02-01-2018 (Important News Clippings)

Afeias
02 Jan 2018
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Date:02-01-18

Wreaking power, farm havoc via subsidy

ET Editorials

The politics of subsidies and freebies is something we are all too familiar with. Not just because of its pervasiveness but also because of the electoral success it reaps. But we would be failing in our duty if we didn’t remind those invested in India’s future of the consequences of opting for short-term gains at the cost of, well, the future beyond tomorrow.The government of Telangana promises farmers free power, round the clock, declaring itself to be the first state to do so. The honour of being the first to give free power 24×7 might be Telangana’s but that for destroying perfectly healthy state electricity boards via runaway power subsidies has been taken, time and again.

Punjab’s fisc is broken and Tamil Nadu’s power distribution system, once one of the finest in the country, became one of the worst, thanks to free power for farmers.Farmers need remunerative prices, investment in infrastructure and freedom from crippling regulation, not free inputs. Free power and subsidised urea have led to indiscriminate depletion of groundwater, increasing salinity and infertility of the soil, besides crop patterns at odds with the logic of India’s agroclimatic zones.

Sugarcane, for example, should grow in the fertile Indo-Gangetic basin, and not at all on the hardscrabble lands of the Deccan, where subsidy alone drives farmers to plant cane. Since ‘free’ translates, more often than not, into unmetered connections, many a small-time industrialist draws the power he needs right off a farm connection, and pays neither the cost of energy, nor taxes.India’s power sector is crippled by 30% of the power generated not being paid for. Telangana’s policy only adds to this process of slow murder by subsidy.

The primary requirement of prosperity in the farm sector is good connectivity, both road and telecom, so as to identify the markets that offer the best price and move one’s produce there. Storage and proximate value addition via processing come next. Trade policy that minimises distortion of price signals is another. Free does not quite cut it. Telangana can do better.


Date:02-01-18

अर्थव्यवस्था के समक्ष दोहरी चुनौती

डॉ. भरत झुनझुनवाला, (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्राध्यापक हैं)

आर्थिक वृद्धि को पटरी पर लाना इस नए वर्ष की प्रमुख चुनौती होगी। पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा ने कहा है कि जीएसटी के कारण छोटे उद्योगों के व्यापार में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है। मेरे आकलन में यह गिरावट जीएसटी ढांचे के कारण है। जीएसटी लागू होने से हर व्यापारी को अपना माल पूरे देश में बेचने की छूट मिल गई है। यह व्यवस्था बड़े उद्योगों के लिए विशेष लाभप्रद है, क्योंकि अंतरराज्यीय व्यापार करने की उनकी क्षमता अधिक है। छोटे व्यापारी अंतरराज्यीय व्यापार कम ही करते हैं। बड़े व्यापारियों को मिली यह सहूलियत छोटे व्यापारियों के लिए अभिशाप बन गई है। जैसे नागपुर में बने आलू चिप्स अब गुवाहाटी में आसानी से पहुंचते हुए वहां के स्थानीय नमकीन विक्रेता का धंधा चौपट कर रहे हैं। जीएसटी का छोटे उद्योगों पर दूसरा प्रभाव रिटर्न भरने का बोझ है। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि जीएसटी के तहत पंजीकृत 35 प्रतिशत लोग टैक्स अदा नहीं कर रहे हैं। बड़े व्यापारियों को जीएसटी से कोई समस्या नहीं हुई है, क्योंकि उनके दफ्तर में चार्टर्ड अकाउंटेंट और कंप्यूटर ऑपरेटर पहले से ही मौजूद थे। छोटे व्यापारियों के लिए यह अतिरिक्त बोझ बन गया है। छोटे व्यापारियों की तीसरी परेशानी है कि खरीद पर अदा किए गए जीएसटी का उन्हें रिफंड नहीं मिलता है। जैसे किसी दुकानदार ने कागज खरीदा और जीएसटी अदा किया। बड़े दुकानदार ने कागज बेचा तो उसके खरीददार ने इस रकम का सेटऑफ (रिफंड) ले लिया। छोटे दुकानदार ने कंपोजिशन स्कीम में कागज बेचा तो उसके खरीददार को जीएसटी सेटऑफ नहीं मिलेगा। इन तीन ढांचागत कारणों से जीएसटी छोटे व्यापरियों के लिए कष्टकारी हो गया है। छोटे व्यापरियों के दबाव में आने से बाजार में मांग कम हो गई है और पूरी अर्थव्यवस्था ढीली पड़ रही है तथा जीएसटी का संग्रह गिरता जा रहा है।

2018 की चुनौती है कि छोटे व्यापारियों को साफ-सुथरी अर्थव्यवस्था में जीने का अवसर उपलब्ध कराया जाए। इस दिशा मे पहली संभावना है कि कुछ उत्पादों को छोटे उद्योगों के लिए पुन: संरक्षित कर दिया जाए, जैसा कि पहले था। इससे छोटे उद्योग चल निकलेंगे। दूसरी संभावना है कि जीएसटी में पंजीकरण के प्रोत्साहन स्वरूप हर व्यापारी को 500 रुपए प्रतिमाह का अनुदान दिया जाए। इस रकम से छोटे व्यापारी पंजीकरण के कागजी बोझ को वहन कर लेंगे। तीसरी संभावना है कि कंपोजिशन स्कीम के छोटे व्यापारियों को भी खरीद पर अदा किए गए जीएसटी को आगे पास ऑन करने की छूट दी जाए। तब ये बड़े व्यापारियों को टक्कर दे सकेंगे। जीएसटी के ढांचे के कारण छोटे व्यापारियों को जो परेशानी हो रही है, उसका उपाय करना ही चाहिए। मुझे आशंका है कि प्रस्तावित ई-वे बिल इन परेशानियों को बढ़ा सकता है। मेरे एक मित्र के नवजात शिशु को डॉक्टरों ने एंटीबायोटिक दवा दी। उसकी हालत नहीं सुधरी तो और बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक दवा दी, जिससे हालत सुधरने के बजाय और बिगड़ गई। इसी प्रकार वित्त मंत्री ने पहले अर्थव्यवस्था को जीएसटी की दवा दी। अर्थव्यवस्था नहीं सुधरी तो ई-वे बिल की दवा देना चाह रहे हैं। संभव है कि अर्थव्यवस्था और डिप्रेशन में चली जाए।वर्ष 2018 की दूसरी चुनौती किसान के हितों की रक्षा करने की है। बीते 70 वर्षों में तमाम सरकारों के अथक प्रयासों के कारण देश में खाद्यान्न् उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है। साठ के दशक में हम भुखमरी के कगार पर थे, लेकिन बीते कई दशकों में अन्न् उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि के बावजूद हमारे किसानों की आय न्यून बनी हुई है और वे लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। कारण यह कि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ दाम में गिरावट आ रही है। हाल के दौर में आलू-प्याज के किसानों द्वारा अपनी उपज सड़क पर फेंकने की घटनाएं सामने आईं, क्योंकि उन्हें सही दाम नहीं मिल पा रहा था।

सरकार किसानों की इस समस्या से चिंतित भी है। प्रधानमंत्री ने ‘हर खेत को पानी का नारा दिया है। किसान को मुफ्त में मृदा हेल्थ कार्ड दिए जा रहे हैं कि वे अपनी जमीन की जरूरत के लिहाज से उचित उर्वरक का उपयोग कर और उत्पादन बढ़ाएं। विचार है कि किसान को पानी मिलेगा तो उत्पादन बढ़ेगा और आय भी, परंतु इस नीति की सफलता भी संदिग्ध है, क्योंकि दाम में कमी आने से बंपर उत्पादन भी किसान के लिए अभिशाप बन जाएगा। सिंचाई सुविधा बढ़ाने के हमारे प्रयासों से भी हम गर्त में ही गिर रहे हैं। कई राज्य सरकारों द्वारा किसानों को सस्ती अथवा मुफ्त बिजली दी जा रही है। इससे किसान जरूरत से ज्यादा पानी का उपयोग करते हैं। हजारों वर्षों से हमारे भूमिगत तालाबों में संचित पानी को किसानों द्वारा अनुचित मात्रा में निकाला जा रहा है। भूमिगत जल का स्तर खतरनाक रूप से गिर रहा है। पहले वर्षा का पानी रिसकर 50 फुट की गहराई पर ठहरता था और वहां से निकाला जाता था। अब वह 1000 फुट की गहराई पर ठहर रहा है और वहां से निकाला जा रहा है। अधिक गहराई से निकालने पर बिजली की अनायास ही बर्बादी हो रही है। साथ-साथ सिंचाई के लिए दोहन से हमारी नदियां नष्ट हो रही हैं। हथिनीकुंड के नीचे यमुना, नरोरा के नीचे गंगा और सरदार सरोवर के नीचे नर्मदा सूख गई है। कृष्णा एवं कावेरी नदियों का पानी अब पूरी तरह निकाल लिया जा रहा है और समुद्र तक नहीं पहुंच रहा है। नदियों के सूखने से तमाम मछुआरों की जीविका संकट में पड़ गई है। गाद के समुद्र तक न पहुंचने से देश की बहुमूल्य भूमि का समुद्र भक्षण कर रहा है। यूं समझें कि सिंचाई बढ़ाने को हम अपने देश की भूमि का भक्षण कर रहे हैं।

इस समस्या का समाधान है कि किसान से माप के अनुसार पानी का मूल्य वसूला जाए। तब वह ट्यूबवेल और नहर से पानी कम लेगा। भूमिगत जलस्तर ऊंचा होने लगेगा और हमारी नदियां बहने लगेंगी, लेकिन किसान की उत्पादन लागत बढ़ेगी। किसान को इस अतिरिक्त बोझ से बचाने के लिए सीधे नकद सबसिडी देनी चाहिए।वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 2015-16 में केंद्र एवं राज्यों ने किसानों के हित में खाद्य निगम में 129 हजार करोड़ रुपए, कृषि पर 295 हजार करोड़ रुपए, उर्वरक पर 72 हजार करोड़ रुपए व सिंचाई पर कुल 67 हजार करोड़ रुपए सहित कुल 563 हजार करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें 25 प्रतिशत को निवेश मान लिया जाए तो किसान के नाम पर दी जा रही सबसिडी 422 हजार करोड़ बैठती है। 2018-19 में यह लगभग 520 हजार करोड़ रुपए बैठेगी। इस रकम को लगभग 10 करोड़ किसान परिवारों को सीधे वितरित कर दिया जाए तो हर परिवार को 52,000 रुपए प्रतिवर्ष दिए जा सकते हैं। साथ-साथ पानी और उर्वरक पर सबसिडी को समाप्त कर दिया जाए। किसान भी खुश होगा, क्योंकि उसे 52,000 रुपए नकद मिल रहे हैं। साथ ही हमारी नदियों और भूमिगत जल की भी रक्षा होगी।


Date:01-01-18

इंसाफ नहीं जुल्म

मुफीज जिलानी

तलाक-ए-बिदत जिसे आम तौर मीडिया तीन तलाक के नाम से प्रचारित करता है को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अमान्य करार दिए जाने के बाद अब इंस्टेंट तीन तलाक की तरह ही एक ही झटके में बिना सोचे-समझे लोक सभा ने उसे अपराध मानते हुए एक विधेयक पारित कर दिया। इसके तहत ऐसा करने वाले पति को तीन साल तक की सजा होगी और अपनी पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण भी करना होगा। यही नहीं यह संज्ञेय अपराध माना जाएगा। हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है लेकिन राज्य सभा से पारित होने के बाद यदि इसी रूप में यह कानून बन गया तो यकीनी तौर पर यह औरत के लिए लाभकारी नहीं बल्कि जुल्म के रूप में सामने आएगा।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक एक नशिस्त में तीन बार तलाक कहने पर तलाक मुकम्मल नहीं माना जाएगा बल्कि यह अमान्य है। जब तलाक हुआ ही नहीं तो फिर पति को किस बात के लिए सजा दी जाएगी। यही नहीं यह साबित करने की जिम्मेदारी भी महिला पर होगी कि उसके पति ने ऐसा किया है। अगर यह मान भी लिया जाए कि किसी पति ने ऐसा किया और पुलिस में पत्नी ने एफआईआर कराई, पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। उसे जेल भेज दिया। क्योंकि कानून मंत्री ने अपना बिल पेश करते हुए कहा कि अगर कोई पति इंस्टेंट तीन तलाक देता है तो उसे तीन साल की सजा होगी। अब यह बात समझ से परे है कि आखिर जेल में रहते हुए वह पति कैसे पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण करेगा। दूसरे; जब उसे तीन साल की सजा हो जाएगी तो पति-पत्नी में मसालहत की गुंजाइश खत्म हो जाएगी। और तीन माह तक अगर पति-पत्नी में दोबारा साथ रहने के लिए रजामंदी नहीं होती तो तीन माह के बाद एक नशिस्त में तीन बार तलाक कहने को एक तलाक नहीं बल्कि तीन तलाक की हैसियत हासिल हो जाएगी। जो तलाक-ए-बिदत न होकर तलाक-ए-एहसन की श्रेणी में आ जाएगी। हालांकि नया प्रस्तावित कानून इस बारे में कुछ नहीं कहता। इसके अलावा सरकार यह भी नहीं बता पा रही है कि ऐसा कौन पति होगा, जिसे उसकी पत्नी तीन साल सजा करा चुकी है और वह फिर एक साथ रहने को राजी हो जाएगा। यह कदापि नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट और नये कानून के हिसाब से तलाक होगा नहीं तो वह महिला जो तलाक के बाद दूसरी शादी कर अपनी नई जिंदगी शुरू कर सकती थी वह हक भी यह कानून उससे छीन लेगा। क्योंकि तलाक के बिना दूसरी शादी नहीं होगी। इस कानून से भ्रमित होने वाली औरतें जब इस रास्ते पर चल पड़ेंगी तो उनकी भी एक बड़ी संख्या ऐसी हो जाएगी जो न शादीशुदा होंगी और न तलाकशुदा ही रहेंगी। यह भी उसी कतार में शामिल हो जाएंगी जैसे 20 लाख से ज्यादा गैर मुस्लिम महिलाएं हैं, जो शादीशुदा हैं लेकिन बेघर हैं क्योंकि उनके पतियों ने उन्हें छोड़ रखा है और तलाक भी नहीं दिया है।

अनेक मुस्लिम महिला संगठनों का भी कहना है कि इससे मुस्लिम महिलाओं की कोई मदद नहीं होगी क्योंकि पति जेल जाने की स्थिति में गुजारा भत्ता कैसे देगा? इन महिलाओं का कहना है कि औरत-मदरे के बीच बराबरी की दिशा में बढ़ना चाहिए, न कि तलाक को अपराध की श्रेणी में डालना चाहिए। एक दूसरा तर्क ये भी है कि तीन तलाक अगर गुनाह बना दिया जाएगा तो मुसलमान पुरु ष अपनी पत्नियों को तलाक दिए बिना ही छोड़ देंगे, ऐसी स्थिति महिलाओं के लिए और बुरी होगी। यह भी कहा जा रहा है कि नये कानून की जरूरत नहीं है क्योंकि पहले से ही बहुत सारे कानून मौजूद हैं जो विवाहित महिलाओं को अन्याय से बचाते हैं।

सरकार अगर मुस्लिम महिलाओं की हमदर्द होती तो इस कानून में उनके पुनर्वास की व्यवस्था करती जो उसने नहीं की। या पति-पत्नी में समाझौते के हालात पैदा करने के मौके बनाती जो नहीं किया गया। क्योंकि सरकार का मकसद मुस्लिम महिलाओं की हमदर्दी नहीं बल्कि मुस्लिम समाज में तफरीक पैदा करना उसका मन्तव्य है। इसीलिए मुस्लिम महिलाओं को भ्रमित किया जा रहा है, ताकि वह मदरे के साथ बराबरी के हक के साथ रहने के बजाए उनके मुकाबले पर खड़ी हो सकें और समाज में एक नये किस्म का बंटवारा हो। जैसे शिया-सुन्नी, देवबंदी-बरेलवी या इसी तरह के और मसलकी विभेद हैं। सरकार का यह कदम मुस्लिम महिलाओं जुल्म के मानिंद है। आरएसएस का एजेंडा भी मुस्लिम विरोधी है। वह मुस्लिम समाज के भले के बारे में नहीं सोचती। कुल मिलाकर इस कानून के बारे में जो ढिंढोरा पीटा गया वैसा तो कुछ नहीं बस मोदी सरकार का इस बिल की आड़ में एक नया इवेंट ही मात्र है।


Date:01-01-18

नई चुनौतियों के दौर में भारतीय विदेश नीति

हर्ष वी पंत प्रोफेसर किंग्स कॉलेज, लंदन

नया साल भले ही नई चुनौतियां दे, लेकिन बीते साल में बहुत कुछ ऐसा रहा, जिस पर संतोष होना चाहिए। जितनी तेजी से दिन बीते, उतनी ही तेजी से अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम भी बदले। बड़ी शक्तियां भी ऐसी आंतरिक चुनौतियों से जूझती दिखीं, जैसा बीते कुछ दशकों में नहीं दिखा था। वे आज भी उसी में उलझे हैं। चीन का उदय अब एक स्थापित सत्य है और बीजिंग इस पर इतराता दिख रहा है। यह नया परिवर्तन बहुपक्षीय वैश्विक व्यवस्था के लिए चुनौती बनकर उभरा है, भारत जिससे अछूता नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल ने 2017 में वैश्विक स्तर पर सरकार को अच्छे नतीजे दिए। अमेरिका और इजरायल ही नहीं, चीन जैसे प्रतिद्वंद्वी साझेदार तक सीधी पहुंच बनी। पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया से साथ संबंधों का विस्तार हुआ, जब भारत और आसियान पुराने संबंधों और साझेदारी का विस्तार करते दिखे। ऐसे क्षेत्र, जहां चीन मुखर हो, अंतरराष्ट्रीय कानूनों और 1982 के संयुक्त राष्ट्र संघ की व्यवस्थाओं के दायरे में दक्षिण चीन सागर के संसाधनों तक पहुंचने के लिए भारत ने मुक्त नेविगेशन की जैसी वकालत की वह वैश्विक स्तर पर बड़ी घटना थी। मोटे तौर पर यह एक स्वतंत्र, खुले, समृद्ध और समावेशी भारत-प्रशांत क्षेत्र का निर्माण करना था, जहां तमाम शक्तियां एक स्थिर पारिस्थितिकी तंत्र का समर्थन करने वाले सह-अस्तित्व का माहौल बना सकती हैं।

अपने ठीक पड़ोसी के मामले में दिल्ली ने दोहरी नीति अपनाई। एक तरफ आतंकी खतरे की खतरनाक प्रवृत्ति पर पाकिस्तान को हाशिये पर धकेलने का अभियान जारी रखा, तो बंगाल की खाड़ी से अधिक निकटता दिखाकर हमने अपने रणनीतिक भूगोल को पुनर्जीवित करने का महत्वाकांक्षी उपक्रम भी दिखाया। बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग (बिम्सटेक) और बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल (बीबीआईएन) जैसी पहल इसी की परिणति हैं। भारत-अफगानिस्तान रिश्तों में भी मजबूती आई। अफगानिस्तान और उसके सुरक्षा बलों को ज्यादा प्रभावी और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भारतीय सहयोग महत्वपूर्ण है। यह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी के रिश्तों का ही असर है कि ट्रंप प्रशासन की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति भी भारत की वैश्विक स्थिति का मजबूती से समर्थन करती दिखाई दी है। यह कम महत्व की बात नहीं थी कि अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रैटजी ने भी भारत की प्रमुख वैश्विक हैसियत को न सिर्फ स्वीकारा, बल्कि जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ मिलकर एक चतुष्कोणीय सहयोग संघ बनाने की आवश्यकता बताई। जबकि पाकिस्तान के मामले में वहां सख्ती दिखी।

परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में विफलता के बावजूद वैश्विक स्तर पर भारत की मौजूदगी और महत्व बढ़ा है। भारत का 42वें सदस्य के रूप में वासेनार व्यवस्था का हिस्सा बनना महत्वपूर्ण है, जिसका असर व्यापार पर होगा। न्यायमूर्ति भंडारी का इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के लिए चुना जाना इसलिए भी बड़ी उपलब्धि रही कि इसके लिए ब्रिटेन ने अपना प्रत्याशी वापस लिया, जो भारत की स्मार्ट और आक्रामक कूटनीति का नतीजा था। दिल्ली बार-बार नई और बड़ी वैश्विक भूमिका निभाने के लिए तत्पर होने का संकेत और संदेश देती दिखाई दी। वर्तमान सरकार की यह बड़ी उपलब्धि है। एक बड़ी उपलब्धि न सिर्फ वैश्विक मंचों पर मजबूती से खड़ा होना था, बल्कि प्रमुख ताकतों खासतौर से चीन के साथ द्विपक्षीय मामलों में भी मजबूत होकर उभरना रहा। चीन के बेल्ट ऐंड रोड फोरम में शामिल होने से इनकार कर भारत ने पाकिस्तान में चीनी हितों के खिलाफ अपना विरोध भी खुलकर जता दिया। डोका ला में सख्त रुख ने एक मजबूत जमीन तैयार कर दी। भारत के लिए इस रणनीतिक परिदृश्य को अपने हित के अनुसार इस्तेमाल करने की क्षमता दिखाने का अवसर भी है। लेकिन एक ‘प्रमुख शक्ति’के रूप में नई दिल्ली को उन हालात में भी दृढ़ रहने की जरूरत है, जब खबरें अनुकूल न भी हों। मोदी सरकार ने इस प्रवृति को अच्छी तरह से पहचाना है, लेकिन आने वाले वर्षों में भी उसे भारतीय क्षमताओं का और प्रभावी इस्तेमाल करने के लिए तैयार होना होगा।


 

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