बाहुबली राजा, दयनीय प्रजा

Afeias
22 Aug 2019
A+ A-

Date:22-08-19

To Download Click Here.

प्रजातंत्र को एक ऐसा तंत्र कहा जाना और माना जाना चाहिए, जिसमें नागरिक या मतदाता सम्प्रभु होता है। प्रजातंत्र नागरिकों का समावेश और भागीदारी चाहता है। वर्तमान संदर्भ में प्रजातंत्र पर राजनीतिज्ञ नेताओं का कब्जा है। ऐसी स्थिति में प्रजातंत्र में असहायता ही बाकी रह गई है। सम्प्रभु कहा जाने वाला वर्ग अब गुलाम है।

पार्टी बदलने वाले नेताओं के लिए नागरिकों का क्रोध या असंतोष कोई मायने नहीं रखता। वे तो व्यावसायिकों की तरह दल बदलने में लगे हैं। सार्वजनिक जीवन किसी नौकरी की तरह नहीं होता है। प्रजातंत्र में, राजनीति को उन लोगों के द्वारा चुना हुआ पथ माना जाता है, जो कुछ विशेष प्रकार के आदर्शों की पूर्ति के लिए एक स्वतंत्र दिशा खोजते हैं। परन्तु जब राजनीति ही आय का साधन बना ली जाती है, तो दलीय व्यवस्था का धराशायी होना जाहिर है। ऐसे में विचारधारा और आस्था अर्थहीन हो जाती हैं।

अवसरवादी लोग कभी नहीं हारते। वे चुनाव जीतते ही हैं। यह मायने नहीं रखता कि वे किस पार्टी का झंडा उठा रहे हैं। गोवा की राजनीति में ऐसे ही एक नेता हैं, जिन्होंने पिछले दो दशकों में छः बार दल-बदल किया है। जिस दल की सरकार होती है, वे उसी में शामिल हो जाते हैं। दो माह पहले ही उन्होंने जब उप चुनाव जीता था, तब भाजपा ने उन पर अनेक आपराधिक आरोप लगाते हुए उनका विरोध किया था। लेकिन फिलहाल वे और उनकी पत्नी भाजपा में शामिल हैं। उनकी पत्नी तो मंत्री हैं। अगले चुनावों के लिए भी यह कहीं से नहीं कहा जा सकता कि वे नहीं जीतेंगे। दलों में कोई अंतर नहीं है। सबका यही हाल है। वैसे दल बदलने की प्रथा की शुरूआत 1970 और 80 में इंदिरा गांधी के समय शुरू हुई थी। अब भाजपा ने इसका लाइसेंस ले लिया है। केन्द्र की प्रथा को राज्यों में शुरू कर लिया गया है।

भारत में जब दलों की विचारधारा ही अर्थ नहीं रख रही है, तो दलीय व्यवस्था का सर्वनाश होना तो स्पष्ट है। पूर्व कांग्रेसी नेता चन्द्रकांत कावलेकर ने भाजपा में प्रवेश किया और उप मुख्यमंत्री बन गए। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं। दल-बदल संबंधी कानून गड्ढे में पड़ा है। नेताओं को अयोग्य ठहराए जाने का कोई भय नहीं है। वे तो अपने निर्वाचन क्षेत्र में ऐसे राजा की तरह हैं, जो बार-बार विजयी होता रहेगा।

नेताओं की इस अक्षुण्ण शक्ति और नागरिकों की शक्तिहीनता का राज क्या है?

सरकार की शक्ति अब जीवन के इतने सोपानों में घुस चुकी है कि भारतीयों का शासन बड़ी सत्ता के हाथों में आ चुका लगता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि शराब, खनन और रियल एस्टेट जैसे कारोबारों में सत्ता की स्वीकृति चाहिए होती है। नेता इस बड़ी सत्ता के एजेंट हैं।

समय के साथ-साथ, बड़ी सत्ता से तालमेल रखने वाले नेताओं ने अपने क्षेत्र में संरक्षक-ग्राहक वाला वातावरण तैयार कर दिया है। नौकरी हो, स्कूल में प्रवेश लेना हो, जलापूर्ति आदि के लिए लोगों को इस एजेंट से ही अपील करनी पड़ती है। वही काम पूरे करा सकता है, क्योंकि सत्ता में उसकी पैठ है। इस प्रकार वह अपनी जागीर में अजेय साबित हो जाता है। इस अजेय हस्ती को अपना संरक्षण बनाए रखने और चुनाव लड़ने के लिए धन की प्रतिपूर्ति करनी होती है। इसलिए उसे हमेशा उस दल के साथ रहना ठीक लगता है, जिसकी सत्ता हो।

यहाँ वर्गभेद की राजनीति की भी बड़ी भूमिका रहती है। जब वही सत्ता अपने जबड़े नागरिकों के जीवन में घुसा देती है, तो वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए विभिन्न धर्मों और जातियों को संरक्षण देने लगती है। वह लोकलुभावनवाद के हथियारों से इन वर्गों पर नियंत्रण बनाए रखती है। जाति और धर्म के नाम पर पलने वाले ऐसे राजनेता किसी विशेष वर्ग या संप्रदाय को पकड़कर लटके रहते हैं। यही कारण है कि किसी भी राजनीतिक दल में सम्मिलित होने के बाद भी ये नहीं हारते।

क्या मतदाता या शिक्षित मध्य वर्ग इनके एकाधिकार को चुनौती दे सकता है? ऐसा संभव ही नहीं है। मध्य वर्ग के रोल मॉडल बने नंदन नीलकेणी जैसे लोग चुनाव नहीं जीत पाते। 2017 में गोवा के चुनावों में भी कई अति प्रतिष्ठित नागरिक चुनाव हार चुके हैं। इनका मुख्य एजेंडा भ्रष्टाचार था।

स्थानीय बाहुबलियों ने राजनीति को अपने कब्जे में इतना अधिक कर रखा है कि यहाँ किसी विकल्प की गुंजाइश ही नहीं है। विकल्प सामने आने पर भी मतदाता संरक्षक के अधीन रहने में ही अपनी भलाई समझता है। यही कारण है कि महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को इतना महत्व दिया था।

 केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में; जहाँ दलों की विचारधारा में काफी टकराव है, नागरिकों को अपने मत का निर्णय करने के लिए कम से कम कुछ जगह तो मिल जाती है। जिन राज्यों में विचारधाराओं का कोई अस्तित्व नहीं बचा है, जहाँ केवल धन का बोलबाला है, वहाँ के मतदाता चुनौती नहीं दे सकते, प्रश्न नहीं कर सकते, या बाहुबली नेता के मनमाने चलन पर ऊँगली नहीं उठा सकते। इन स्थितियों में तो वही होता है, जो हाल ही में कर्नाटक और गोवा की राजनीति में हुआ था।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सागरिका घोष के लेख पर आधारित। 17 जुलाई, 2019