सरकारी कदमों में आपातकाल का आभास

Afeias
02 Dec 2016
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179953-480047-patelagitation7001Date: 02-12-16

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रामनाथ गोयनका पुरस्कार समारोह में हमारे प्रधानमंत्री ने कहा था-‘‘प्रत्येक पीढ़ी को निष्पक्ष तरीके से आपातकाल पर प्रतिक्रिया करते रहना चाहिए, जिससे कि आगे आने वाला कोई भी नेता दोबारा ऐसा करने के बारे में सोच भी न सके।’’

ये शब्द भले ही प्रधानमंत्री के हों, परन्तु वास्तव में वर्तमान सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में जो हालत बना रखे हैं, क्या वे आपातकाल से कम हैं? उन हालातों पर एक नजर डाली जानी चाहिए।

  • विरोधी दलों का दम घोटने के लिए सत्ताधारी सरकार लगातार अपनी शक्ति का प्रयोग कर रहा है। दिल्ली सरकार की तरह सभी भाजपा विरोधी दलों की राज्य सरकारों को काम ही नहीं करने दिया जा रहा है। विरोधी दल एक तरह की प्रतिबंधित स्थिति में पहुंच गए हैं। क्या यह आपातकाल जैसे हालात नहीं हैं, जहाँ विरोधी दलों की राजनीति को हर हाल में बुरा और सत्ताधारी दल की राजनीति को हर हाल में अच्छा कहा जा रहा है।
  • राष्ट्रवाद के नाम पर अन्य सभी विचारधाराओं का दमन किया जा रहा है। राष्ट्रीय हित की वास्तविक परिभाषा से परे उसके नए अर्थों की खोज की जा रही है। राष्ट्र के दुश्मनों को नष्ट करने के नाम पर सत्ताधारी दल ने बाकी दलों को बुरी तरह से दबा दिया है।
  • सामाजिक कार्यकर्ताओं को बंदी बनाया जा रहा है। सामाजिक अभिव्यक्ति को भी विद्रोह माना जा रहा है। जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल जैसे सरकार द्वारा चलाए जा रहे ऐसे ही दमन का शिकार हैं। क्या राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर दबाए जा रहे इन सामाजिक विद्रोहों के बाद भी हम यही कहेंगे कि आपातकाल जैसे हालात नहीं हैं?
  • सरकारी उद्देश्यों से तालमेल बनाए रखने के लिए मीडिया या पत्रकारिता पर सरकारी शक्ति का गुप्त प्रयोग आपातकाल नहीं माना जाएगा? ऐसा करना तो सेंसरशिप से अधिक कपटी कदम लगता है।
  • भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाले विद्रोह को बेअसर किया जा रहा है। व्यापम जैसे भ्रष्टाचार प्रकरण को जिस तरह से दबाया गया, वह हैरान करने वाली बात है। इस तरह से भ्रष्टाचार के हर मामले पर आवरण चढ़ाकर उसे ढंकने की कोशिश करना क्या आपातकालीन नीति नहीं है।
  • शैक्षणिक संस्थानों के विद्यार्थियों और शिक्षकों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। यहां विद्रोह होने पर सरकार एक मध्यस्थ की नियुक्ति कर देती है। इन मध्यस्थों के माध्यम से सरकार शिक्षण संस्थानों को अपनी जी-हजूरी करने वाला गुलाम बनाना चाहती है।
  • गौ रक्षा के नाम पर दलितों को मारा जा रहा है। एक ओर हमारे प्रधानमंत्री ऐसी दादागिरी और गुंडागर्दी करने वालों को चेतावनी देते हैं, तो वहीं दूसरी ओर उनके मंत्री इन गुंडों पर तिरंगा चढ़ाकर उन्हें महिमामंडित करते हैं। फिर भी ये जुर्म नहीं हैं, क्योंकि गौ रक्षा के नाम पर होने वाली कोई भी हिंसा अपराध कैसे हो सकती है?
  • लोगों पर रखी जा रही निगरानी क्या सरकार की निरंकुशता नहीं है? उस पर जुमला यह कि यह तो लोगों में पारदर्शिता लाने के लिए किया जा रहा है। क्या यह उल्टी गंगा बहाने जैसा नहीं है? जहाँ सरकार को लोगों के प्रति जवाबदेह और पारदर्शिता दिखानी चाहिए, वहाँ जनता से पारदर्शिता की अपेक्षा की जा रही है।
  • न्यायपालिका को नियंत्रित किया जा रहा है। पुलिस से लेकर सीबीआई तक पूरी सरकारी मशीनरी का प्रयोग मनमाने ढंग से किया जा रहा है। क्या इसे हम आपातकालीन स्थिति नहीं मानेंगे?
  • जगह-जगह पर सैनिकों का बढ़ता प्रयोग भी आपातकाल जैसे हालात पैदा कर रहा है। पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक का ढोल बजाकर वास्तविकता से अधिक का दिखावा किया जा रहा है। इस पर सवाल उठाने वालों पर शिकंजा कसा जा रहा है। यह आपातकाल की स्थिति नही तो और क्या है?
  • कश्मीर का दमन और अपनी ही जनता से सूचनाओं को छिपाया जाना क्या सरकार के सामान्य कामकाज का हिस्सा है?

अपनी नीतियों और कार्यों का प्रचार करना सरकार के लिए सर्वोपरि हो गया है। इस प्रचार-प्रसार के पीछे जनता को सूचनाओं से अवगत कराने जैसा कोई उद्देश्य नहीं है, बल्कि सच्चाई और धोखाधड़ी के बीच एक तरह का परदा डालना है। इसका एक और उद्देश्य उन लोगों की प्रतिष्ठा को जनता के समक्ष गिराना है, जो सरकार की नीतियों और कार्यों को खुली चुनौती देते हैं।

पिछली सरकारों और राज्य सरकारों ने भी इस प्रकार की राजनीति का सहारा लिया है। बाकी सरकारों ने शायद इसका थोड़ा-थोड़ा प्रयोग किया। परंतु अब स्थिति अलग ही नजर आ रही है।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के लेख पर आधारित।