02-08-2024 (Important News Clippings)
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Date: 02-08-24
Quota Quicksand
Top court right to okay subquotas within SC/STs. But the entire exercise will set off political gamesmanship
TOI Editorials
With an SC constitution bench allowing sub-categorisation within the Scheduled Castes and Scheduled Tribes reservation, a new political hot potato is now on boil. Govts also need to identify the creamy layer (children of individuals who’ve benefited from reservations) among SCs and STs. This exercise risks being as much political strategy, as authentic identification of those in dire need of affirmative action.
What’s good | Overall, sub-categorisation is a positive step. Quotas, unfortunately, have become the political class’s go-to arrow in its election quiver. This has had two outcomes. One, better-offs have tended to corner reservation benefits, crowding out the more marginalised. Two, SC/ST categories have expanded or become more porous. Ever-new groups get added. A community marginalised on the crowded OBC list stands a better chance at access to education, scholarship and jobs, if it is on the SC list. Such fluidity has seen communities jostling, SC/ST lists growing. Sub-categorisation, carried out efficiently and honestly, will help make the SC/ST quota more inclusive by identifying and including those worseoff in terms of social capital also. Punjab, with 32% of its population SC, realised the need for subquotas back in 1975 and reserved 50% SC quota for Valmikis and Mazhabi Sikhs. Haryana, Andhra, TN tried subquotas. An SC order in 2004 cancelled such a subquota – a decision the top court yesterday overturned.
What’s bad | Thinly sliced quotas are hardly sum and substance of affirmative action. Subquotas alone can never correct endemic discrimination or counter the shrinking jobs pie. Rehabilitation of manual scavengers for instance – those who managed to leave their punishing work behind – has been a challenge. Addressing discrimination in school and the workplace, as policy, remains a blind spot. Special contempt is reserved for the ‘quota-wala’. Assimilation remains a huge challenge. Govt sector jobs are down and private sector jobs are elusive. So, there are caste certificate scams. The desperation for a somewhat steady livelihood finds expression in repeated returns to demands for quota as the only solution. All this speaks to policy failure.
What’s tough | Headcounts can’t suffice for subquotas to be meaningful. There are about 1,200 SC communities and over 715 ST ones. Each of these must be parsed for their socio-economic data. That’s a mammoth task, and politics will be a determinant. SC decided on the constitutionality of subquotas. How it contributes as affirmative action is now all political number games.
Wayanad, How Much Do We Really Care?
Designate the Western Ghats eco-sensitive
ET Editorials
‘Rain violence’ sits awkwardly with a country aspiring to earn a ‘developed’ tag in 23 years’ time. Be that as it may, current reality has heavy rainfall and landslide-induced devastation in Kerala’s Wayanad as the latest example of what greed, biodiversity loss and climate change can lead to in 2024 India. This is hardly a surprise. In 2022, the Earth sciences ministry informed Parliament that of the 3,782 landslides recorded across India during 2015-22, about 59.2% — 2,239 landslides — occurred in Kerala, the highest in the country. This time, lives could have been saved if the state had heeded IMD’s orange alert on July 29 and red alert on July 30. Kerala claims there was no red alert.
Allegations aside, ‘Wayanad’ is the product of decades of privileging untrammelled greed over environmental well-being. As Madhav Gadgil, chair of Western Ghats Ecology Expert Panel, set up in 2011 by GoI, stated, the double landslides are proof that the Ghats have been exploited without care, and govs have no interest in protecting nature. The panel had recommended designating Western Ghats as eco-sensitive. It also suggested grading the region into zones based on their ecological sensitivity and fragility, and limiting human activity accordingly. Yet, all six Ghat states pushed back, complaining of an erosion of the federal structure. Unregulated and illegal economic activity flourished, fuelled by an unholy alliance between politics and business. Mining and unrestricted tourism aggravated the situation.
Unless governments and citizens start valuing natural capital, balance economic activities with environmental and ecological well-being, such disasters will recur. The first step now should be to designate the Western Ghats eco-sensitive and rigorously follow guidelines for the regulation and promotion of development activities. That is, if Indians care about the lives and well-being of Indians.
भ्रष्टाचार पर सिस्टम का रवैया भी उदासीन है
संपादकीय
भ्रष्टाचार की पैड़ के दो मुख्य कारण होते हैं- समाज में नैतिक मूल्यों का क्षरण और सिस्टम की इसके प्रति उदासीनता (व कई बार सहभागिता)। एक साल पहले अगस्त में सीएजी ने संसद को बताया कि आयुष्मान भारत की पीएम एवाई योजना के तहत 88,760 ऐसे मरीजों (जिनकी मृत्यु हो चुकी के नाम पर 2,14,923 दावों का भुगतान सिस्टम दिखा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार देश में भी लाख से ज्यादा ऐसे लाभार्थी थे, जो एक ही मोबाइल नंबर से जुड़े थे। इसे सुधारने के लिए एक साल का समय काफी था। लेकिन संसद की लोकलेखा समिति ने जब इस पर जांच की तो पाया कि ऐसे लेनदेन पर नजर रखने वाले ट्रांजेक्शन मैनेजमेंट सिस्टम (स) ने भी इस फर्जीवाड़े को मंजूरी दी थी। संसदीय समिति ने सरकार से दो सवाल पूछे- टीएमएस इसे कैसे नहीं पकड़ सका? और दूसरा, सीएजी की रिपोर्ट में बताई गई संख्या के आधार पर है, यानी घपला कई गुना ज्यादा बड़ा हो सकता है। इस पर मंत्रालय ने कहा, “सिस्टम के अपडेटेड संस्करण में ऐसे तथ्यों को पकड़ने की पुख्ता व्यवस्था है।’ आप सोचें, जहां प्रधानमंत्री के इस फ्लैगशिप कार्यक्रम को भ्रष्टाचारी अपार-निजी अस्पतालल में पहुंचा रहे हैं, वहीं सरकार की प्रतिक्रिया कितनी सामान्य है।
सवालों में घिरी सबसे प्रतिष्ठित सेवा
विकास सारस्वत, ( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी द्वारा सिविल सेवा परीक्षा में पूजा खेडकर की उम्मीदवारी समाप्त कर एक विवादित प्रकरण का पटाक्षेप करने का प्रयास हुआ। महाराष्ट्र कैडर की प्रशिक्षु आइएएस अधिकारी रहीं खेडकर पर आयोग ने भविष्य में अपनी किसी भी परीक्षा में भागीदारी पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। सेवा में कदाचार और भर्ती के लिए फर्जी प्रमाण पत्रों से जुड़े इस मामले के सामने आने के बाद ऐसे तमाम अन्य मामले भी सतह पर आए हैं। 2011 बैच के पूर्व आइएएस अधिकारी अभिषेक सिंह भी ऐसे ही आरोपों में घिरे हैं। सिंह ने बेंचमार्क दिव्यांगता श्रेणी-3 में लोकोमोटर दिव्यांगता का दावा कर नौकरी पाई थी, जबकि उनके नृत्य और जिम में व्यायाम करने के तमाम वीडियो सामने आए हैं। लोकोमोटर दिव्यांगता में ठीक से चल पाना भी संभव नहीं होता सिंह नौकरी छोड़कर फिल्मों में काम करने चले गए थे और बाद में राजनीति में भी अपने हाथ आजमाना चाहते थे। लोकसभा चुनावों में टिकट न मिलने पर उन्होंने सेवा में वापसी की अर्जी डाली थी, परंतु योगी सरकार ने उसे नामंजूर कर दिया।
दिव्यांगता और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के झूठे प्रमाण पत्रों का प्रयोग करने के आरोप केवल पूजा और अभिषेक सिंह पर ही नहीं, बल्कि कई अन्य आइएएस अधिकारियों पर भी लगे हैं। ऐसे आरोपों के बाद इंटरनेट मीडिया पर व्यापक रूप से सक्रिय कई अधिकारियों ने अपने प्रोफाइल या तो प्राइवेट कर लिए या फिर डिलीट कर दिए हैं। पूजा खेडकर मामला इसलिए बहुत चौंकाने वाला है कि इसमें एक नहीं, बल्कि कई स्तरों पर गड़बड़ी हुई और उनके संज्ञान में आने के बावजूद खेडकर को आइएएस में नियुक्ति मिल गई। पिता के भी वरिष्ठ अधिकारी रहने के बावजूद पूजा ने स्वयं को क्रीमी लेयर से अलग दर्शाया और फर्जी दिव्यांगता बताई। खुद पूजा खेडकर के नाम पर 17 करोड़ रुपये की चल-अचल संपत्ति है और उनके माता पिता के नाम 50 करोड़ की घोषित संपत्ति है। आयोग द्वारा अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में छह बार मेडिकल टेस्ट हेतु बुलाए जाने के बावजूद वह नहीं आईं। बाद में यह रिपोर्ट भी आई कि उन्होंने अपनी आयु भी कम करके दर्शाई। दिलचस्प यह है कि खेडकर इतना फर्जीवाड़ा करके बच निकलीं और उन पर कार्रवाई तब हुई, जब उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ अभद्रता और दुर्व्यवहार शुरू कर दिया।
फरवरी 2023 में केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण यानी कैट ने अधिकृत संस्थान दिल्ली एम्स से एमआरआइ न कराने पर पूजा खेडकर के चयन को रद करने का आदेश दिया था, परंतु यूपीएससी ने पुणे के एक अनधिकृत अस्पताल से भेजी गई रिपोर्ट को मानकर खेडकर के चयन को बहाल रखा और आइएएस कैडर आवंटित कर दिया। संघ लोक सेवा आयोग की गिनती उन चुनिंदा संस्थाओं में होती है, जिनकी साख आज भी बनी हुई है। बहुत से सामान्य परिवारों के अभ्यर्थी न सिर्फ सिविल सर्विस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर देश के शासकीय नेतृत्व का हिस्सा बनते हैं, बल्कि उसे अपने उज्ज्वल भविष्य के प्रवेश द्वार के रूप में भी देखते हैं। ऐसे में दिव्यांगता और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को लेकर आ रहीं फर्जीवाड़े की शिकायतें चयन के अनुपात में भले ही बहुत कम हों, लेकिन चिंता का विषय हैं। चिंता की बात यह भी है कि देश की सबसे सम्मानित सेवा के चयन और प्रशिक्षण में ऐसी कौन सी खामियां हैं जो इन अधिकारियों में वैसा चरित्र निर्माण नहीं कर पा रहीं, जैसा सेना के प्रशिक्षुओं में देखने को मिलता है। यूपीएससी के प्रयास चयन में सामाजिक विविधता लाने में तो कारगर रहे हैं, परंतु भ्रष्टाचार में संलिप्तता के चौंकाने वाले मामले दर्शाते हैं कि चयनित उम्मीदवारों की सत्यनिष्ठा परखने में भारी चूक हो रही है। यह तब है जब मुख्य परीक्षा में एक प्रश्न पत्र नैतिकता और सत्यनिष्ठा पर केंद्रित होता है।
प्रशासनिक अधिकारियों के भ्रष्टाचार की स्थिति कितनी खराब है, इसका पता 2021 में कार्मिक राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह द्वारा संसद में दिए एक जवाब से चलता है, जिसमें उन्होंने केवल वित्त वर्ष 2020-21 में आइएएस अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की 581 शिकायतें मिलने की बात कही थी। इसके पूर्व दो वित्त वर्षों में आइएएस अधिकारियों के खिलाफ 753 और 643 शिकायतें प्राप्त हुई थीं। संभव है कि एक ही अधिकारी के खिलाफ एक से ज्यादा शिकायतें आई हों। यह भी संभव है कि इनमें कई शिकायत झूठी एवं द्वेषपूर्ण हों, परंतु देश भर में आइएएस अधिकारियों की सीमित संख्या को देखते हुए इतनी अधिक शिकायतें गंभीर चिंता का विषय हैं। आइएएस में भ्रष्टाचार का मुख्य कारण राज्य की बहुमूल्य संपदा को वितरित करने की असीमित शक्तियां, सक्षम तृतीय पक्ष निगरानी का अभाव, नेताओं की उन पर अतिनिर्भरता और नौकरशाही एवं नेताओं की साठगांठ है। कड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति और नौकरी के प्रति असुरक्षा के भाव से ही इस समस्या का समाधान संभव है, परंतु चयन और प्रशिक्षण से लेकर अपने सिंहावलोकन में भी सिविल सेवा को बड़े फेरबदल की जरूरत है।
जहां परीक्षा के प्रारूप में निरंतर बदलाव से प्रतिभावान अभ्यर्थियों के लिए अवसर बढ़ेंगे, वहीं अंक तालिका में एकतरफा रुझान बनाने वाले ‘वैकल्पिक’ विषयों को हटाकर सेवाओं में काम आने वाला उपयोगी पाठ्यक्रम वांछित प्रत्याशियों के चयन में उपयोगी होगा। इंटरव्यू में मनोविश्लेषक की भागीदारी अभ्यार्थियों के चरित्र को गहराई से समझने में सहायक होगी। अच्छा तो यह हो कि आवेदन करने वाले परीक्षार्थी पहले निजी या सरकारी क्षेत्र में दो या पांच वर्ष का अनुभव लेकर आएं। इससे इन परीक्षार्थियों में परिपक्वता आएगी और जिस समाज की इन्हें सेवा करनी है, उसके प्रति संवेदनात्मक दृष्टिकोण भी बनेगा। साथ ही, आइएएस या समकक्ष सेवाओं को सही मायने में जनसेवकों का प्रारूप दिया जाए। बंगला, गाड़ी और अर्दली, ड्राइवर जैसी सुविधाओं से बना ठाट-बाट अधिकारियों को अंग्रेजी राज वाला अभिजात्य दर्जा देता है। साथ ही समाज में वर्ग श्रेष्ठता का भाव खुद को आमजन के लिए बने कानूनों से ऊपर होने का भाव देता है। कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसी मानसिकता के चलते भ्रष्टाचार सहजता से पनपता है।
Date: 02-08-24
इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात में अवसर
संपादकीय
पिछले कुछ समय से भारत से वस्तुओं के निर्यात में इलेक्ट्रॉनिक सामान की हिस्सेदारी आकर्षण का प्रमुख केंद्र रही है। इस वर्ष जून में इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का निर्यात सालाना आधार पर 16.91 प्रतिशत बढ़ा। वित्त वर्ष 2024-25 की पहली तिमाही में पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि की तुलना में इसमें 21.64 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई। इलेक्ट्रॉनिकी विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि की असीम संभावनाएं हैं और इस खंड पर विशेष ध्यान देने एवं नीतिगत समर्थन से वैश्विक मूल्य श्रृंखला (जीवीसी) के साथ इसका जुड़ाव बढ़ सकता है। देश में रोजगार के अवसर तेजी से उपलब्ध कराने की अदद जरूरत है और इसमें इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है। इस क्षेत्र में वर्ष 2018 से 2022 के बीच रोजगार में सबसे अधिक वृद्धि हुई है। आर्थिक समीक्षा में भी इस बात का उल्लेख किया गया है।
परंतु, विश्व में 4.3 लाख करोड़ डॉलर के इलेक्ट्रॉनिकी बाजार में भारत की हिस्सेदारी लगभग 2 प्रतिशत है। दुनिया में इस क्षेत्र पर चीन का खास दबदबा है और इन वस्तुओं के कुल निर्यात में इसकी हिस्सेदारी 30 प्रतिशत रही है। वियतनाम और मलेशिया जैसे तेजी से उभरते बाजारों ने भी इस खंड में तुलनात्मक रूप से अपनी स्थिति मजबूत कर ली है और इलेक्ट्रॉनिकी जीवीसी में इनकी हिस्सेदारी 4 प्रतिशत पहुंच गई है। इस परिप्रेक्ष्य में नीति आयोग की नई रिपोर्ट ‘इलेक्ट्रॉनिक्सः पावरिंग इंडियाज पार्टिसिपेशन इन जीवीसी’ में उल्लेख किया गया है कि देश में इलेक्ट्रॉनिकी क्षेत्र में उत्पादन 2017 से 2022 के बीच दोगुना हो गया और इसमें 13 प्रतिशत चक्रवृद्धि ब्याज दर से तेजी आई। यह वृद्धि दर अनुकूल अवसरों की ओर इशारा करती है, मगर और अधिक विस्तार एवं एकीकरण में चुनौतियां होने का भी संकेत देती है। वर्तमान समय में भारत में इलेक्ट्रॉनिक उत्पादन में मुख्यतः मोबाइल फोन, टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर और दूरसंचार उपकरण बाजार में उतारने के लिए तैयार किए जाते हैं।
विनिर्माण में इस्तेमाल होने वाले पुर्जों के लिए आयात पर निर्भरता और डिजाइन की सीमित गुंजाइश के कारण मूल्य व्यवस्था में ऊपर उठने की देश की क्षमता प्रभावित हो जाती है। भारत में स्थानीय स्तर पर पुर्जों के विकास की क्षमता सीमित होने का प्रमुख कारण ऊंची शुल्क संरचना है। यहां औसत शुल्क दर 7.5 प्रतिशत है, जो चीन, वियतनाम, थाईलैंड और मलेशिया (जहां शुल्क 4 प्रतिशत से कम है) से अधिक है। इसके अलावा, अतिरिक्त कर एवं अधिभार भी लगते हैं, जिनसे स्थानीय स्तर पर उत्पादन अधिक महंगा हो जाता है। ऊंचे शुल्कों के कारण विनिर्माता विदेश से पुर्जे मंगाने को अधिक तवज्जो देते हैं, जिसका सीधा असर देश में इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण पर पड़ता है। कुल मिलाकर, ऊंचे शुल्क एवं सामग्री पर होने वाले खर्च, ढुलाई एवं वित्तीय लागत के कारण यह क्षेत्र 14-18 प्रतिशत संचयी लागत अक्षमता का सामना कर रहा है। श्रम लागत कम होने के बावजूद कमजोर श्रम उत्पादकता के कारण भारत इसका लाभ लेने में सदैव जूझता रहा है। इन चुनौतियों को देखते हुए भारत में विनिर्माण, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक उपकरण क्षेत्र पर नकारात्मक असर डालने वाले कारकों का समाधान खोजा जाना चाहिए। बड़े क्षेत्रीय या आर्थिक व्यापार गुटों से भारत का बाहर रहना एक प्रमुख बाधा रही है। इन संगठनों का हिस्सा बनने से कम शुल्कों, सरल नियमन एवं बढ़ी व्यापार क्षमताओं के कारण उत्पादन लागत कम हो सकती है।
सरकार के प्रयासों के बावजूद भारत कारोबार सुगमता में अपने प्रतिस्पर्द्धी देशों की तुलना में लगातार निचले पायदान पर है। क्षमताएं बढ़ाने के साथ ही भारत को इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के विनिर्माण में विविधता लानी होगी और इसमें लैपटॉप तथा दूरसंचार उपकरणों को शामिल करना होगा। इस समय देश में तैयार होने वाली इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं में स्मार्टफोन की 43 प्रतिशत हिस्सेदारी है। स्थानीय स्तर पर मूल्य व्यवस्था खड़ी की जा सकती है और उत्पाद तैयार करने में तेजी लाई जा सकती है। प्रतिस्पर्द्धी देशों की तुलना में शुल्क भी तर्कसंगत बनाए जा सकते हैं। वित्त वर्ष 2024-25 के केंद्रीय बजट में सीमा शुल्क घटाने का प्रस्ताव एक स्वागत योग्य कदम है। बजट में सीमा शुल्क संरचना की समीक्षा से भारत में इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का विनिर्माण और जोर पकड़ेगा। यदि इन सभी मुद्दों का त्वरित समाधान नहीं हुआ तो भारत उन कंपनियों को आकर्षित करने का अवसर खो देगा, जो चीन से इतर दूसरे देश में विनिर्माण संयंत्र लगाना चाह रहे हैं। वियतनाम अपनी अनुकूल नीतियों और कम झंझटों वाले नियामकीय एवं राजनीतिक पहल से इन कंपनियों को खींच रहा है। नीति आयोग की रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि क्या कदम उठाने की आवश्यकता है। अब सरकार को यह तय करना है कि वह इलेक्ट्रॉनिकी विनिर्माण क्षेत्र में इन अवसरों का लाभ कैसे उठती है।
Date: 02-08-24
किसकी जिम्मेदारी
संपादकीय
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जब हादसे की पृष्ठभूमि बन रही होती है, तब सरकारी महकमे नींद में खोए रहते हैं या फिर किसी परोक्ष कारण से उसे नजरअंदाज करते रहते हैं और जब कोई बड़ी त्रासद घटना हो जाती है तब वे जरूरत से ज्यादा सक्रिय दिखते हैं। अफसोसनाक यह भी है कि जो इमारतें अपनी बुनियाद में ही हादसे की जमीन साथ लिए होती हैं, उनके निर्माण के समय या फिर बाद में उनमें नियम-कायदों को ताक पर रख कर संचालित गतिविधियों की इजाजत दी जाती है और जब वहां हुए हादसे में जानमाल के नुकसान का मामला तूल पकड़ लेता है तब आनन-फानन में दिशाहीन कार्रवाई करने का दिखावा किया जाता है। यह एक तरह से गलत तरीके से या लेनदेन आधारित लाभ पहुंचाने की अघोषित व्यवस्था है, जिसके नतीजे में कोई त्रासदी सामने आती है! राजधानी दिल्ली के राजेंद्र नगर इलाके में एक कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में बरसात का पानी भर जाने की वजह से भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं की तैयारी करने वाले तीन विद्यार्थियों की मौत की घटना इसी का उदाहरण है।
इस मसले पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान दिल्ली सरकार की नीतियों की सख्त आलोचना की और कहा कि आप बहुमंजिला इमारतों की मंजूरी दे रहे हैं, लेकिन नाली की कोई उचित व्यवस्था नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि जब ‘रेवड़ी बांटने की संस्कृति’ के कारण कर संग्रह नहीं होता है तब ऐसी त्रासदियां होना स्वाभाविक है। जाहिर है, अदालत ने एक तरह से समस्या के कुछ बुनियादी कारणों की बात की, जिन पर अगर समय रहते गौर किया गया होता तो शायद हादसे की नौबत नहीं आती और न विद्यार्थियों की जान जाती। यह छिपा नहीं है कि जब इमारतें बन रही होती हैं, तब उसमें नियम-कायदों को ताक पर रख कर भी अपनी सुविधा के मुताबिक निर्माण करा लिया जाता है। इस बात की फिक्र नहीं की जाती है कि यही लापरवाही भविष्य में किसी बड़ी त्रासदी की वजह बन सकती है। इसमें सरकार के संबंधित महकमों के अधिकारियों की भी मिलीभगत या अनदेखी होती है, जो ऐसे निर्माणों को रोकते नहीं या फिर कई बार नियमों के विरुद्ध इजाजत दे देते हैं।
हैरानी की बात यह है कि जब इन वजहों से कोई बड़ी दुर्घटना हो जाती है और उस पर जनआक्रोश उभर जाता है, तब पूरी तेजी से कार्रवाई होती देखी जाती है। इस क्रम में कई बार दिखावे की कार्रवाई करके असली जिम्मेदार लोगों को एक तरह से बचाने की कोशिश की जाती है। राजेंद्र नगर के बेसमेंट में हुए हादसे के बाद वहां सामने की सड़क से गुजरते एक वाहन चालक को बिना देरी किए गिरफ्तार किया गया, मगर उन अधिकारियों के खिलाफ इतनी ही तेज कार्रवाई करना जरूरी नहीं समझा गया, जिनकी अनदेखी, लापरवाही या फिर इजाजत से बेसमेंट में पुस्तकालय चल रहा था। दिल्ली हाई कोर्ट ने इस पहलू पर भी सवाल उठाया है। अब दिल्ली सरकार की ओर से यह कहा गया है कि राजधानी में संचालित कोचिंग केंद्रों को नियंत्रित करने के लिए कानून लाया जाएगा। उपराज्यपाल ने भी शहर में कोचिंग सेंटरों को विनियमित करने के लिए एक समिति बनाने की घोषणा की। सवाल है कि अब तक कोचिंग सेंटरों की गतिविधियों को किस आधार पर सुरक्षा संबंधी जरूरी उपायों पर अमल करने की बाध्यता से बख्शा गया था और सरकारों की नींद किसी बड़ी त्रासदी के बाद ही क्यों खुलती है!
Date: 02-08-24
युद्ध के मुहाने
संपादकीय
करीब सात महीने पहले इजराइल पर हमास के हमले के बाद दोनों पक्षों के बीच टकराव की वजह से गाजा पट्टी में आम लोगों की जिंदगी किस दशा में चली गई है, यह सभी जानते है। इस युद्ध के दौरान त्रासदी का स्तर लगातार ज्यादा गहराते जाने के दौर में कई तरफ से युद्ध विराम के लिए इजराइल पर दबाव बनाने की कोशिशें चल रही थीं। यहां तक अमेरिका भी अपने करीबी सहयोगी से युद्ध को रोकने की उम्मीद कर रहा था। मगर इजराइल का रुख स्पष्ट बना रहा कि वह हमास पर हमले में कोई नरमी नहीं बरतेगा। इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युद्ध विराम की मांग की जा रही थी। अब ईरान में हमास प्रमुख इस्माइल हनियेह की जिस तरह हत्या कर दी गई और हमास के मिलिट्री कमांडर मोहम्मद दिएफ के भी मारे की जाने की खबर आई है, उससे न केवल शांति की उम्मीदों को गहरा झटका लगा है। खुद ईरान ने भी हनियेह की मौत का बदला लेने की बात कही है।
हालांकि अमेरिका ने दोनों पक्षों से तनाव कम करने की गुजारिश की है और ईरान पर जवाबी कार्रवाई न करने का दबाव बढ़ाया है। मगर उसकी अनदेखी कर अगर ईरान ऐसा कोई कदम उठाता है, तो उसके नतीजों का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। दरअसल, हनियेह की मौत के बाद समूचे मध्यपूर्व में जिस स्तर का तनाव उभरा है, वह कभी भी कोई चिंताजनक शक्ल अख्तियार कर ले सकता है। आशंकाएं यहां तक जताई जाने लगी हैं कि हनियेह की मौत के बाद उपजे हालात में अब ईरान इजराइल पर सीधा हमला भी कर सकता है। अगर ऐसा होता है तो अब तक केवल इजराइल और हमास के बीच सिमटे टकराव की आग में कई अन्य देश खुद को उलझा हुआ पाएंगे। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर युद्ध एक बार शुरू हो जाता है तब उसके बाद उसके अंत का स्वरूप शांति चाहने वाले समुदायों और देशों की इच्छा के अनुरूप नहीं होता है। इसलिए इजराइल ने हमास को सबक सिखाने का नाम लेकर जो जिद पकड़ ली है, उसने दुनिया के एक बड़े हिस्से को चिंतित कर दिया है। संघर्ष विराम की उम्मीदों के बीच समूचे मध्य पूर्व में इस तनाव के गहराने और युद्ध के नए मुहाने खुल जाने की आशंका बढ़ गई है।
Date: 02-08-24
युद्ध विस्तार की आशंका
संपादकीय
गाजा पट्टी में प्रभावशाली आतंकी संगठन हमास के राजनीतिक दस्ते के सर्वोच्च नेता इस्माइल हानिया की ईरान की राजधानी तेहरान में हुई हत्या ने पश्चिम एशिया की राजनीति में एक नया तूफान खड़ा कर दिया है। 70 वर्षीय हानिया ईरान के नये राष्ट्रपति मसूद पेजशिकमान के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने तेहरान आए थे। उन्होंने ईरान के सर्वोच्च नेता अली ख़ामनेई से भी मुलाकात की थी। हमास और ईरान दोनों ने हानिया की हत्या के लिए इस्राइल को जिम्मेदार ठहराया है। अली खामनेई ने कहा है कि हानिया की हत्या के लिए जो भी जिम्मेदार है उसे कठोर दंड दिया जाएगा। हानिया तेहरान के जिस भवन में ठहरा हुए थे वह सुरक्षा की दृष्टि से चाक-चौबंद था। ऐसे में कहना मुश्किल है कि हानिया की हत्या किसने की है अभी यह रहस्य बना हुआ है। इस बात की भी चर्चा है कि हमास के राजनीतिक दस्ते और सैन्य दस्ते के बीच इस्राइल के साथ युद्ध विराम और बंधकों की रिहाई जैसे मसलों परमतैक्य नहीं था। रूस, चीन और तुर्किये ने हानिया की हत्या की निंदा की है। इस्राइल की जिस तरह से घेराबंदी की जा रही है, उससे पश्चिम एशिया में तनाव और युद्ध के विस्तार की आशंका बढ़ गई है। एक अन्य घटनाक्रम में इस्राइल ने हिजबुल्लाह कमांडर फउद शुकर को मार गिराया है । हाल-फिलहाल लेबनान के आतंकी संगठन हिजबुल्लाह और इस्राइल के बीच मामूली झड़पें हो रही हैं लेकिन आने वाले दिनों में इनके बीच खुलकर युद्ध हुआ तो हजारों लोग मारे जा सकते हैं। हिजबुल्लाह ने भी अपने कमांडर की मौत का बदला लेने का संकल्प लिया है। ईरान भी बदला लेना चाहता है और हमास और कतर ने भी युद्ध के विस्तार की आशंका जताई है। इससे इस्राइल-फिलिस्तीन युद्ध अब मध्य पूर्व में फैलने के पूरे आसार हैं। अमेरिका ने हानिया की हत्या पर किसी तरह की टिप्पणी नहीं की है लेकिन रक्षा मंत्री लॉयड आस्टिन ने कहा है कि यदि ईरान, हमास और हिजबुल्लाह इस्राइल पर हमला करते हैं तो वह तेल अवीव के पक्ष में खड़ा होगा। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य यह है कि युद्ध के तीन क्षेत्र हैं- रूस – यूक्रेन, इस्राइल-फिलिस्तीन और चीन ताइवान इन क्षेत्रों में युद्ध विस्तार होता है तो जान-माल की अपार क्षति होगी।
Date: 02-08-24
तबाही की वजह
प्रमोद भार्गव
नयनाभिराम प्राकृतिक संपदा और बहुआयामी जल- संसाधनों के कारण केरल को उत्तराखंड की तरह भगवान का घर माना जाता है किंतु मूसलाधार बारिश और भूस्खलन हिमालय से लेकर केरल तक तबाही के कारण बन रहे हैं। सुदूर दक्षिण राज्य केरल में प्रकृति ने रौद्र रूप दिखाया और भूस्खलन एवं चेरियाल नदी के जलभराव क्षेत्र में बसे चाय बागान मजदूरों के चार गांवों ने मिट्टी के मलबे में जल समाधि ले ली। चेरियाल नदी पहाड़ों से निकलती हुई समतल भूमि पर चार दिनों से चल रही बारिश के कारण अत्यंत तेज गति से बही। इसी समय पहाड़ जल के प्रवाह से बह पड़े और पत्थरों व मलबे से चूरलमाला, अट्टामाला, नूलपुझा और मुंडक्कई मलबे में पूरी तरह दब गए। जल की रफ्तार में हजारों पेड़, सैकड़ों वाहन भी जड़ों से उखड़ कर ग्रामों की ओर बहते चले आए। करीब 2200 की आबादी के 400 से ज्यादा घर कुछ पलों में मिट्टी के ढेर में बदल गए।
यह पूरा इलाका पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र माना जाता है। केरल में केदारनाथ की तरह जो जल तांडव आया, उसने तय कर दिया है कि यह आपदा भगवान की देन न होकर मानव निर्मित है। पर्यावरणविद् ने भी इस बाढ़ को मानव निर्मित आपदा करार दिया है। कारण, बड़ी मात्रा में जंगलों की कटाई और पर्यटन में वृद्धि । चेरियाल बाढ़ क्षेत्र की जीवनदायिनी नदी मानी जाती रही है, लेकिन वही आधुनिक विकास के चलते मौत का सबब बन गई। कृषि प्रधान इस इलाके में चाय के अलावा नारियल, केला, मसाले और शुष्क मेवा की फसलें भी खूब होती हैं। पर्यटन भी राज्य की आमदनी व रोजगार का मुख्य स्रोत है। आय के ये सभी संसाधन प्राकृतिक हैं। गोया, प्रकृति का इस तरह से रूठ जाना आर्थिक रूप से खस्ताहाल केरल पर लंबे समय से भारी पड़ रहा है क्योंकि इसके पहले बरसात में ही केरल के 80 बांधों में से 36 बांधों के दरवाजे एकाएक खोल दिए गए थे। बांधों से निकले पानी ने बड़ी तबाही मचाई थी। यह तबाही पूरी तरह मानवीय भूल थी, लेकिन सिंचाई विभाग के किसी नौकरपाह की जवाबदेही तय करके दंड दिया गया हो, ऐसा देखने में नहीं आया।
केदारनाथ, अमरनाथ, हिमाचल और कश्मीर के जल प्रलय से हमने कोई सीख नहीं ली। गोया वहां रोज बादल फट रहे हैं, पहाड़ के पहाड़ ढह रहे हैं। हिमाचल, असम और उत्तर प्रदेश में भी बारिश आफत बनी हुई है। बावजूद न तो हम शहरीकरण, औद्योगीकरण, तकनीकीकरण और तथाकथित आधुनिक विकास से जुड़ी नीतियां बदलने को तैयार हैं, और न ही ऐसे उपाय करने को प्रतिबद्ध हैं, जिनसे ग्रामीण आबादी शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर न हो? शहरों में यह बढ़ती आबादी मुसीबत का पर्याय बन गई है। नतीजतन, प्राकृतिक आपदाएं भयावह होती जा रही हैं। सूरत, चेन्नई, बैगलुरू, गुड़गांव ऐसे उदाहरण हैं, जो स्मार्ट सिटी होने के बावजूद बाढ़ की चपेट में रहे। यहां कई दिनों तक जनजीवन ठप रहा। बारिश का 90 प्रतिशत पानी तबाही मचाकर अपना खेल खेलता हुआ समुद्र में समा जाता है। यह संपत्ति की बरबादी तो करता ही है, खेतों की उपजाऊ मिट्टी भी बहाकर समुद्र में ले जाता है। देश हर तरह की तकनीक में पारंगत होने का दावा करता है, लेकिन जब हम बाढ़ की त्रासदी झेलते हैं, तो ज्यादातर लोग अपने बूते ही पानी में जान व सामान बचाते नजर आते हैं। आफत की बारिश के चलते डूब में आने वाले महानगर कुदरती प्रकोप के कठोर संकेत हैं, लेकिन हमारे नीति-नियंता हकीकत से आंखें चुराए हुए हैं। बाढ़ की यही स्थिति असम और बिहार जैसे राज्य भी हर साल झेलते हैं, यहां बाढ़ दशकों से आफत का पानी लाकर हजारों ग्रामों को डूबो देती है। इस लिहाज से शहरों और ग्रामों को कथित रूप से स्मार्ट व आदर्श बनाने से पहले इनमें ढांचागत सुधार के साथ ऐसे उपायों को मूर्त रूप देने की जरूरत है, जिससे ग्रामों से पलायन रुके और शहरों पर आबादी का दबाव न बढ़े ?
आफत की यह बारिश चेतावनी है कि हमारे नीति- नियंता, देश और समाज के जागरूक प्रतिनिधि के रूप में दूरदृष्टि से काम नहीं ले रहे हैं। कृषि एवं आपदा प्रबंधन से जुड़ी संसदीय समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन से कई फसलों की पैदावार में कमी आ सकती है, लेकिन सोयाबीन, चना, मूंगफली, नारियल और आलू की पैदावार में बढ़त हो सकती है। हालांकि कृषि मंत्रालय का मानना है कि जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए खेती की पद्धतियों को बदल दिया जाए तो अनेक फसलों की पैदावार में 10-40 फीसद बढ़ोतरी संभव है। बड़ते तापमान के चलते भारत ही नहीं, दुनिया में वर्षा चक्र में बदलाव के संकेत 2008 में ही मिल गए थे, बावजूद इस चेतावनी को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। बहरहाल, हर साल बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का संकट नहीं झेलना पड़े, अतएव क्रांतिकारी पहल करना जरूरी हो गया है। वरना देश हर वर्ष किसी न किसी राज्य या महानगर में बाढ़ जैसी भीषण त्रासदी झेलते रहने को विवश होता रहेगा?
कुल्लू से केरल तक
संपादकीय
भारत का मौसम की मार से प्रभावित और चिंतित होना स्वाभाविक है। उत्तर भारत में कुल्लू से लेकर दक्षिण के केरल तक कई जगह त्रासद मंजर सामने आए हैं। विशेष रूप से उत्तर भारत के एक बड़े इलाके में बुधवार को जिस तरह से मूसलाधार बारिश हुई है, उससे चिंता का बढ़ना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 24 घंटे में 10 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। इतने ही समय में देश के सात राज्यों में 32 से ज्यादा लोग काल के गाल में समा गए हैं। जिस तरह हिमाचल में पचास से ज्यादा लोग लापता हैं, दस से ज्यादा की मौत हो गई है, उससे भी त्रासद स्थिति केरल के वायनाड में बनी हुई है। बारिश और भूस्खलन से मरने वालों की संख्या वहां 300 का आंकड़ा छूने वाली है। अभी भी 100 से ज्यादा लोग वहां लापता हैं। क्या इन मौतों से बचा जा सकता था? यह बहस का विषय है और कोई भी इस त्रासदी या किसी तरह की लापरवाही की जिम्मेदारी नहीं लेगा। केंद्र सरकार और केरल सरकार के बीच जो दुखद आरोप-प्रत्यारोप सामने आए हैं, उनसे आगे बढ़ने की जरूरत है। यह समय सतर्कता और सुधार का है।
दरअसल, भारत में मौसम को समग्रता में समझने और उसके अनुकूल व्यवहार करने की जरूरत है। कभी खूब गर्मी, सूखा, तो कभी खूब बारिश, क्या ऐसे विरोधाभास को सहज ही स्वीकार करना चाहिए? मौसम की विचित्रता बढ़ती चली जा रही है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने गुरुवार को बताया कि रात के तापमान के मामले में भारत में सबसे गर्म जुलाई माह का रिकॉर्ड दर्ज किया गया है। औसत तापमान के मामले में बीती जुलाई 1901 के बाद दूसरी सबसे गर्म जुलाई रही है, जबकि देश के कुछ हिस्सों में असामान्य वर्षा हुई है। जुलाई के आंकड़ों पर अगर हम गौर करें, तो बिहार, झारखंड, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में जुलाई महीने में 20 से 59 प्रतिशत तक कम बारिश दर्ज हुई है। पूर्वोत्तर में भी सिक्किम और मेघालय को छोड़ दीजिए, तो बाकी जगह कम बारिश हुई है। मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में कमोबेश सामान्य बारिश रही है। जुलाई के महीने में केवल गोवा, महाराष्ट्र और कर्नाटक ही हैं, जहां खूब वर्षा हुई है। बिहार और झारखंड के अनेक इलाकों में खेतों के सूखने की खबर है। धान के पौधों को पानी चाहिए, अगर पानी न बरसा, तो उपज पर असर पड़ जाएगा। यही कामना रहती है कि आवश्यकता के अनुरूप बारिश हो, पर ऐसा होता कहां है?
अब एक बड़ा सवाल यह है कि अगस्त कैसा बीतेगा? मौसम विभाग की मानें, तो अगस्त में देश में मासिक वर्षा 94 प्रतिशत से 106 प्रतिशत के बीच सामान्य सीमा में रहने की संभावना है। मतलब, कहीं बहुत ज्यादा, तो कहीं बहुत कम बारिश से इनकार नहीं किया जा सकता। यहां सबसे बड़ी चिंता यह है कि वर्षा जनित हालात को जानलेवा बनने से कैसे रोका जाए? तमाम शहरों में बेसमेंट या भूतल बन रहे हैं, पर भारी बारिश के बारे में नहीं सोचा जा रहा है। खूब चौड़ी और समतल सड़कें बन रही हैं, पर अत्यधिक जलभराव की स्थिति में क्या किया जाएगा, इसकी तैयारी शायद किसी भी शहर में सोलह आना मुकम्मल नहीं है। बिजली के बेतरतीब तार और अन्य प्रकार की शहरी सुविधाएं भी मुसीबत का कारण बनने लगी हैं। यह समय है, जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को अपनी कमियों से सीखकर देश के सामने एक आदर्श पेश करना चाहिए।
Date: 02-08-24
आरक्षण में भी आरक्षण के निहितार्थ
विराग गुप्ता, ( अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट )
गठबंधन सरकार बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के दो फैसलों से राज्यों के सांविधानिक अधिकारों को नई मजबूती मिली है। पहले फैसले से माइनिंग में रॉयल्टी के माध्यम से राज्यों को टैक्स वसूली का अधिकार मिला है, जबकि दूसरे फैसले से आरक्षण मामले में राज्यों को जातियों के वर्गीकरण का अधिकार मिल गया है। सांविधानिक प्रावधान और सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों के साथ नए फैसले का विश्लेषण करने पर सरकार को कई चुनौतियों से जूझना पड़ सकता है। सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के नाम पर दिए जा रहे आरक्षण की बुनियाद उस जाति पर टिकी है, जिस पर संसद में बहस और तीखी हो सकती है। इंदिरा साहनी फैसले में तय आरक्षण की 50 फीसदी सीमा को रद्द करने के लिए संविधान संशोधन की मांग से भी सरकार पर दबाव बढ़ सकता है।
अब कोटे में कोटा मतलब आरक्षण में आरक्षण के लिए सांविधानिक रास्ता खुल गया है। अनुच्छेद-341 में अनुसूचित जाति और 342 में अनुसूचित जनजाति को अधिसूचित करने के बारे में संसद और राष्ट्रपति को स्पष्ट अधिकार दिए गए हैं। तीन दशक पहले आंध्र प्रदेश में अनुसूचित जातियों के भीतर समूहों के वर्गीकरण के लिए कानून बनाया गया था, जिसे साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था। अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण का फायदा कुछ ही जातियों को मिला है, इस तर्क के मुताबिक, साल 2006 में पंजाब ने अनुसूचित जातियों के लिए निर्धारित कोटे के भीतर वाल्मीकि और मजहबी सिखों को 50 फीसदी कोटा और पहली वरीयता दी थी। उसके बाद तमिलनाडु, हरियाणा और बिहार जैसे कई राज्यों ने ऐसे कानून बनाए। संविधान पीठ के अनुसार, आरक्षण का मुख्य मकसद आर्थिक और सामाजिक समानता लाना है, पर इसके लिए शहर और गांव की सामाजिक हकीकत में अंतर के साथ आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखना जरूरी है। एससी समुदाय के बड़े अफसरों और बड़े वकीलों के बच्चों की तुलना गांव में मैला ढोने वाले बच्चों से करना गलत है। इसलिए पीछे रह गई जातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए ओबीसी की तर्ज पर एससी में भी कोटे के भीतर कोटे को जजों ने सांविधानिक माना है। आज के समय में इस फैसले की जरूरत को समझा जा सकता है, लेकिन समस्या यह है कि देश में 140 करोड़ जनसंख्या की सामाजिक स्थिति और आर्थिक हैसियत के आंकड़े स्पष्ट तौर पर उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी स्थिति में जनसंख्या के आधार पर आनुपातिक आरक्षण की मांग बढ़ने से सामाजिक और सियासी विद्वेष बढ़ सकता है।
क्या इस फैसले से राज्यों में मनमानी बढ़ सकती है? ध्यान रहे, न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने बाकी छह न्यायमूर्तियों के बहुमत के फैसले से अलग फैसला देते हुए ईवी चिन्नैया मामले में साल 2004 के फैसले को सही ठहराया है। अनुच्छेद-142 की असाधारण शक्तियों के इस्तेमाल से सुप्रीम कोर्ट कानून की व्याख्या कर संपूर्ण न्याय दे सकता है, पर इससे एक नई इमारत नहीं बनाई जा सकती। अनुच्छेद-341 के अनुसार, केवल संसद को ही आरक्षण के दायरे में किसी जाति को शामिल करने या बाहर करने का अधिकार है। न्यायमूर्ति गवई ने बहुमत के फैसले में यह लिखा है कि चिन्नैया मामले में यह गलत समझ थी कि अनुच्छेद-341 और 342 आरक्षण का आधार है। न्यायमूर्तियों ने जिस दृढ़ता के साथ कोटे में कोटा सिद्धांत के पक्ष में तर्क दिए हैं, उतनी ही साफगोई के साथ यदि क्रीमीलेयर के बारे में राज्यों और केंद्र सरकार को आदेश जारी किए जाते, तो आरक्षण से जुड़ी अधिकांश गलतफहमियों और विवादों का अंत हो सकता था।
अब नौजवानों से जुड़े अनेक मुद्दों जैसे कोचिंग, अग्निवीर, नीट, इंटर्नशिप, नकल और नौकरी पर बहस के बीच इस फैसले से क्रीमीलेयर का मुद्दा फिर गरमा सकता है। अब आरक्षण का कई पहलुओं से मूल्यांकन जरूरी हो गया है। एससी, एसटी, ओबीसी, दिव्यांग, महिला, ईडब्ल्यूएस जैसे सभी वर्गों के आरक्षण को जोड़ा जाए, तो 99 फीसदी आबादी आरक्षण के दायरे में आ जाती है। ओबीसी में क्रीमीलेयर को कानूनी और न्यायिक मान्यता मिली है, पर एससी/एसटी वर्ग में इसे लागू करने पर कई दशकों से विवाद चल रहा है। इस फैसले में शामिल चार जजों ने एससी/एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर फॉर्मूले को लागू करने की बात कही है। इसके अनुसार, सक्षम और अमीर लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर करने के लिए राज्यों को नीति बनानी चाहिए। क्रीमीलेयर को लागू किए बगैर राज्य सरकारें जातियों का वर्गीकरण शुरू कर दें, तो यह अदालत के फैसले की अवहेलना होगी। आरक्षण से जुड़े मामलों पर संविधान में अनेक संशोधन हुए हैं। आरक्षण के मसले पर संसद के अनुसार राष्ट्रपति को आदेश जारी करने का अधिकार है, इसलिए संविधान पीठ के ताजा फैसले के बाद एससी/एसटी वर्ग में क्रीमीलेयर फॉर्मूले को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को नियम और कानून बनाने की जरूरत पड़ेगी।
तय मानिए, इस फैसले के बाद जातिगत जनगणना का आधार मजबूत होगा। साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने नागराज फैसले में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन, सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व और प्रशासनिक कार्यकुशलता के तीन पैमानों की बात कही थी। पदोन्नति में आरक्षण पर पिछले कई दशक से मुकदमेबाजी चल रही है। जब शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर दिए जा रहे आरक्षण की जमीनी हकीकत जाति पर टिकी है, तब देशव्यापी जातिगत जनगणना से कैसे बचा जा सकता है?
बिहार सरकार ने साल 2007 में महा-दलित आयोग बनाया था। उसके बाद कनार्टक और फिर बिहार में राज्य सरकारों ने जातिगत गणना कराई। संविधान के अनुसार, जनगणना का विषय केंद्र सरकार के अधीन है, पर हर 10 साल में होने वाली जनगणना का मामला कोरोना के बाद से अटका हुआ है। अदालत के ताजा फैसले से राज्यों को जो अधिकार मिले हैं, उसकी आड़ में राज्यों में जातिगत गणना की होड़ शुरू हो सकती है। एक आशंका है, कोटे में कोटा लागू करने के लिए राज्यों को जो अधिकार दिए गए हैं, उनका दुरुपयोग होने पर अन्याय व असमानता बढ़ सकती है।
चार राज्यों में होने वाले चुनावों के मद्देनजर देखें, तो इस फैसले के बाद आरक्षण की राजनीति के साथ अदालतों में मुकदमेबाजी भी बढ़ेगी, जिसका समाधान करना होगा। अनुच्छेद-19 के तहत नागरिकों को पूरे देश में व्यवसाय और रोजगार का अधिकार है, इसलिए आरक्षण के माध्यम से न्याय और समानता स्थापित करने के लिए जातियों के व्यापक वर्गीकरण की राष्ट्रीय नीति को न्यायिक मान्यता देनी पड़ेगी।