04-01-2020 (Important News Clippings)

Afeias
04 Jan 2020
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Date:03-01-20

Who’s afraid of a song ?

IIT-Kanpur needs to embrace students who protested CAA by singing Faiz poem, not probe them

Editorials

The eminence of IIT-Kanpur as a centre of excellence is well-known and showcased by its high rankings in numerous international surveys, its distinguished research departments, alumni, and faculty. Unlike most science and technology schools, IIT-Kanpur even has an artist-in-residence programme to make education more holistic. Hence, it is ironic and disquieting that the institute, acting on a complaint by a temporary faculty, has decided to investigate if Faiz Ahmed Faiz’s 1979 iconic poem, Hum Dekhenge, immortalised as an anthem of protest by singer Iqbal Bano, contains anti-Hindu references.

Faiz and Bano and their work, including Hum Dekhenge, are a part of the Subcontinent’s collective cultural heritage. That’s how it has been, and it will continue to be so. Of course, the faculty member has a right to be offended by the song. But should IIT-K have legitimised his “hurt”, ordered a probe? How absurd is it for IIT-K to sit in judgement over Faiz’s secular credentials, as mirrored in Hum Dekhenge? Surely, even the junior-most faculty member in its humanities department could have explained to the deputy director heading the probe who Faiz and Bano are, even if a google search had failed to do so. In fact, the institute that hosted Naseeruddin Shah as artist-in-residence, at a time when the actor was critical of the government, ought to be proud of students who chose to stand in solidarity with their community elsewhere and protest the new citizenship law. These students have announced to the world that their campus, which has a distinguished record in academics, rejects all forms of bigotry and will speak out when the liberal values and foundations of the Republic are seen to be threatened. It is unfortunate that the institute’s bureaucracy has chosen to be blind to the message of the students and even forced Vox Populi, the online platform of the student body, to take down an editorial that complained about a peaceful gathering of the students being communalised.

The move to probe the protesters and the censure of Vox Populi send out disconcerting signals. They mirror a sense of insecurity that doesn’t behove a first-rate institute like the IIT-K. Faiz wrote the poem at a time of political repression in his country, and in Bano’s rendering a people denied democratic freedoms found a collective voice. The then military dictator of Pakistan, Zia ul Haq, felt that Hum Dekhenge was about him and sought to suppress it. There is no reason why anyone in India, a democracy that upholds the right to free speech, needs to feel similarly discomfited.


Date:03-01-20

हादसों का सिलसिला

संपादकीय

यह सही है कि हादसों का पहले से कोई निश्चित वक्त नहीं होता है और वे अचानक ही होते हैं। पर यह तय है कि उसकी कोई वजह होती है और आमतौर पर उनसे बचा जा सकता है। हालांकि विडंबना यह है कि एक ही तरह की लगातार कई घटनाओं में सामने आई त्रासदी और उसके कारणों के सामने होने के बावजूद उससे सबक लेना जरूरी नहीं समझा जाता और न उससे बचने के उपाय किए जााते हैं। जाहिर है, हादसों के लिए जिम्मेदारी उसकी मुख्य

वजहों की होती है, लेकिन उसकी अनदेखी करने वाले तमाम जवाबदेह लोग और समूहों की ज्यादा बड़ी भूमिका होती है। गुरुवार को सुबह दिल्ली के पीरागढ़ी इलाके में स्थित एक कारखाने में लगी भीषण आग इसी तरह की लापरवाही का एक उदाहरण है। कारखाने में लगी आग बहुत कम वक्त में चारों तरफ फैल गई और इसी बीच उसमें बड़ा विस्फोट हुआ, जिसकी वजह से उस इमारत का एक बड़ा हिस्सा भी ढह गया। आग की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पचास दमकल गाड़ियों और करीब दस घंटे की मशक्कत के बाद उस पर काबू पाया जा सका। इस घटना में आग बुझाने के दौरान चौदह दमकलकर्मियों सहित अठारह लोग बुरी तरह घायल हो गए और एक दमकलकर्मी की मौत हो गई।

अब इस घटना के बाद एक बार फिर जांच कराने से लेकर तमाम पहलुओं पर गौर करने और जिम्मेदारी तय करने की घोषणाएं होंगी। आखिर ऐसा क्यों है कि हर कुछ दिन में सामने आ रहे ऐसे हादसों के बावजूद उन पर रोक लगाना न प्रशासन के लिए संभव हो पा रहा है और न खुद कारखाना मालिक इस बारे में सोचना जरूरी समझ रहे हैं। लेकिन घटना में होने वाले नुकसान पर चिंता जताने में कोई कमी नहीं की जाती। गौरतलब है कि पिछले एक महीने में किसी कारखाने या काम करने की जगह पर आग लगने की यह तीसरी बड़ी घटना है। इससे पहले के दोनों बड़े हादसों में भारी पैमाने पर जानमाल की क्षति हुई और काफी संख्या में लोग मारे गए। ऐसी घटनाओं में एक आम कारण यही होता है कि कारखाने की इमारत में आग लगने की वजहों की अनदेखी की जाती है। हर मामले में जिस शॉर्ट सर्किट को जिम्मेदार बताया जाता है, वह सिर्फ घोर लापरवाही का नतीजा होता है। क्या इस सामान्य समझ का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है कि बिजली के कनेक्शन और तार हर कुछ समय बाद पूरी तरह दुरुस्त किए जाते रहें या फिर बदले जाते रहें?

इसके अलावा, आग लगने की स्थिति में बचाव के साधनों के मामले तो इस कदर आपराधिक लापरवाही बरती जाती है कि सिर्फ इस वजह से कई लोगों की नाहक जान चली जाती है। विडंबना यह है कि अग्नि शमन से लेकर जिन भी संबंधित महकमों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे समय-समय पर अपने प्रशासन क्षेत्र में आने वाली सभी इमारतों में आग लगने के लिहाज से संवेदनशील ठिकानों और कारणों की जांच करें और हादसों की आशंका को न्यूनतम या खत्म करें, वे तब तक नींद में रहते हैं, जब तक कि कोई बड़ा हादसा न हो जाए। शायद यही वजह है कि आग लगने की किसी बड़ी दुर्घटना के सदमे से लोग उबरे भी नहीं होते हैं कि अगला उसी तरह का हादसा फिर कहीं हो जाता है। क्या इस रवैये के रहते ऐसी त्रासद घटनाओं पर काबू पाया जा सकता है!


Date:03-01-20

भारतीय नाविकों के लिए नई चुनौती बनता पश्चिम अफ्रीका

महेश सचदेव

गिनी की खाड़ी भारतीय नाविकों के लिए असुरक्षित हो चली है। पिछले महीने वहां समुद्री डाकुओं ने तेल ढोने वाले दो भारतीय जहाजों को अगवा कर लिया और भारतीय चालक दल को बंधक बना ले गए। 3 दिसंबर को उन्होंने 16 अन्य नाविकों का अपहरण किया, और 15 दिसंबर को वे एक बार फिर 20 नाविकों को उठा ले गए। पहले समूह को बेशक उन्होंने 23 दिसंबर को रिहा कर दिया, लेकिन दूसरे और तीसरे समूह के नाविक इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मुक्त नहीं हो सके थे।

कम से कम तीन वजहों से भारतीय यहां निशाने पर हैं। पहली, पिछले कुछ वर्षों से यह खाड़ी दुनिया भर में ‘अपहरण के मुख्य केंद्र’ के रूप में उभरी है। इस तरह अगवा करने की 82 फीसदी घटनाएं यहां हुई हैं। सोमालियाई डाके के कम होने से आई शांति को पश्चिम अफ्रीकी डाकुओं ने मानो भंग कर दिया है। इनका अड्डा अमूमन नाइजीरिया के तेल-समृद्ध क्षेत्र घने जंगल वाले नाइजर डेल्टा में है। दूसरी वजह पश्चिम अफ्रीका के साथ हमारा बढ़ता समुद्री व्यापार है, क्योंकि तेल की खरीदारी के कारण हम नाइजीरिया के सबसे बड़े कारोबारी-साझीदार बन गए हैं। नतीजतन, यहां से हमारे जहाजों की आवाजाही बढ़ गई है। तीसरी वजह है, खुले सागरों में जाने वाले हमारे नाविकों की बढ़ती संख्या। यह संख्या अब दो लाख से अधिक हो गई है और पिछले तीन वर्षों में इसमें 45 फीसदी की वृद्धि हुई है।

कई स्थानीय कारणों से भी इस खाड़ी में हमारे नाविकों के लिए मुश्किलें बढ़ी हैं। तटवर्ती देशों की अपेक्षाकृत कमजोर नौसेनाएं और तटरक्षक बल, बेरोजगार नौजवान और नाइजर डेल्टा में सुलगता विद्रोह इन कारकों में शामिल हैं। अपहरणकर्ताओं को आमतौर पर राजनीतिक संरक्षण हासिल होता है। अपराधियों का यह सिंडिकेट तेल पाइपलाइन को नुकसान पहुंचाने, सुरक्षा देने के नाम पर जबरन वसूली करने और खुले सागर में अनधिकृत रूप से कच्चा तेल बेचने में भी सक्रिय है। इस दुश्चक्र से होने वाले ‘लाभ’ का इस्तेमाल घातक हथियार खरीदने और अधिक से अधिक रंगरूटों की भर्ती करने में किया जाता है।

नतीजतन, इस अपराध सिंडिकेट के पास गहरे समुद्र में भी पहुंचने की क्षमता हो गई है और 23.5 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली गिनी की खाड़ी में इनका आभासी रूप से अबाध कब्जा हो गया है। चूंकि समुद्री बीमाकर्ता नाविकों की रिहाई के लिए बातचीत और फिरौती का भुगतान करते हैं, इसलिए अपहरणकर्ता यह जानते हैं कि उन्हें फिरौती तभी मिल सकती है, जब अगवा किए गए लोगों को जिंदा रखा जाए। लिहाजा राजनीतिक अपहरण के उलट इन मामलों में नाविकों को तब तक नुकसान नहीं पहुंचाया जाता, जब तक कि वे विरोध या भागने की कोशिश न करें। फिर भी, सबसे ज्यादा बदनसीब नाविक या उनके परिजन ही साबित होते हैं। बेशक उन्हें शारीरिक रूप से चोट नहीं पहुंचाई जाती, लेकिन उनके साथ जोर-जबर्दस्ती होती है और उन्हें दिमागी सदमा भी पहुंचता है। वैसे कुछ नाविकों को ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ भी हो जाता है और अपहरणकर्ताओं से लगाव हो जाता है।

सवाल यह है कि भारत और विश्व समुदाय इनसे कैसे निपट सकता है? पश्चिम अफ्रीका के साथ कारोबार खत्म करना या नाविकों को यहां जाने से रोकना निश्चय ही व्यावहारिक उपाय नहीं है। हां, सोमालियाई डकैती को कम करने की जो रणनीति अपनाई गई थी, उसे जरूर आजमाया जा सकता है। हालांकि इसके लिए दो समान स्थितियां हैं, तो दो प्रमुख अंतर भी हैं। पश्चिम अफ्रीका में इस्तेमाल किया जाने वाला हथियार कहीं अधिक धातक और आधुनिक है, लेकिन ये उन पेशेवर नौसेनाओं की तरह भी नहीं, जो उपग्रह और हवाई निरीक्षण जैसी तकनीकों के उपयोग में माहिर हैं। फिर, सोमालिया के तटों पर किसी का शासन नहीं था, जबकि पश्चिमी अफ्रीका में सरकारें हैं, जो बेशक कमजोर हैं और इन डाका को किसी और की समस्या मानती हैं। उन्हें अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए मदद की दरकार है। अपराधियों को अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय तक लाना भी एक निदान हो सकता है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर भी हमें नाविकों के लिए जागरूकता अभियान चलाना होगा, ताकि ऐसी मुश्किलों से लड़ने में उन्हें मदद मिल सके। ‘समुद्री जलदस्युता रोधी विधेयक’ भी एक सुखद कदम है, जिसे पिछले महीने ही लोकसभा में पेश किया गया है।


Date:03-01-20

क्यों सबसे अलग है यह नई पीढ़ी

संतोष देसाई

आम तौर पर अलग-अलग पीढ़ियों को संबोधित करने के लिए अलग-अलग नामों का उपयोग होता आया है, जैसे बेबी बूमर्स, जेन एक्स, जेन वाय इत्यादि। हालांकि इन संबोधनों को वैश्विक स्तर पर लागू करने का अर्थ नहीं है। हर देश और संस्कृति का अपना संदर्भ होता है। पश्चिम में विकसित किसी व्याख्या को बिना सोचे भारत जैसी संस्कृति में लागू करना मूर्खतापूर्ण ही कहा जाएगा। हालांकि ‘मिलेनियल्स’ (नई सदी में जवान हुई पीढ़ी) का मामला कुछ अलग है। इस पीढ़ी और पहले की पीढ़ियों में अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस पीढ़ी की प्राथमिकताएं और दुनिया को देखने का नजरिया अलहदा है, इसलिए इस पीढ़ी का वैश्विक नामकरण संभव है।

सबसे पहले तो इस पीढ़ी की लगाम डिजिटल टेक्नोलॉजी के हाथ है और इसकी प्रकृति वैश्विक है। प्रौद्योगिकी का आगमन चूंकि लगभग नई सदी या ‘मिलेनियम’ के साथ-साथ हुआ है, इसलिए इस पीढ़ी को ‘मिलेनियल्स’ नाम नसीब हुआ है। इस नामकरण के पीछे अपने मजबूत तर्क हैं। भारत में खासतौर पर हम देखते हैं कि मोबाइल फोन ने इस पीढ़ी को एक खास चरित्र से नवाज दिया है। पहले की तमाम पीढ़ियों से अलग इस पीढ़ी में व्यक्तिवादी भावना गहराई से जमी हुई है। इस पीढ़ी के युवा अपनी निजता को लेकर ज्यादा सजग हैं। वे दुनिया का अनुभव जिस प्रकार से करते हैं, उसी से उनके अंदर व्यक्तिवादी भावना जागती है। मोबाइल फोन अपनी प्रकृति से अपने उपयोगकर्ताओं को न केवल एक अलग इकाई के रूप में स्थापित करता है, बल्कि पूरी दुनिया के बीच ला खड़ा करता है।

एक-एक क्लिक, स्वाइप, पिंच, स्क्रॉल, लाइक, शेयर, रिप्लाई, डिस्लाइक, रिजेक्ट, अन-फ्रेंड जैसे मामूली कदम भी व्यक्ति को आश्वस्त कर देते हैं कि उसका खुद पर या अपने डिजिटल परिवेश पर एक व्यक्ति के रूप में पूरा नियंत्रण है। अनेक डिजिटल उपकरण हैं, जो व्यक्ति को एक इकाई के रूप में तेजी से धारदार बनाने में जुटे हैं। सेल्फी व्यक्ति के रूप में इस पीढ़ी के अपने विकास के दस्तावेज की तरह है। व्यक्ति और उसका फैशन इंस्टाग्राम जैसे सोशल प्लेटफॉर्म पर अंकित होता जा रहा है। टिकटॉक पर कोई भी किसी के जीवन के किसी भी पहलू का वर्णन कर सकता है और बड़े प्रभावी ढंग से अपने दर्शक जुटा सकता है।

कोई भी किसी सोशल मीडिया मंच के जरिए प्रभावी बन सकता है और किसी प्रभावी व्यक्ति का अनुसरण कर सकता है। अपने मुफीद लोगों को जोड़ना सीख सकता है। फैशन, भोजन, मेकअप ज्ञान हो या करियर, व्यक्तित्व संबंधी सलाह, सारा कुछ सहज उपलब्ध है। साथियों से सीखने की क्षमता और एक व्यक्ति के रूप में स्वयं को कायम रखने की क्षमता इस पीढ़ी की विलक्षण विशेषता है।

यह ऐसी पहली पीढ़ी है, जो कई समान स्तरीय अच्छे विकल्पों के बीच चयन की क्षमता से लैस है। तरह-तरह की चीजों को आजमाती है। अपने दृष्टिकोण को छोड़े बिना एक अनुभव से दूसरे अनुभव की ओर आसानी से बढ़ सकती है। चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो, व्यक्तिगत संबंधों का क्षेत्र हो, उपभोग हो या व्यक्तिगत पहचान हो, यह पीढ़ी अपने सारे विकल्प खुले रखना चाहती है। इस पीढ़ी के लोग व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता के पीछे भागते हैं, लेकिन जो भी संसाधन उपलब्ध हैं, उनका उपयोग करने में इन्हें खुशी होती है।

इस पीढ़ी के पास परिवार है, जिस पर वह भरोसा करती है और वह परिवार का साथ लेने में संकोच नहीं करती। यह हर तरह के वित्तीय, शारीरिक और भावनात्मक सहयोग के लिए परिवार की ओर झुकती है। इस पीढ़ी में स्वतंत्रता की इच्छा और परिवार पर अटूट निर्भरता के बीच कोई विरोधाभास नहीं देखा जाता है। जहां परिवार की भूमिका सतत है, वहीं अपनी पहचान की यात्रा में दोस्तों की भूमिका भी बहुत स्पष्ट है। दोस्तों का विशाल सुरक्षित दायरा न होता, तो शायद इतने अनुभव संभव नहीं होते।

पहले के दौर में समय बिताने के लिए दोस्तों का जमघट लगता था, निठल्ले सब साथ बैठे रहते थे, लेकिन नई पीढ़ी का रुख मिलकर कुछ करने की ओर है और इसमें खपत या उपभोग की क्रियाएं भी निहित हैं। यह उपभोग भी खोज से कहीं अधिक है, यह आत्म-अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और यह तरीका युवाओं के बीच चल निकला है। उपभोग यहां न केवल दुनिया को महसूस करने का एक जरिया बन जाता है, बल्कि खुद को व्यक्त करने का एक तरीका भी। यह पीढ़ी उपभोग के विकल्पों को गंभीरता से लेती है और किसी चीज की तलाश में काफी कोशिश और समय भी लगाती है।

अब उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की सीमाएं गायब हो रही हैं, क्योंकि नई पीढ़ी एक ही साथ दोनों है। इस पीढ़ी के लिए उपभोग और व्यापक सामाजिक चिंताएं अनिवार्य रूप से अलग-अलग नहीं हैं। यह पीढ़ी अपनी खुद की ताकत पर यकीन करती है और खुद को व्यक्त करने में बहुत सक्रिय भूमिका निभाती है। यह पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अलग रुख अपनाती है। जरूरी नहीं कि वह परंपरा को माने। यह पुरानी पीढ़ी को नाराज कर सकती है। अपनी व्यक्तिगत इच्छा को प्राथमिकता दे सकती है। यह पीढ़ी खुद को अपनी नौकरी से भी ऊपर रखती है, जिससे नियोक्ता भी घबराए हुए हैं। यह पीढ़ी उपयोगी भी है, क्योंकि यह अपने साथ जोश व जुनून लेकर आती है।

हालांकि इस पीढ़ी के सामने दिमागी सेहत की चुनौती बड़ी है। जिस परिवेश से ये युवा घिरे हैं, उसमें उन्हें खूब संघर्षों से भी गुजरना पड़ता है। इस पीढ़ी को कुछ ज्यादा ही विकल्प उपलब्ध हो जाते हैं, इन्हें तय करना पड़ता है कि इनकी अपनी मांगें क्या हैं, तात्कालिक से आगे व्यापक संदर्भ में सोचना पड़ता है, और यह भी देखना पड़ता है कि दुनिया में क्या चल रहा है। इन सबसे ऐसा तनाव पैदा होता है कि कई बार संतुलन बनाने में मुश्किल आने लगती है। शायद इस पीढ़ी को बहुत जल्दी और बहुत ज्यादा की खोज है। यह सजग और रचनात्मकता की संभावनाओं से भरी अधीर खोज है। साथ ही, इसमें आत्म-विनाश की क्षमता भी है। ‘मिलेनियल्स’ की चिंताएं जहां व्यापक और सामाजिक रूप से समावेशी हैं, वहीं यह अत्यधिक आत्म-केंद्रित भी है। लेकिन इस बीच, यह पीढ़ी स्मार्टफोन से खुराक लेती हुई, एल्गोरिद्म व अन्य मशीनों से सीखती हुई अपनी राह पर बढ़ चली है।