हमारे अप्रवासी भारतीय – आदिवासी

Afeias
03 Jul 2017
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Date:03-07-17

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भारत के पास कोयला, बॉक्साइट, लौह अयस्क आदि के प्रचुर भंडार हैं। ये सभी भंडार भारत के मुख्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों ; जैसे- झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में हैं। इस क्षेत्र के आदिवासियों में से अधिकांशं की जीविका इन पर निर्भर करती है।भारत के 50 मुख्य खनिज भंडारों में से 50 प्रतिशत में आदिवासियों की बहुलता वाली आबादी है। चालीस प्रतिशत खनिज बहुल जिलों में खनन के दुष्परिणामों के चलते यहाँ के आदिवासियों में असंतोष है। यह अलग बात है कि इन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। इन पर ध्यान तभी दिया जाता है, जब ये आदिवासी हिंसक विद्रोह पर उतर आते हैं।

पूरे विश्व में भारत में आदिवासी आबादी का सबसे ज्यादा घनत्व है। भारत की जनसंख्या में लगभग 8.2 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति हैं। 2011 की जनगणना से पता चलता है कि यह समस्त जनता अभी भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। न इनके पास शौचालय हैं, न ही स्वच्छ ईंधन और न ही स्वास्थ्य सेवाएं। इसी प्रकार अनुसूचित जाति भी बहुत पिछड़ी हुई है। अनुसूचित जनजाति की तुलना में इनकी स्थिति बेहतर है, लेकिन इनमें शिक्षा, स्वच्छ जल, आधुनिक तकनीक की जानकारी का अभाव है।कुल-मिलाकर 45.85 प्रतिशत आदिवासी जनता गरीब की श्रेणी में आती है। मानव विज्ञानियों ने तो यह पाया है कि इनमें पोषण की कमी के कारण नई पीढ़ी कुछ छोटी होती जा रही है।

आदिवासियों की भूमि को खनन माफिया अपने कब्जे में लेते जा रहे हैं। इस प्रकार के भूमि अधिग्रहण के बहुत से मामले दर्ज भी किए जा चुके हैं। आंध्र प्रदेश में तो आदिवासियों की 50 प्रतिशत भूमि पर भू-माफिया या खनन माफिया का कब्जा हो चुका है। इसी प्रकार कर्नाटक में भी अनगिनत मामले हैं। पिछली केरल सरकार ने इस मामले में और भी नकारात्मक रवैया अपनाया। उन्होंने आदिवासियों को आवंटित करने के लिए निश्चित रखी गई भूमि का अधिग्रहण कर लिया। हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने सरगुजा जिले में दो खनन कंपनियों को आदिवासियों के पुरखों की भूमि पर खनन की छूट दे दी है।

  • आदिवासियों के अधिकारों की प्रवंचना

घने जंगलों में रह रहे इन आदिवासियों के अधिकारों की बात बहुत समय से की जाती रही है। कानून भी बनाए गए हैं। अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 2005 में इन्हें जंगलों में रहने, आजीविका चलाने और शिकार पर प्रतिबंध के साथ जंगली उत्पादों का उपयोग करने का अधिकार दिया गया है। इन्हें जंगल की भूमि में 2.5 हेक्टेयर तक का भू-संपत्ति अधिकार दिया गया है। इन्हें पुनस्र्थापित करने के लिए भी प्रावधान रखे गए हैं। परंतु आज तक के रिकार्ड में इनको भूमि और जीविका से बेदखल करने के बाद पुनस्र्थापना की कोई कोशिश नहीं की गई है।

केन्द्रीय सरकार ने आदिवासियों के लिए जो नीतियां बनाई हैं, उनका भी मिला-जुला रिकार्ड रहा है। सन् 1999 में राष्ट्रीय आदिवासी नीति बनाने की घोषणा की गई। इसके अंतर्गत समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना और प्रधानमंत्री रोजगार योजना की शुरूआत की गई थी। इनके साथ ही जिले के अंतर्गत चलाई जाने वाली अपनी कुछ रोजगार योजनाएं थीं। परंतु कागज पर तैयार की गई इन योजनाओं का आदिवासियों की स्थानीय समस्याओं से कोई सरोकार कभी नहीं बन पाया। इनमें से अधिकतर योजनाएं कर्मचारियों और निधि के अभाव में दम तोड़ चुकी हैं।

  • आदिवासियों को उनके अधिकारों से लैस करने के लिए हमें बहुत से सुधार करने की आवश्यकता है। इनमें सबसे पहले भूमि अधिग्रहण नीति में सुधार करना होगा। अनिवार्य भूमि अधिग्रहण को सरकार के लिए भी एक सीमा में रखा जाना चाहिए।
  • पुनर्वास और पुनरूद्धार कार्यक्रम को पूरी ईमानदारी से चलाया जाए। आदिवासियों से ली गई भूमि के बदले उन्हें समान मूल्य की भूमि या उतनी ही राशि दी जाए।
  • पुनर्वास के दौरान परिवार के केवल एक व्यक्ति को रोजगार देने वाले नियम में पुरूषों को प्रमुखता मिल जाती है। इससे आदिवासी स्त्रियों की जीविका की समस्या बनी रहती है।
  • अनुसूचित जाति और जनजाति के प्रति हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम बनाया गया है। केन्द्रीय सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रशासनिक और संवैधानिक रूप से न्याय का उचित प्रावधान हो।
  • इन जातियों के प्रति भेदभाव या हिंसा किए जाने की स्थिति में दंड के प्रावधान को प्रचारित किया जाना चाहिए। इससे लोग ऐसा करने से बचेंगे।
  • विकास कार्य होने चाहिए। परन्तु वे आदिवासियों के लिए चारदीवारी से घिरी यहूदी बस्तियाँ न खड़ी कर दें। हमारे आदिवासी भौगोलिक रूप से भारत के हृदय में बसने वाली उन्मुक्त प्राणी है। उनकी इस उन्मुक्तता पर विकास की काली छाया नहीं पड़नी चाहिए।

इकॉनामिक टाइम्स में प्रकाशित वरुण गांधी के लेख पर आधारित।