लिए मूल्य समर्थन भी बेहतर किया तो वहीं दूसरी ओर उसने एक मसौदा वन नीति प्रस्तुत की जो वानिकी और उससे जुड़े कारोबार का पूरा नियंत्रण विभाग के हाथ में सौंपता है। उसने वन अधिकार अधिनियम 2006 के क्रियान्वयन की दिशा में कोई पहलकदमी नहीं की। अगर ऐसा किया जाता तो उन गरीब समुदायों को आर्थिक मदद मिलती जो इन संसाधनों पर निर्भर हैं।

यह भी सच है कि पिछली सरकारों की तरह इस सरकार ने भी वन्यजीव संरक्षण के लिए खुलकर कोई दिक्कत नहीं पैदा की। उसने वन्यजीवों के संरक्षण के लिए आवाज उठाना जारी रखा लेकिन दूसरी सरकारों की तरह इस दौरान वह भी वनों को सड़क, खनन और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए खोलती रही। कुल मिलाकर वानिकी और आजीविका के लिए उसका विकास कभी सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहा। अब इसमें बदलाव का वक्त आ चुका है। इसके बाद स्थानीय प्रदूषण यानी जल एवं वायु प्रदूषण का मसला आता है। ये दोनों स्वास्थ्य पर गहरा असर डालते हैं। इसमें दो राय नहीं कि वायु प्रदूषण संकट एकदम आसन्न है और साफ नजर आ रहा है। बीते कुछ वर्षों में सरकार ने ईंधन की गुणवत्ता पर काम किया है और वाहन प्रौद्योगिकी मानकों में सुधार किया है। किसानों को उपकरण खरीद पर सब्सिडी दी जा रही है ताकि वे फसल अवशेष जलाएं नहीं। परंतु ये कदम उठाने में देर हो चुकी है। सरकार स्वच्छ हवा चाहती है लेकिन इसके लिए वह कोई कड़ा कदम उठाना नहीं चाहती। आवागमन प्रणाली में बदलाव, निजी कारों पर रोक या स्वच्छ ईंधन की सस्ती और बेहतर उपलब्धता पर ध्यान नहीं है।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने प्रदूषण नियंत्रण के लिए कुछ खास नहीं किया है। हमें प्रभावी प्रतिरोध की आवश्यकता है लेकिन बीते पांच वर्ष में हमारे पर्यावरण संस्थानों में गड़बड़ी बढ़ती गई है। आज देश के पर्यावरण संस्थानों और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकांश अधिकारी यह मानते हैं कि उनका काम पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण कायम करना नहीं बल्कि औद्योगिक हितों का संरक्षण करना है। न तो उनके पास क्षमता है, न निगरानी और न ही कोई नेतृत्व। वे केवल अदालती आदेशों से गति पाते हैं जो अक्सर तत्कालीन सरकार की इच्छा के विपरीत होते हैं। अगर हम एक स्वच्छ पर्यावरण चाहते हैं तो इसमें बदलाव लाना होगा। इसलिए क्योंकि यह मसला हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा है। नदियों, जल प्रदूषण और जल संकट की बात करें तो यह सब शौचालय निर्माण और नदी सौंदर्यीकरण की दौड़ में कहीं पीछे छूट गया है। यही वजह है कि हमें देश के अधिकांश हिस्सों में सूखे का सामना करना पड़ रहा है। यह मुद्दा 2019 के चुनाव में नजर नहीं आया तो इसका मतलब यह नहीं कि ये मौजूद ही नहीं है। यह संकट निरंतर बढ़ता जाएगा। हर बार बाढ़ और सूखा देश के लोगों को और अधिक गरीबी और मुसीबत में डालते हैं।

आप कह सकते हैं कि यह केंद्र सरकार के एजेंडे में नहीं है। लोग आगामी विधानसभा चुनावों के वक्त इन मुद्दों पर मतदान करेंगे। मैं इससे असहमत हूं। ये राष्ट्रीय मुद्दे हैं। सरकार, खासतौर पर इतने भारी बहुमत से आने वाली सरकार को आगे बढऩा होगा और समावेशी और स्थायी भविष्य के लिए नेतृत्व प्रदान करना होगा। लोगों ने बदलाव के विरोध में मतदान किया है। इसका यह मतलब नहीं कि वे बदलाव नहीं चाहते बल्कि वे इस सरकार में भरोसा करते हैं कि यह जरूरी बदलाव ला सकती है। ऐसे में इस सरकार को उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना ही होगा।


Date:03-06-19

रिश्ता और कारोबार

संपादकीय

भारत और अमेरिका के बीच पिछले पांच सालों में रिश्ते काफी प्रगाढ़ हुए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कई मौकों पर इस प्रगाढ़ता का इजहार भी किया है। इसकी एक वजह यह भी है कि भारत की अर्थव्यवस्था लगातार मजबूत हुई है। भारत एक बड़ा बाजार है। मगर पिछले कुछ महीनों में ट्रंप सरकार ने जो कदम उठाए हैं, उसका भारत पर नकारात्मक असर पड़ने की आशंका जाहिर की जा रही है। पहले अमेरिका ने ईरान से कच्चे तेल की खरीद पर प्रतिबंध लगाया। यह फैसला ऐसे वक्त में किया गया, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत काफी बढ़ चुकी है। भारत के लिए तेल की कीमतें नीचे लाना बड़ा चुनौती है। ईरान से तेल की खरीद बंद होने से यह चुनौती और बढ़ गई है। अब अमेरिका ने व्यापार में सामान्य तरजीही व्यवस्था यानी जीएसपी खत्म कर दी है। जीएसपी के तहत अमेरिका में विकासशील देशों की करीब दो हजार वस्तुएं शुल्क मुक्त भेजी और बेची जा रही थीं। अब कोई भी देश ऐसा नहीं कर पाएगा। स्वाभाविक ही इससे भारत के व्यापार पर नकारात्मक असर पड़ने की आशंका जताई जा रही है। हालांकि भारतीय वाणिज्य मंत्रालय ने कहा है कि दो देशों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, अमेरिकी फैसले में भी बेहतरी के रास्ते खुल सकते हैं।

अमेरिका इस वक्त आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है। डोनाल्ड ट्रंप अर्थव्यवस्था सुधारने और अमेरिकी युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराने के वादे के साथ सत्ता में आए थे। इन पक्षों पर वे लगातार काम कर रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने जीएसपी खत्म करने का फैसला किया है। उन्हें लगता है कि इससे अमेरिकी वस्तुओं को घरेलू बाजार मिलेगा और जो पैसा विदेशी कंपनियां कमा रही हैं, वह अमेरिकी कंपनियों के पास रहेगा। फिर जीएसपी खत्म होने के बाद विदेशी वस्तुओं पर जो शुल्क लगेगा, उससे भी राजस्व की कमाई बढ़ेगी। अमेरिका का यह फैसला कोई हैरान करने वाला नहीं है। अर्थव्यवस्था की मंदी के दौर में सरकारें ऐसे फैसले करती हैं। मगर अमेरिका ने जिस वक्त और जिस ढंग से यह फैसला किया है, वह स्वाभाविक ही सबकी नजरों में खटक रहा है। अमेरिका की व्यापारिक और वाणिज्यिक नीतियां विश्व बाजार में अपना वर्चस्व बढ़ाने के इरादे से बदलती रही हैं। वह अक्सर अपने हितों को ऊपर रख कर ये नीतियां बनाता और समाप्त करता रहा है। इस क्रम में वह अनेक देशों को मोहरे के रूप में भी इस्तेमाल करता रहा है। इसलिए जीएसपी संबंधी उसके फैसले के पीछे के उसके इरादे को ठीक नहीं माना जा रहा।

अमेरिका के सामने चीन की अर्थव्यवस्था हमेशा प्रतिस्पर्धा खड़ी करती रही है। उससे पार पाने के वह अलग-अलग देशों के साथ व्यापारिक रिश्तों में प्रयोग करता आया है। जीएसपी संबंधी फैसला भी उसने इसी मंशा से किया है। इस फैसले का असर हालांकि कई देशों पर पड़ेगा, पर भारत में इसे लेकर इसलिए चिंता जताई जा रही है कि इस वक्त भारत खुद अर्थव्यवस्था मजबूत करने की चुनौतियों से गुजर रहा है। उसमें एक चुनौती निर्यात दर बढ़ाना भी है। इसलिए जीएसपी खत्म होने से अमेरिकी बाजार में भारतीय उत्पाद कड़ी प्रतिस्पर्धा में आएंगे। चिंता की बात इसलिए नहीं होनी चाहिए कि भारत सरकार इस बात को लेकर आश्वस्त है कि अमेरिका के साथ रिश्ते प्रगाढ़ होने की वजह से वह इस बाधा से पार पाने के रास्ते निकाल लेगी।


Date:03-06-19

बिग डाटा में चीन की लंबी छलांग और हमारे कदम

रंजीत कुमार वरिष्ठ पत्रकार

आधुनिक अर्थव्यवस्था के नए सुपरफास्ट ड्राइवर के तौर पर विकसित हो रही बिग डाटा तकनीक के क्षेत्र में जो क्रांति हो रही है, उसने आर्थिक खेल के नियम बदलने शुरू कर दिए हैं। चीन ने इस तकनीक में लंबी छलांग लगानी शुरू कर दी है। इसकी बदौलत वह न केवल अपनी चमक खोती अर्थव्यवस्था में चार चांद लगाने की उम्मीद कर रहा है, बल्कि अपने मुल्क के आम लोगों को भी बिग डाटा तकनीक से भारी लाभ मिलने का भरोसा दे रहा है। करीब पांच साल पहले इस बिग डाटा तकनीक का चीन में व्यापक इस्तेमाल करने का फैसला किया गया था और अब एक राष्ट्रीय संकल्प के तौर पर पूरा देश इसमें जुट गया है।

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बिग डाटा तकनीक के व्यापक इस्तेमाल की राष्ट्रीय नीति घोषित की है और चीन के पूरे सूचना तकनीक तंत्र को इसमें झोंकने में जुटे हैं। दिलचस्प बात यह है कि चीन को अपने बिग डाटा उद्योग के तेज विकास और कुछ ही वर्षों के भीतर इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारतीय सॉफ्टवेयर विशेषज्ञों की मदद मांगने में कोई झिझक नहीं हो रही। वास्तव में, भारतीय सूचना तकनीक विशेषज्ञ चीन के बिग डाटा उद्योग की रीढ़ के तौर पर देखे जा रहे हैं। चीन की डिजिटल वैली माने जाने वाले कुईयांग में इसी इरादे से पांचवां बिग डाटा एक्सपो 26 से 29 मई तक आयोजित किया गया, जिसमें 30 से अधिक अग्रणी विकसित देशों की दो दर्जन से अधिक भारतीय कंपनियों सहित 300 से ज्यादा कंपनियों ने भाग लिया।

सम्मेलन में भाग ले रहे प्रसिद्ध क्रिप्टोलॉजिस्ट ह्विटफील्ड दिफे के मुताबिक, वास्तव में आज का इंटरनेट समाज तीन मुख्य कारकों पर अपनी बुनियाद मजबूत कर रहा है। ये हैं- बिग डाटा, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, यानी कृत्रिम बौद्धिकता और साइबर सुरक्षा। बिग डाटा की कोई आकार सीमा नहीं होती। आज हम करोड़ों आंकड़ों का क्षण भर में विश्लेषण करने लगे हैं। कंप्यूटरों का आविष्कार आंकड़ों के त्वरित विश्लेषण और प्रबंध के लिए ही किया गया था। इसके जरिए करोड़ों आंकड़ों, इनकी विभिन्न प्रणालियों, भिन्न भाषाओं और गति को हम दिन के बदले घंटों या सेकंडों में हासिल कर ले रहे हैं। वास्तव में, बिग डाटा की सभी विशेषताएं आज से 75 साल पहले भी मौजूद थीं, लेकिन आज हम जिस बड़े पैमाने पर उनका संग्रहण और विश्लेषण कर सकते हैं, पहले नहीं कर सकते थे। इंटरनेट ने श्रेष्ठ स्तर का डाटा इकट्ठा करके हमें इसके विश्लेषण करने की क्षमता दी है। इससे सरकारें अपना प्रशासन सक्षम बना सकती हैं। अर्थव्यवस्था को अधिक सक्रिय कर सकती हैं। इससे खुलापन और पारदर्शिता आती है।

लेकिन बिग डाटा को हम एक दोधारी तलवार भी कह सकते हैं। यह परमाणु तकनीक जैसी है, जो विनाश भी कर सकती है और क्रांतिकारी विकास भी। बिग डाटा के जरिए हम किसी व्यक्ति या समाज के भीतर भी झांकने की अनुमति जाने-अनजाने दे देते हैं। इससे हमारी निजी या सामाजिक प्रतिष्ठा या आजादी में सेंध लगाई जा सकती है। हम इसके जरिए किसी देश के प्रशासन में भी घुसपैठ कर सकते हैं। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी यह स्वीकार किया है कि साइबर सुरक्षा के बिना राष्ट्रीय सुरक्षा नहीं हो सकती।

पिछले कुछ समय में हमारी कंप्यूटर विश्लेषण क्षमता दस लाख गुना बढ़ चुकी है और सूचनाओं के भंडारण की क्षमता भी दस लाख गुना अधिक हो चुकी है। चीन इस क्षमता का दोहन अपनी अर्थव्यवस्था को उछाल देने में कर रहा है। यही वजह है कि वह बिग डाटा उद्योग में दुनिया का अग्रणी देश बन चुका है। करीब 42 अरब डॉलर के इस उद्योग में चीन का हिस्सा 60 प्रतिशत और अमेरिका का 23 प्रतिशत है। जहां तक भारत का सवाल है, तो सिर्फ कुछ छोटे कदम उठाए जा सके हैं, क्योंकि बिग डाटा उद्योग को खड़ा करने के लिए जो ढांचागत सुविधा चाहिए, वह हमारे पास अभी नहीं है। बिग डाटा तकनीक से लाभ उठाने के लिए भारत के पास मानव संसाधन तो है, लेकिन तकनीकी ढांचागत सुविधाएं नहीं हैं। यह क्रांति किसी भी देश के आर्थिक विकास को भारी गति देने की क्षमता रखती है, इसलिए बिग डाटा तकनीक के समुचित दोहन के लिए भारत में राष्ट्रीय नीति की तुरंत ही जरूरत है।


Date:03-06-19

कृषि मुद्दा नहीं, पर समस्या तो है

हिमांशु एसोशिएट प्रोफेसर, जेएनयू

मतदाताओं ने लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जबर्दस्त जनादेश दिया है। ज्यादातर उत्तरी और पश्चिमी राज्यों में भाजपा ने अपना मत प्रतिशत बहुत बढ़ा लिया है। साथ ही, वह उन राज्यों में भी बड़े अंतर से जीती है, जहां के विधानसभा चुनावों में छह महीने पहले ही उसके खिलाफ वोट पडे़ थे। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव कृषि संकट पर लड़े गए थे और मतदाताओं ने राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा को दंडित किया था। ठीक ऐसा ही मामला उत्तर प्रदेश का भी था, लेकिन आवारा पशु, चीनी मिलों का बकाया भुगतान जैसे मुद्दे और मजबूत विरोधी गठबंधन के बावजूद भाजपा पराजित नहीं हुई।

वैसे किसी भी चुनाव परिणाम के पीछे अनेक कारण होते हैं, लेकिन जो परिणाम आए हैं, वह कुछ हद तक संकेत कर रहे हैं कि अपने देश में कृषि संकट फिलहाल राजनीतिक मुद्दा नहीं रहा। हालांकि ऐसी समझ जमीनी हकीकत से बहुत परे है। कृषि क्षेत्र की समस्याओं ने भले ही राजनीतिक पटल पर कोई प्रभाव न दिखाया हो, लेकिन इन समस्याओं के चलते किसानों का रोष प्रासंगिक रहेगा। कृषि संकट प्राथमिक रूप से घरेलू अर्थव्यवस्था में न केवल कम होती मांग का नतीजा है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मांग में कमी भी एक वजह है। कृषि उत्पादों का निर्यात भी घट रहा है।

घरेलू बाजार में काफी लंबे अरसे से मांग में कमी आई हुई है, जिसके फलस्वरूप हम खाद्य पदार्थों की कीमतों में इस वर्ष नकारात्मक मुद्रास्फीति देख रहे हैं। खाद्य उत्पादों की कीमतें बढ़ने का संकेत दे रही हैं, लेकिन तब भी ये कीमतें गैर-खाद्य उत्पादों की कीमतों की तुलना में कम हैं। नतीजतन किसानों के विरुद्ध व्यवसाय की शर्तें तय हो रही हैं। यह बात अनेक स्रोतों से पुख्ता तौर पर स्पष्ट हो रही है। दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से गांवों में मांग घटकर इतनी नीचे चली गई है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए अनेक मोर्चों पर व्यापक प्रयास करने की जरूरत पड़ेगी। हालांकि कृषि संकट आंशिक रूप से हमारी नीतिगत विफलता का भी परिणाम है। विगत सरकार के समय न केवल वास्तविक निवेश घटकर नकारात्मक हो गया, बल्कि सरकार ने भी इस मुख्य मुद्दे पर गौर नहीं फरमाया। दूसरी ओर, कृषि क्षेत्र की बजाय सरकार का ध्यान बीमा और ई-मार्केट पर रहा, ये दोनों ही किसान की मदद करने में नाकाम रहे हैं। ये न तो कीमतों का गिरना रोक सके हैं और न किसानों को उत्पाद का सही मूल्य दिला सके हैं। बीमा और ई-मार्केट के जरिये कृषि क्षेत्र में जो हस्तक्षेप किया गया है, वह न केवल विफल रहा है, बल्कि यह विश्वास भी गलत साबित हुआ है कि बीमा और ई-मार्केट के जरिये कृषि क्षेत्र को पटरी पर लाया जा सकता है।

प्रधानमंत्री किसान योजना के तहत प्रतिवर्ष प्रति किसान 6,000 रुपये के हस्तांतरण से भी संकट के सुलझने की संभावना नहीं है। यह मदद कृषि लागत के बढ़ते उफान को थोड़ा थामने में मदद कर पाएगी, लेकिन घाटे की समग्र पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगी। ठीक यही स्थिति न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में है। इसमें बढ़ोतरी की घोषणा के बावजूद उपज की वास्तविक कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हो पाई है। जिन फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित हुए हैं, उनकी कीमतों में भी बढ़ोतरी नहीं हो सकी है। आय हस्तांतरण योजना और कर्जमाफी भी लंबे समय से चली आ रही कृषि समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त नहीं हैं, हालांकि इनसे किसानों की तात्कालिक परेशानियों में कुछ कमी आएगी। लंबे समय तक कृषि में मूलभूत सुधारों को नजरंदाज किया गया है, इसलिए अब सरकार द्वारा किए जा रहे हस्तक्षेप या सुधार के प्रयास बहुत महंगे साबित हो रहे हैं।

संकट के समाधान के लिए जो भी किया जाए, कृषि की बदलती प्रकृति को ध्यान में रखकर किया जाए। आज खेती जिस तरह से की जा रही है, वैसे तीन दशक पहले नहीं की जाती थी। कृषि कर्म में यंत्रों का इस्तेमाल भी बढ़ा है और गैर-अनाज खेती का चलन भी बढ़ रहा है। इनमें से ज्यादातर उपज कीमतों के भारी उतार-चढ़ाव से ग्रस्त रहती हैं, इनकी कीमतों को किसी भी तरह का न्यूनतम समर्थन प्राप्त नहीं है। जिन फसलों की खेती बढ़ रही है, वे ज्यादा संसाधन केंद्रित होने के साथ ही बहुत उच्च लागत वाली हैं। जैसे-जैसे खेती में यंत्रीकरण और मुद्रीकरण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे किसानों को होने वाला लाभ घट रहा है। किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है, लागत भी बढ़ रही है और कीमतों को लेकर भी अनिश्चित माहौल है। अंतरराष्ट्रीय कीमतों में उतार-चढ़ाव का असर भी किसानों को प्रभावित करने लगा है। कृषि क्षेत्र में सुधार के हमारे प्रयास अभी भी अनाज आधारित फसलों तक सीमित हैं, लेकिन तब भी कृषि क्षेत्र से उम्मीद की जाती है, जबकि लाखों छोटे और सीमांत किसानों की ओर से निवेश बढ़ने की संभावना नहीं है।

वित्त निवेश और मूल्य समर्थन से अलग हटकर देखें, तो वास्तव में कृषि क्षेत्र की बदलती जरूरतों के बारे में सही समझ का अभाव है। कृषि क्षेत्र की कमजोरियों को चिह्नित करके योजना बनाने को प्राथमिकता मिले। कृषि के मूलभूत और जरूरी विषयों से निपटने के रास्ते तलाशकर पहल की जाए। कृषि क्षेत्र के साथ ही गैर-कृषि क्षेत्र का उद्धार करना भी ग्रामीण मांग बढ़ाने के लिए जरूरी है। चूंकि कृषि राज्य का विषय है, अत: आम सहमति बनाने के लिए अतिरिक्त प्रयास आवश्यक हैं। सौभाग्य की बात है कि वर्तमान सरकार के पास ऐसा जनादेश है कि वह आम सहमति बना सकती है। यदि जीएसटी के लिए आम सहमति बनाई जा सकती है, तो फिर कृषि के मामले में भी ऐसा संभव है।


Date:03-06-19

Reversing the Slide

On economy, near-term focus should be on capital expenditure, and steps to boost demand in sectors with a multiplier effect

Editorial

That the Narendra Modi government, which returned to office with a resounding mandate, should hit the ground running was much needed, given the state of the economy. But that among its first steps should be to sign off on the proposal to expand the PM Kisan Yojana to cover 2 crore more farmers and a pension scheme to cover 3 crore retail traders and shopkeepers, is more debatable. The extra expenditure may be justified, though, by a government struggling to meet budgeted revenue targets — as a way of addressing political constituencies which supported the BJP, and also as a directional shift towards income support and building of a social safety net in a limited manner. It is also consistent with the party’s commitment to follow up on these in its poll manifesto. The question is whether these government interventions can be effective or will at best provide a temporary boost at a time when the fourth quarter GDP numbers are at a five-year low and when growth for the last fiscal at under 7 per cent is below most expectations. Some economists argue that the economy may well now be at the bottom of the cycle and is on course for a gradual reversal this fiscal.

The challenge, especially when the economy is firing on one engine, and when expectations are riding high, is to ease the fiscal tap and to attempt the so-called big bang reforms. The fact is, however, that such reforms can wait for now. Rather, the near-term focus should be on capital expenditure and steps to boost demand in sectors such as housing, steel and cement, which have a multiplier effect. It should help that interest rates appear to be headed southwards.

Logically, average GST revenues should be higher, with an expansion of the base, more simplification and stricter compliance. Banks also should be on course to lend more provided the government doesn’t delay stumping up capital and carrying out governance changes this time around. In the first budget after the Modi government took over in 2014-15, Arun Jaitley, who was then finance minister, said that the country was in no mood to suffer unemployment. Five years on, that still resonates.


Date:03-06-19

The Water Test

Providing piped water to all households is a long overdue project. It will have to join several dots

Editorial

During an election rally in Tamil Nadu last month, Prime Minister Narendra Modi had promised that if voted back to office, he would “ensure the creation of a Jal Shakti ministry that will deal with supplying clean drinking water to people and providing top-class irrigation facilities to farmers”. He moved to meet this promise during the portfolio allocation of ministers, last week. A new Jal Shakti Ministry has been formed by reorganising the Ministry of Water Resources, River Development and Ganga Rejuvenation and merging it with the Ministry of Drinking Water and Sanitation. The idea behind the creation of the new ministry — “to approach the issue of water management holistically and ensure better coordination of efforts” — is salutary. And, the new Jal Shakti Minister, Gajendra Singh Shekhawat, has begun work by announcing that the government intends to provide piped drinking water to every household. This is a long-overdue initiative given that, according to a 2018 NITI Aayog report, “600 million Indians face high to extreme water stress and about two lakh people die every year due to inadequate access to safe water”.

The new ministry will, however, have its task cut out. According to a 2017 assessment by the Ministry of Water Resources, India’s estimated per capita availability of water in 2025 will be 1,340 cubic metres. This is likely to fall to 1,140 cubic metres in 2050. The NITI Aayog report underlines one of the reasons for this state of affairs. Seventy per cent of the country’s water aquifers are polluted. Much of this owes to the Central Groundwater Board’s (CGWB) aggressive projects to tap groundwater. These endeavours, that began in the 1970s, did not pay adequate attention to the constraints placed by the country’s geology: Hard rocks constitute more than 60 per cent of the surface area of underground water sources. This means that they have poor permeability, which constrains their re-charge by rainfall. The Jal Shakti ministry’s endeavour to provide clean water will require a paradigm shift from the CGWB’s groundwater-centred approach.

Currently, less than 20 per cent of rural households have access to piped water; hand pumps are their main source of potable water. Piped water schemes in rural areas have been dogged by problems of infrastructure maintenance: Power fluctuations often damage motors and pipes are prone to leaks. Last year, a CAG report pointed out that “poor execution” has marred the National Rural Drinking Water Programme’s attempt to provide piped drinking water to 35 per cent of the country’s rural households. The auditor pointed out that, in most states, the panchayats were not provided with the informational know-how to operate the expensive piped water systems. The Jal Shakti ministry’s challenge will be to ensure that such mistakes are not repeated. It will have to join several dots.


Date:03-06-19

जीएसपी दर्जा खत्म

संपादकीय

अमेरिका द्वारा व्यापार में वरीयता की सामान्य व्यवस्था यानी जीएसपी के तहत भारत को विकासशील देश के रूप में शुल्क में छूट का लाभ समाप्त करने के कदम की र्चचा चाहे जितनी हो, इसे लेकर चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। वैसे भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 4 मार्च को कह दिया था कि यदि भारत में अमेरिकी सामानों को अपने बाजार तक समान और यथोचित पहुंच उपलब्ध नहीं कराया तो अगले साठ दिनों में जीएसपी दर्जा समाप्त कर देंगे। अब उनका कहना है कि चूंकि भारत ने इस संबंध में आश्वासन नहीं दिया है इसलिए 5 जून से भारत का दर्जा खत्म। 60 दिन की अवधि 3 मई को ही खत्म हो गई थी। इस बीच भारत अमेरिका के साथ बातचीत करता रहा लेकिन कोई रास्ता न निकला। हालांकि भारत ने इस घोषणा के बाद जिस तरह का संतुलित रवैया अपनाया है वह उचित है। अमेरिका भारत को सबसे ज्यादा लाभ देने वाला व्यापारिक साझेदार है, इसलिए बिगाड़ करना अपने को ही नुकसान पहुंचाना है। वैसे भारी संख्या में अमेरिकी सांसदों ने ट्रंप से ऐसा न करने का अनुरोध किया था। वहां की संसद के दोनों सदनों ने भारत को जीएसपी दर्जा बनाए रखने का प्रस्ताव तक पारित कर दिया था।

ट्रंप ने इन सबको नकार कर यह कदम उठाया है। जीएसपी अमेरिका का पुराना व्यापार तरजीही कार्यक्रम है, जिसे चुनिंदा गरीब व विकासशील देशों के हजारों उत्पादों को शुल्क से छूट देकर आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था। जीएसपी कार्यक्रम के तहत कोई विकासशील देश अगर अमेरिकी कांग्रेस द्वारा तय अर्हता शतरे को पूरा करता है तो वह वाहन कल-पुजरे एवं कपड़ों से जुड़ी सामग्रियों सहित करीब 2,000 उत्पादों का अमेरिका को बिना किसी शुल्क के निर्यात कर सकता है। कांग्रेस की जनवरी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017 में भारत इस कार्यक्रम का सबसे बड़ा लाभार्थी रहा था। अमेरिका के एक व्यापार संगठन कोएलेशन फॉर जीएसपी की ओर से कहा गया है कि इस फैसले से अमेरिकी कारोबारियों को 30 करोड़ डॉलर के अतिरिक्त कर का भुगतान करना होगा। इसीलिए यह संगठन इस फैसले को रोकने के लिए अभियान चला रहा था। अमेरिका इस समय अपना व्यापार घाटा कम करने के लिए कई कदम उठा रहा है, जिसमें सबसे ज्यादा आक्रामकता चीन के प्रति दिखी है। हमारे साथ वह उस तरह पेश नहीं आ रहा है, क्योंकि हमारा सामरिक महत्त्व उसके लिए ज्यादा है।


Date:03-06-19

भारत की बेदखली के मायने

रहीस सिंह

अंतत: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस निष्कर्ष पर पहुंच ही गए कि, ‘‘मैंने यह तय किया है कि भारत ने अमेरिका को अपने बाजार तक समान और तर्कपूर्ण पहुंच देने का आश्वासन नहीं दिया है। इसलिए 5 जून, 2019 से भारत को प्राप्त लाभार्थी विकासशील देश का दर्जा समाप्त करना बिल्कुल सही है।’ अब विषय यह है कि वर्ष 2018 के आते-आते भारत-अमेरिका संबंध उस ऊंचाई पर पहुंच गए थे कि अमेरिका ने भारत को अपना ‘‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ घोषित किया था और यह घोषणा की थी कि अब 99 प्रतिशत अमेरिकी रक्षा प्रौद्योगिकियों तक भारत की पहुंच होगी। अमेरिका का औपचारिक सहयोगी हुए बिना ही भारत यह दर्जा पाने वाला दुनिया का अकेला देश बना था। मगर दूसरी तरफ ट्रंप प्रशासन भारत को व्यापार पर मिलने वाली सामान्य छूटों से वंचित कर रहा है।

सवाल यह कि ऐसा क्यों? तो क्या भारत-अमेरिका ‘‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ हैं, जैसी शब्दावली यथार्थ से अधिक कलात्मकता का प्रतिनिधित्व कर रही थी? या फिर अमेरिका रणनीति के मामले में तो भारत को अपना सहयोगी बनाना चाहता है, किंतु आर्थिक लाभांशों में नहीं? एक प्रश्न यह भी है कि भारत और अमेरिकी रिश्तों के संबंध में कहा जा रहा था कि ये नये युग में प्रवेश कर चुके हैं, तो क्या यह नया युग प्रतिबंधों और संघर्षो का युग होगा या फिर सहयोगात्मक रणनीति का? जीएसपी से भारत को बाहर किया जाना क्या ‘‘अमेरिका फस्र्ट’ नीति का साइड इफेक्ट है अथवा अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आ रहे रिसेसन से उबरने का प्रयास या फिर ट्रेड वार का संकेत?

राष्ट्रपति ट्रंप ने मार्च में भारत को मिले जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रीफरेंसेज (जीएसपी) के तहत तरजीही कारोबार खत्म करने के लिए हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव को एक पत्र लिखा था। इसमें भारत के साथ बढ़ते व्यापार घाटे का हवाला देते हुए भारत सहित कुछ देशों को जीएसपी से बाहर करने के लिए कदम उठाने की बात कही गई है। भारत के संदर्भ में ट्रंप का तर्क है कि भारत अपने बाजार में अमेरिका को बराबर और उचित भागीदारी देने को लेकर आास्त करने में विफल रहा है। यही नहीं ट्रंप भारत को टैरिफ किंग बता चुके हैं और साथ ही यह आरोप भी लगा चुके हैं कि भारत अमेरिकी उत्पादों पर भारी-भरकम आयात शुल्क लगाकर अमेरिकी व्यापार घाटे को बढ़ा रहा है। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पैलोसी को लिखे इस पत्र में ट्रंप ने कहा कि मैं यह कदम इसलिए उठाने जा रहा हूं क्योंकि भारत सरकार के साथ कई स्तर पर बातचीत के बाद यही निष्किर्ष निकल पाया है कि उसके साथ तरजीही कारोबार को खत्म किया जाए। उनका यह भी कहना है कि नई दिल्ली यह आश्वासन देने में विफल रही है कि अमेरिका को उसके बाजार बराबर का मौका मिलेगा। यदि जीएसीपी पर विचार करें तो इसकी शुरुआत अमेरिका द्वारा 1 जनवरी 1976 को अमेरिकी ट्रेड एक्ट-1974 के तहत की गई जिसका उद्देश्य विकासशील देशों में आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देना था। जीएसीपी के तहत चुनिंदा उत्पादों को आयात शुल्क मुक्त या मामूली टैरिफ पर अमेरिकी बाजारों में उतारने की अनुमति दी जाती है।

अभी तक 129 देशों के करीब 4800 उत्पादों को जीपीएस व्यवस्था के अधीन रखा गया है, जिसमें मुख्य रूप पशुपालन, मीट, मछली और हस्तशिल्प जैसे उत्पादों को जगह दी गई है, जो मोटे तौर पर विकासशील देशों का उत्पाद माने जाते हैं। अब सवाल यह उठता है कि भारत को जीएसपी के तहत दिया जा रहा तरजीही दर्जा खत्म होने से भारत की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अध्ययन बताते हैं कि सीधे तौर पर तो इसके असर से भारत के ऑटोमोबाइल, टैक्सटाइल, केमिकल्स और इंजीनियरिंग क्षेत्रों के लगभग 2000 उत्पाद चपेट में आ जाएंगे। दूसरा यह कि अमेरिकी प्रशासन का जीएसपी संबंधी निर्णय तनावग्रस्त भारतीय निर्यातकों के लिए परेशान करने वाला साबित हो सकता है। हालांकि ट्रंप की घोषणा के समय केंद्रीय वाणिज्य सचिव अनूप वधावन का एक बयान था, जिसमें कहा गया था कि भारत का जीएसपी दर्जा खत्म होने से भारतीय निर्यात पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा। उनके अनुसार भारत ने वर्ष 2017-18 में अमेरिका को 48 अरब डॉलर मूल्यों के उत्पादों का निर्यात किया था, जिसमें से सिर्फ 5.7 करोड़ डॉलर का निर्यात जीएसपी रूट के जरिए हुआ है और 1.90 करोड़ डॉलर कीमत की वस्तुएं ही बिना किसी शुल्क वाली श्रेणी में शामिल रहीं।

इससे साफ जाहिर है कि अमेरिका के इस फैसले का भारत पर बेहद मामूली असर होगा। वाणिज्य सचिव की बात अपनी जगह सही हो सकती है लेकिन यहां कुछ तय हैं। पहला तय यह है कि क्या अमेरिका को इससे कोई लाभ होने जा रहा है? यदि नहीं तो अमेरिका ऐसा क्यों कर रहा है? अगर इसका आर्थिक लाभ अमेरिका को नहीं मिल रहा है तो उसे ऐसा कदम उठाने की जरूरत नहीं थी और यदि उसे लाभ मिल रहा है तो संगत अनुपात में भारत को हानि होगी। दूसरा यह कि भारत की अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हिस्सेदारी कितनी है और उसमें इस 5.6 बिलियन डॉलर की क्या कोई भूमिका नहीं है? इसके बाद ही यह तय किया जाना चाहिए कि यह फैसला भारत के लिए कितना नुकसानदेह है? भारत-अमेरिका द्विपक्षीय व्यापार में बहुत मामूली सा व्यापार अधिशेष है, जो लगभग 230 करोड़ डॉलर मूल्य के आसपास है। ट्रंप प्रशासन का संरक्षणवादी रुख यदि ऐसा ही रहा तो आने वाले समय में और भी कदम उठाए जा सकते हैं जिनके चलते तनाव और भी बढ़ सकते हैं। फिलहाल भारत को नुकसान पहुंचना तो तय है। अमेरिकी प्रशासन अपनी प्रिफ्रेंशियल ट्रेड पॉलिसी (कारोबार में तवज्जो) के जनरल सिस्टम ऑफ प्रिफरेंसेज में से भारत को बाहर निकाल रहा है तो इसका एक कूटनीतिक पक्ष भी है, जिसका संदेश दुनिया को अच्छा नहीं जाएगा।

सामान्य तौर पर तो हम यह कहेंगे कि यहां पर ट्रंप का अमेरिका फस्र्ट केंद्र में है मगर सही अर्थो में अमेरिका फस्र्ट नहीं बल्कि ‘‘अमेरिकी बिजनेस क्लास’ फस्र्ट है और इसी कारोबारी समुदाय को खुश करने के लिए ट्रंप इस तरह के कदम उठा रहे हैं जो आगे चलकर ट्रंप के वोट बैंक के प्रबंधन का दायित्व संभालेंगे। जो भी हो, इस सब में भारत को दो बातों को स्वीकार करना होगा। पहला यह कि उसके आर्थिक और कूटनीतिक लाभांशों को नुकसान पहुंचना तय है। दूसरा यह कि अमेरिका दुनिया के कुछ देशों को यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि वह अभी भारत के साथ सौदेबाजी के ही फेज में है।


Date:02-06-19

मुखौटा नहीं मूल्य है धर्मनिरपेक्षता

फैजान मुस्तफा

भाजपा लगातार कहती रही है कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता ‘‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ है, और वह ही सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता लाएगी। धर्मनिरपेक्षता को आज के दौर का मर्म समझा जाना जरूरी है। विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द की गारंटी की बात संविधान की प्रस्तावना में भी उल्लिखित है। धर्मनिरपेक्षता केवल अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र के लिए एक अच्छा विचार है। यहां तक कि विदेशियों के लिए भी। एक सिद्धांतवादी राज्य में आम तौर पर राज्य ही राज धर्म को मुखर करता है। धर्मनिरपेक्ष तकाजों को सहेजे रखने की जिम्मेदारी अल्पसंख्यकों की ही नहीं होती।

भाजपा मुख्यालय में अपने विजयोपरांत संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर रोचक बात कही। कहा कि तीस वर्षो तक झूठी धर्मनिरपेक्षता का मुलम्मा चढ़ाया जाता रहा और जिसने इसकी आड़ ले ली तो समझो उसके सारे पाप धुल गए। इस बात में कुछ सच्चाई भी है क्योंकि कुछ नेताओं के भ्रष्टाचार और अन्य प्रतिगामी जातिवादी नीतियों को मात्र इसलिए अनदेखा कर दिया गया कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के प्रति थोड़ी प्रतिबद्धता दिखाई थी। भले ही बराए नाम ऐसा किया हो। अपने अंदाज में प्रधानमंत्री ने आगे कहा कि ‘‘इस चुनाव में कोईभी दल धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन कर देश को गुमराह करने की हिम्मत नहीं कर सका’। क्या धर्मनिरपेक्षता मुखौटा है, या फिजूल की अवधारणा? प्रधानमंत्री के कथन में दम जरूर है क्योंकि हम पाते हैं कि कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। अनेक दफा हुआ है, जब इन पार्टियों ने धर्म या धार्मिक प्रतीकों का चुनावी इरादे से इस्तेमाल किया। राजीव गांधी ने 1989 में अपने चुनाव अभियान की शुरुआत अयोध्या से की। जहां तक भाजपा का प्रश्न है, तो इसके नेताओं ने मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने में कभी हिचक नहीं दिखाई। कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का दोष मढ़ा जाता है, तो भाजपा भी बिना खटके संवैधानिक मूल्यों की परवाह किए बिना हिंदू तुष्टिकरण में मुब्तला देखी जा सकती है।

इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट की आरवाई प्रभु (1995) मामले में इस व्यवस्था से धर्मनिरपेक्षता के भाव को खासा झटका लगा कि हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट चुनावी कदाचार नहीं है। सत्रह अक्टूबर, 1949 को संविधान की प्रस्तावना पर र्चचा हो रही थी, तो एचवी कामथ ने प्रस्ताव रखा कि प्रस्तावना की शुरुआत ‘‘भगवान के नाम पर’ शब्दों से होनी चाहिए। राजेन्द्र प्रसाद, जो परंपरावादी हिंदू थे, ने कामथ से ईर के उल्लेख संबंधी अपना संशोधन प्रस्ताव वापस लेने का आग्रह किया। लेकिन कामथ अपने रुख पर अड़े रहे। मतदान की नौबत आ गई और शुक्र है कि प्रस्ताव 41-68 से गिर गया। इसी प्रकार धर्मनिरपेक्ष शब्द को विशिष्ट रूप से शामिल तो नहीं किया गया लेकिन सदस्य एकमत थे कि हमारा संविधान उदार लोकतांत्रित संविधान होगा। उन मूल्यों के अनुरूप होगा जिन्हें हासिल करने के लिए हमने आजादी का संघर्ष किया। संविधानगत मौन भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए ‘‘संघीय’ शब्द इस्तेमाल नहीं किया है, लेकिन संघीयता संविधान का आधार है। बुनियादी रूप से धर्मनिरपेक्षता में तीन प्रकार के संबंध निहित हैं, जो राज्य, धर्म और नागरिकों के मध्य हैं। राज्य को धर्म से ऊपर होना चाहिए। जहां तक धर्म और नागरिकों के संबंध का प्रश्न है, तो नागरिकों को किसी भी धर्म का अनुसरण करने का अधिकार है, और जहां तक राज्य और नागरिकों के संबंध की बात है, तो राज्य को सुनिश्चित करना है कि किसी भी नागरिक के साथभेदभाव न होने पाए। इस प्रकार, धर्मनिरपेक्षता और कुछनहीं तटस्थता, स्वतंत्रता और समानता ही है।

बीते वर्ष दिसम्बर माह में मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस एसआर सेन ने इच्छा जताईकि भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिए। कहा, ‘‘साफ कर देना चाहता हूं कि किसी को भी भारत को एक और इस्लामी देश बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए नहीं तो भारत और विश्व के लिए कयामत ही आ जाएगी’। भारत के इस्लामी देश बनने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। लेकिन वह दिन कयामत का होगा जब भारत हिंदू राष्ट्र बन जाएगा। चौबीस मई, 2019 को मेघालय उच्च न्यायालय की खंड पीठ ने जस्टिस सेन के फैसले को नामंजूर कर दिया। कहा कि यह फैसला ‘‘वैधानिक रूप से दोषपूर्ण और संविधानगत सिद्धांतों से इसका कोई तारतम्य नहीं बैठता।’ भाजपा के कुछनेता तर्क देते हैं कि संविधान मूल रूप से धर्मनिरपेक्ष नहीं था, और यह शब्द इंदिरा गांधी ने 1976 में 42वां संविधान संशोधन करके प्रस्तावना में जुड़वाया था। इस तरह यह विचार धर्मनिरपेक्षता को हमारी सांस्कृतिक विरासत के तौर पर खारिज कर देता है।

कट्टर हिंदू दक्षिणपंथ धर्मनिरपेक्षता के विरोध में है क्यों कि यह धर्म को निजी मामला मानने के खिलाफ है, और धर्मनिरपेक्षता को ईसाई विचार के रूप में ही देखती है, जो अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण ही है। इस प्रकार भाजपा ने नारा दिया ‘‘किसी का नहीं तुष्टिकरण, सभी को न्याय’। हैरत तो यह है कि किसी भी धर्मनिरपेक्ष पार्टी ने कभी भी तुष्टिकरण की तयात्मक रूप से गलत अवधारणा को खत्म करने का प्रयास नहीं किया क्योंकि मुस्लिम आज भी उतने ही पिछड़े हैं, जितने दलित हैं, और जेलों को छोड़कर राज्य के तमाम संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व बेहद कम है। हिंदू दक्षिणपंथी तर्क रखते हैं कि जो व्यवस्था संशोधन के जरिए की गई है, उसे एक अन्य संशोधन के जरिए हटाया भी जा सकता है। इस तर्क में दो खामियां हैं। पहली तो यह कि भारत तो 1976 से पहले भी धर्मनिरपेक्ष ही था। बयालीसवां संशोधन होने के तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट की तेरह सदस्यीय पीठ ने केशवानंद भारती (1973) मामले में धर्मनिरपेक्षता को संविधान का आधार करार दिया था। एसआर बोम्मई (1994) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बाबारी मस्जिद के विध्वंस के पश्चात न केवल भाजपा सरकारों को हटाए जाने का अनुमोदन किया, बल्कि कहा कि धर्मनिरपेक्षता लोकतांत्रिक सरकार के सफल कामकाज के लिए अनिवार्य है। प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म की अनुपालना का अधिकार है, और राज्य को सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। भले ही वे किसी भी विास को मानते हो। राज्य धर्म विशेष को तरजीह नहीं दे सकता। शीर्ष अदालत ने भारतीय मूल्यों से धर्मनिरपेक्षता के विचार को इतर नहीं माना, बल्कि माना कि धर्मनिरपेक्षता का विचार भारतीय सांस्कृतिक या सभ्यतागत मूल्यों से ग्रहण किया जा सकता है। ये मूल्य सहिष्णुता, सौहार्द और प्रत्येक व्यक्ति को उसी रूप में स्वीकार करने की बात हैं जैसा कि वह है। जस्टिस जीवन रेड्डी ने ‘‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का उपयोग किया। लेकिन उनका भाव भाजपा की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से पूरी तरह भिन्न है।

उन्होंने कहा था कि अदालत अपनी सभ्यतात्मक भूमिका का निर्वहन करेगी और उन स्थितियों में निर्णायक हस्तक्षेप करेगी जहां सांप्रदायिक सौहार्द और सहिष्णुता पर गंभीर खतरे मंडराने का अंदेशा उठ खड़ा होगा। आइए, उम्मीद करते हैं कि अदालत भविष्य में भी अपने हस्तक्षेपात्मक भूमिका का निर्वहन करती रहेगी। राज्य और धर्म को पृथक रखने की जो रेखा है, उसे वास्तव में ऊंचा रखना ही होगा। अपराजेय रखना होगा।