01-03-2018 (Important News Clippings)

Afeias
01 Mar 2018
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Date:01-03-18

A chowkidar is not enough

The fight against corruption must be driven by institutions, not by an individual

Sagarika Ghose

I don’t want to become Prime Minister, I want to be a chowkidar, said then Gujarat chief minister Narendra Modi on the campaign trail during the 2014 elections. Social media is unforgiving and four years later – after the Nirav Modi banking scam blew up – a video of the PM’s chowkidar speech was repeatedly recycled.

As the NiMo banking scam unfolds, reality has hit hard. To lay the blame at the prime minister’s door for a multi-crore scam in one branch of a public sector bank would be unfair. The scam reveals, though, that however tough the chowkidar at the top, there’s deep rot in an unaccountable public sector banking system. For example, all 20 PSU banks including PNB do not have a workman or an officer director. This mandatory watchdog post has been vacant, in many cases, for almost six months.

So the question arises: Who is the better chowkidar, a single individual or a range of independent functioning accountable watchdog institutions that raise red flags in time?

The personal commitment of a dominant political executive to act against corruption is welcome. Yet a single chowkidar sitting alone in Lok Kalyan Marg in Delhi cannot oversee goings on from Jhabua to Trichy, or PNB Mumbai’s Brady House Branch for that matter. Instead, it is anti-corruption institutions at every level which must be strengthened and empowered. Today public cynicism about corruption is overwhelming. Even a Davos group photo or PM’s references to “hamaare Mehulbhai” can lead to perceptions of cronyism, unless strong institutions act swiftly to catch the big fish.The government claims it has introduced tough new amendments in the Benami Property Act and brought in an Insolvency and Bankruptcy Code to enable actions against swindlers. But who will implement these tough laws if administrators and institutions are rendered irrelevant? The government has not instituted a single Lokpal in the last four years and as many as four posts in the Information Commission are lying vacant.

The CBI, described as a ‘caged parrot’ during the UPA, has still not been set free. That the Centre determinedly pushed through a controversial appointment of a Gujarat IPS officer as special director despite complaints of serious irregularities is evidence of a political system that is unwilling to create a truly independent federal police. Election funding, arguably the most visible source of political corruption, remains unchecked. The introduction of electoral bonds (now challenged in court) has failed to address the core issue of promoting transparency in funding: under the new law, details of individuals and corporates funding political parties will not be disclosed in public.

The government claims that demonetisation must be seen as evidence of its drive against corruption. But 16 months later, the evidence is mixed: Despite initially aiding the IT department to hound hoarders almost all the money, including black money, is back in banks with the Rs 2,000 note replacing lower denominations. Banks have received back Rs 15.28 trillion or 99% of the invalidated currency. Truth is, a quasi-evangelical moral puritanism and a knee jerk criminalising of business isn’t the answer to the problem of instilling enough confidence that the honest will be protected and the corrupt will be punished.Public sector banks are an abiding symbol of political cronyism and the neta-babu nexus. That the Punjab National Bank was even given awards by the Central Vigilance Commission is a classic example of a ‘chalta hai’ attitude that militates against rigorous regulatory monitoring.

A commitment against corruption must see honest whistleblowers as vital allies. Yet information activists complain that the Right to Information Act is being systematically weakened. Several RTIs to the prime minister’s office go unanswered. Questions have been raised about the appointment of the CVC and the government has refused to answer RTIs asking for names of loan defaulters. In 2016, after alleged “encounter deaths” of eight SIMI activists in Bhopal, minister Kiren Rijiju said, “We should stop this habit of raising doubts and asking questions, this is not a good culture.”But isn’t democracy about asking questions? Perhaps if more questions had been raised by an alert banking system in 2015, the NiMo scam could have been stopped. Maybe, in November 2016 when the PM announced that demonetisation was a step towards cleaning up society, questions should have been raised over the accountability of banks. It is precisely in 2017, during the post-demonetisation period, that Nirav Modi obtained a fresh series of LoUs – showing that for bankers at PNB, it was still business as usual for VIPs.

The finance minister recently said that while politicians are accountable, it’s the regulators who are not, suggesting that banking regulator RBI has not been vigilant enough. But the fact is, it’s the government’s responsibility to create autonomous and independent institutions that have the self-confidence to ask questions, even from well-connected VIPs. The Indian people’s interests are best served when the government takes urgent steps to ensure that institutions – CVC, CBI, judiciary, RTI, CIC, bank watchdogs – are not attacked or weakened or marginalised or bypassed but made vigorous, independent and staffed by persons of courage and integrity. It’s these institutions that are India’s real chowkidars, not a single individual.


Date:01-03-18

बैंक धोखाधड़ी का राजनीतिक फंडिंग से है करीबी संबंध

टीसीए श्रीनिवास-राघवन

पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी) के साथ नीरव मोदी की धोखाधड़ी का मामला सामने आए हुए दो हफ्ते से अधिक समय बीत चुका है। इस दौरान हमें गुस्से से भरे कई उलाहने, कपट से भरपूर संकेत और तर्कसंगत एवं अव्यावहारिक दोनों तरह के सुझाव सुनने को मिले हैं। दरअसल अच्छी मंशा रखने वाले लेकिन कम जानकारी रखने वाले नागरिकों की तरफ से की जा रही इस चर्चा में ऐसा होना लाजिमी है। इसमें टेलीविजन चैनलों के ऐंकर और समाचारपत्रों के टिप्पणीकार भी शामिल हैं। वैसे बैंकिंग धोखाधड़ी केवल भारत की समस्या नहीं है। दुनिया भर में बैंकिंग एवं अन्य वित्तीय संस्थानों को धोखाधड़ी का सामना करना पड़ता है। निक लीसन को याद कीजिए जिसने अकेले ही बैरिंग्स बैंक को तबाह कर दिया था। बरबादी के बाद इस बैंक को महज एक डॉलर में बेचना पड़ा था। इसी तरह बर्नी मेडॉफ पर 50 अरब डॉलर की धोखाधड़ी का आरोप लगा था। मेडॉफ चिटफंड योजना भी चला रहा था। साफ है कि बेहद सख्त नियमन एवं निगरानी वाले बैंकिंग क्षेत्रों में भी समय-समय पर बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी होती रही हैं। यह सूची काफी लंबी है।

भारत में बैंक धोखाधड़ी पर पीएनबी के पूर्व चेयरमैन और भारतीय रिजर्व बैंक के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर के सी चक्रवर्ती ने 2013 में एक शानदार परिचर्चा पत्र पेश किया था। धोखाधड़ी से संबंधित परिदृश्य को समझने के लिए इसे अब भी पढ़ा जा सकता है। पीएनबी घोटाले के सामने आने से उपजे शुरुआती आक्रोश के बाद अब ध्यान हमारी बैंकिंग प्रणाली को जकड़ी हुए संरचनात्मक समस्याओं पर केंद्रित हो रहा है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की हैसियत बैंकिंग प्रणाली के गोरिल्ला जैसी है। अहम सवाल यह है कि बैंकों का विशाल स्वामित्व सरकार के पास होने (असल में इसका मतलब नेताओं के नियंत्रण से है) से धोखाधड़ी को सहज रूप से बढ़ावा मिलता है? या फिर यह धोखाधड़ी का बैंकों के स्वामित्व से कोई लेना-देना नहीं होता है? जब भी बैंक धोखाधड़ी के बड़े मामले सामने आते हैं तो फिर बैंक स्वामित्व के साथ उसके संबंध को लेकर सवाल जरूर खड़े होते हैं। तमाम तरह के समाधान सुझाए जाते हैं। भारत में हमेशा की तरह हरेक समाधान के विपक्ष में एक दूसरी समस्या खड़ी हो जाती है और फिर कुछ भी नहीं हो पाता है। अब यह साफ है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में इस तरह की धोखाधड़ी के मामले अधिक होते हैं। इसके पीछे दर्जनों कारण हो सकते हैं। लेकिन मेरे हिसाब से इसका मुख्य कारण यह है कि बैंक धोखाधड़ी चुनावों के लिए धन जुटाने का जरिया बन चुका है। यह एक तरह से चुनावों के लिए सरकारी फंड मुहैया कराने का भारतीय संस्करण है।

इसके अलावा चुनावों की लागत बढऩे से जरूरी रकम की मात्रा भी बढ़ चुकी है। हरेक चुनाव क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या बढऩे से उम्मीदवारों को अब पहले से कहीं अधिक खर्च करना पड़ता है। लोकसभा चुनाव में हरेक मतदाता पर होने वाला खर्च करीब 2,000 रुपये हो चुका है जबकि वर्ष 2004 में यह करीब 100 रुपये था। ऐसी हालत में कुछ यूं होता है। एक कर्जदार को उसकी परियोजना आवश्यकता से कहीं अधिक कर्ज दे दिया जाता है। कर्ज की इस अतिरिक्त राशि को कुछ राजनीतिक दलों या नेताओं को दे दिया जाता है और वह कारोबारी भी उसका कुछ हिस्सा अपने पास रख लेता है। लेकिन बात जब इस कर्ज के भुगतान की आती है तो कर्ज की अतिरिक्त राशि गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) बनकर रह जाती है। अगर तमाम बैंकों के एनपीए का विश्लेषण करें तो आपको दिखेगा कि इसका बड़ा हिस्सा उस संचित ब्याज का होता है जो पूरे कर्ज पर लागू होता है लेकिन कारोबारी अतिरिक्त राशि का भुगतान नहीं करता है तो वह ब्याज बढ़ता जाता है। यह पूरी कवायद राजनीतिक व्यर्थता का विषय बनकर रह जाती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की अक्षमता के बारे में क्या कहा जाए? इसमें तो उन्हें काफी हद तक बढ़त मिली हुई है। असली धोखाधड़ी नहीं तो बैंकिंग कदाचार रोक पाने में इसकी कितनी भूमिका है? क्या धोखाधड़ी रोकने के लिए जिम्मेदार वरिष्ठ बैंक प्रबंधकों के प्रति उठाए जाने वाले कदमों में कोई समस्या है? कई पूर्व बैंक अधिकारी मानते हैं कि ऐसी स्थिति है। क्या इसकी वजह से बैंकों के भीतर लापरवाही वाला रवैया बढ़ा है?

सच तो यह है कि राजनीतिक दबाव, अक्षमता, गलत प्रोत्साहन, खराब तकनीक और कुछ अन्य कारण सार्वजनिक बैंकों में धोखाधड़ी को आसान बना देते हैं। अचरज में डालने वाली बात यह है कि ये सारे अवयव अधिक प्रसारित नहीं हैं और न ही आकार में बड़े हैं। या फिर वे ऐसा हैं और हमें उसकी जानकारी ही नहीं है? यही वजह है कि बैंकों का निजीकरण किया जाना, नहीं तो उनमें सरकारी हिस्सेदारी को 50 फीसदी से नीचे लाना बेहद जरूरी है। नरसिम्हन समिति ने 1990 के दशक के मध्य में सरकारी हिस्सेदारी को 33 फीसदी पर लाने की सिफारिश की थी। लेकिन सार्वजनिक बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी की आदर्श स्थिति तो 25.9 फीसदी ही होनी चाहिए।

हालांकि केवल ऐसा करने से ही समय-समय पर होने वाली धोखाधड़ी रुक नहीं पाएगी। लेकिन इससे कम-से-कम बैंक धोखाधड़ी के मामलों में नेताओं की भूमिका को तो कम किया जा सकेगा। यह भी सच है कि किसी भी कारोबार में धोखाधड़ी का खतरा हमेशा बना रहता है, लिहाजा उसे सौ फीसदी सुरक्षित कर पाना संभव भी नहीं है। लेकिन धोखाधड़ी को 90 फीसदी तक तो रोका ही जा सकता है और उसके लिए हर मुमकिन कोशिश की जानी चाहिए।


Date:01-03-18

बच्चों का भविष्य संवारने की चुनौती

ड़ॉ निरंजन कुमार , (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

पिछले कुछ वर्षो में बाल और किशोर अपराधों के साथ-साथ बच्चों में विकृत-असामान्य व्यवहार के मामलों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। बच्चों की ओर से आक्रामक मनोवृत्ति का प्रदर्शन करने और यहां तक कि हिंसा, हत्या, दुष्कर्म की घटनाओं में शामिल होने की खबरें अब आए दिन दिखाई पड़ रही हैं। समस्या गांव से लेकर शहर और गरीब से लेकर अमीर, सभी तबकों में जिस तरह से फैल रही है वह एक महामारी का रूप धारण कर सकती है। इस खतरनाक हालत की वजहें जानने की कोशिश करने के साथ उनके समाधान में शिक्षा व्यवस्था की भूमिका पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। इस क्रम में यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या सिर्फ बच्चों का ही शिक्षण पर्याप्त है? पिछले कुछ सालों में भारतीय समाज काफी बदल गया है। नगरीकरण, शिक्षा, रोजगार इत्यादि के लिए नई जगहों में प्रवास, टूटते संयुक्त परिवार और बढ़ते हुए एकल परिवार के साथ आधुनिक जीवनशैली ने नए दवाबों को जन्म दिया है। अब वह सामूहिक टोला-मोहल्ला संस्कृति नहीं रही जिसमें समाज के बड़े-बुजुर्ग का दबाव बच्चों पर होता था। इस संस्कृति में हर बड़ा व्यक्ति चाचा या दादा हुआ करता था, जो गलत काम के लिए बच्चों-किशोरों को डांट भी सकता था। इसके अतिरिक्त बढ़ती हुई भौतिकता, आगे बढ़ने की अंधी होड़, पति-पत्नी, दोनों का कामकाजी होना, घर में दादा-दादी आदि के न होने से बच्चों को सही-गलत बताने वाला कोई नहीं रहा। ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह टेलीविजन, इंटरनेट, सोशल मीडिया के उफान ने बच्चों को एक अंधी सुरंग में धकेल दिया है।

टेलीविजन में पश्चिमी समाज-संस्कृति से प्रभावित ऐसे ऊटपटांग किस्म के सीरियल दिखाए जा रहे हैं जहां हर कोई हर किसी का प्रतिद्वंद्वी या दुश्मन है। बच्चों में लोकप्रिय काटरून चैनलों की हालत भी बुरी है। उनमें हर चरित्र यहां तक कि पौराणिक धार्मिक-ऐतिहासिक बाल नायक भी उग्र रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। उनकी आंखों में बालसुलभ सौम्यता की जगह आक्रामकता झलकती है। हिंदी काटरूनों की बात करें तो मोटू-पतलू, तेनालीरामा, गली गली सिमसिम, अकबर-बीरबल जैसे इने-गिने सीरियल हैं जो बाल मन पर वैसा कुप्रभाव नहीं छोड़ते। विदेशी काटरूनों की डबिंग करके हिंदी भाषा में पेश कर बच्चों के सामने एक ऐसी संस्कृति परोसी जा रही जहां बड़े-छोटे का लिहाज, समरसता, नम्रता और करुणा आदि भावों के लिए कोई जगह ही नहीं। ऊपर से इंटरनेट, वीडियो गेम्स और सोशल मीडिया ने बच्चों को ऐसी आभासी दुनिया में ला पटका है जहां हिंसा, अपराध और विकृत व्यवहार भी सहज खेल ही बन गए हैं।

इन चीजों ने बच्चों को हकीकत के सामूहिक-सामाजिक जीवन से और भी अलग-थलग कर दिया है। आज पांचवीं- छठीं कक्षा के बच्चों के भी फेसबुक, वाट्सएप आदि के अकाउंट हैं। परंपरागत वैकल्पिक साधनों की अनुपस्थिति के कारण बच्चे सोशल मीडिया की लत का शिकार हो रहे हैं। आठवीं कक्षा के विद्यार्थी द्वारा ई-मेल पर अपनी शिक्षिका के साथ कैंडिल लाइट डिनर और फिर शारीरिक संबंध के प्रस्ताव की एक ताजा खबर भयावह स्थितियों का संकेत मात्र है।

समाधान के विविध आयाम हो सकते हैं। एक शिक्षार्थी होने के नाते मेरा दृष्टिकोण शिक्षापरक है। इस संदर्भ में पहला सुझाव है कि स्कूली शिक्षा में प्राचीन भारतीय संस्कृति के तत्वों का समावेश अर्थात नैतिक और मूल्यपरक शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। हाल में सीबीएसई बोर्ड ने अपने से जुड़े स्कूलों में कक्षा छह से आठ के विद्यार्थियों के लिए एक तीन वर्षीय मूल्यपरक कोर्स का प्रस्ताव रखा है। इसके तहत विद्यार्थियों को भाईचारा, विनय और करुणा से संबद्ध मानवीय गुणों की शिक्षा दी जाएगी, लेकिन इस स्वागतयोग्य प्रस्ताव की कुछ सीमाएं हैं। एक तो यह स्कूलों के लिए स्वैच्छिक होगा यानी वे इसे अपनाएं या न अपनाएं जबकि इसे अनिवार्य किया जाना चाहिए। दूसरे, यह पाठ्यक्रम साल भर में 16 पीरियड का प्रस्तावित है, जबकि इसे कम से कम प्रति सप्ताह एक यानी 32 पीरियड का होना चाहिए। इसे सिर्फ सीबीएसई बोर्ड तक ही न होकर पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए और, अंतत: इसमें उत्तीर्ण होना अनिवार्य किया जाना चाहिए। दूसरा सुझाव है कि नौवीं से 10वीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए श्रम संबंधित पाठ्यक्रम की अनिवार्यता हो। हमारे गुरुकुलों में राजपुत्र से लेकर सामान्य बालक को भी लकड़ी चुनने से लेकर आश्रम व्यवस्था में हाथ बंटाने के विभिन्न श्रम-संबंधित कार्य करने पड़ते थे। आधुनिक युग में विवेकानंद से लेकर गांधीजी ने भी श्रम के महत्व पर जोर दिया है। यह ठीक है कि आधुनिक युग में लकड़ी चुनने जैसे कार्य संभव नहीं, लेकिन श्रम संबंधित शिक्षा में बागवानी या विभिन्न हस्तकलाओं जैसी चीजों का ज्ञान कराने से एक तरफ भविष्य में रोजगार की संभावना रहेगी तो दूसरी तरफ श्रम की महत्ता और उसके प्रति सम्मान का भाव भी बच्चों में पनपेगा। इस सबसे उनकी विपुल ऊर्जा कुप्रभावों की ओर न जाकर एक सकारात्मक दिशा में अग्रसर होगी।विद्यार्थियों के अलावा माता-पिता को जागरूक करना भी आज बहुत जरूरी हो गया है।

भौतिकता की अंधी दौड़ में शामिल माता-पिता के पास आज बच्चों के लिए समय नहीं है और न ही उन्हें यह पता है कि आज की परिस्थितियों यथा इंटरनेट-सोशल मीडिया की आंधी में बच्चों का कैसे मार्गदर्शन करें? यूरोपीय देशों ने इस समस्या के लिए सामुदायिक बाल केंद्रों की स्थापना की है। इनमें स्कूल उपरांत बच्चों को व्यस्त रखने से लेकर माता-पिता को भी प्रशिक्षित किया जाता है। अपने देश में संसाधनों केअभाव में ऐसी व्यवस्था निकट भविष्य में संभव तो नहीं है, लेकिन अभिभावकों के लिए ग्राम पंचायतों, सार्वजनिक भवनों या सामुदायिक केंद्रों में पाक्षिक या मासिक वर्कशॉप-व्याख्यान होने चाहिए। इसके लिए गैर सरकारी संगठनों की मदद ली जा सकती है। वहीं कोष कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी यानी सीएसआर के तहत जुटाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मीडिया के भी शिक्षण की जरूरत है। जिस तरह की चीजें विभिन्न मीडिया माध्यम परोस रहे हैं उसके प्रति उन्हें आगाह करने का वक्त आ गया है। इसके लिए मीडिया संगठनों को चार-छह माह में नियमित तौर पर रिव्यू या वर्कशॉप जैसा कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए। इस तरह का आदेश सूचना-प्रसारण मंत्रलय या अन्य मीडिया संगठन दे सकते हैं। इसी क्रम में मीडिया नीति शास्त्र का पेपर मीडिया कोर्स का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए। भारत में छह से 15 वर्ष आयु समूह में करीब 28 करोड़ बच्चे हैं। उनका मानसिक विकास सही तरह से हो और वे देश की आवश्यकतानुरूप विकसित हों, यह चिंता सभी को करनी चाहिए।