02-01-2024 (Important News Clippings)

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02 Jan 2024
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Date:02-01-24

Enough Is Enough

Biden should tell Netanyahu that Tel Aviv’s actions are harming Israel, US and global commerce.

TOI Editorials

That US naval forces confronted Yemen’s Houthi rebels in the Red Sea, fending off an attack on a merchant ship, adds to the growing instability in West Asia. Houthis have been targeting Red Sea shipping ostensibly linked to Israel to get Tel Aviv to halt its bombardment of Gaza. But Netanyahu recently said Israel’s military operation will continue for many months.

A difficult ally | So far, the US has provided Israel with immense military and diplomatic support. But Tel Aviv’s actions have only made life difficult for Washington. The US is having to expend considerable military resources in tackling Iran-backed rebels in Syria and Iraq – and now Houthis – to support Israel.

Israel suffers too | Israel is also taking on considerable economic losses. The war is costing it at least $260 million per day. Its much-vaunted high tech industry has seen an acute shortage of workers. Consumption has slumped and the Israeli economy is expected to contract by as much as 5% in Q4 2023. Therefore, resentment against Netanyahu’s wartime administration is growing.

Who gains? | Certainly not the international community that is having to deal with disruptions to Red Sea shipping. The cost to ship a container from China to the Mediterranean was up by 44% in December. The only winners here are Iran – which has demonstrated its disruptive capabilities – and Russia, which has managed to draw attention away from the Ukraine war.

Decision time Biden | In a US election year Biden should calculate the political costs of the Israel-Hamas conflict. He should put greater pressure on Netanyahu to define a clear exit strategy. Trump, should he be the Republican presidential nominee, will certainly blast the Biden administration for its involvement in foreign wars. It’s time to tell Netanyahu enough is enough.


Date:02-01-24

Attacks in the Red Sea by the Houthis may hit India’s oil trade

Suez Canal key to crude imports from Russia and refined fuel exports to Europe.

With inputs from Reuters, AP and the U.S. Energy Information Administration

Yemen’s Iran-backed Houthis have been targeting vessels in the Red Sea since November to show their support for the Palestinian Islamist group Hamas in its war against Israel. This has prompted major shipping companies to take the longer and costlier route around Africa’s Cape of Good Hope rather than through the Suez Canal. This is a cause for concern for India as it is a major importer of crude oil from Russia and a significant player in the export of petroleum products to Europe, both of which require transportation through the Suez Canal.

According to a recent Reuters report, at least four tankers transporting diesel and jet fuel from West Asia and India to Europe are taking the longer route around Africa to avoid the Red Sea. The diverted vessels were carrying a combined 2.4 million barrels of diesel and jet fuel.

India is increasingly becoming a significant player in the petroleum products export market. In May last year, data analytics firm Kpler reported that India became Europe’s largest supplier of refined fuels. In the ongoing and previous financial years, the Netherlands was the biggest importer of India’s refined fuels. In FY23 and FY24 (April-October), the country bought about $19,300 million worth of refined fuel from India.

These northbound oil shipments reach Europe via the Suez Canal. Chart 1A shows northbound crude oil and petroleum product volumes from origin countries transiting the Suez Canal and the SUMED pipeline (which transports crude oil north through Egypt). India was the third biggest player in terms of petroleum product volumes sent north in the first half of 2023.

Chart 1B shows the destination countries of the northbound crude oil and petroleum product volumes transiting the Suez Canal. In the first half of 2023, the Netherlands was the single largest importer of such products, most of which came from India.

These two charts show the significant impact that the attacks on commercial ships in the Red Sea can have on India’s petroleum product exports. Both show million barrels per day of oil shipments.

An even bigger worry for India is the record amount of crude oil it imports from Russia. In FY24 (April-October), India imported over $26,900 million worth of crude oil from Russia — its biggest source of oil this year — with Iraq featuring a distant second ($15,582 million). A majority of this crude oil is arriving through the Suez Canal southbound to India.

Chart 2A shows southbound crude oil and petroleum product volumes from origin countries transiting Suez Canal, in million barrels per day. In FY23 and FY24 (April-October), southbound supply of crude oil from Russia through the Suez Canal grew exponentially.

Chart 2B shows the destination countries of the southbound crude oil and petroleum product volumes transiting the Suez Canal. Most of the southbound crude from Russia went to India followed by China in FY23 and FY24 (April-October). These two charts show the potential impact that the escalating tensions in the Red Sea can have on India’s crude oil imports from Russia and other countries which use this route.

Reports show that refiners in India are looking to increase supply from West Asia as otherwise, the cost of imports may rise given the risk involved in transporting oil through the Suez Canal. With retail fuel costs already at a historical high in India, and the general elections approaching, it remains to be seen how this situation will unfold.


Date:02-01-24

इसरो से सीखें

संपादकीय

इससे सुखद और कुछ नहीं कि नए वर्ष का शुभारंभ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो की एक और उपलब्धि से हुआ। इसरो ने ब्लैक होल्स समेत अंतरिक्ष के अन्य रहस्यों के अध्ययन के लिए एक्सपो उपग्रह सफलतापूर्वक लांच करने में सफलता हासिल की। यह अपनी तरह का पहला उपग्रह है। इसरो की सफलताएं भारत को गौरवान्वित करने वाली हैं। बीते वर्ष इसरो ने अपने चंद्र अभियान के तीसरे चरण के तहत चंद्रयान को चंद्रमा के दक्षिणी छोर पहुंचाने में जो सफलता प्राप्त की, वह एक तरह से अंतरिक्ष में हमारी विश्व विजय थी, क्योंकि भारत इस स्थल पर अपने यान को सफलतापूर्वक ले जाने वाला पहला देश था। इसने पूरे विश्व को चमत्कृत किया था। इसरो शीघ्र ही एक और इतिहास रचने के निकट है, क्योंकि सूर्य का अध्ययन करने के लिए भेजा गया अंतरिक्ष यान आदित्य एल-1 इसी सप्ताह गंतव्य तक पहुंच जाएगा। इसरो प्रमुख ने हाल में अन्य आगामी अभियानों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि यह वर्ष जहां गगनयान अभियान की तैयारियों का होगा, वहीं 50 से अधिक अंतरिक्ष अभियानों को शुरू करने का भी। इसरो ने अपनी उत्कृष्टता से विश्व में अपनी छाप छोड़ने के साथ देश को प्रतिष्ठा भी प्रदान की है। इसरो की क्षमता का लोहा पूरी दुनिया मान रही है। यह सही समय है कि विज्ञान, तकनीक और शोध से जुड़े हमारे अन्य संस्थान भी इसरो जैसी क्षमता हासिल करने के लिए संकल्पित हों। इस क्रम में वे यह भी ध्यान रखें कि इसरो ने स्वयं के बलबूते महारत हासिल की है।

इसरो सरीखी महारत अन्य संस्थाओं और विशेष रूप से रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन जैसे उन संस्थानों को प्राथमिकता के आधार पर हासिल करनी चाहिए, जिन पर उन्नत आयुध सामग्री बनाने की जिम्मेदारी है। यह सही है कि हिंदुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड ने तेजस के रूप में हल्का लड़ाकू विमान बनाने में सफलता प्राप्त की है और कई देशों ने उसे खरीदने में दिलचस्पी भी दिखाई है, लेकिन इस विमान के कई उपकरण आयात करने पड़ रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि रक्षा सामग्री के निर्यात में वृद्धि होने के बाद भी भारत को बड़े पैमाने पर युद्धक उपकरणों का आयात करना पड़ता है। युद्धक सामग्री के मामले में भारत को जितनी जल्दी संभव हो, आत्मनिर्भर बनना होगा। आत्मनिर्भर और उत्कृष्ट बनने की चुनौती केवल विज्ञान एवं तकनीक से जुड़े संस्थानों के समक्ष ही नहीं है। इस चुनौती को उन सभी संस्थाओं को स्वीकार करना होगा, जो नागरिक जीवन को सुगम और सक्षम बनाने के लिए कार्य करती हैं। सरकारी संस्थानों के साथ निजी क्षेत्र की संस्थाओं और उद्योग जगत को भी इसरो से सीख लेते हुए यह चुनौती स्वीकार करनी होगी, क्योंकि इससे ही उनके उत्पादों और उनकी ओर से प्रदान की जाने वाली सेवाएं विश्वस्तरीय बन सकती हैं। जब ऐसा होगा, तभी विश्व में उनकी धाक जमेगी और देश तेजी के साथ आगे बढ़ेगा।


Date:02-01-24

संवैधानिक संस्थाओं की साख का सवाल

कपिल सिब्बल, ( लेखक राज्यसभा सदस्य एवं वरिष्ठ अधिवक्ता हैं )

बीते दिनों नोएडा में एक दीक्षा समारोह के दौरान राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा छेड़ा। इसकी पड़ताल आवश्यक है। उनका संकेत था कि विपक्षी दलों द्वारा संवैधानिक संस्थानों की प्रतिष्ठा धूमिल की जा रही है। उनका इशारा तृणमूल कांग्रेस सांसद कल्याण बनर्जी की ओर था, जिन्होंने संसद परिसर में उनकी नकल उतारी थी। किसी की नकल उतारने में आखिर क्या हर्ज है? इस सवाल पर मंथन करने से पहले इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि देश में संवैधानिक संस्थानों को कौन नुकसान पहुंचा रहा है? हाल के दौर में राज्यपालों से जुड़े कई मामले चर्चित रहे हैं। राज्यपाल केंद्र सरकार और राज्य के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। संविधान के अनुसार राज्यपाल राज्य की विधानसभा का अंग होता है। जब राज्य की विधानसभा कोई विधेयक पारित कर उसे राज्यपाल के समक्ष विचार के लिए भेजती है, तब राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं। पहला यह कि वह विधेयक को मंजूरी प्रदान करें, ताकि संबंधित विधेयक कानून बन जाए। दूसरा यह कि यदि कानूनी स्तर पर उन्हें कोई खामी नजर आए तो वह उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज सकते हैं। तीसरा विकल्प यह होता है कि वह अपनी टिप्पणी के साथ विधेयक वापस विधानसभा को भेज दें। यदि विधानसभा उसे पुन: पारित कर उन्हें दोबारा भेज दे, तब राज्यपाल के पास उसे मंजूरी देने के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता।

समय-समय पर यह देखने में आया है कि विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में राज्यपाल महीनों तक विधेयकों को लटकाए रखते हैं। वे संवैधानिक मूल्यों से इतर केंद्र के ऐसे दूत के रूप में काम करते हैं, जिसका परिणाम अक्सर राज्य के हितों के विपरीत निकलता है। पिछले कुछ समय में तमिलनाडु, बंगाल, केरल, पंजाब के राज्यपालों और दिल्ली के उपराज्यपाल की कार्यप्रणाली से यही प्रकट होता है। ऐसा उन्हीं राज्यों में दिखता है, जहां विपक्षी दल सत्ता में हैं। कई मामलों में राज्यपाल राज्य की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करते हुए भी नजर आए हैं। ऐसे में हैरानी होती है कि राज्यपाल जैसी संस्था को आखिर कौन बदनाम कर रहा है? केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार द्वारा चुनाव आयोग जैसी संस्था का भी अवमूल्यन किया जा रहा है। हाल के समय में चुनाव आयोग अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन की पूर्ति करता नहीं दिखा। नावी प्रक्रिया के दौरान सत्तारूढ़ दल के किसी नेता पर शायद ही कोई कार्रवाई की जाती हो, जबकि विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता। कम से कम 2014 के बाद यह सिलसिला और तेज हुआ है। ऐसे में विचार किया जाए कि आखिर संस्थानों की प्रतिष्ठा को कौन धूमिल कर रहा है? संवैधानिक संस्थाओं से इतर अन्य संस्थानों की आभा भी कमजोर पड़ रही है। विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से लेकर जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही। राष्ट्रीय जांच एजेंसियां विपक्षी नेताओं को तो चुन-चुनकर निशाना बनाने में लगी हैं, जबकि पाला बदलकर भाजपा का दामन थामने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई पर विराम लगा दिया जाता है। इन संस्थानों की साख को तार-तार कौन कर रहा है?

जहां तक उपराष्ट्रपति द्वारा मिमिक्री का मुद्दा उठाने की बात है तो मैं यह स्मरण करा सकता हूं कि कई बार भाजपा नेता ही ऐसा कर चुके हैं। यहां तक कि उनके द्वारा लोकसभा में ऐसा किया गया। मुझे यह भी याद है कि कई बार दूसरों ने लोकसभा अध्यक्ष की भी नकल उतारी। मैं मिमिक्री के मामले के गुण-दोष की चर्चा नहीं करना चाहता, लेकिन इसमें जातीय अस्मिता का कोण जोड़ने का कोई तुक नहीं था, जिसका प्रयास सभापति महोदय ने किया। इसे जातीय दृष्टि से तूल देना नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है। सभापति महोदय एक जाने-माने अधिवक्ता भी हैं और मैं पूरे सम्मान के साथ उन्हें यह भी स्मरण कराना चाहता हूं कि संसद के पीठासीन अधिकारियों को निष्पक्षता का परिचय देना चाहिए। सरकारिया आयोग ने तो यहां तक सुझाया था कि ऐसे पदों पर गैर-राजनीतिक व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिए। इस संस्था के स्तर पर भी 2014 के बाद से पराभव की स्थिति दिखी है। विपक्ष की आवाज को दबाया जा रहा है। उन्हें स्कूली छात्रों की तरह डांटा-फटकारा जा रहा है। ऐसे दर्शाया जा रहा है कि संसद को सुचारु रूप से चलाना केवल विपक्ष की जिम्मेदारी है, जबकि इसका मूल दायित्व तो सत्तापक्ष का है।

संसद के शीतकालीन सत्र में लोकसभा के 100 और राज्यसभा के 46 सदस्यों का जिस प्रकार निलंबन किया गया, वह भारत के संसदीय इतिहास में एक रिकार्ड है। निलंबन की कड़ियां संसद की सुरक्षा में सेंध के सवाल से जुड़ी हुई हैं। संसद की सुरक्षा में सेंध हमारे जनप्रतिनिधियों के जीवन के लिए खतरा तक हो सकती थी। मेरा मानना है कि यह विपक्ष का दायित्व था कि वह इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या गृहमंत्री अमित शाह के जवाब की मांग करे। ऐसा न करना संसद सदस्य के रूप में उनके दायित्व से विमुख होना होता। वास्तव में प्रधानमंत्री या गृहमंत्री को स्वैच्छिक रूप से इस मामले में आकर बयान देना चाहिए था। विपक्ष को तो इसके लिए मांग करने की आवश्यकता ही नहीं पड़नी चाहिए थी। ऐसा न करके उलटे विपक्ष के सवालों की इस प्रकार अनदेखी कर सरकार ने यही दर्शाया कि संसद के प्रति उसके सम्मान का स्तर क्या है। सरकार के ऐसे रवैये से ही विपक्षी दलों को प्रदर्शन के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी परिणति अंतत: उनके निलंबन के रूप में हुई। ऐसी स्थिति में मैं फिर से पूछना चाहूंगा कि संस्थानो की छवि धूमिल करने का जिम्मेदार कौन है?

अब चूंकि हम इन सभी बातों को पीछे छोड़कर नए वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं तो न केवल विपक्ष, बल्कि सरकार में बैठे लोगों को भी यह विचार करना चाहिए कि नववर्ष में हमें संसद को उन मूल्यों के अनुरूप संचालित करने के लिए प्रयास करना होगा, जिनके आधार पर इस संस्थान की स्थापना हुई थी। मुझे विश्वास है कि राज्यसभा के सभापति महोदय अपनी भूमिका और उत्तरदायित्व से भलीभांति अवगत होने के साथ ही उनसे भी परिचित होंगे, जो मौजूदा गतिरोध और गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार हैं।


Date:02-01-24

कठिन संतुलन

संपादकीय

सोलहवें वित्त आयोग के लिए सरकार की योजनाएं आकार ले रही हैं और इनमें कुछ चौंकाने वाली बातें शामिल हैं। सरकार ने यह घोषणा की है कि सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अरविंद पानगडि़या (वर्तमान में कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और नीति आयोग के गठन के तत्काल बाद उसके उपाध्यक्ष रह चुके हैं) इस आयोग की कमान संभालेंगे। आयोग के अन्य सदस्यों के बारे में घोषणा का इंतजार है। प्रोफेसर पानगडि़या निश्चित तौर पर इस बात से अवगत हैं कि भारत में तकनीकी प्राथमिकताओं के क्रियान्वयन के मामले में किस प्रकार की राजनीतिक बाधाएं सामने आती हैं। वर्तमान व्यवस्था भी इससे अलग नहीं है। परंतु इसके बावजूद वित्त आयोग के अध्यक्ष के रूप में काम करने के लिए एक नाजुक राजनीतिक संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है ताकि राजकोषीय संघवाद के मामले में विभिन्न राजनीतिक गुटों के बीच समझौते को तेजी से अंजाम देने में मदद मिल सके।

तथ्य यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संघीय तनाव बढ़ने के बीच वित्त आयोगों की भूमिका लगातार अहम होती जा रही है। वित्तीय संसाधनों और राजनीतिक शक्ति को लेकर राज्यों के बीच अलग-अलग मत के साथ भी यही बात है। उदाहरण के लिए दक्षिण भारत के राज्य उत्तर भारत के राज्यों को किए जाने वाले हस्तांतरण के आकार को लेकर बहुत अधिक चिंतित हैं। अन्य राज्य सरकारें इस बात को लेकर चिंतित हैं कि अपनी नीतियों को लेकर उन्हें बहुत कम स्वतंत्रता हासिल है। वस्तु एवं सेवा कर ने बिक्री कर तय करने की उनकी स्वतंत्रता छीन ली है। केंद्र सरकार के कल्याण कार्यक्रम बहुत अधिक प्रभावी होते जा रहे हैं और समय के साथ स्थानीय बिजली वितरण कंपनियों के उपयोग या दुरुपयोग जैसे संरक्षण के अवसर भी कम होते जा रहे हैं।

निस्संदेह क्षेत्रीय नेता इसे राजनीतिक गुंजाइश बनाने और उसे बरकरार रखने की अपनी क्षमता में घुसपैठ के रूप में देखते हैं। ऐसे में नीतिगत प्रयोगों और राज्य स्तर की कुछ जरूरतों की पूर्ति के लिए भी बहुत कम गुंजाइश बचती है। सोलहवें वित्त आयोग के पास यह जिम्मेदारी होगी कि वह उन संसाधनों का निर्धारण करे जो इन नाखुश राज्य सरकारों के लिए उपलब्ध होंगे। ऐसे में आयोग का काम व्यापक तौर पर कार्यशील संघवाद के संरक्षण का होगा जबकि इसके साथ ही उसे वृद्धि और विकास की गति को भी बरकरार रखना होगा। सोलहवें वित्त आयोग से जुड़ा दूसरा आश्चर्य यह है कि सरकार ने आयोग के कार्यक्षेत्र के बारे में न्यूनतम निर्देश जारी करने का निर्णय लिया है। पिछले वित्त आयोगों को सुरक्षा व्यय को नियंत्रित करने से लेकर सरकार के तीसरे स्तर को मिलने वाली वित्तीय मदद तक की सुरक्षा की समीक्षा के लिए विभिन्न विषयों का एक विस्तृत सेट जारी किया गया था। पंद्रहवें वित्त आयोग के कार्यक्षेत्र को कुछ हद तक विवादास्पद भी माना जाता है क्योंकि यह माना गया कि वे राज्यों की कल्याण योजनाओं को ‘लोकलुभावन’ ठहराने को प्रोत्साहित करती थीं जबकि केंद्र सरकार की योजनाओं के साथ ऐसा नहीं था।

सोलहवें वित्त आयोग के कार्यक्षेत्र में ऐसे किसी भी विवाद से बचा गया है। कार्यक्षेत्र के बिंदु संविधान के तहत ऐसे आयोगों के लिए दिए अधिदेश के अनुरूप हैं। ऐसे में आयोग के अध्यक्ष को सामान्य से अधिक विवेकाधिकार दिए जाएंगे। उसे ही यह तय करना होगा कि आयोग को किन मुद्दों पर अधिक समय लगाना है। आयोग का प्रबंधन राष्ट्रीय एकीकरण की कवायद होगा, न कि साधारण तकनीकी अथवा लेखा कवायद। यह बात भी महत्त्वपूर्ण है।


Date:02-01-24

पर्दे के पार

संपादकीय

ब्रह्मांड से जुड़े अनेक तथ्य आज भी अवधारणाओं तक सीमित हैं। वैज्ञानिक खोजों के जरिए उन पर से पर्दा हटाना अब भी एक बड़ी चुनौती है। कृष्ण विवर यानी ब्लैक होल भी एक ऐसा ही रहस्य है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जब भी कोई तारा अपने भीतर सिकुड़ जाता है तो कृष्ण विवर में परिवर्तित हो जाता है। उस खाली जगह का गुरुत्वाकर्षण इतना तीव्र होता है कि वह आसपास के तारों को भी अपने भीतर खींच लेता है। इस तरह उनका द्रव्यमान भी उसी में समाहित हो जाता है। अवधारणा है कि अरबों वर्ष बाद सूर्य भी एक कृष्ण विवर में परिवर्तित होकर दूसरे तारों को अपने में समाहित करना शुरू कर देगा। माना जाता है कि इसी तरह एक दिन सारे ग्रह ब्लैक होल में समा जाएंगे। मगर अभी तक किसी कृष्ण विवर की विश्वसनीय तस्वीर सामने नहीं आ सकी है। जो भी तस्वीरें उपलब्ध हैं, वे वैज्ञानिकों की कल्पना पर ही आधारित हैं। अब इस रहस्य पर से पर्दा उठाने के मकसद से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो ने एक्स-रे पोलरिमीटर यानी एक्सपोसैट का प्रक्षेपण किया है। इससे अंतरिक्ष में एक ऐसी वेधशाला स्थापित की जाएगी, जो विशेष रूप से कृष्ण विवर का ही अध्ययन करेगी।

हालांकि इससे पहले कृष्ण विवर के अध्ययन के लिए अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र नासा अपनी एक वेधशाला स्थापित कर चुका है। मगर उसकी उम्र केवल दो साल की थी, जो अब समाप्त होने को है। भारतीय एक्सपोसैट के पांच साल तक काम करने का अनुमान है। इस तरह यह वेधशाला अधिक समय तक अंतरिक्ष में रह कर ब्लैक होल का पता लगाने और उससे जुड़े तथ्य जुटा पाने में सक्षम होगा। भारत पहले ही चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयान तृतीय की ‘साफ्ट लैंडिंग’ करा कर और सूर्य का अध्ययन करने के उद्देश्य से आदित्य एल-1 का प्रक्षेपण कर अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों का परचम लहरा चुका है। एक्सपोसैट का प्रक्षेपण कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। अगर इस अभियान में इसरो कृष्ण विवर से जुड़े रहस्यों पर से पर्दा उठाने में कामयाब रहता है, तो निस्संदेह यह दुनिया के अंतरिक्ष अनुसंधान में बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। नब्बे के दशक तक भारत को उपग्रह प्रक्षेपण के मामले में भी दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता था, अब वह न केवल इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुआ है, बल्कि दुनिया के उपग्रह प्रक्षेपण के बाजार में विकसित देशों से होड़ कर रहा है। अब वह अपने बूते बहुत कम लागत में उपग्रह निर्माण कर अनुसंधान के लिए भी भेजना शुरू कर चुका है। एक्सपोसैट उसी की अगली कड़ी है।

दरअसल, ब्रह्मांडीय विचलनों के चलते पृथ्वी ग्रह पर जीवन को लेकर अनेक चुनौतियां पैदा होने लगी हैं। चूंकि सौरमंडल के सारे ग्रह गुरुत्वाकर्षण बल के जरिए ही परस्पर जुड़े, एक-दूसरे को संतुलित करते हुए गतिमान हैं, इसलिए मंदाकिनी के तारों का अचानक लुप्त होना और अपने पीछे एक ब्लैक होल छोड़ जाना सौरमंडल के लिए खतरे का संकेत है। इनका द्रव्यमान इतना सघन और गुरुत्वाकर्षण इतना तीव्र होता है कि प्रकाश की किरणें भी उनके पार नहीं जा पातीं। वे उन्हें अवशोषित कर लेते हैं। इनका अध्ययन उन उपायों की तलाश का रास्ता भी खोलेगा, जिनसे कृष्ण विवर के खतरों से पार पाया जा सके। एक्सपोसैट पचास संभावित ब्रह्मांडीय स्रोतों से निकलने वाली ऊर्जा का पता लगा सकेगा। इसके अध्ययन से मानव जीवन के बहुत सारे रहस्यों पर से भी पर्दा उठ सकेगा।


Date:02-01-24

नए आसमान पर

संपादकीय

पिछले साल के आखिरी दिन जब लोग नए साल के स्वागत की तैयारी कर रहे थे, कहीं नए साल की बधाइयां दी जा रही थीं और कहीं जश्न मनाए जा रहे थे। ठीक उसी समय आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा में उलटी गिनती शुरू हो चुकी थी, और नए साल की नई सुबह 9.10 बजे जब यह उलटी गिनती खत्म हुई, तो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो ने 44.4 मीटर लंबा एक भारी-भरकम रॉकेट आसमान की ओर दागा। कुछ ही देर के अंदर धरती से 650 किलोमीटर दूर की कक्षा में एक्सपोसैट नाम का एक उपग्रह स्थापित हो चुका था। साल 2024 की शुरुआत के लिए इससे अच्छी कोई और खबर नहीं हो सकती थी। उपग्रह को लांच करना और उसे किसी कक्षा में स्थापित कर देना इसरो के लिए कोई नई बात नहीं है, पर एक्सपोसैट जिस तरह का उपग्रह है, उसे इसरो की सिर्फ एक और उपलब्धि कह देने भर से ही बात खत्म नहीं होती। वैज्ञानिक अध्ययन के लिए लॉन्च किया गया यह उपग्रह खगोलशास्त्र में भारत की महारत और उसकी महत्वाकांक्षा, दोनों को ही बताता है। इसे हम इससे भी समझ सकते हैं कि ऐसा उपग्रह अभी तक सिर्फअमेरिका के पास है।

हम जब भारतीय अंतरिक्ष सगंठनों के उपग्रहों की चर्चा करते हैं, तो आमतौर पर ऐसे उपग्रहों का नाम लिया जाता है, जिनकी कोई सीधी उपयोगिता है। मसलन, वे उपग्रह, जो टेलीविजन प्रसारण के लिए थे, या वे उपग्रह, जो जीपीएस सेवा देते हैं, या वे उपग्रह, जो मौसम के अध्ययन और पूर्वानुमान के लिए लॉन्च किए जाते हैं, या फिर वे उपग्रह, जो सीमाओं की निगरानी करते हैं, शहरों-कस्बों-गांवों, खेतों, फसलों और नदियों-नहरों का हाल बताते हैं। लेकिन एक्सपोसैट इन सबसे जरा अलग किस्म का उपग्रह है। इसे शुद्ध रूप से वैज्ञानिक शोध के लिए तैयार किया गया है। इसका सीधा लाभ खगोलशा्त्रिरयों और खगोल-भौतिकविज्ञानियों को मिलेगा। इस उपग्रह में लगा एक्सरेपोलरीमीटर अंतरिक्ष में मौजूद एक्सरे किरणों का आकलन करके उनके स्रोत का पता लगाएगा। इससे खासकर ब्लैक होल के अध्ययन में मदद मिलेगी। इसके जारिये हम ब्रह्मांड की उत्पत्ति और धरती के लिए अंतरिक्ष में मंडराते खतरों के बारे में ज्यादा अच्छी समझ बना सकेंगे।

यह उपग्रह दरअसल उस सिलसिले की अगली कड़ी है, जो 1996 में शुरू हुआ था। इसे भारतीय एक्सरे एस्ट्रोनॉमी प्रयोग कहा गया था। इसी कड़ी में साल 2004 में एस्ट्रोसैट नाम का उपग्रह लॉन्च करने की योजना बनी थी। यह उपग्रह 2015 में लॉन्च किया गया था। अंतरिक्ष के अध्ययन के लिए तैयार किया गया यह भारत का पहला उपग्रह था। एक्सपोसैट इसी की अगली कड़ी है, जो एक बड़ी छलांग तो है ही, साथ ही, यह भारत के उपग्रह कार्यक्रम की निरंतरता का भी प्रतीक है। यहां इस बात का जिक्र भी जरूरी है कि भारत ने एस्ट्रोसैट का उपयोग किस तरह से किया। एकाधिकार की सोच से परे हटकर इससे मिले डाटा को पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के साथ साझा किया गया, ताकि सभी उनका अपने तरह से विश्लेषण कर सकें। इससे भारत की इस सोच का भी पूरी दुनिया को उदाहरण मिला कि ज्ञान और विज्ञान सभी के लिए हैं और ये बांटने से ही बढ़ते हैं। अब एक्सपोसैट के बारे में भी यही कहा जा रहा है। इससे मिले डाटा भी दुनिया के कई देशों के वैज्ञानिकों के साथ साझा किए जाएंगे। इस लिहाज से यह भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए एक उपलब्धि है।


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