03-04-2025 (Important News Clippings)

Afeias
03 Apr 2025
A+ A-

To Download Click Here.


Date: 03-04-25

जैसे को तैसा टैरिफ से हमें डरने की जरूरत क्यों है?

संपादकीय

भारत 20 वर्षों से रेमिटेंस (विदेश में काम करने वाले भारतीयों द्वारा स्वदेश में पैसे भेजना) में दुनिया में अव्वल है। यह राशि (वर्ष 2024 में 129 अरब डॉलर) पाकिस्तान और बांग्लादेश के सम्मिलित बजट या कुल एफडीआई को पार कर चुकी है। हमारे युवाओं को अन्य संपन्न देश पगार देकर सेवाएं ले रहे हैं तो इसलिए कि उन्हें लाभ है। अगर वे भारत में रहकर सेवाएं या उत्पाद बनाने में मदद करें तो वैल्यू एडेड के साथ देश को बहु-आयामी अतिरिक्त लाभ मिलेगा और कोई ट्रम्प अचानक एच-1 बी वीजा शर्तों को बदलकर युवाओं की रोजी-रोटी पर प्रहार नहीं करेगा। व्हाइट हाउस का आरोप है कि कुछ कृषि उत्पादों में भारत शत-प्रतिशत टैक्स लगाता है। हमारे कृषि उत्पाद अगर अमेरिका के मुकाबले सस्ते होते तो क्या इसक जरूरत पड़ती ? चीन इलेक्ट्रिक व्हीकल भी अमेरिका से सस्ता बना रहा है। बैटरी का कच्चा माल हो या सौर और पवन ऊर्जा के उपकरण, चीन दुनिया की जरूरत का 80% देता है। हमारे युवा विदेश में अच्छा काम करते हैं तो भारत में क्यों नहीं कर सकते? जिस देश में मात्र 42% सिंचित कृषि भू-भाग हो, उसमें कृषि उत्पाद बेचने में याचक भाव क्यों? अगर भारत कृषि क्षेत्र से युवाओं को निकालकर उद्योग में नहीं लगा सकता तो अमेरिका क्यों और कब तक झेले ? गेहूं, सेब, बेबी कॉर्न और मक्का सहित कई अन्य अनाज अमेरिका भारत में खपाना चाहता है। अगर इन उत्पादों की लागत समान होती तो जैसे को तैसा टैरिफ से डरने की जरूरत क्यों होती ?


Date: 03-04-25

बोलने की स्वतंत्रता तो है, लेकिन किस सीमा तक?

मिन्हाज मर्चेंट, ( लेखक, प्रकाशक और सम्पादक )

कुणाल कामरा एक कॉमेडियन हैं। उनका काम ही लोगों का मजाक उड़ाना है। कभी-कभी उनका कटाक्ष आपत्तिजनक हो सकता है। भारत में आहत करने की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, लेकिन क्या यह एक पूर्ण और निर्बाध अधिकार भी है?

भारत का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षित करता है। हालांकि, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस बात से नाखुश रहते थे कि इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग बदनाम करने, सार्वजनिक अव्यवस्था को भड़काने और समाज में दुर्भावना पैदा करने के लिए किया जा रहा है। कांग्रेस सरकार ने जून 1951 में संविधान में संशोधन किया। यह 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा इसे अपनाए जाने और 26 जनवरी 1950 को लागू किए जाने के कुछ ही महीने बाद हुआ था। यह भारतीय संविधान में तब तक का पहला संशोधन था।

संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई थी। लेकिन नेहरू अभिव्यक्ति की निर्बाध स्वतंत्रता के विरोधी थे, क्योंकि उनका मानना था कि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। तब कांग्रेस सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में संशोधन को उचित ठहराने के लिए यह तर्क दिया:

‘संविधान के पिछले 15 महीनों के कामकाज के दौरान न्यायिक निर्णयों और घोषणाओं द्वारा कुछ कठिनाइयां सामने आई हैं, खास तौर पर मौलिक अधिकारों के संबंध में अनुच्छेद 19 (1) (ए) द्वारा गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कुछ न्यायालयों ने इतना व्यापक माना है कि किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, भले ही वह हत्या और हिंसा के अन्य अपराधों की वकालत करता हो। जबकि लिखित संविधान वाले देशों में यह नहीं माना जाता है कि राज्यसत्ता बोलने की आजादी के दुरुपयोग को दंडित नहीं कर सकती या उसे रोक नहीं सकती।’

इस प्रकार पहले संशोधन ने ‘उचित प्रतिबंध’ जोड़कर संविधान में बोलने और अभिव्यक्ति की ‘पूर्ण’ स्वतंत्रता को कमजोर कर दिया था। इनमें ‘सार्वजनिक व्यवस्था के हित में’ और ‘किसी अपराध को भड़काने के संबंध में प्रतिबंध शामिल थे। लेकिन मानहानि ? पहले संशोधन में इस पर रोक नहीं थी जब तक कि इससे सार्वजनिक अव्यवस्था न फैले या किसी अपराध को भड़काने की कोशिश न हो ।

कुणाल कामरा ने एकनाथ शिंदे का नाम तो नहीं लिया, लेकिन एक गाने में ‘गद्दार’ शब्द का उपयोग करते हुए वे स्पष्ट रूप से उन्हें ही निशाना बना रहे थे। तब क्या कामरा ने अनुच्छेद 19 (1) (ए) द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाए उचित प्रतिबंधों का उल्लंघन किया है? और मानहानि के बारे में क्या? मानहानि पर कानून की व्याख्या की जा सकती है। राहुल गांधी सहित कई नेताओं को मानहानि के लिए अदालत में दोषी ठहराया गया है। राहुल की तो संसद सदस्यता भी समाप्त कर दी गई थी। सावरकर के परिवार और अन्य लोगों से जुड़े मानहानि के कई अन्य मामले राहुल के खिलाफ अदालत में लंबित हैं। कामरा भी अधिकांश कॉमेडियनों की तरह कानून को अच्छे से जानते हैं। वे सीमा पार न करने को लेकर सावधान रहते हैं। उन्होंने रणवीर इलाहाबादिया जैसी गलती नहीं की, जिन्होंने सार्वजनिक मंच पर कौटुम्बिक व्यभिचार का सुझाव देकर कानून का उल्लंघन कर दिया था।

तो क्या कुणाल कामरा का कोई राजनीतिक एजेंडा है? उदाहरण के लिए, वे कभी सोनिया गांधी या दूसरे विपक्षी नेताओं को निशाना क्यों नहीं बनाते हैं? और जब सार्वजनिक मंचों पर सार्वजनिक हस्तियों को निशाना बनाया जाता है, तब उन हस्तियों का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? जब तक हमला स्पष्ट रूप से अपमानजनक या सार्वजनिक अव्यवस्था को भड़काने वाला न हो, उन्हें इसे अनदेखा कर देना चाहिए।

कुणाल कामरा के लिए तो किसी भी तरह की पब्लिसिटी ऑक्सीजन की तरह होगी, जिससे उनकी आमदनी और बढ़ेगी ही। पर किसी पर तभी कार्रवाई की जानी चाहिए, जब उसके द्वारा किया गया आक्षेप कानून का उल्लंघन करता हो। वैसे उचित प्रतिबंधों के साथ आहत करने का अधिकार एक जीवंत लोकतंत्र का हिस्सा है। अमेरिका का ही उदाहरण ले लें, जहां डोनाल्ड ट्रम्प को अक्सर ही मॉर्ड एआई वीडियो और मीम्स के साथ चित्रित किया जाता है।


Date: 03-04-25

रेवड़ियां अब न उगलते बन रही हैं और न ही निगलते

अभय कुमार दुबे, ( आबेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर )

जो रेवड़ियां पहले बांटने वालों और पाने वालों, दोनों को मीठी लगती थीं, वे अब कसैली लगने लगी हैं। मसला राजनीतिक और आर्थिक है। जो रेवड़ी पाते थे, उन्हें लग रहा है कि बांटने का वायदा करने वाले अब अपनी बात से मुकरने के लिए तरह-तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करने लगे हैं। उन्हें ठगे जाने का एहसास हो रहा है। वायदे के बदले वोट तो ले लिए गए लेकिन बांटने का नम्बर आने पर छांटा-बीनी, कटौती और देर-दार की जा रही है। रेवड़ियां बांटने वालों की समस्या और भी विकट है। वे इस सवाल का सामना कर रहे हैं कि कहीं उन्हें दोहरे घाटे का सामना तो नहीं करना पड़ेगा? यह कि बदले में वोट भी पूरे न मिलें, और अर्थव्यवस्था का दिवाला भी निकल जाए।

2014 से लाभार्थियों का जो संसार बनाया जा रहा था, उसकी चमक अब पहले जैसी नहीं रह गई है। लाभार्थियों की यह दुनिया राजनीतिक फायदे देने के लिहाज से संदिग्ध हो गई है, और आर्थिक नजरिये से इसे बनाए रखना मुश्किल होता जा रहा है। ताजा मिसाल दिल्ली की है। भाजपा ने राजधानी की महिला नागरिकों को ढाई हजार रु. प्रतिमाह देने का वादा किया था। नई सरकार ने पाया कि 38 लाख महिलाओं को ये रेवड़ियां मिलेंगी। लेकिन जब पहला बजट आया तो इस काम के लिए सिर्फ 5,100 करोड़ रु. ही रखे गए। इतनी रकम में तो आधी महिलाओं को ही रकम का वितरण हो पाएगा। इतने आवंटन के लिए भी सरकार को अपने लघु बचत कोष में से 15 हजार करोड़ निकालने पड़े, बावजूद इसके कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय इसके सख्त खिलाफ है। अब बाकी महिलाओं का क्या होगा ? अभी इस विषय में किसी को कुछ नहीं मालूम है। न देने वालों को न पाने वालों को।

पंजाब में तो आप सरकार ने चुनाव में इस प्रकार का जो वादा किया था, वह आज तक पूरा करने की शुरुआत भी नहीं की गई है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तेलंगाना- सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो, हर प्रदेश में कमोबेश ऐसी ही स्थितियां हैं। खास बात यह है कि चुनाव विश्लेषकों के मुताबिक दिल्ली की महिलाओं के वोट जीतने वाली भाजपा के बजाय हारने वाली आप को अपेक्षाकृत ज्यादा मिले हैं। यानी, वोट तो पूरे मिले नहीं, लेकिन रेवड़ियां किसी न किसी प्रकार पूरी ही बांटनी होंगी। रेवड़ियों के बदले वोटों की गारंटी न होने की बात पार्टियों और नेताओं को 2022 में ही समझ आ गई थी। यूपी भाजपा ने प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी अपनी चुनाव- समीक्षा रपट में स्वीकार कर लिया था कि रेवड़ी बांटने की स्कीमों के लाभार्थियों ने सरकार की जुबानी तारीफें तो खूब कीं, लेकिन वोट उतने नहीं मिले, जितनी उम्मीद थी। पर यूपी सरकार भी वादे के मुताबिक रेवड़ियां बांटने के लिए मजबूर है।

लाभार्थियों की ऐसी दुनिया बनाने का यह विचार किसी भारतीय नेता या पार्टी की देन न होकर अमेरिका में बैठे उन बाजारवादी अर्थशास्त्रियों के दिमाग की उपज है, जिन्होंने नई सदी के शुरुआती सालों में ही यह सोचना शुरू कर दिया था कि नव-उदारवादी सरकारों को लोगों की नाराजगी से कैसे बचाया जा सकता है। इन अर्थशास्त्रियों को अच्छे से पता था कि 90 के दशक की शुरुआत से ही चल रहे भूमंडलीकरण के कारण जल्द ही अर्थव्यवस्थाएं लोगों को रोजगार देने में उत्तरोत्तर नाकाम हो जाने वाली हैं। नई तकनीक के कारण हो रहा ऑटोमेशन पूरी व्यवस्था को इसी तरफ ले जाने वाला है। बाजार के जरिये दाम निर्धारित करने की नीति के कारण महंगाई पर भी लगाम लगाने में सरकारें नाकाम होंगी। देर-सबेर नाराजगी बढ़नी ही है।

इसलिए पूंजी की सेवा करने वाले इन बुद्धिजीवियों ने पहले हर वयस्क नागरिक के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम मुहैया कराने के बारे में विचार किया। लेकिन हर सरकार इसे लागू नहीं कर सकती थी । मनमोहन सिंह भी इसके लिए तैयार नहीं थे। लेकिन, वे इन विशेषज्ञों के इस सुझाव पर राजी थे कि लोगों को डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर के जरिये आर्थिक राहत दी जा सकती है। इससे उनकी नाराजगी बढ़ने से रुकेगी, और कॉर्पोरेट पूंजी बेरोकटोक मुनाफा कमाने की तरफ बढ़ती चली जाएगी। मनमोहन इस तरह का बंदोबस्त करते, उससे पहले ही कांग्रेस 2014 में हार गई । लेकिन, नई सरकार ने अपना पहला कदम जनधन खाते खुलवाने के रूप में उठाया। इन्हीं खातों में डायरेक्ट बेनेफिट का ट्रांसफर होना था।


 

Date: 03-04-25

भारत के भविष्य में निवेश का समय

प्रो. केवी सुब्रमण्यन, ( लेखक आइएमएफ के कार्यकारी निदेशक, भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं )

बीते कुछ दशकों में भारत के श्रेष्ठ प्रतिभाशाली लोगों ने बेहतर अवसरों की तलाश में विदेश जाने को वरीयता दी है। विशेष रूप से अमेरिका इन प्रतिभाओं की प्राथमिकता में होता है। चूंकि अमेरिका में विदेशियों की आवक पर अंकुश के उपाय शुरू हो गए हैं, इसलिए भारत को इन लोगों के लिए देश में ही उचित अवसर तैयार कर इस रुझान को पलटने का अनूठा मौका है। अमेरिका में एच1बी वीजा और ग्रीन कार्ड की राह कठिन करने की तैयारी हो रही है तो विदेश में बसे भारतीय भी स्वदेश वापसी की संभावनाएं तलाश रहे हैं, बशर्ते कि उन्हें यहां अनुकूल आर्थिक अवसरों के साथ ही एक अच्छा रहन-सहन मिल सके।

ऐसा नहीं है कि भारत में अनुकूल आर्थिक अवसर नहीं हैं। देश में पहले की तुलना में कहीं अधिक आकर्षक मौके बने हैं। अपनी किताब ‘इंडिया@ 100’ में मैंने विस्तार से इसका उल्लेख भी किया है कि डालर के लिहाज से भारत की जीडीपी में सालाना 12 प्रतिशत तक की दर से वृद्धि करने की संभावनाएं हैं। किसी अर्थव्यवस्था में पेशेवरों का वेतन औसत जीडीपी विकास दर की तुलना में 25 प्रतिशत की दर से बढ़ता है। इसका अर्थ है कि जीडीपी 12 प्रतिशत बढ़ेगी तो पेशेवरों का वेतन 15 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ेगा। इस 15 प्रतिशत बढ़ोतरी के लिहाज से देखें तो हर पांच साल में वेतन दोगुना हो जाएगा। औसत 40 साल के करियर में ऐसी बढ़ोतरी आठ बार मानकर चलें तो भारत में अपना करियर शुरू करने वाले पेशेवरों का वेतन डालर के संदर्भ में करीब 250 गुना हो जाएगा। इसके उलट अमेरिका की स्थिति देखें तो वहां जीडीपी विकास दर (5 प्रतिशत) कम होने से पेशेवरों का वेतन करीब 6.25 प्रतिशत की दर से बढ़ेगा। वहां 6.25 प्रतिशत की रफ्तार से वेतन में हर 12 साल पर ही वह दोगुना हो पाएगा। यानी 40 साल के करियर में करीब तीन बार ही तनख्वाह दोगुनी होगी और समूचे करियर में केवल 10 गुना बढ़ोतरी का लाभ मिलेगा। इस तरह देखा जाए तो अगर भारत में शुरुआती तनख्वाह डालर के लिहाज से अमेरिका की चौथाई भी हो, तब भी अपने पूरे करियर में भारत में कमाने वाला पेशेवर डालर के हिसाब से अमेरिका से कहीं अधिक कमाई करने में सक्षम होगा। इसके अतिरिक्त भारत में अपना काम और बच्चों की परवरिश पर अधिक ध्यान दिया जा सकता है, क्योंकि घरेलू कार्यों के लिए मदद अपेक्षाकृत आसान होती है। अमेरिका जैसे देशों में ऐसी सुविधा बहुत मुश्किल होने के साथ ही अत्यंत महंगी भी है। निःसंदेह ये परिस्थितियां भारत को लेकर एक संभावनाशील परिदृश्य का निर्माण करती हैं, पर इसका लाभ उठाने के लिए भारत को शहरों में जीवनशैली बेहतर बनानी होगी।

तमाम लोग भारत वापस आने से इसलिए हिचकते हैं, क्योंकि यहां शहरी ढांचा कमजोर है। सफर में समय अधिक लगता है। प्रदूषण बहुत ज्याद है। ऐसे में सरकारों को चाहिए कि वे शहरों को रहने के लिहाज से अनुकूल बनाएं ताकि अधिक से अधिक भारतीय प्रतिभाओं की स्वदेश वापसी हो सके। खासतौर से शहरों में एक जगह से दूसरी जगह जाने में लगने वाला समय बहुत दुखदायी हो जाता है। मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली जैसे शहरों में किफायती हेलीकाप्टर सेवाएं शुरू करने पर विचार किया जा सकता है, जो प्रमुख व्यावसायिक केंद्रों को जोड़ सकें। पर्वतीय स्थलों विशेषकर तीर्थस्थलों पर रोपवे जैसी व्यवस्था भी शहरों के भीड़भाड़ वाले इलाकों में उपयोगी हो सकती है। किफायती होने के साथ ही इसमें जगह की भी जरूरत कम पड़ती है। इसके अलावा, ट्रैफिक का बोझ कम करने के लिए दफ्तरों के समय को भी लचीला बनाया जा सकता है। कंपनियां तीन शिफ्ट की पहल कर सकती हैं। | एक सुबह 6 बजे से दोपहर 2 बजे तक, दूसरी 10 बजे से शाम 6 बजे तक और दोपहर 2 बजे से रात 10 बजे तक। इससे ट्रैफिक का दबाव समय-समय पर बंट जाएगा और आवाजाही सुगम होगी।

वायु प्रदूषण भी पेशेवरों की स्वदेश वापसी में बड़ा अवरोधक है। दिल्ली और बेंगलुरु विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल हैं। प्रदूषण का सीधा असर लोगों की सेहत और उत्पादकता पर पड़ता है। प्रदूषण से निपटने के लिए सरकारों को बीजिंग जैसे शहर के अनुभवों से सीख लेते हुए सख्त कदम उठाने होंगे। निजी क्षेत्र भी प्रदूषण घटाने वाली तकनीकों में निवेश करे जैसे इलेक्ट्रिक पब्लिक ट्रांसपोर्ट, उद्योगों में एमिशन कंट्रोल सिस्टम और एडवांस्ड एयर प्यूरीफायर टेक्नोलाजी । पब्लिक- प्राइवेट पार्टनरशिप के जरिये स्वच्छ शहरों की संकल्पना को साकार किया जा सकता है। इसी तरह सौर और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोतों को अपनाने से प्रदूषण फैलाने वाले ईंधनों पर निर्भरता कम होगी। ऐसे में हरित ऊर्जा को अपनाने पर जोर दिया जाए। उसके प्रोत्साहन के लिए सब्सिडी दी जा सकती है। शहरों में बड़े पैमाने पर पेड़ लगाना, ऊंची इमारतों पर वर्टिकल गार्डन और ग्रीन कारिडोर बनाना भी प्रदूषण घटाने और पर्यावरण को बेहतर बनाने में मददगार होंगे। सार्वजनिक परिवहन को उन्नत बनाने और सीवेज एवं कचरा प्रबंधन में आधुनिक तौर- तरीके अपनाना भी समय की आवश्यकता हो गई है। बढ़ती शहरी आबादी के लिए किफायती आवास सुविधाओं का विकास भी उतना ही आवश्यक है।

वर्तमान परिस्थितियों में भारत के पास ब्रेन ड्रेन यानी प्रतिभा पलायन के रुझान को पलटने का स्वर्णिम अवसर है। विदेश में रहने वाले बहुत से स्किल्ड प्रोफेशनल विभिन्न कारणों से स्वदेश वापसी के विकल्प पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। हालांकि इसे संभव बनाने के लिए केवल आर्थिक अवसर ही नहीं, बल्कि जीवन स्तर के पहलू भी निर्णायक होंगे। अगर सरकारें शहरों में सफर का समय घटाने, प्रदूषण से लड़ने और शहरी ढांचा बेहतर बनाने के प्रयास करें तो भारत के बड़े शहर वैश्विक प्रतिभाओं को लुभाने के केंद्र बन सकते हैं। यह केवल शहरों में निवेश नहीं, बल्कि भारत के भविष्य में निवेश होगा।


Date: 03-04-25

सुधार की प्रतीक्षा कर रहे हैं वक्फ बोर्ड

सैयद सलमान विश्वी, ( लेखक दरगाह अजमेर शरीफ के गद्दीनशीन एवं चिश्ती फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं )

भारत के धार्मिक और सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य के विविधतापूर्ण ताने-बाने में वफ्फ बोर्ड एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है, लेकिन यह अब तक पूर्ण क्षमता का उपयोग नहीं कर पाई है। इस्लामी आध्यात्मिक परंपरा में गहराई से समाई हुई यह वैधानिक इकाई भारत में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को बदलने की क्षमता रखती है। हालांकि अपनी समृद्ध विरासत और विशाल भूमि संपत्तियों के बावजूद वफ्फ अक्षमताओं, कुप्रबंधन और पारदर्शिता की कमी की वजह से पिछड़ गया है। यह वास्तव में विरोधाभासी है कि भारत में तीसरी सबसे बड़ी भूमि स्वामित्व वाली इकाई के रूप में वफ्फ एक ऐसे समुदाय की देखरेख करता है, जो शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक-आर्थिक उत्थान के मुद्दों से जूझ रहा है। सदियों पहले स्थापित वफ्फ का मूल उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के लिए स्कूल, अस्पताल, पुस्तकालय और अन्य परोपकारी संस्थानों की स्थापना और देखरेख करना था । यह चिंता का विषय है कि इतना विशाल संसाधन आधार होने के बावजूद इन्हें समुदाय के कल्याण के लिए प्रभावी रूप से उपयोग में नहीं लाया जा रहा है। ऐसे में वफ्फ बोर्ड में सुधार अत्यंत आवश्यक हैं, क्योंकि मुस्लिम समुदाय में व्यापक रूप से यह सहमति बन चुकी है कि वक्फ संपत्तियों का दुरुपयोग हुआ है। वक्फ बोर्ड की अक्षमताओं के कारण इन संपत्तियों का सर्वोत्तम उपयोग नहीं हो पाया है। कई संरक्षकों की अयोग्यता के चलते वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन में जवाबदेही और पारदर्शिता की कमी ने अक्षमताओं और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है।

मौजूदा वक्फ व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या वक्फ के स्वामित्व वाली संपत्तियों के लिए अप्रचलित किराया नीति है। इनमें से कई संपत्तियां दशकों पहले (वर्ष 1950 ) तय की गई दरों पर किराए पर दी गई हैं। न केवल ये किराया आज की बाजार दर से बेहद कम है, बल्कि यह मामूली किराया भी नियमित रूप से नहीं वसूला जाता। यह स्थिति वक्फ संपत्तियों की अवैध बिक्री और बर्बादी के आरोपों से और भी जटिल हो गई है, जिसने संभावित राजस्व को काफी हद तक नष्ट कर दिया है और जिसका उपयोग सामुदायिक कल्याण के लिए किया जा सकता था। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण जयपुर शहर की एक केंद्रीय और बेहद प्रसिद्ध शापिंग स्ट्रीट है, जिसे एमआइ रोड के रूप में जाना जाता है। बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि एमआइ का मतलब मिर्जा इस्माइल रोड है। जयपुर में एमआइ रोड पर स्थित कुछ संपत्तियां सामुदायिक और धार्मिक कार्यों के लिए वक्फ बोर्ड को दान कर दी गई हैं। बोर्ड इन संपत्तियों को किराये पर दे सकता है, लेकिन किसी को बेच नहीं सकता। एमआइ रोड पर 100 वर्ग फीट से लेकर 400 वर्ग फीट तक की कई ऐसी व्यावसायिक संपत्तियां हैं, जिनका किराया 300 रुपये प्रति माह है किराया नीति अद्यतन होने पर इनका किराया करीब 25,000 रुपये प्रति माह हो जाएगा। कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के हर राज्य में ऐसे हजारों संपत्तियां हैं, जिनका उचित उपयोग नहीं किया जा रहा है।

सच्चर समिति की 2006 की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि वक्फ अपनी संपत्तियों से सालाना 12,000 करोड़ रुपये की आय का सृजन कर सकता है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के हालिया सर्वेक्षणों से पता चलता है कि वक्फ संपत्तियों की वास्तविक संख्या 8.72 लाख से अधिक है। आज मुद्रास्फीति और संशोधित अनुमानों को ध्यान में रखते हुए संभावित आय सालाना 20,000 करोड़ रुपये तक हो सकती है। फिर भी इसका वास्तविक राजस्व 200 करोड़ रुपये ही है। हमें भारतीय मुसलमान के रूप में ‘कल्याण’ की अपनी समझ को व्यापक बनाना चाहिए। कल्याण का मतलब मुफ्त, खस्ताहाल संस्थान नहीं हैं, जो खुद को बनाए रखने के लिए संघर्ष करते हैं। इसके बजाय हमें ऐसे संस्थानों के निर्माण की आकांक्षा करनी चाहिए, जो आत्मनिर्भर हों, समावेशी हों तथा ऐसे उच्च मानकों वाले हों कि वे सभी के लिए आकांक्षापूर्ण बन जाएं।

वास्तव में वक्फ संशोधन विधेयक वक्फ बोडौं और केंद्रीय वक्फ परिषद (सीडब्ल्यूसी) के शासन और प्रशासन में सुधार करके एक अधिक जवाबदेह और पारदर्शी व्यवस्था कायम करना चाहता है, जिससे मुस्लिम समुदाय की बेहतर सेवा हो सके, लेकिन सुधार शासन तक ही तक ही नहीं रुकने चाहिए। वक्फ बोर्ड के विश्वसनीय प्रशासन को राजस्व सृजन के महत्वपूर्ण मुद्दे को भी संबोधित करना चाहिए। वक्फ संपत्तियों के किराया- ढांचे को संशोधित करके वर्तमान बाजार दरों के अनुरूप लाया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना वक्फ की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं। इसके अलावा इन संपत्तियों से उत्पन्न लाभ को वक्फ संस्था के मूल उद्देश्य के अनुरूप मुस्लिम समुदाय की कल्याणकारी परियोजनाओं में फिर से निवेश किया जाना चाहिए। इन सुधारों को अपनाकर और जवाबदेही की मांग करके हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि वक्फ मुस्लिम समुदाय को लाभ पहुंचाने और व्यापक समाज में योगदान देने के अपने इच्छित उद्देश्य को पूरा करे। यह सुनिश्चित करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि वक्फ मुस्लिम समुदाय और हमारे देश में अच्छे कामों के लिए एक ताकत के रूप में अपनी क्षमता को मूर्त रूप दे।


Date: 03-04-25

ध्वंस का धरातल

संपादकीय

अपराध पर नकेल कसने के लिए कथित अपराधियों की संपत्ति पर बुलडोजर चलाने की परिपाटी-सी चल पड़ी है। यह सिलसिला उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ था और अब इसे कई राज्य सरकारों ने अपना लिया है। कहीं भी दो समुदायों के बीच कोई फसाद होता है, कोई बड़ी वारदात होती है, तो प्रशासन कुछ लोगों को चिह्नित कर उनके घर गिरा डालता है जब यह सिलसिला अतार्किक और मनमाने ढंग से तेजी पकड़ने लगा तो इस पर रोक लगाने के लिए अदालतों के दरवाजे खटखटाए जाने लगे। इस पर करीब पांच महीने पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त निर्देश जारी करते हुए मकानों दुकानों आदि के ध्वस्तीकरण पर रोक लगा दी। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि किसी के आरोपी या दोषी ठहरा दिए जाने से उसका मकान ढहा देने का अधिकार नहीं मिल जाता प्रशासन को उचित कारण बताना होगा कि कोई भी मकान गिराना क्यों जरूरी है। इसके लिए दूसरे पक्ष की दलीलें भी सुनी जानी चाहिए। उसे अपना जवाब देने के लिए उचित समय दिया जाना चाहिए। अगर कोई अधिकारी इन निर्देशों का पालन नहीं करेगा, तो उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। मगर इसके बावजूद, मकान-दुकान आदि ढहाने का सिलसिला रुका नहीं है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में ऐसी ही मनमानी करते हुए कुछ मकान ढहा दिए गए।

अब सर्वोच्च न्यायालय ने करीब चार वर्ष पहले प्रयागराज में तोड़े गए मकानों पर कड़ा रुख अख्तियार करते हुए कहा है कि पीड़ितों को दस-दस लाख रुपए मुआवजा दिया जाए। अदालत ने कहा कि इस मामले ने उसकी अंतरात्मा को झकझोर दिया है। दरअसल, प्रयागराज विकास प्राधिकरण ने कुछ लोगों के मकान इस शक के आधार पर तोड़ डाले थे कि वे एक कुख्यात अपराधी की जमीन पर बने हुए हैं। उन मकानों में रहने वालों को एक दिन पहले नोटिस थमाया गया और अगले दिन मकान तोड़ दिए गए। अदालत ने सवाल किया कि आखिर इस देश में लोगों को आश्रय का अधिकार है या नहीं जब भी इस तरह मकान- दुकान आदि गिराने के मामले सामने आते हैं, तो सरकारों की दलील होती है कि वे अवैध रूप से बनाए गए थे। मगर यह समझ से परे है कि अवैध रूप से बनाए गए मकानों पर तभी विकास प्राधिकरणों और नगर निगम की निगाह क्यों जाती है, जब कोई आपराधिक घटना घट जाती है। इसके पहले ऐसी जगहों की निशानदेही क्यों नहीं हो पाती।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपराध पर नकेल कसना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। मगर इसके लिए तय प्रक्रिया को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अपराध करने वाले का अपराध तब तक सिद्ध नहीं माना जा सकता, जब तक कि अदालत ऐसा फैसला न सुना दे कोई भी सरकार खुद किसी को अपराधी सिद्ध करके उसके घर पर बुलडोजर नहीं चढ़ा सकती। उस मकान में उसके परिजन भी रहते हैं, जो निर्दोष होते हैं। आखिर किसी के अपराध की सजा दूसरे लोगों को बेघर करके क्यों दी जानी चाहिए। अवैध रूप से या कब्जा करके बनाए गए मकानों को ध्वस्त करने के भी नियम कायदे हैं, इसीलिए इस तरह की मनमानी कार्रवाइयों को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक और अमानवीय करार दिया है। विचित्र है कि जिन मामलों को सरकारों को अपने विवेक से लोगों के मानवाधिकारों का ध्यान रखते हुए सुलझाना चाहिए, उनमें वे खुद कठघरे में खड़ी हो रही हैं।


Date: 03-04-25

बुलडोजर पर प्रहार

संपादकीय

उप्र के इलाहाबाद में बुलडोजर से घर ढहाने को सुप्रीम कोर्ट ने अमानवीय और अवैध करार देते हुए कहा कि इससे अदालत की आत्मा को झटका लगा है। उप्र सरकार को प्रत्येक परिवार को दस लाख रुपये का मुआवजा देने के साथ अधिकारियों को उनकी अत्याचारिता के लिए सबक सिखाने का आदेश दिया। पीठ ने कहा कि इस देश में आश्रय का अधिकार, कानून की उचित प्रक्रिया और कानून का शासन जैसी कोई चीज है। आवासीय परिसरों को मनमाने तरीके से ध्वस्त करने पर विकास अधिकारियों को यह याद रखने को कहा कि आश्रय का अधिकार मौलिक अधिकार है और संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन व स्वतंत्रता) का अभिन्न अंग है। सभी छह याचिकाकर्ता इलाहाबाद के लूकरगंज के निवासी हैं जिनके घर मार्च, 2021 में बुलडोजर से ध्वस्त किए गए थे। उनका कहना है कि स्थानीय अधिकारियों ने गलत धारणाओं के आधार पर घर गिराया कि वे माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अहमद की संपत्तियां हैं। शीर्ष अदालत ने अंबेडकरनगर जिले में बुलडोजर कार्रवाई का भी हवाला दिया। झोपड़ियों को ध्वस्त किए जाने पर कहा कि वह बहुत परेशान करने वाला और चौंकाने वाला है। उप्र सरकार के वकील ने दलील दी कि ये मकान अवैध थे इसलिए ध्वस्त किए गए। इनके साथ अन्य संपत्तियां भी ढहाई गई। हैरत है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तोड़-फोड़ की इस कार्रवाई के खिलाफ दायर याचिका खारिज कर दी थी। राज्य सरकार का दावा था कि बुलडोजर कार्रवाई पेशेवर अपराधियों और माफिया के खिलाफ की गई। इस हकीकत के बावजूद सरकारी तंत्र को उचित नोटिस देने के साथ ही रहवासियों को कागजात दिखाने और मालिकाना साबित करने का वक्त देना चाहिए था। रही बात अवैध कब्जों की तो यह राज्य सरकारों का जिम्मा है कि वे निकाय और स्थानीय विकास अधिकारियों को इतने मुस्तैद बनाएं कि वे कब्जा पक्का करने से पूर्व ही ह में आएं। भू-माफिया और सरकारी मिली भगत के बगैर कोई कब्जा संभव नहीं है। बुलडोजर चलाना समस्या का हल नहीं कहा जा सकता। सरकार को अपनी लापरवाहियों और गैर-जिम्मेदाराना रवैये से सबक लेना चाहिए। इस तरह की कार्रवाइयां बगैर सरकार के इशारे के अधिकारी नहीं कर सकते। इसलिए असली लताड़ तो सरकार को ही लगानी चाहिए। जनता से जीने का अधिकार छीनने का नतीजा भुगतने को उसे भी तैयार रहना होगा।


Date: 03-04-25

वक्फ बोर्ड पर वाजिब बहस का वक्त

कमलेश जैन, ( वरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय )

भारतीय संसद एक कानून में बदलाव करने जा रही है, वैसे तो यह सामान्य बात है, पर जब मामला वक्फ अधिनयम से जुड़ा हो, मौका गंभीर हो जाता है। बुधवार को लोकसभा में पक्ष और विपक्ष में वक्फ संशोधन विधेयक 2024 पर जो बहस हुई है, उसने सभी का ध्यान खींचा है। देश के अनेक इलाकों में इसके विरोध और पक्ष में भी प्रदर्शन हुए हैं। मुस्लिमों में भी एक वर्ग है, जो संशोधन में फायदे देख है, किंतु एक बड़ा वर्ग है, जो अपने से संबंधित कानून में किसी भी तरह के बदलाव नहीं चाहता है। बहरहाल, यह संशोध विधेयक देश के पहले सबसे बड़े अल्पसंख्यक वर्ग से संबंधित है। मतलब, इस्लाम को मानने वालों पर इससे फर्क पड़ेगा। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि अपने देश में ऐसा कानून किसी भी दूसरे अल्पसंख्यक वर्ग के लिए नहीं और न बहुसंख्यक वर्ग के लिए। वक्फ बोर्ड एक्ट और ट्रिब्यूनल सब एक ही अल्पसंख्यक वर्ग के लिए है। ताजा संशोधन वक्फ एक्ट 1995 में किए । यह एक्ट भारत की वक्फ संपत्ति के तहत आने वाली संपत्ति का प्रबंधन करता है। वह इन संपत्तियों से संबंधित झगड़ों का निबटारा भी करता है।

यह संशोधन विधेयक पहले अगस्त 2024 में प्रस्तावित किया गया था और भारतीय जनता पार्टी के सांसद जगदंबिका पाल की अध्यक्षता वाले पैनल ने 27 फरवरी को 15-11 वोट से एक्ट में 14 बदलावों के लिए रास्ता साफ कर दिया था। अनेक विपक्षी दलों ने इस पैनल या समिति के विचार से असहमति जताई। विपक्ष ने सवाल उठाया कि आखिर इस संशोधन की ज़रूरत क्या है ? सांसद असदुद्दीन ओवैसी की आपत्ति है कि इसका मकसद वक्फ एक्ट की बुनियाद कमजोर करना है, यह मुस्लिमों को भी कमजोर करेगा।

हालांकि, सरकार का मानना है कि भ्रम फैलाकर मुस्लिमों को भड़काया जा रहा है, संशोधन से मुस्लिम समाज का भला होगा। वक्फ की संपत्तियों का बेहतर उपयोग हो पाएगा। सरकार का कहना है कि वक्फ संपत्तियों के साथ समस्या यह है कि उन्हें लेकर देश भर में कई तरह के विवाद हैं। संपत्ति आखिर है किसकी ? कितनी जमीन है ? जमीन वक्फ बोर्ड की है या नहीं है ? क्या दूसरों की जमीन चुपके से हड़पी गई है ?

साथ ही, अभी लागू वक्फ कानून के अनुसार, लोग वक्फ बोर्ड द्वारा अपनी जमीन हड़पे जाने पर आम अदालतों का रुख भी नहीं कर सकते हैं। किसी की सुनवाई के लिए वक्फ ट्रिब्यूनल है, जहां वक्फ के ही नह, लोग अधिकारी-न्यायाधीश हैं, जो हर एक फैसला वक्फ के पक्ष में ही देते हैं। वे स्वतंत्र, निष्पक्ष न्याय अधिकारी नहीं हैं। । कोई भी मुस्लिम व्यक्ति किसी की भी संपत्ति, , सरकारी संपत्ति या अन्य प्रकार की संपत्ति को वक्फ की संपत्ति बताने के लिए स्वतंत्र है और जिस पर अंतिम फैसला वक्फ ट्रिब्यूनल के अनुसार हमेशा वक्फ बोर्ड के पक्ष में ही जाना है।

वक्फ की संपत्ति, बिना कागज या सबूत के वक्फ की अपनी है। जैसे हाल ही में कह दिया गया था कि भारतीय संसद की जमीन भी वक्फ की है। अति उत्साह में यह भी कह दिया गया कि प्रयागराज महाकुंभ वक्फ की जमीन पर हो रहा है, आदि-आदि।

वैसे वक्फ एक्ट की वैधता का सवाल भी दिल्ली उच्च न्यायालय में अभी लंबित है। दिल्ली में भी 123 संपत्तियों पर वक्फ का दावा हाल तक रहा है। वक्फ कानून में संशोधन का विरोध करने वालों का कहना है कि संशोधन से सरकार को वक्फ संपत्ति की जांच करने का अधिकार मिल जाएगा और सच पूछें, तो जायज इंसाफ के पैमानों पर मिलना भी चाहिए। यहां तक कह देना कि यह भूमि ऊपर वाले की है, तो हमारी है, कोई वाजिब तर्क नहीं है । वक्फ भूमि की भारतीय संविधान के तहत जायज देखभाल जरूरी है, नहीं तो हर जगह अराजकता और अपराध का आलम हो जाएगा।

यह माना जाता है कि पाकिस्तान साढ़े आठ लाख एकड़ भूमि देकर भारत से अलग किया गया था। अब वक्फ एक्ट की जमीन भी भारत में साढ़े आठ लाख एकड़ से साढ़े नौ लाख एकड़ तक पहुंच गई है। है। यानी एक इलाका भारत से बाहर है और लगभग उतनी जगह भारत के अंदर है, जहां भारतीय अदालतों और भूमि संबंधी आम कानूनों का कोई वश नहीं चलता।

गौर कीजिए, ऐसा कोई एकतरफा कानून या नियम दुनिया में कहीं किसी अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक के लिए नहीं है। मुस्लिम देशों में भी ऐसा एकतरफा कानून नहीं है, तो भारत ऐसे कानून को क्यों ढो रहा है और इतनी संपत्तियों के बावजूद यह अल्पसंख्यक वर्ग सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ क्यों है? क्या वक्फ की संपत्तियों का सही उपयोग नहीं हो पा रहा है?

वक्फ एक्ट की धारा 40 यह कहती है कि वक्फ बोर्ड यह फैसला दे सकता है कि कोई संपत्ति वक्फ की संपत्ति है। यह अंतिम फैसला है। जब तक कि वक्फ ट्रिब्यूनल इसे संशोधित न कर दे। संशोधन विधेयक ज्यादा से ज्यादा यह कहता है कि अब यह अधिकार जिला कलेक्टर को रहेगा। किसी जमीन की लूट या गलत दावे से बचने के लिए कलेक्टर या सक्षम अधिकारी को पूरा अधिकार देना जरूरी है।

संशोधन का मुख्य मकसद है कि वक्फ बोर्ड द्वारा कानून का गलत उपयोग, जमीन लेने या जमीन कब्जाने के लिए नहीं होना चाहिए। वक्फ एक्ट के सेक्शन 40 का बुरी तरह से दुरुपयोग किया गया है। किसी भी संपत्ति को अपनी संपत्ति बताने के लिए इसका हर स्तर पर और हर जगह इस्तेमाल किया गया है। मुस्लिम समाज में भी इस कारण विवाद और बेचैनी बढ़ी है। समाज का हित देखना भी जरूरी है, ताकि वक्फ का सदुपयोग हो ।

यह प्रावधान कि केवल व्यवहार में लाने मात्र से कोई संपत्ति वक्फ की हो जाएगी, गलत है। मान लीजिए किसी ने जमीन खरीद ली और दो-चार साल तक खाली छोड़ दी, उस पर वक्फ कब्जा करके या उसका उपयोग करके अपनी साबित कर सकता है।

अभी वक्फ बोर्ड में सिर्फ मुसलमान पुरुष ही हो सकते हैं। संशोधन कहता है कि अब अब बोर्ड में दो दो मुस्लिम स्त्रियां और दो किसी अन्य समुदाय के लोग भी होंगे, इस पर वक्फ बोर्ड के समर्थकों को एतराज है। संशोधन विधेयक को लाए जाने पर बहुत सी मुस्लिम महिलाएं खुश हैं। साथ हैं। साथ ही, पिछड़े और गरीब मुस्लिम भी खुश हैं। मुस्लिम समाज के वंचितों को लग रहा है कि वक्फ संपत्ति का अगर सही इस्तेमाल होगा, तो समाज में गरीबी घटेगी और खुशहाली आएगी। अभी केवल ऊंची बिरादरी या समाज के दबंग लोगों को ही वक्फ का फायदा हो रहा है। यह एक ऐसा मसला है, जिस पर समझदारी दिखाते हुए और व्यापक समाजका हित देखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।