02-05-2019 (Important News Clippings)

Afeias
02 May 2019
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Date:02-05-19

Do majority governments really provide better governance than coalition governments? The record shows otherwise

‘Americai’ V Narayanan and Kavya Narayanan , [ ‘Americai’ V Narayanan is Tamil Nadu Congress spokesperson. Kavya Narayanan is a commerce graduate ]

In a campaign in Kanyakumari, Prime Minister Narendra Modi said in March the choice for the people was between stability and instability – supposedly represented by BJP and the opposition respectively – and called the opposition coalition a “mahamilavat” or a motley of parties. Is a stable government really better than coalitions in providing good governance to India on various fronts? Let’s compare the performances of governments between 1984 and 2019 with only 1984-89 and 2014-19 being majority governments, under PMs Rajiv Gandhi and Narendra Modi respectively.

One of the biggest fallouts of a majority government is its over dependence on one leader, with decisions often centralised, instead of being made through consensus. Conventional wisdom tells us many minds are better than one, especially where large and complex decisions are concerned. But the tendency to listen to good counsel is often lost upon leaders with strong majorities.

The ill-advised decision to reverse the Shah Bano judgment by the Rajiv Gandhi government and Modi’s disastrous demonetisation decision are flagbearers of this argument. The brazen replacement of the Planning Commission with the Niti Aayog and Modi’s disbandment of the Economic Advisory Council (only to be hastily reconstituted after GST became problematic) are some indicators of the centralising tendencies. Brute majority governments across the world have also led to demagogue worship, be it with Recep Tayyip Erdogan in Turkey or Modi in India. This has often led to rhetoric replacing real discourse.

Having the numbers in Parliament could lead to unnecessary muscular posturing, which seems to be the case in India. Kashmir has lost peace, leading to many ordinary youths taking up militancy. 2018 had seen the highest casualties in Kashmir in a decade, with 586 people being killed, nearly half of them civilians and army personnel. The same majority government has alienated the neighbourhood with its brute policies – the infamous blockade of Nepal by India in 2015, perceived as a “big brother” attitude pushed the Himalayan country closer into China’s embrace. India has also been soft on China with the latter rapidly expanding its presence in South Asia with investments in Sri Lanka’s Hambantota, the Maldives and the contentious China Pakistan Economic Corridor.

We saw similar hasty foreign policy decisions when Rajiv Gandhi tried to continue former PM Indira Gandhi’s outreach to Sri Lankan Tamils that eventually led to his assassination. However, in a coalition government under NDA-1 and UPA-1 and 2, India became a nuclear power and still managed to get an NSG waiver from the US. Essentially, substance beats chest-thumping and rhetoric – two themes that run common when our foreign policy is personality-driven.

It’s commonly understood that stability and policy predictability are necessary for sustained economic growth. But a closer look reveals that India’s growth rate has been higher in periods of coalition governments. India grew at an average of 7.75% in UPA in 10 years (despite the 2008 recession that sharply affected growth and the 2013 US taper) over the 7.35% growth in the Modi government (pre-revised data). Independent India saw its highest ever economic growth under UPA governments headed by Manmohan Singh, when more than 140 million people were pulled out of poverty. NDA-1 under Atal Bihari Vajpayee saw the rapid expansion of national highways and roads. Liberalisation was carried out by a minority government under PV Narasimha Rao. The “dream budget” in 1997 – that rationalised a range of taxes and widened the tax base in 1997 – was brought under “weak PM” HD Deve Gowda, whose government lasted for less than two years.

Independent institutions keep in check authoritarian tendencies of governments. These institutions have historically been stronger when coalition governments were in power. The CAG – which investigated several scams in UPA-2 – could truly be called independent. But a majority government under Modi only led to trampling of institutions. For the first time in independent India’s history, four judges of the Supreme Court collegium addressed the media because they believed that the roster allocation of cases to judges was being done arbitrarily to assist the government.

Panchayati raj institutions have been considerably weakened with several states delaying the elections violating constitution with impunity. We have seen the infighting in CBI due to the government hand in appointments, RBI’s independence has come into question. The narrative that majority and stability leads to good governance is more myth than reality. Coalitions force consensus building, thus embodying the true spirit of democracy.


Date:02-05-19

आलू पर बवाल

संपादकीय

पेप्सिको का गुजरात में वह दांव उलटा पड़ गया जिसमें कंपनी ने गुजरात के चार किसानों पर अदालती कार्रवाई की शुरुआत की थी क्योंकि उन्होंने कथित रूप से आलू की उस किस्म की खेती की थी जिसका पंजीयन कंपनी के पास है। पेप्सिको इंडिया होल्डिंग्स के पास एफसी-5 किस्म के आलू के उत्पादन अधिकार हैं। कंपनी इस आलू का इस्तेमाल ‘लेज’ ब्रांड के चिप्स बनाने में करती है। कंपनी ने आरोप लगाया कि ये किसान गैर कानूनी तरीके से इस आलू का उत्पादन कर रहे थे। उन्होंने पंजाब के लाइसेंसशुदा किसानों ने इस किस्म के बीज हासिल किए थे। हालांकि अहमदाबाद की वाणिज्यिक अदालत ने अंतरिम आदेश पारित कर किसानों को आलू की यह किस्म उगाने से रोक दिया है लेकिन इस मामले को लेकर जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उन्होंने पेप्सिको को विचलित कर दिया है। अब कंपनी ने मामला अदालत से बाहर सुलटाने की पेशकश की है। आश्चर्य नहीं कि किसान संगठनों, किसान अधिकार कार्यकर्ताओं और राजनीतिक दलों ने तत्काल किसानों का समर्थन किया। उनका कहना है कि कंपनी ने उन किसानों को अनावश्यक निशाना बनाया जो दूसरे किसानों से बीज लेकर खेती करने की अपनी सदियों पुरानी परंपरा का पालन भर कर रहे थे।

पेप्सिको ने सरकारी प्रयोगशालााओं के हवाले से कहा कि आलू के इन बीजों में एफसी-5 किस्म का डीएनए मौजूदा था लेकिन केवल इतने भर से किसानों को पेप्सिको के अधिकार का उल्लंघन करने वाला नहीं माना जा सकता। किसानों से सहानुभूति रखने वालों में से कई ने पेप्सिको को चेतावनी दी कि अगर कंपनी ने अपने कदम वापस नहीं लिए तो कंपनी के उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान किया जाएगा। अगर ऐसा होता है तो इस बहुराष्ट्रीय कंपनी को इसकी कीमत चुकानी होगी। पेप्सिको मुख्यालय के अधिकारी और उसके एशिया प्रशांत कार्यालय ने कंपनी के कारोबार पर इसके संभावित असर को गंभीरता से लेते हुए अपनी भारतीय अनुषंगी कंपनी को सलाह दी है कि वह इस मसले को जल्द से जल्द सुलझाए। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि पेप्सिको इंडिया ने अपना रुख नरम किया है और अगर किसान बिना लाइसेंस इस किस्म का आलू उगाने से परहेज करने या लाइसेंस लेने को तैयार हों तो वह मसले को हल करना चाहती है।

हालांकि किसान जन समर्थन से उत्साहित हैं और उन्होंने कंपनी की शर्त ठुकरा दी है। बल्कि उन्होंने पेप्सिको पर आरोप लगाया है कि वह प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वेराइटीज ऐंड फार्मर्स राइट्स एक्ट का उल्लंघन कर रही है। इस कानून का लक्ष्य है पौधों की बेहतर प्रजातियों के विकास और उत्पादन को प्रोत्साहन देना। कई अन्य देशों के पौध संरक्षण कानूनों के इतर भारत में इस उद्देश्य के लिए बना कानून कई मायनों में विशिष्ट है, खासतौर पर किसानों के पारंपरिक अधिकारों और उनके द्वारा सदियों से अपनाई जा रही परंपराओं के संरक्षण के क्षेत्र में। महत्त्वपूर्ण है कि ऐसा करते हुए बौद्घिक संपदा से संबंधित वैश्विक समझौते का उल्लंघन भी नहीं किया गया है। प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वेराइटीज ऐंड फार्मर्स राइट्स एक्ट की धारा 39 किसानों को इजाजत देती है कि वे बीज समेत अपनी उपज को बचाएं, इस्तेमल करें, बोएं, अदला-बदली करें, साझा करें या बेचें। इकलौती बात यह है कि खुद उगाए गए बीजों को पंजीकृत ब्रांड नाम के तहत नहीं बेचा जा सकता। धारा 42 भी उतनी ही अहम है जिसमें किसानों को उस स्थिति से बचाव मुहैया कराया गया है जो किसी किस्म के पंजीयन के बारे में जानकारी नहीं होने से पैदा होती है। ऐसे में पेप्सिको के लिए बेहतर यही होगा कि वह बिना शर्त मामला वापस ले। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसका असर कंपनी के कारोबार पर तो पड़ेगा ही, किसानों के साथ साझेदारी के इच्छुक अन्य कारोबारी घरानों को भी नुकसान होगा।


Date:02-05-19

आरटीआई अधिनियम की उलझन में फंस गया आरबीआई

ए के भट्टाचार्य

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के लिए अप्रैल का महीना उच्चतम न्यायालय से संबंधित मामलों में बहुत सुखद नहीं रहा है। गत 2 अप्रैल और 26 अप्रैल को जारी शीर्ष अदालत के दो आदेश आरबीआई को यह सोचने पर मजबूर करेंगे कि बैंकों के नियमन की राह पर उसे किस तरह कदम बढ़ाना चाहिए? उच्चतम न्यायालय ने 2 अप्रैल को आरबीआई के उस परिपत्र को निरस्त कर दिया जिसे 12 फरवरी 2018 को जारी किया गया था। उस परिपत्र में बैंकों के लिए कर्ज भुगतान में एक दिन की भी देरी करने पर कंपनियों के खिलाफ दिवालिया प्रक्रिया शुरू करने संबंधी मानक तय किए गए थे। इस परिपत्र को निरस्त करने का फैसला फंसी परिसंपत्तियों के खिलाफ जारी आरबीआई की मुहिम के लिए एक झटका था।

आरबीआई इस फैसले के बाद अब संशोधित परिपत्र को अमलीजामा पहनाने में जुटा हुआ है। समझा जा सकता है कि केंद्रीय बैंक का शीर्ष प्रबंधन इस बात को लेकर फिक्रमंद होगा कि उसके संशोधित परिपत्र पर उच्चतम न्यायालय किस तरह देखेगा और भविष्य में किसी तरह की विपरीत टिप्पणियों से बचने के लिए उसे क्या एहतियात बरतनी चाहिए? यह भी देखना होगा कि नए परिपत्र को कर्जदार किस तरह देखते हैं और कहीं उसे भी अदालत में चुनौती तो नहीं दी जाएगी? शीर्ष अदालत के 26 अप्रैल को जारी आदेश ने भी आरबीआई को असहज कर दिया है। उच्चतम न्यायालय ने अदालत की अवमानना के मामले में आरबीआई को दोषी नहीं ठहराया है लेकिन बैंकों की वार्षिक पर्यवेक्षण रिपोर्ट (एआईआर) के बारे में जानकारियों को सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत लाने और इन रिपोर्टों के खुलासे से संबंधित अपनी नीति वापस लेने का उसे अंतिम मौका दिया है। आरबीआई ने दलील दी थी कि बैंकों की एआईआर की सूचनाओं को आरटीआई अधिनियम की धारा 8 के उपबंधों 1(डी) और 1(ई) के तहत छूट मिली हुई है। यह आरबीआई की अपनी ही खुलासा न करने की नीति का उल्लंघन होगा। उच्चतम न्यायालय ने यह माना है कि जानकारी देने से छूट के प्रावधान वाले ये उपबंध उन जानकारियों पर लागू नहीं होते हैं जिन्हें याचियों ने आरटीआई अधिनियम के तहत मांगा है।

आखिर गड़बड़ी कहां हो गई? पहली बात, आरबीआई का अपनी ही खुलासा नीति के तले शरण लेने की सोच गलत थी और उसे कानूनी समर्थन भी नहीं था। यह भी सच है कि आरबीआई अधिनियम की धाराएं 45-ई और 45-एनबी एक बैंक के ऋण एवं अन्य लेनदेन से संबंधित सूचनाएं किसी से भी साझा करने की इजाजत आरबीआई को नहीं देती हैं। लेकिन आरटीआई अधिनियम का अधिक बड़ा दायरा और प्रासंगिकता है। आरटीआई अधिनियम की धारा 22 आरबीआई अधिनियम की धारा 45ई और 45एनबी को अध्यारोपित कर देती है। धारा 22 कहती है, ‘इस अधिनियम के प्रावधान सरकारी गोपनीयता कानून 1923 और उस समय लागू किसी भी अन्य कानून में निहित प्रावधानों के साथ असंगत होंगे।’ ऐसा लगता है कि आरटीआई कानून के तहत सूचना देने से मना करने के अपने फैसले के बचाव में आरबीआई ने अपनी खुलासा नीति का हवाला देने में असावधानी दिखाई। आरटीआई अधिनियम की धारा 22 बाकी सभी कानूनों को अध्यारोपित करने की ताकत देती है।

बड़ा सवाल यह है कि सर्वोच्च अदालत का ऐसा क्यों मानना था कि एआईआर के खुलासे को ‘वाणिज्यिक भरोसे समेत सूचना’ या ‘विश्वासपरक संबंध में उपलब्ध सूचना’ के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इस सूचना के जारी होने से तीसरे पक्ष की प्रतिस्पद्र्धी हैसियत प्रभावित हो सकती है और सामान्यत: उन्हें आरटीआई अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है। इसी से जुड़ा सवाल है कि क्या आरबीआई ने बैंकों की एआईआर में संकलित सूचनाओं के उन हिस्सों को अलग रखकर बाकी जानकारियों को साझा करने के बारे में कभी सोचा जो वाणिज्यिक भरोसे एवं विश्वासपरक संबंध का उल्लंघन न करते हों ?

अब भी यह साफ नहीं है कि आरबीआई ने सार्वजनिक हित के नजरिये से इस मामले को देखा था या नहीं। आरटीआई अधिनियम कहता है कि वाणिज्यिक भरोसा या विश्वासपरक संबंध को कमतर करने वाली सूचना फिर भी उस स्थिति में साझा की जा सकती है जब एक सक्षम प्राधिकारी यह तय करे कि व्यापक सार्वजनिक हित में ऐसा खुलासा किया जाना जरूरी है। ऐसे निर्णय कर सकने वाले सक्षम प्राधिकारी में राष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल, लोकसभा या विधानसभा का स्पीकर, उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश और केंद्रशासित क्षेत्र का प्रशासक शामिल होता है।

ऐसा लगेगा कि आरटीआई कानून के अनुपालन संबंधी सवाल पर आरबीआई का रवैया कानून के विभिन्न प्रावधानों की समुचित जानकारी से प्रभावित रहा है। अगर आरटीआई कानून की धारा 22 बाकी सब पर भारी पड़ती है तो फिर आरबीआई को अपने बचाव में खुलासा नीति का जिक्र क्यों करना चाहिए था ? अगर आरटीआई कानून के तहत मांगी गई कुछ जानकारी वाणिज्यिक भरोसे या विश्वासपरक संबंध को कम करती है तो उस हिस्से को अलग करने के लिए उपलब्ध कानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल क्यों न किया जाए? आरबीआई ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अनमनीय रुख अपनाकर बैंकों और वाणिज्यिक रूप से संवेदनशील सूचना की गोपनीयता को लेकर न चाहते हुए भी समस्या खड़ी कर दी है।


Date:02-05-19

बीआरआई पर चीन ने बदली चाल

ढांचागत विकास को लेकर चीन की महत्त्वाकांक्षी पहल बीआरआई को लेकर दुनिया भर में बढ़ती चिंताओं के बीच उसने अपने रुख में नरमी लाने के संकेत दिए हैं।

हर्ष वी पंत , (लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन नई दिल्ली में निदेशक-अध्ययन और किंग्स कॉलेज लंदन में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर हैं)

पिछले हफ्ते चीन ने बेल्ट एवं रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) पर दूसरे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की मेजबानी की है। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपनी इस ढांचागत विकास पहल को पूरी दुनिया के लिए अच्छा बताते हुए कहा है कि ‘भले ही बीआरआई की शुरुआत चीन ने की थी लेकिन इससे पैदा होने वाले अवसर और परिणाम सारी दुनिया के लिए हैं।’ बीआरआई सम्मेलन में व्यक्त इस उद्गार में सबसे उल्लेखनीय बात चिनफिंग के वक्तव्य में विनम्रता का नजर आना था जबकि 2017 में हुए पहले सम्मेलन में मिजाज काफी हद तक अभिमान से भरा रहा था। पिछले कुछ वर्षों में चीन की परियोजनाओं को लगे अवरोधों ने चिनफिंग को इस साल यह मानने के लिए बाध्य कर दिया कि चीन बीआरआई की परियोजनाओं में मान्य नियमों एवं मानकों को लागू करेगा ताकि ऊंचा मानदंड, लोगों के लिए लाभदायक और टिकाऊ होना सुनिश्चित किया जा सके। उन्होंने कहा, ‘हम यह तय करेंगे कि निर्माण, परिचालन, बिक्री एवं निविदा प्रक्रिया से जुड़ी कंपनियां अंतरराष्ट्रीय नियमों एवं मानदंडों का पालन करें और उन देशों के नियमों का सम्मान करें।’

बीआरआई फोरम में 36 देशों के शासन प्रमुखों ने शिरकत की। इस तरह चीन अफ्रीका एवं यूरोप जैसे दुनिया के बड़े हिस्सों तक अपनी पहुंच का दायरा बढ़ाने में सफल रहा है। गत मार्च में इटली इस पहल का हिस्सा बनने के साथ ही संपन्न देशों के समूह जी-7 का पहला सदस्य बन गया। उसके बाद लक्जमबर्ग और स्विट्जरलैंड भी बीआरआई में शामिल हो गए। चीन ने जी-17 प्लस ग्रीस समूह के साथ भी बड़े ढांचागत करार पर हस्ताक्षर कर पूर्वी एवं मध्य यूरोप को भी अपने दायरे में ले लिया है। चीन अप्रैल की शुरुआत में संपन्न दूसरे अरब सुधार एवं विकास फोरम के जरिये ‘बेल्ट एवं रोड का निर्माण करो और विकास एवं समृद्धि साझा करो’ के संदेश के साथ अरब दुनिया तक पहुंच चुका है। मार्च में चीन और रूस ‘ध्रुवीय रेशम मार्ग’ की दिशा में पहले गंभीर कदम बढ़ाते हुए नजर आए थे।

हालांकि मौजूदा समय में दक्षिण-पूर्व एशिया और मध्य एशिया क्षेत्र ही बीआरआई के केंद्र में हैं और उन्होंने इस परियोजना को पूरे मन से गले लगाया है। यूरोप महाद्वीप के बड़े सत्ता केंद्रों में चीन की इस पहल को लेकर बढ़ती आशंकाओं के बावजूद अब यूरोप भी अधिक महत्त्वपूर्ण बनकर उभरा है। चीन की तमाम कोशिशों के बावजूद अफ्रीका, लातिन अमेरिका और पश्चिम एशिया अब भी बीआरआई के लिए उतने अहम नहीं बन पाए हैं जितना उसके कर्ताधर्ताओं ने सोचा होगा। भारत की आपत्तियों को देखते हुए दक्षिण एशिया का इलाका अब भी दूर की कौड़ी लग रहा है। पिछले हफ्ते हुए बीआरआई सम्मेलन में दक्षिण एशिया से केवल पाकिस्तान एवं नेपाल की सरकारों के मुखिया ही शरीक हुए थे।

जहां चीन के राष्ट्रपति ने बीआरआई फोरम की बैठक में 64 अरब डॉलर मूल्य से अधिक के करारों पर दस्तखत होने को लेकर लंबे-चौड़े दावे किए वहीं उन्हें यह मानने के लिए भी बाध्य होना पड़ा कि वर्ष 2013 में इस पहल की संकल्पना रखे जाने के बाद से यह परियोजना विवादों में उलझी रही है। अमेरिका पहली बीआरआई बैठक में शिरकत करने के बावजूद इसकी परियोजनाओं में ‘वित्त जुटाने के अपारदर्शी तरीकों, खराब कामकाज और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानकों एवं मानदंडों के प्रति असम्मान’ को लेकर चिंताएं जताता रहा है। इस बार तो उसने बैठक में अपने किसी आला अधिकारी को भेजने से भी मना कर दिया। जिस एकतरफा ढंग से इस परियोजना की संकल्पना की गई और उसका खाका खींचा गया, उसे लेकर दुनिया भर में आलोचना होती रही है। आलोचकों का यह कहना रहा है कि बीआरआई असल में पूरी दुनिया पर चीन के प्रभाव को मजबूत बनाने की रणनीति का हिस्सा है जिसमें तमाम देश चीन के ‘कर्ज के जाल’ में फंसकर उस पर वित्तीय रूप से आश्रित हो जाएंगे।

दरअसल बीआरआई के जरिये चीन जिस नियामकीय व्यवस्था को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है वह परियोजना की वित्तीय एवं पर्यावरणीय वहनीयता संबंधी सवालों को लेकर खासी समस्यापरक रही है। अब ये सवाल विमर्श के केंद्र में आने लगे हैं। दुनिया भर के देशों ने बहुत मजबूती से अपनी आपत्तियां रखी हैं और चीन को उनके साथ सामंजस्य बिठाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। दूसरे बड़े देशों ने भी अपने स्तर पर ढांचागत पहल शुरू करने के प्रस्ताव रखे हैं। इसी के साथ यह भी सच है कि चीन ने पूरी दुनिया को ढांचागत विकास के मोर्चे पर मौजूद बड़ी खाई की तरफ ध्यान आकृष्ट करने के लिए बाध्य कर दिया है। ढांचागत सुविधाओं की कमी ने वैश्विक आर्थिक व्यवस्था को अपनी चपेट में लिया हुआ है और विकसित दुनिया भी यह मानने पर मजबूर हुई है कि एक वैश्विक आर्थिक दृष्टिकोण पेश करने में उसकी भी सीमाएं हैं। अगर चीन के इस मॉडल पर आज सवाल खड़े हो रहे हैं तो भारत समेत दूसरी बड़ी शक्तियों के लिए यह विश्वसनीय एवं टिकाऊ विकल्प पेश कर रिक्त स्थान की भरपाई करने के अवसर भी पैदा करता है। भारत ने इस दिशा में कुछ कदम बढ़ाए भी हैं। संपर्क एवं आधारभूत ढांचे की मांग काफी अधिक है और कोई भी अकेली ताकत उसे पूरा कर पाने की हैसियत में नहीं है। इसके लिए एक वैश्विक प्रयास की जरूरत होगी। भले ही चीन ऐसा न चाहे लेकिन बहुआयामी दृष्टिकोण ही इस समस्या से निपटने का इकलौता तरीका है।

बीआरई फोरम की पिछले हफ्ते संपन्न बैठक में चिनफिंग ने इस पहल के पीछे अपने देश की अच्छी मंशा और पारदर्शिता के प्रति वचनबद्धता को रेखांकित करने की पुरजोर कोशिश की। उन्होंने कहा कि चीन उच्च गुणवत्ता वाला टिकाऊ, जोखिम-रोधी, किफायती लागत वाला और समावेशी ढांचा बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसा लगता है कि चिनफिंग को यह बात समझ में आ गई है कि बीआरआई को लेकर उनका शुरुआती रवैया उलटा पड़ गया है और अब वह उसमें सुधार करना चाहते हैं। सवाल यह है कि चीन की महत्त्वाकांक्षाओं के साथ तालमेल बिठाने में बाकी दुनिया कितनी दूर तक जा सकती है ?


Date:02-05-19

लोगों को बांट नहीं सकती पहचान की राजनीति

मैक्सिको से लगी सीमा पर फेंस बनाने की ट्रम्प की योजना जैसा निरर्थक है बांग्लादेश सीमा पर फेंस का विचार

प्रीतीश नंदी, (वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म निर्माता)

पश्चिम बंगाल के बुनियादपुर में पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हमेशा की भाव-भंगिमा के साथ घोषणा की कि एक बार भाजपा को दूसरा कार्यकाल मिल जाए तो वे बांग्लादेश सीमा पर बाड़ लगाकर उसे हमेशा के लिए बंद कर देंगे ताकि बांग्लादेशियों का भारत आना बंद हो जाए। ध्यान दें कि सारे बांग्लादेशियों से परहेज नहीं है। भाजपा अध्यक्ष ने इसे एकदम स्पष्ट कर दिया है। हिंदू, बौद्ध और सिखों का स्वागत है और यदि वे चाहे तो उन्हें नागरिता भी मिल सकती है। मुस्लिम व ईसाइयों का स्वागत नहीं है। यदि मुस्लिम व ईसाइयों को बाहर रखने के लिए बांग्लादेश सीमा को बंद करना एनडीए के लिए इतना महत्वपूर्ण है तो उसने अपने पहले कार्यकाल में यह क्यों नहीं किया? लेकिन, जिन सरकारों का कार्यकाल खत्म हो रहा हो, वे ऐसे प्रश्नों के उत्तर नहीं दिया करतीं। चुनाव के वक्त तो बिल्कुल नहीं, जब मुस्लिम व ईसाई वोट सहित हर वोट का महत्व हो।

फेंस या बाड़ बनाने का यह कोई मूल विचार नहीं है। मैक्सिको से लगी सीमा पर फेंस लगाने के लिए डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिकी कांग्रेस से संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें इसके लिए फंड नहीं मिल रहा है, क्योंकि जो बिल पारित कर सकते हैं उन्हें लगता है कि गरीब मैक्सिकन को ऐसे जॉब करने के लिए अमेरिका आने से रोकने पर 5 अरब डॉलर खर्च करना व्यर्थ है, जो जॉब अमेरिकी नहीं करना चाहते। इससे कहीं ज्यादा महत्व की प्राथमिकताएं हैं। ‘द डेंजरस अदर’ के ट्रम्प के विचार का संबंध उस गरीब, भूरी त्वचा के मैक्सिकन से है, जो औसतन 12 से 15 घंटे प्रतिदिन काम करता है और वह भी उस मजदूरी से आधी पर जो बिना कौशल वाले कामों के लिए स्थानीय कामगार मांगते हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने भी बुनियादपुर में जोर देकर कहा कि उनकी पार्टी पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (या एनआरसी, यह खौफ जिस नाम से जाना जाता है) लाएगी। इसने शुरू में 40 लाख लोगों को -जिसमें ज्यादातर बंगाली, हिंदू व मुस्लिम थे- सूची से बाहर करके पड़ोसी असम में काफी दुख-दर्द पैदा किया है। इससे परिवार टूटे हैं, दशकों से वहां प्रोफेसर या पेशेवरों के रूप में काम कर रहे कई लोगों ने आत्महत्याएं कर लीं। वहां भी उन्होंने घुसपैठ की वजह बताई।

यहां हम फिर ‘द डेंजरस अदर’- बांग्लादेशियों पर लौट आते हैं। मैक्सिकन के विपरीत बांग्लादेशी को आसानी से नहीं पहचाना जा सकता। वह स्थानीय भाषा बोलता है, स्थानीय व्यक्ति जैसे ही उसकी संस्कृति है और ब्रिटिश शासकों द्वारा विभाजन की कुख्यात रेखा खींचकर दो बंगाल बनाने के पहले वह उसी राज्य का बाशिंदा था। सिर्फ एक ही भिन्नता है- वह मुस्लिम है और जैसा हम जानते हैं भाजपा को मुस्लिमों से दिक्कत है। चाहे वे कहते हों कि वे सिर्फ राष्ट्र विरोधी मुस्लिमों के खिलाफ है। देशद्रोही की उनकी परिभाषा देखते हुए यह तो ऐसा कोई भी व्यक्ति हो सकता है जो उनके सही-गलत संबंधी मूर्खतापूर्ण सिद्धातों से सहमत न हो।

और, सारे बंगालियों की तरह, फिर चाहे वह पश्चिम बंगाल से हो या बांग्लादेश से, उन्हें भी रवीन्द्रनाथ टैगोर से प्यार है, राष्ट्रवाद व उससे जुड़े खतरों पर उनके कड़े दृष्टिकोण से सभी परिचित हैं। इसीलिए बंगाली वैश्विक मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते हैं। उन्हें लगता है कि वे बिना सीमाओं वाली दुनिया के हिस्से हैं और वे ऐसे मुद्दों के लिए लड़ते हैं, जिसका हर किसी के लिए महत्व है। जब अमेरिकी सेना वियतनाम पर नेपाम बम बरसाती है तो वे विरोध करते हैं। जब ला हिगुएरा में चे ग्वेरा को मौत की सजा दी जाती है तो वे विरोध करते हैं। वे तब भी विरोध करते हैं जब आंद्रे मैलरो, सिनमैदाक्यू फ्रान्सेस के प्रमुख हेनरी लाग्लुआ को इसलिए बर्खास्त कर देते हैं, क्योंकि उन्होंने फ्रांस यात्रा पर आए सोवियत रूस के मंत्री के लिए फिल्म प्रदर्शन से इनकार कर दिया था। ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने मुजीबुर्रहमान को पाकिस्तानियों द्वारा गिरफ्तार करने पर विरोध किया था। यही कारण है कि कोलकाता हर तरह के राजनीतिक विचार के लिए अभयारण्य है। ठीक उसी तरह जैसे यह उनके स्वतंत्रता संग्राम के दौरान युवा छात्रों व मुक्तिवाहिनी के अधिकारियों के लिए था।

याद रहे कि बांग्लादेशियों ने ही यह साबित किया था कि कोई धर्म -आपस में जोड़ने वाला इस्लाम भी- किसी ऐसे राष्ट्र को रोक नहीं सकता, जो स्वतंत्रता चाहता हो। जब स्वतंत्रता संघर्ष शुरू हुआ तो कोलकाता में किसी ने विभाजन की खौफनाक घटनाएं याद नहीं की, किसी ने हिंदू-मुस्लिम में फर्क नहीं किया, किसी ने उन्हें ‘द अदर’ नहीं माना। हर किसी ने अपने घर के दरवाजे उनके लिए खोल दिए। आखिर में जब बांग्लादेश में पाकिस्तानी फौज ने भारतीय सेना के सामने समर्पण किया तो हमने जश्न मनाया। इसलिए नहीं कि पाकिस्तान टूट गया बल्कि इसलिए कि अब सारे बंगाली आखिरकार अपनी भाषा, अपनी संस्कृति अपनाने और अपना राजनीतिक भविष्य तय करने के लिए स्वतंत्र थे। यही वजह है कि जब मैं असम में बंगाली को नागरिकता खोते देखता हूं तो दुखी हो जाता हूं। इसीलिए बाड़ या फेंस इतनी बुरी चीज है। यह पड़ोसी कस्बों व गांवों के बीच स्थानीय व्यापार रोक देती है। यह लोगों को सीमा पार करके मित्रों व परिजनों से मिलने से रोक देती है। यदि घुसपैठ इतनी बड़ी समस्या है तो जिस राज्य के सबसे ज्यादा इससे प्रभावित होने की संभावना है उस पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी या इसके पहले मार्क्सवादी या कांग्रेसजनों ने कभी इसके बारे में शिकायत क्यों नहीं की? स्थानीय लोग क्यों विरोध नहीं कर रहे हैं? या यह मोदी के नफरत के विमर्श का दायरा फैलाने का बहाना है- लोगों, समुदायों, आस्थाओं और लंबे समय से चली आ रही परम्पराओं को विभाजित करने का बहाना? यह जो भी हो पर यह दो बंगालों के बंगालियों को अलग नहीं कर सकता, जो समान भाषा, साहित्य से बंधे हुए हैं, जो उनकी साझा संस्कृति और साझा इतिहास को जोड़कर रखती है।

हमने हाल ही के वक्त में मूर्खतापूर्ण और उद्देश्यहीन राजनीतिक लक्ष्यों की खातिर बहुत से लोगों को आहत किया है। आइए, अब दो बंगालों के लोगों के बीच के बंधन को नष्ट न करें। धर्म उन्हें जोड़ने वाली ताकत नहीं है बल्कि साझी संस्कृति, साझा इतिहास है। छिद्रदार सीमा ने ही बांग्लादेश के जन्म में मदद पहुंचाई थी। और उस भव्य घटना में साझीदार हम ही यदि धर्म का इस्तेमाल दो बंगालों को अलग रखने में करेंगे तो मूर्ख नज़र आएंगे । अलग राष्ट्र, लोगों को अलग नहीं कर सकते और न ही पहचान की राजनीति।


Date:02-05-19

मसूद अजहर का काली सूची में शामिल होना सीमित सफलता

संपादकीय

आखिरकार भारत पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र से वैश्विक आतंकी घोषित करवाने में कामयाब हो गया। इसे देश की राजनयिक जीत कहा जा सकता है, क्योंकि पिछले डेढ़ माह से विदेश सचिव विजय गोखले इस प्रयास में लगे थे और उन्होंने वॉशिंगटन के अलावा चीन जाकर वहां के अपने स्तर के अधिकारियों से चर्चा की। सबसे बड़ी बाधा चीन का रवैया रहा है। चीन ने वर्ष 2000, 2016 और 2017 में भारत के एेसे प्रयासों को रोका था और पुलवामा आतंकी हमले की बड़ी घटना के बाद भी गत 13 मार्च को तकनीकी रोक लगा दी थी। इसके तहत छह माह के भीतर और जानकारी मुहैया करानी होती है। इस तरह चीन अभी इस मामले को कुछ माह और लटका सकता था पर उसने ऐसा नहीं किया। इसके लिए उस पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्य अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों का दबाव था।

रविवार को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और बेल्ट एंड रोड फोरम की बैठक के लिए आए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की मुलाकात के बाद चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने मसूद अजहर के मामले पर कहा था कि इसे ‘उचित तरीके से’ सुलझा लिया जाएगा। बाद में पाक विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मोहम्मद फैज़ल ने काली सूची में अजहर को शामिल करने पर खुला रुख होने की बात कही थी। व्यापार को लेकर चीन पर इस समय पश्चिमी देशों व खासतौर पर अमेरिका का जबर्दस्त दबाव है। इस मामले में चीन भारत से समर्थन व सहयोग चाहता है। फिर वह बेल्ट एंड रोड योजना की बैठकों में भारत की सांकेतिक ही क्यों न हो, मौजूदगी चाहता है, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योजना को लेकर घटते उत्साह को थामा जा सके। बहरहाल, मसूद अजहर को काली सूची में डाले जाने का सांकेतिक महत्व ही है। इसके पहले हाफिज सईद को संयुक्त राष्ट्र की 1267 वीं सूची में शामिल किया जा चुका है पर उससे आतंकी घटनाओं में कमी नहीं आई। आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान पर राजनयिक दबाव बनाने की अपनी सीमा है और उसी प्रकार पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर हमले करने की भी मर्यादा है, जिसे हमने फिलहाल अपना रखा है। इसके पहले कि इस विकल्प की सीमा तक हम पहुंच जाएं, हमें कोई मुकम्मल विकल्प खोजना होगा।


Date:01-05-19

संतुलित उपयोग जरूरी

डॉ. ललित कुमार

विश्व स्वास्थ्य संगठन का टीवी, मोबाइल आदि के बच्चों पर प्रभाव से संबंधित रिपोर्ट शिक्षा एवं जीवन में तकनीकी के अंधाधुंध प्रयोग पर उचित निर्णय लेने के लिए एक महत्त्वपूर्ण विमर्श है। संगठन का कहना है कि टीवी, मोबाइल या लैपटॉप पर ज्यादा वक्त बिताने से बच्चों की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। संगठन ने दुनिया भर में मोटापे के बढ़ते खतरे से निपटने और बच्चों का बेहतर विकास सुनिश्चित करने के लिए अभियान चलाया है। इसके तहत स्क्रीन टाइम यानी मोबाइल या टीवी के सामने बीतने वाले समय संबंधी निर्देश जारी किए हैं।

दिशा-निर्देश के अनुसार जीवन के शुरुआती पांच साल बच्चों के दिमागी विकास और स्वास्य के लिहाज से महत्त्वपूर्ण होते हैं। जरूरी है कि इस वय समूह के बच्चों का स्क्रीन टाइम कम से कम रखने की कोशिश की जाए। संगठन का यह भी निर्देश है कि एक साल से कम उम्र के बच्चों को खेल आदि के माध्यम से अधिक सक्रिय रखने की जरूरत है। हालांकि संगठन की रिपोर्ट और दिशा-निर्देश आवश्यक होते हुए भी प्र्याप्त नहीं हैं। पूर्व प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक तथा उच्च-शिक्षा में मशीनों के प्रयोग की मात्रा पर एक विस्तृत दिशा-निर्देश की जरूरत न केवल आज की शिक्षा व्यवस्था को है, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए भी आवश्यक है। स्वास्य वैज्ञानिक, शिक्षा-शास्त्री, मनौवैज्ञानिक, दार्शनिक, समाजशास्त्री आदि के एक संयुक्त दल की मदद से इस विषय पर व्यापक शोध की जरूरत है कि शिक्षा व्यवस्था एवं मानव जीवन में मशीन या यंत्र से संचालित तकनीक का कितना इस्तेमाल मानव के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक तथा मानवीय गुणों के विकास के लिए अनुकूल या नुकसानदेह है। तकनीक के बढ़ते प्रयोग को संतुलित आकार देने के लिए संगठन को और अधिक तथा व्यापक रूप से कार्य करने की जरूरत है ताकि मानव, मानवता एवं मानवीय स्पर्श को सुरक्षित रखा जा सके-चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या जीवन का। विश्व के अन्य राष्ट्रों की भांति भारत भी आज शिक्षा को डिजिटल आकार देने के लिए प्रयासरत है। हमारे बजट प्रावधान के माध्यम से ब्लैकबोर्ड को डिजिटल- बोर्ड से स्थानान्तरित करने की योजना मुखर है।

हम सारांश, स्टेम-स्कूल, ई-बस्ता, विद्यांजली, स्वयं, स्वयं-प्रभा आदि कार्यक्रमों के माध्यम से डिजिटल भारत के निर्माण के लिए प्रस्तुत एवं तत्पर हैं। स्कील-इंडिया, कैम्पस-कनेक्ट, ग्लोवल इनिसियटिव ऑफ एकेडमिक नेटवर्क्‍स, नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी, नेशनल एकेडमिक डिपोजिटरी, ई-लर्निग, मोबाइल बेस्ड लर्निग, ब्लेनडेड लर्निग एप्रोच, डिगिलौकर, विडियो-वेस्ड लर्निग, ओपन एजुकेशनल रिसोर्स, वर्चुअल रियलिटी एवं अगमेंटेट रियलिटी पफॉर लर्निग, प्रसनलाइज्ड एंड एडप्टिव लर्निग आदि की मदद से भारतीय शिक्षा एक डिजिटल शक्ति बनने की दिशा में लगातार अग्रसर है। स्टडी वेव्स ऑफ एक्टिव लर्निग फॉर यंग एसपायरिंग माइंड एक देशी आईटी प्लेटफॉर्म है, जिसकी मदद से भारत में बहुत सारे ऑनलाइन पाठय़क्रम को शुरू करना है। इसका उद्देश्य विभिन्न प्रकार के पाठय़क्रम एवं विषय को शुरू कर उच्च गुणवत्ता वाली ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करनी है। स्वयं प्रभा प्रोजेक्ट डीटीएच चैनल के माध्यम से चौबिसों घंटे और सातों दिन शैक्षिक प्रसारण की शुरुआत कर चुका है। अन्तरराष्ट्रीय अनुभव एवं गुणवत्ता से भारतीय शिक्षा को लाभ पहुंचाने के लिए ग्लोवल इनिसियटिव ऑफ एकेडमिक नेटवर्क्‍स की शुरुआत हो चुकी है।

नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी के माध्यम से भारतीय उच्च शिक्षा को विश्व में कहीं भी उपलब्ध अध्ययन सामग्री को किसी एक पुस्तकालय में बैठे अध्ययनकत्र्ता को उपलब्ध कराना है। इसकी मदद से अधिगमकत्र्ता न केवल ई-जरनल बल्कि दुर्लभ किताबों एवं दस्तावेज तक आसानी से पहुंच सकेंगे। अकादमिक पुरस्कार एवं अन्य महत्त्वपूर्ण दस्तावेज को सरुक्षित रखने की योजना है नेशनल एकेडमिक डिपोजिटरी एंड डिगी-लौकर। शैक्षिक परिसरों को वाई-फाई से जोड़कर ऑनलाइन शिक्षा की व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण कदम है। ब्लेनडेड लर्निग एप्रोच आईसीटी तथा कक्षा-शिक्षण के बीच समन्वय स्थापित कर उन्हें जोड़ना है। ई-बस्ता एक ऐसा संयुक्त प्लेटफॉर्म है जहां शिक्षक, विद्यार्थी, पुस्तक-प्रकाशक मिलकर किसी भी सूचना एवं तय को आसानी से उपलब्ध करा सकते हैं। सारांश केन्द्रीय मायमिक शिक्षा बोर्ड की ऐसी पहल है, जो इसके विद्यालयों के विश्लेषण एवं मूल्यांकन की सुविधा प्रदान करती है ताकि शिक्षण को सुधर कर और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सके। शाला-सिद्धि ( न्यूपा द्वारा विकसित राष्ट्रीय कार्यक्रम है, जो विद्यालय के मूल्यांकन एवं उनकी गुणवत्ता को माप उनकी कमियों को दूर कर सकता है।

स्टेम-साइंस, टेक्नोलॉजी , इंजीनियरिंग एवं मैथ (एसटीईएम) वास्तविक विश्व समस्याओं एवं प्रोजेक्ट की मदद से बच्चों को सामूहिक तथा सामुदायिक अधिगम प्रदान करने वाली योजना हैं। विद्यांजली एक प्रयास है, निजी संस्थानों एवं सामुदायिक भागीदारी सरकारी विद्यालयों के लिए सुनिश्चित करने का। तात्पर्य भारत शिक्षा के हर स्तर पर डिजिटल माध्यम से शिक्षा प्रदान करने के लिए कृत संकल्प है। उपलब्धि हासिल करने का हमारा कोई भी प्रयास एवं हमारी कोई भी शैक्षिक योजना मानव हित एवं मानव स्थास्य से बढ़कर नहीं हो सकता। शिक्षा के माध्यम से प्रकृति एवं प्राकृतिक गतिशीलता को नियंत्रित करने के प्रयास में हमें मिलेनियम एवं सस्टेनेवुल डवलपमेंट गोल्स के साथ-साथ मानवाधिकार के आयामों पर भी विचार करना होगा। यूनेस्को कमीशन आन एजुकेशन (1996) के लर्निग टू लीव टूगेदर एवं लर्निग टू बी के साथ-साथ हमें यूनेस्को (1972) के इंटरनेशनल कमीशन ऑन एजुकेशन के प्रतिवेदन के साइंटिफिक हयूमनिज्म, डवलपमेंट ऑफ क्रियटिविटी, सोशल कमीटमेंट एवं कमप्लिट मैन को भी ध्यान में रखना होगा। शिक्षा में मानवीय संवेदना दिए बिना शिक्षा निर्धारित उद्देश्य से भटक सकती है। इस दृष्टि से जरूरी है कि हम शिक्षण-अधिगम में मशीनी तकनीक का संतुलित उपयोग करते हुए मानवीय तकनीक जैसे शिक्षण-कौशल, संचार-कौशल, शोध-कौशल तथा प्रबंध आदि जैसे कौशलों का उपयोग करें।


Date:01-05-19

An employment-oriented economic policy

In the heated debate on jobs, the crucial link between macroeconomic policy and unemployment has not been flagged

Pulapre Balakrishnan is Professor of Ashoka University and Senior Fellow of IIM Kozhikode

Innumerable tasks with respect to the economy await the winner of the parliamentary elections now under way, but two may be mentioned and they are connected. The first is to review the conduct of macroeconomic policy. Though it must come across as arcane, this is an element of public policy that makes a difference to whether we enjoy economic security or not. This brings up the second task for the winner, namely employment generation.

The macroeconomic policy pursued in the past five years needs overhauling. The government has continued with fiscal consolidation, or shrinking the deficit, while mandating the Reserve Bank of India (RBI) to exclusively target inflation leaving aside all other considerations. This has contracted demand. That high fiscal deficits and high inflation per se can never be good for an economy does not justify a permanently tight macroeconomic stance. The rationale given for one is that it is conducive to private investment, said to be shy of fiscal deficits and held back by inflation. Both the deficit and inflation have trended downward in the past five years, yet investment as a share of national income has remained frozen.

Inflation targeting

Now, while fiscal consolidation was something the Narendra Modi government had inherited, it has taken credit for having moved India onto the path of ‘inflation targeting’. Arguably though, India has seen a virtual inflation targeting since 2013 when the policies of the RBI became more closely aligned to the practices of central banks in western economies. Thus in 2013-14 the real policy rate saw a positive swing of over four percentage points, and it has more or less remained there. Admittedly, at double digits, inflation had been high in 2012-13 but that could have been due to abnormal hikes in the procurement price and not due to runaway growth. However, as the theory underlying inflation targeting asserts that it reflects an over-heating economy, an interest-rate hike is triggered. The high interest rate regime in place since 2013 could not but have had a negative impact on growth by raising the cost of capital to industry. The negative impact of a high policy rate may, however, have appeared elsewhere too.

Reviewing RBI’s role

A regime of high interest rates can be bad not only for investment — and thus for growth and employment — but also for financial stability. Sharp increases in interest rates can trigger distress. A trade-off between low inflation and financial stability could emerge depending upon how the former was purchased. If low inflation is achieved via high interest rates it can trigger financial instability in two ways. The first is via the direct impact on the cost of financing in a floating interest-rate regime; a higher policy rate translating into a higher borrowing rate. Second, if rising interest lowers growth, revenue will grow more slowly for firms. Both these mechanisms can render once-sound projects unprofitable, leaving banks stressed. It appears that this did not find a place in the operating manual that goes with the ‘modern monetary policy framework’, with inflation targeting as its primary focus, instituted in India in 2015. That our concerns are not purely imaginary is evident in the fact that there has been a growth of non-performing assets of banks even after a change in the method of classification first resulted in their surging in 2015. This feature along with the spectacular collapse of the giant Infrastructure Leasing and Financial Services Ltd (IL&FS) recently point to the need to review the role of the RBI.

Experience suggests that it must be tasked with far greater responsibility for maintaining financial stability while being granted wider powers. It goes without saying that the Finance Ministry and its nominees on the RBI Board should desist from insisting upon actions that could jeopardise financial stability in trying to quicken the economy. At the same time, the RBI’s leadership may want to reflect on the mindset that leads to publicly lecturing the government of India on the fate of incurring the “wrath of financial markets”. Whatever be the compulsions of securing the balance of payments, such a view privileges the interests of international finance capital over the public interest in a democracy. It also suggests that the movements in the financial markets are to be treated as the bellwether in economic policy-making. Actually, over the past 30 years, from Mexico to southeast Asia, financial markets can be seen to have been fickle, self-serving and capable of causing great harm as they switch base globally in search of profits through speculation.

The entire gamut of macroeconomic policy in India needs re-thinking. In the heated public debate on job creation that we have seen recently, the link between macroeconomic policy and unemployment has not been flagged. When policy holds back investment, and we have seen above that it can, the prospect for employment growth is weak. The conduct of macroeconomic policy in India in recent years has compromised the principle that its two arms of fiscal and monetary policy must be used in a countervailing matter if aggregate demand is not to be affected. Instead, for too long, macroeconomic policy in India has been contractionary across the board, impacting employment adversely.

Job creation

Even as we shift towards macroeconomic policies that maintain the level of aggregate demand, we can assist the unemployed by strengthening the employment programme we already have, namely the Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Scheme (MGNREGS). Three actions may be taken towards this end. First, there have been reports that though the budgetary allocation for the scheme may have increased, workers face delay in payment. This is unacceptable, especially in this digital era when beneficiary identification and money transfer are cheap and reliable. Second, as has been suggested, there is a case for extending the MGNREGS to urban India for there is unemployment there. Of course, some rationalisation of existing public expenditure would be needed to generate the fiscal space needed, but we may yet expect a positive sum outcome when this is done imaginatively.

However, as with macroeconomic policies, a thorough review of how the MGNREGS works on the ground is necessary. In the context, we often find a reference to “asset creation”. This is an important criterion but we need not rule out the provision of public services under the scheme. The point is to ensure that we have desirable outcomes beyond just the job statistics. There is reason to believe that this matter is given no importance in the implementation of the scheme at present. An example would make this clear.

In Kerala, employment under the MGNREGS is also organised to clear the vegetation at the roadside. However, what at times is found to remain after the MGNREGS work team has left is the garbage that was earlier concealed by the undergrowth. The organised ‘cleaning’ expertly skirts the garbage unconscionably deposited at the roadside! This is more than just a matter of aesthetics and can be dangerous when, for instance, waste from abattoirs has been dumped in the shrubbery. It makes a mockery of publicly-funded programmes that they can leave us worse off, and speaks of the unaccountability that pervades so much of government intervention in the economy. But recognising the hazard opens up an opportunity for improvement. The MGNREGS should target the waste dotting our countryside, and when extended to urban India should aid municipal waste-management efforts. We would then have a cleaner environment and have at the same time created jobs. That would a fitting tribute to the man after whom the programme is named, one who had worked for a clean India much of his life.