03-09-2024 (Important News Clippings)
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ET Editorials
One of the most unfortunate features of the Indian judicial system is the high pendency of cases. According to the National Judicial Data Grid (NJDG), 510 million cases are pending across the judicial pipeline, including 82,989 pending cases, an all-time high, in the Supreme Court. In his address at a conference on 75 years of the district judiciary on Sunday, Chief Justice D Y Chandrachud said that tackling pending cases remains a critical challenge, and that increasing the disposal-to-filing ratio is important, but this hinges on attracting skilled personnel to the system. He added that the time has come to think of ‘national integration’ by recruiting members of judicial services across the ‘narrow walls of regionalism’ and ‘state-centred selections’.
CJI’s endorsement of an all-India judicial service, along the lines of IAS or IPS, has been on the NDA government’s wishlist, and underscores the practical benefits of a national-level service. GoI’s 2015 proposal had virtually no takers, with most states pushing back on the grounds of violating the federal nature of the polity or linguistic barriers. Interestingly, linguistic barriers have not posed an insurmountable problem for the administrative or police services.
An all-India judicial service will bring much-needed transparency to judicial appointments by creating a system based on established criteria. Besides attracting high-quality legal talent into the system, it will break the local and state-level nexus between political and judicial establishments and ensure inclusivity. This will enhance the quality of justice and accelerate its delivery while creating a strong pool of candidates for the higher judiciary. Strengthening the judicial system is essential to bolstering the health of our democratic polity.
जजों की संख्या बढ़ाए बिना न्याय में गति कैसे आएगी
संपादकीय
प्रधानमंत्री के बाद अब राष्ट्रपति ने भी न्याय में विलंब पर न्यायपालिका को कड़ी नसीहत दी है। उन्होंने कहा, कभी ‘व्हाइट कोट’ (डॉक्टर्स का एप्रिन) देखकर मरीजों का बीपी बढ़ जाता था, लेकिन आज आम जनता काले कोट वालों से न्याय मांगने की जगह चुपचाप जुल्म सहना पसंद करती है। क्योंकि इसमें कोर्स के वर्षों चक्कर लगाना और आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता है। जिला न्यायपालिका के दो-दिवसीय सम्मेलन में बोलते हुए राष्ट्रपति ने जजों को ‘तारीख देने की कार्य- संस्कृति’ से बचने को कहा। साथ में बैठे सीजेआई को स्पष्टीकरण के मोड में आना पड़ा। उन्होंने कहा कि 28% जजों और 27% कर्मियों के स्वीकृत पद नहीं भरे जा रहे हैं। उन्होंने विलंब कम करने के लिए बनी समिति के तीन-चरण वाले कदमों के बारे में भी बताया। जजों की कमी के अलावा विलंब का एक और बड़ा कारण स्थगन की संस्कृति है । इसमें वकील भी आर्थिक लाभ देखता है और केस की मेरिट पर बहस करने के झंझट से वकील और जज दोनों बच जाते हैं। राष्ट्रपति की बात के पीछे हाल ही में अजमेर में आया एक फैसला है, जहां 32 साल बाद छह दोषियों को सामूहिक दुष्कर्म के मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई। इसी साल कानून मंत्री ने संसद को बताया कि प्रति दस लाख आबादी पर 21 जज हैं। लेकिन यह आंकड़ा 2011 की आबादी और स्वीकृत पदों के आधार पर है। इस समय आबादी 142 करोड़ है और जजों की (जो सीजेआई ने बताया) असली संख्या स्वीकृत पदों का मात्र 62% ही है। इसके विपरीत लॉ कमीशन की 120वीं रिपोर्ट ने जजों की संख्या को प्रति दस लाख की आबादी पर 50 जज करने की संस्तुति की थी। न्याय के प्रति गरीब जनता में अविश्वास के दोषी सरकार, न्यायपालिका और जनता सहित सभी स्टेकहोल्डर्स हैं। इसलिए केवल किसी एक अंग पर दोष मढ़ना गलत होगा।
Date: 03-09-24
देश और दुनिया में अब ‘स्मार्ट शहरों’ का समय आ गया है
आशीष कुमार चौहान, ( नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के एमडी और सीईओ )
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 अगस्त 2024 को भविष्य की ओर कदम बढ़ाया, जब आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने पीएम गतिशक्ति सिद्धांतों पर आधारित, 28,602 करोड़ रुपए की लागत से 10 राज्यों में 12 औद्योगिक स्मार्ट शहरों की स्थापना की घोषणा की। यह भारत का अब तक का सबसे महत्वाकांक्षी बुनियादी ढांचे का कार्यक्रम है, और इसका उद्देश्य पूरे देश में विकास के बड़े इंजन बनाना है।
साहसी और परिणाम-केंद्रित नेतृत्व ही विकसित भारत के सपने को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ा सकता है। राष्ट्रीय औद्योगिक कॉरिडोर विकास कार्यक्रम (एनआईसीडीपी) के तहत संचालित की जाने वाली नई परियोजना इस लक्ष्य की ओर देश की यात्रा को गति देगी।
सतत विकास के लिए एक और प्रोत्साहन की आवश्यकता है- स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के लिए बड़े पैमाने पर निवेश। सरकार यही करने का इरादा रखती है। उसकी योजना डिजिटल रूप से सम्पन्न, ‘प्लग-एंड-प्ले’ औद्योगिक और मैन्युफैक्चरिंग केंद्रों में बड़े पैमाने पर निवेश की है।
आज प्रधानमंत्री मोदी को एक व्यावहारिक नीति-निर्माता के रूप में देखा जाता है। उन्होंने जल्द ही यह महसूस कर लिया कि भारत जैसे विशाल देश को प्रगति की ओर ले जाने के लिए आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
इसी का उत्तर था मेगा-इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को शुरू करना- भविष्य के शहरों का निर्माण करना, विशाल समुद्री केंद्र स्थापित करना, देश भर में अत्याधुनिक सड़क और रेल कॉरिडोर बनाना और विश्वस्तरीय डिजिटल बुनियादी ढांचा स्थापित करना।
इस अति-महत्वाकांक्षी परियोजना की रोजगार-क्षमता बहुत अधिक है : इससे 10 लाख प्रत्यक्ष और 30 लाख अप्रत्यक्ष रोजगार सृजित होने की उम्मीद है। इसमें 1.52 लाख करोड़ रुपए का निवेश भी होगा, जिसमें निवेशकों को आवंटन के लिए तैयार भूमि, पानी, बिजली, गैस, दूरसंचार, सड़क, रेल, हवाई अड्डे उपलब्ध होंगे। एकीकृत नगर-नियोजन और कर्मचारियों के लिए काम के समीप ही आवास की सुविधा के साथ पर्यावरण की चिंताओं का भी ध्यान रखा जाएगा।
चूंकि ये औद्योगिक स्मार्ट शहर आर्थिक चुम्बक के रूप में कार्य करेंगे, इसलिए वे प्रमुख महानगरों पर दबाव को भी कम करेंगे। इससे योजनाबद्ध शहरीकरण होगा। यह नया भारत है। यह ऐसा विचार है जिसका समय आ गया है। महाराष्ट्र हमेशा से भारत की आर्थिक शक्ति रहा है। सतत विकास के दृष्टिकोण से भी यह सबसे अधिक लाभान्वित होगा और बुनियादी ढांचे व परिवहन में नए मानक स्थापित करेगा।
इस वर्ष की शुरुआत में, मुंबई ने भारत के सबसे लंबे समुद्री पुल- मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक को हरी झंडी दिखाई। कोस्टल रोड मुंबई एक अन्य मेगा-परियोजना है और वर्तमान में इसे चरणों में विकसित किया जा रहा है। महाराष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने को बदलने के लिए तैयार अन्य परियोजनाएं दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर, नवी मुंबई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, मुंबई-अहमदाबाद हाई-स्पीड रेल और मुंबई-पुणे हाइपरलूप हैं।
महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में दो बेहद महत्वाकांक्षी परियोजनाएं पहले ही चल रही हैं। एक है रायगढ़ जिले के नौ गांवों में फैला दिघी पोर्ट औद्योगिक क्षेत्र परियोजना। यह दिघी बंदरगाह के विकास के साथ-साथ शुरू की जा रही है और इससे राज्य में उपभोक्ता-उपकरण, धातु, ऊर्जा, पेट्रोकेमिकल और रसायन व्यवसाय जैसे उद्योगों में निवेश बढ़ने की उम्मीद है।
दूसरी समुद्री परियोजना मुंबई से 130 किलोमीटर उत्तर में दहानू स्थित वधावन में भारत के सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक का विकास है। वधावन मध्य-पूर्व के माध्यम से भारत को यूरोप से जोड़ने वाली समुद्री और रेल संपर्क स्थापित करने की रणनीतिक पहल का हिस्सा है। अफ्रीका के पूर्वी तट और फारस की खाड़ी के देशों से कंटेनर यातायात की पूर्ति के लिए अरब सागर में एक केंद्र के रूप में बंदरगाह को विकसित करने की योजना है।
आज पूरी दुनिया में जीवन की गुणवत्ता में सुधार, शहरों को टिकाऊ बनाने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए स्मार्ट शहरों का विकास किया जा रहा है। चीन ने 2012 में स्मार्ट शहरों को प्राथमिकता बनाया और 2020 तक देश भर में 900 से अधिक पायलट-प्रोजेक्ट स्थापित किए।
इसने ग्वांगझोउ, शेनझेन और हांग्जो जैसे छोटे शहरों को वैश्विक मानचित्र पर ला दिया, क्योंकि वे शहरी-नियोजन और प्रबंधन के लिए अभिनव दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं। 2000 के दशक की शुरुआत में स्मार्ट शहरों को अपनाने वाले पहले देश दक्षिण कोरिया में आज दुनिया का सबसे स्मार्ट शहर सोंगडो है, जो सियोल से बहुत दूर नहीं है। पिछले एक दशक में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत का विकास-रथ हमें दिखा रहा है कि जब आप दृढ़ संकल्प को स्पष्ट दृष्टि और निर्णायक कार्रवाई से जोड़ते हैं तो क्या किया जा सकता है।
Date: 03-09-24
एशिया और अफ्रीका में नई पीढ़ी मुखर हो रही है
बिनाइफर नौरोजी प्रेसिडेंट, ( ओपन सोसायटी फाउंडेशन )
छह महीने पहले बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की सत्ता पर पकड़ को अभेद्य माना जा रहा था। सत्तारूढ़ अवामी लीग ने निर्विरोध चुनाव में लगातार चौथी बार जीत हासिल की थी। पर अचानक पिछले महीने छात्र समूहों के नेतृत्व में पूरे देश में विरोध भड़क उठा और हिंसक झड़प में 400 लोगों की मौत हो गई। इससे हसीना सरकार के 15 साल के शासन की स्याह हकीकत उजागर हुई। जिस तरह से श्रीलंका में ‘अरगालय’ सामूहिक विरोध के बाद साल 2022 में राजपक्षे परिवार के शासन का अंत हुआ था, उसी तरह बांग्लादेश में युवाओं के कारण हसीना को इस्तीफा देना पड़ा और भागने के लिए मजबूर हो गईं।
युवाओँ के नेतृत्व में हो रहे आंदोलनों की शृंखला में बांग्लादेश हालिया जुड़ा नया नाम है, जिसने इस साल एशिया और अफ्रीका के कई देशों को हिलाकर रख दिया है। फरवरी में नौजवान पाकिस्तानियों ने चौंकाने वाले चुनावी नतीजे सामने रखे, जहां सेना को धता बताते हुए उन्होंने जेल में बंद पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के लिए सामूहिक मतदान किया।
उसके एक महीने बाद, पश्चिमी अफ्रीकी देश सेनेगल के युवा मतदाताओं ने चुनावों में अपने लोकतंत्र की फिर से वापसी कराई, जो उनसे छीन लिया गया था। एक बहुत कम जाना-पहचाना चेहरा और टैक्स इंस्पेक्ट रहे दिओमाये फाये महज चंद हफ्तों में जेल से उठकर राष्ट्रपति बन गए। फिर जून में यह हवा केन्या पहुंच गई, जहां जेन ज़ी आंदोलनकारी तत्कालीन राष्ट्रपति विलियम रुटो के नए टैक्स लागू करने की योजना के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। बांग्लादेश की तरह वहां भी अधिकारियों ने हिंसक प्रतिक्रिया दी, दर्जनों लोग मारे गए। और आखिरकार रुटो को विवादास्पद बिल वापस लेना पड़ा। अब अफ्रीका के ही देश नाइजीरिया में विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं, जहां जीवनयापन की बढ़ती लागत पर युवा उद्वेलित हैं।
एशिया और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में एक नई पीढ़ी खुद को मुखर कर रही है। नौजवान उत्सुकता के साथ आंदोलनों की मशाल थाम रहे हैं और मुश्किल लगने वाले किले ढहा रहे हैं। यह ऐसी पहली पीढ़ी है, जो इंटरनेट के अलावा जीवन को जानती ही नहीं थी, और अब वे सोशल मीडिया से न सिर्फ विरोध-प्रदर्शनों की घोषणा कर रहे हैं, बल्कि इन्हें आयोजित करने के साथ इस पर वाद-विवाद भी कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में वे इनोवेटिव रास्ते अपना रहे हैं, इसमें एआई का इस्तेमाल भी शामिल है और जब सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन के रास्ते बंद हो जाते हैं, तो वे डिजिटली प्रदर्शन कर रहे हैं। जवाब में, सरकारों ने इंटरनेट का गला घोंटने से लेकर इसे पूरी तरह से बंद करने तक, अपने स्वयं के तकनीकी-दमन को उजागर किया है।
ये आंदोलन राजनीति के पारंपरिक विचारों को भी अस्थिर कर रहे हैं, पारंपरिक जातीय और राजनीतिक विभाजन की सीमाओं से परे जा रहे हैं और पारंपरिक राजनीतिक दलों और नागरिक-समाज संगठनों से मुंह मोड़ रहे हैं। आमतौर पर यह माना जाता है कि लोकलुभावनवाद और अधिनायकवाद एक-दूसरे के पूरक हैं, फिर भी यहां हम लोकलुभावनवाद की अभिव्यक्तियों से सत्तावाद को मिलती चुनौती देख रहे हैं- और यह सब एक ऐसी पीढ़ी द्वारा हो रहा है, जो निडर और अडिग दोनों साबित हो रही है।
Date: 03-09-24
मणिपुर का संघर्ष
संपादकीय
एक भी ऐसा संकेत नजर नहीं आता, जिससे पता चले कि सरकार मणिपुर में हिंसा रोकने को लेकर गंभीर है। सवा साल से ऊपर हो गए, मगर अब भी वहां कुकी और मैतेई समुदाय के बीच संघर्ष जारी है। इन समूहों के उग्रवादी संगठन लक्षित हिंसा करने लगे हैं। वे पहले दूसरे समूह के लोगों के घरों को चिह्नित करते हैं और फिर हमला कर देते हैं। इंफल के पश्चिमी हिस्से में हुआ ताजा हमला इसका उदाहरण है। उसमें एक महिला सहित दो लोगों की मौत हो गई और नौ घायल हो गए। घायलों को गोली लगी है।
इस घटना के बाद मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने संकल्प लिया है कि वे किसी भी चरमपंथी गुट को कट्टरपंथी और राष्ट्र-विरोधी नहीं बनने देंगे। विचित्र है कि वे कई मौकों पर दोहरा चुके हैं कि स्थिति काबू में है, अब वे अरामबाई तेंगगोल जैसे चरमपंथी संगठनों पर शिकंजा कसने की बात कर रहे हैं। मणिपुर सरकार के गृहमंत्रालय ने कहा है कि ताजा घटना में उग्रवादियों ने ड्रोन का उपयोग कर लक्षित हिंसा की। समझना मुश्किल है कि मणिपुर में सक्रिय उग्रवादियों की गतिविधियों पर नजर रखना इतना मुश्किल क्यों बना हुआ है और वे कैसे अत्याधुनिक तकनीक और हथियारों का इस्तेमाल कर पा रहे हैं।
छिपी बात नहीं है कि मणिपुर का सारा संघर्ष सरकार की शिथिलता की वजह से पैदा हुआ है। शुरू में ही अगर सरकार ने दोनों समुदायों के बीच पैदा हुई गलतफहमी को दूर करने का प्रयास किया होता, तो वैमनस्यता की आग इस हद तक न भड़कने पाती। मगर सरकार ने न तो बातचीत की पहल की और न उपद्रवियों पर काबू पाने की कोशिश। यही वजह है कि पिछले वर्ष शुरू हुई हिंसा के बाद कई थानों और शस्त्रागारों से हथियार लूट लिए गए और उनका हिंसा में इस्तेमाल होता रहा।
पुलिस की मौजूदगी में महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाने, उनसे बलात्कार और उनकी हत्या तक की घटनाएं हो चुकी हैं। मगर उन पर कार्रवाई में तत्परता नहीं दिखाई गई। अब तक दो सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। हजारों लोग अपना घर-बार छोड़ कर शिविरों में रहने को मजबूर हैं। हजारों घर और पूजा स्थल तोड़-फोड़-जला दिए गए। इतना कुछ हो जाने के बाद अगर मुख्यमंत्री अब संकल्प ले रहे हैं कि वे उग्रवादी संगठनों को राष्ट्र-विरोधी और कट्टरपंथी नहीं बनने देंगे, तो हैरानी का विषय है।
मणिपुर के मामले में केंद्र सरकार का रवैया भी शुरू से सवालों के घेरे में रहा है। जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं, उनसे छोटी-सी घटना पर भी केंद्रीय गृहमंत्रालय तुरंत जवाब तलब कर लेता है, मगर मणिपुर के मामले में मौन साधे हुए ही दिखता रहा। शुरू-शुरू में वहां केंद्रीय सुरक्षा बलों को सख्ती के आदेश दिए गए थे, तब हिंसा रुक गई थी, मगर बाद में किस वजह से उस पर काबू पाने की कोशिश नहीं की गई, समझना मुश्किल है।
ऐसा नहीं माना जा सकता कि अगर केंद्र सरकार चाहे, तो वह मणिपुर जैसे छोटे राज्य में हिंसा को नहीं रोक सकती। इस मामले में मुख्यमंत्री की जवाबदेही भी तय नहीं की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेते हुए वहां घटनाओं की जांच और राज्य पुलिस की कार्रवाइयों आदि पर नजर रखने के लिए एक दल गठित कर दिया, मगर राज्य सरकार के सहयोग के अभाव में उसके सकारात्मक नतीजे नजर नहीं आते।
Date: 03-09-24
कसौटी पर कार्रवाई
संपादकीय
इस बात को लेकर पिछले कुछ समय से सवाल उठने शुरू हो गए थे कि अगर कोई व्यक्ति किसी अपराध का आरोपी है, तो सिर्फ इस कारण उसके घर को बुलडोजर से कैसे गिराया जा सकता है! अब इस मसले पर दाखिल याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त नाराजगी जताई और साफ कर दिया है कि किसी भी व्यक्ति का मकान महज आरोप के आधार पर नहीं गिराया जा सकता। अदालत ने यहां तक कहा कि कोई व्यक्ति भले दोषी हो, फिर भी कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना ऐसा नहीं किया जा सकता।
हालांकि किसी भी अनधिकृत निर्माण को संरक्षण नहीं दिया जा सकता। केंद्र सरकार का तर्क था कि जिन लोगों के खिलाफ इस तरह की कार्रवाई हुई, वे अवैध कब्जे या अवैध निर्माण के मामले थे। गौरतलब है कि हाल के दिनों में किसी जघन्य अपराध के आरोपी के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर उसका घर ढहा कर भले सख्ती का संदेश दिया जाता रहा हो और इसे कुछ लोग पसंद भी करते हों, मगर कानून और मानवीयता की कसौटी पर यह तौर-तरीका सवालों के घेरे में शुरू से था।
इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की यह राय बेहद महत्त्वपूर्ण है कि न केवल आरोप लगने, बल्कि दोषी होने पर भी किसी के घर को ढहाना उचित नहीं है। उस घर में आरोपी के अलावा उसके परिवार के अन्य सदस्य हो सकते हैं, जिनका उस पर लगे आरोप से कोई लेना-देना न हो। दूसरे, अगर किन्हीं हालात में अदालत की सुनवाई के बाद आरोपी को निर्दोष पाया गया, तो वैसी स्थिति में ध्वस्तीकरण को कैसे देखा जाएगा! हालांकि अगर किसी का घर किसी नियम का उल्लंघन करके बनाया गया है, तो उसे भी सही नहीं ठहराया जा सकता।
मगर यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर किसी आरोपी के घर को गिराने के क्रम में अतिक्रमण या अवैध निर्माण को आधार बनाया जाएगा, तब सभी नागरिकों के लिए व्यापक और समान दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत होगी। शायद यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने इस मसले पर सभी संबंधित पक्षों से सुझाव मांगा, ताकि अचल संपत्तियों के विध्वंस के मुद्दे पर पूरे देश के लिए एक ठोस दिशा-निर्देश जारी किया जा सके।
Date: 03-09-24
त्वरित न्याय की जरूरत
संपादकीय
त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिए अदालतों में स्थगन की संस्कृति को बदलने का प्रयास किया जाना जरूरी है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने जिला न्यायपालिका के दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के समापन समारोह को संबोधित कर रही थीं । अदालतों में लंबित मामलों का लंबित होने को हम सभी के लिए बड़ी चुनौती बताते हुए उन्होंने कहा कि न्याय की रक्षा करना देश के सभी न्यायाधीशों की जिम्मेदारी है। महिला न्यायिक अधिकारियों की संख्या में वृद्धि पर प्रसन्नता व्यक्त की। कार्यक्रम में मौजूद प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि, यह सुनिश्चित किया जाए कि अदालतें समाज के सभी सदस्यों के लिए सुरक्षित व सहज वातावरण प्रदान करें। इस तथ्य को बदलना होगा कि अदालतों को बुनियादी ढांचा केवल 6.7 फीसद महिलाओं अनुकूल है। सार्वजनिक मंचों से इस तरह के बातें होना कोई नई बात नहीं है । अदालतों में वर्षों से लंबित मामलों को लेकर मुख्य न्यायाधीश पहले भी कई बार विभिन्न मंचों से बोल चुके हैं। खासकर निचली अदालतों की कार्यशैली, सुविधाओं की कमी, जजों की अपर्याप्त संख्या जैसी समस्याओं का हल खोजने के प्रति सरकारी रवैया बहुत ही ढुलमुल है । वादी व प्रतिवादी तारीख पर तारीख लेते-लेते आजिज आ जाते हैं। कई दफा उनके जीते-जी फैसला भी नहीं हो पाता । केवल अदालतों में ही नहीं, बल्कि अभी तो विभिन्न कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की सहभागिता नाममात्र ही है। न्यायपालिका, कार्यपालिका से लेकर विधायिका तक महिलाओं के काम करने के अनुकूल स्थितियां होना अभी बेहद चुनौतीपूर्ण है। हालांकि देश भर की अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और अन्य आधारभूत सुविधाओं को बढ़ाकर लंबित मामलों को कम करने की भरसक कोशिश की गई है। हां, कोरोना के वक्त जरूर न्यायिक कामकाज में व्यवधान आया, मगर अब नये सिरे से इस बारे में गंभीरता से मंथन होना अच्छा संकेत है। देश की प्रथम नागरिक, प्रधान न्यायाधीश से लेकर कानून मंत्री तक लंबे समय तक लंबित मामलों को लेकर संजीदा हो रहे हैं। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही इस गंभीर समस्या का उचित समाधान खोजने में सफलता प्राप्त हो सकती है। निःसंदेह त्वरित न्याय सुनिश्चित होने से जनमानस में न्यायपालिका के प्रति आस्था बढ़ेगी। साथ ही मानव श्रम, समय और अनावश्यक धन व्यय में लगाम लगने से व्यवस्था सुविधाजनक हो सकेगी।
Date: 03-09-24
ओवर टूरिज्म के खतरे
मनीष कुमार चौधरी
दुनिया भर में पर्यटकों की संख्या कोविड महामारी से पहले के स्तर पर लौट रही है, कुछ देशों में पर्यटकों की संख्या में बहुत ज्यादा उछाल देखने में आया है। यात्रियों और पर्यटकों की बेहिसाब आवक को देखते हुए कुछ प्रमुख शहर और स्थल अब प्रतिबंध, जुर्माना, कर और समय-सीमा प्रणाली लागू कर रहे हैं। पर्यटकों की संख्या को कम करने के लिए हतोत्साहित करने के अभियान भी शुरू हो रहे हैं। बार्सिलोना में स्थानीय निवासी पर्यटकों पर पानी छिड़क कर अति पर्यटन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। स्पेन के अन्य हिस्सों जैसे मलागा और कैनरी द्वीप में भी इसी तरह से विरोध प्रकट किया गया। इटली के सिसिली, ग्रीस के सेंटोरिनी, क्रोएशिया के डबरोवनिक और इंडोनेशिया के बाली में विरोध प्रदर्शन हुए हैं। रोम में ट्रेवी फाउंटेन और स्पेनिश स्टेप्स जैसी लोकप्रिय जगहों पर बैठना प्रतिबंधित कर दिया गया है।
सवाल यह है कि पर्यटकों की इस अनियंत्रित भीड़ के लिए कौन जिम्मेदार है? अति पर्यटन के लिए सोशल मीडिया प्रमुख कारकों में से एक है, जिसने पर्यटन को हॉटस्पॉट में बदल दिया है, जिससे वैश्विक स्तर पर पर्यटकों की संख्या बढ़ रही है, जबकि गंतव्यों की क्षमता सीमित है। लगभग 80 प्रतिशत यात्री दुनिया के सिर्फ 10 प्रतिशत पर्यटन स्थलों पर जाते हैं। अनुमान है कि 2030 तक दुनिया भर में पर्यटकों की संख्या, जो 2019 में 1.5 बिलियन के शिखर पर थी, 1.8 बिलियन तक पहुंच जाएगी। जिससे पहले से ही लोकप्रिय स्थानों पर और ज्यादा दबाव पड़ने की संभावना है। अकेले बार्सिलोना में एक वर्ष में 1.6 मिलियन निवासियों के मुकाबले 30 मिलियन पर्यटक आए हैं। वर्ष 2023 के पहले तीन महीनों में विदेश जाने वाले लोगों की संख्या 2022 की इसी अवधि की तुलना में दोगुनी हो गई है। वर्ल्ड ट्रैवल टूरिज्म काउंसिल के अनुसार, इस साल पर्यटन क्षेत्र के 7.5 ट्रिलियन पाउंड तक पहुंचने की उम्मीद है, जो महामारी से पहले के स्तर का 95 प्रतिशत है, जबकि पर्यटन उद्योग के 2033 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था का 11.6 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करने का अनुमान है। पर्यटकों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में 14वें स्थान पर है। क्रोएशिया, जिसकी जनसंख्या दिल्ली या मुंबई के एक छोटे से उपनगर जितनी है तथा जिसका क्षेत्रफल भारत के क्षेत्रफल का 2 प्रतिशत से भी कम है वहां 21 मिलियन से अधिक पर्यटक आते हैं। पर्यटकों को आकर्षित करने में दुनिया में अग्रणी फ्रांस में 117 मिलियन पर्यटक आते हैं, जो भारत आने वाले पर्यटकों की संख्या से साढ़े छह गुना अधिक है। हालांकि भारत में आध्यात्मिक पर्यटन में बेतहाशा वृद्धि हुई है। ऑडिट कंपनी केपीएमजी की रिपोर्ट के अनुसार 66.4 लाख विदेशी पर्यटक 2022 में तीर्थ स्थलों पर आए। वर्ष 2020 में यह संख्या 10 लाख थी। देश में धार्मिक पर्यटन पिछले पांच साल में प्रत्येक वर्ष 19 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। ट्रेवल ब्लॉगर, टूरिज्म हैंडल्स धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों के प्रचार में अहम कड़ी बने हैं, जिसके कारण युवाओं का रुझान धार्मिक स्थलों की तरफ बढ़ा है। देश में धार्मिक पर्यटन करीब 8 करोड़ लोगों को रोजगार देता है। साल 2030 तक यह आंकड़ा 10 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। गौरतलब है कि भारत में 60 फीसद से अधिक पर्यटन धार्मिक और आध्यात्मिक जगहों से जुड़ा है। पर्यटक स्थलों तक आसान पहुंच ने भी अति पर्यटन को हवा दी है। इंटरनेट से लेकर स्मार्टफोन तक तकनीक में नवाचारों ने अनिगनत तरीकों से हमारे जीवन में क्रांति ला दी है, जिसमें यात्रा भी शामिल है। सोशल मीडिया के प्रभाव के कारण कम देखे जाने वाले स्थल रातों-रात बड़े पैमाने पर पर्यटन के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं, जिससे ओवर टूरिज्म के साइड इफेक्ट नजर आने लगे हैं। ओवर टूरिज्म ने दुनिया के कुछ सबसे लोकप्रिय स्थलों के मूल चरित्र को ही बदल दिया है। पर्यटकों की बढ़ती संख्या के कारण भीड़-भाड़ और अव्यवस्थित यातायात, कूड़ा-कचरा, प्रदूषण के चलते स्थानीय संस्कृति व पर्यावरण का ह्रास होता है।
पर्यटकों के कारण स्थानीय स्तर पर भले ही रोजगार बढ़े, पर जीवन-यापन का खर्च इतना बढ़ जाता है कि वहां स्थानीय निवासी महंगाई से जूझते रहते हैं। यात्री इसलिए आते हैं क्योंकि वे कुछ अलग देखना चाहते हैं और किसी अन्य संस्कृति में अंतर्दृष्टि की तलाश में होते हैं, लेकिन अति पर्यटन से गंतव्य की प्रामाणिकता और आकर्षण खो ता है तथा एक सांस्कृतिक विभाजन पैदा होता है। यात्रा और पर्यटन के कुछ अनुशासन व सीमाएं होती हैं, लेकिन यात्री जब छुट्टी पर जाते हैं, तो यह उनकी जगह नहीं होती, उनका समुदाय नहीं होता, इसलिए वे अपने स्वभाव से अलग व्यवहार करते हैं। कुछ माह पहले एक आयरिश पर्यटक ब्रुसेल्स में एक पुनर्निर्मित मूर्ति पर चढ़ गया, जिससे 19 हजार डॉलर का नुकसान हुआ। पर्यटकों का इस तरह का अनियंत्रित व्यवहार कई जगहों पर आम-सा हो गया है। अति पर्यटन स्थानीय निवासियों में ज्यादा पर्यटक विरोधी भावनाएं पैदा करता है। किसी गंतव्य पर मौजूदा सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर खुद को शिक्षित करना ही आपको अधिक जागरूक पर्यटक बनाएगा।
Date: 03-09-24
बुलडोजर से आगे
संपादकीय
कार्यपालिका और न्यायपालिका, दूसरे शब्दों में कहें, तो प्रशासन और न्यायपालिका में कुछ तनाव हमेशा से रहते आए हैं। प्रशासन मानता है कि व्यवस्था की कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं, जो डर पैदा करके ही आगे बढ़ाई जा सकती हैं। जबकि, न्यायपालिका मानती है कि जो कुछ भी हो, कानून की प्रक्रिया के तहत ही हो। कई बार प्रशासन ऐसे काम करता है, जिसे तत्काल न्याय कहा जाता है। न्यायपालिका का कहना है कि न्याय करने का काम उसका है, नागरिक प्रशासन का नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को बुलडोजर न्याय पर जो टिप्पणियां की हैं, उनमें इसी तनाव की झलक देखी जा सकती है।
अदालत ने इस तरीके को अपनाने की कड़ी निंदा की है। अदालत का कहना है कि कोई किसी जघन्य मामले का आरोपी या दोषी ही क्यों न हो, उसे कानून के दायरे में दंडित करने के दूसरे तरीके हो सकते हैं, लेकिन उसके घर को सिर्फ इसीलिए गिरा दिया जाना किसी भी तरह से वाजिब नहीं कहा जा सकता। हालांकि, सरकारी वकील ने कहा कि ऐसी ही संपत्तियां गिराई गई हैं, जो गैर-कानूनी हैं। दूसरी तरफ, उत्तर प्रदेश सरकार ने शपथ पत्र देकर कहा है कि उसने जो भी अचल संपत्तियां हटाई हैं, वे सब कानून की प्रक्रिया का पालन करते हुए हटाई गई हैं। दरअसल, कई बार ऐसे मामलों में गड़बड़ी किसी और तरह से होती है। गैर-कानूनी अचल संपत्ति तो पूरी तरह कानून की प्रक्रिया का पालन करते हुए हटाई जाती है, लेकिन प्रशासन अपनी पीठ थपथपाने के लिए यह कहता है कि उसने आरोपी को मजा चखा दिया। ऐसे मामलों की मीडिया में भी यही कहानियां चलती हैं। इसी से यह छवि बनती है कि ‘बुलडोजर न्याय’ किया जा रहा है। जरूरी यह है कि ऐसी कार्रवाई करने के लिए सबसे पहले यह बताया जाए कि ढहाई जा रही संपत्ति किस तरह से गैर-कानूनी है और उसके साथ ही, यह भी साफ कर दिया जाए कि संपत्ति को गिराने के लिए किस तरह से कानून की प्रक्रिया का पालन किया गया? अदालत के सामने राजस्थान के उदयपुर का वह मामला भी लाया गया, जिसमें एक स्कूल में छुरेबाजी की घटना हुई और बाद में उस मकान को ढहा दिया गया, जहां वह लड़का रहता था। विडंबना यह कि लड़के के पिता ने वह मकान किराये पर ले रखा था। जस्टिस केवी विश्वनाथ ने कहा कि अगर वह लड़का गलत भी था, तो भी सीधे किसी का घर गिरा देना सही तरीका नहीं है।
भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल के तर्कों और उत्तर प्रदेश सरकार के शपथ पत्र को देखते हुए अदालत ने यह भी कहा कि गैर-कानूनी निर्माण को गिराने या हटाने की प्रक्रिया के लिए देश स्तर पर कुछ स्पष्ट दिशा-निर्देश होने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट यदि ऐसे दिशा-निर्देश तैयार करती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इससे अभी तक ऐसी कार्रवाई से जो विवाद खड़े होते हैं, वे खत्म किए जा सकेंगे। ठीक यहीं पर एक और मसले को भी उठाया जाना चाहिए। यह बहुत जरूरी है कि तत्काल न्याय के तरीकों को खत्म किया जाए और सभी को अपराध की सजा अदालत की प्रक्रिया से ही मिले, लेकिन हमारी अदालतों में मामले इतने लंबे समय तक चलते हैं और अंतिम फैसला आने में इतनी देरी हो जाती है कि जनता का तबका तत्काल न्याय को ठीक मानने लगता है। इस पर भी कुछ किया जाना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट की सोमवार की टिप्पणियां उम्मीद हैं। जब बुलडोजर न्याय मामले में अंतिम फैसला आएगा, तब बहुत सारी धुंध साफ हो सकेगी।
Date: 03-09-24
विशेषज्ञों को सीधे अधिकारी बना देना कितना लाभकारी
आलोक रंजन, ( पूर्व मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश )
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा संयुक्त सचिव और उप सचिव/निदेशक के 45 पदों के लिए विशेषज्ञों की सीधी भर्ती के विज्ञापन निकालने के बाद ऐसा विवाद खड़ा हो गया कि विज्ञापन को रद्द करना पड़ा और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता दोहरानी पड़ी। वैसे, भारत सरकार में प्रत्यक्ष भर्ती के सभी मामलों में आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
आज सवाल यह है कि लेटरल एंट्री का औचित्य क्या है? वर्तमान शासन प्रणाली में क्या समस्या है, जिसे लेटरल एंट्री हल करने की कोशिश कर रही है? इस विचार के पक्षधर यह तर्क देते हैं कि लेटरल एंट्री व्यवस्था के बाहर से नए खून और ताजे विचारों का संचार करेगी, जिससे यह अधिक उपयोगी और जीवंत हो जाएगी। इसके समर्थकों का मानना है कि यह सभी समस्याओं का रामबाण इलाज है, जिसके अभाव में कमतर प्रदर्शन हो रहा है। हालांकि, इसके लिए सिविल सेवक जिम्मेदार नहीं हैं। समस्या यह नहीं है कि उनमें डोमेन ज्ञान की कमी है, बल्कि समस्या नौकरशाही संरचना और सरकारी कार्यप्रणाली में निहित है। सर्वश्रेष्ठ सिविल सेवक, जिन्हें अपने करियर की शुरुआत में उत्साही और गतिशील माना जाता है, वर्षों के साथ- सीएजी, सीवीसी, सीबीआई, कोर्ट (चार सी) के भय के कारण नरम पड़ जाते हैं। अक्सर अधिकारी निर्णय लेने से पहले सुरक्षा-प्रथम दृष्टिकोण अपनाते हैं। समझ में नहीं आता कि यहां एक डोमेन या एक क्षेत्र विशेषज्ञ सिविल सेवक से बेहतर तरीके से कैसे काम कर सकता है?
यह आकलन करना दिलचस्प होगा कि एक संयुक्त सचिव या उप-सचिव कैसे कार्य करते हैं। उनका ज्यादा समय संसदीय मामलों में लगता है। मंत्रियों के लिए जवाब तैयार करने का काम उनके पास प्रमुखता से होता है।
वास्तव में बेहतर सेवा के लिए डोमेन विशेषज्ञता से अधिक नेतृत्व के गुणों की जरूरत होती है। वरिष्ठ स्तर पर एक सिविल सेवक को ही नेतृत्व प्रदान किया जाना चाहिए। अपने प्रशिक्षण के चलते सिविल सेवक उस स्तर तक पहुंचता है, जहां उसके पास ये गुण होने चाहिए। यदि नहीं, तो उसे इन गुणों को विकसित करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। इस संबंध में डोमेन विशेषज्ञ का कोई औचित्य नहीं बनता।
किसी भी स्थिति में उप-सचिव स्तर पर लेटरल एंट्री की कोई उपयोगिता प्रतीत नहीं होती, क्योंकि यह विशेषज्ञ के लिए कोई योगदान करने के लिए बहुत जूनियर पद है। वह बिना किसी प्रभाव के केवल फाइलें आगे बढ़ाएगा। उप-सचिव स्तर पर अधिकारियों की कमी की समस्या है, तो इसके कारणों का पता लगाकर उनका समाधान किया जाना चाहिए। जल्दबाजी में लेटरल एंट्री निश्चित रूप से इसका उत्तर नहीं है।
लोक प्रशासन के विशेषज्ञ पॉल एप्पलबी के शब्दों में, आईएएस अधिकारी के अनुभव की विविधता अच्छी नीतियों के निर्माण के लिए सबसे अनुकूल है। इसके अलावा आप विशेषज्ञता के लिए किस हद तक जाएंगे? एक नेफ्रोलॉजिस्ट या बाल रोग विशेषज्ञ सामान्यत: अपने विशेषज्ञता के क्षेत्र में इतने डूबे होते हैं कि उन्हें स्वास्थ्य नीति पर समग्र दृष्टिकोण अपनाने में कठिनाई होती है, यह काम एक आईएएस अधिकारी कर सकता है। आईएएस अधिकारी के 8-10 वर्षों के अनुभव का कोई विकल्प नहीं है। महज तीस मिनट के साक्षात्कार से आप बेहतर अधिकारी का चयन नहीं कर सकते।
मैं सरकार में विशेषज्ञों के होने के खिलाफ नहीं हूं। विंस्टन चर्चिल के शब्दों में, विशेषज्ञ छोर पर होना चाहिए, शीर्ष पर नहीं । मंत्रालय के सलाहकार के रूप में विशेषज्ञों को रखने की परंपरा है । सलाहकार भी एक भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन उनका सहारा सीमित होना चाहिए। निश्चित रूप से उत्कृष्ट लोगों को उनके विशेषज्ञता के क्षेत्र में सरकार के लिए काम करने के लिए लाया जा सकता है, जैसे नंदन नीलेकणि को आधार कार्ड परियोजना की अध्यक्षता दी गई थी।
सरकार में लेटरल एंट्री ऐसा विचार है, जिस पर गंभीर पुनर्विचार की आवश्यकता है। हमें इस अवधारणा से जुड़े मिथकों से हटकर अच्छे शासन की वास्तविकताओं की ओर बढ़ना चाहिए। वर्तमान सुशासन के संबंध में समस्याएं हैं, पर इसके लिए सही निदान होना चाहिए।