नगरों में बढ़ते अपराध

Afeias
04 Jun 2018
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Date:04-06-18

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देश में अपराधों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। आम धारणा है कि बड़े नगरों में अपराध की संख्या ज्यादा है। परन्तु आँकड़े बताते हैं कि अपेक्षाकृत छोटे शहरों में अपराध ज्यादा होते हैं।

इस मामले में दिल्ली को अपवाद माना जा सकता है। शायद इसकी वजह दिल्ली की एक सीमा का उत्तर प्रदेश से लगा होना है, जहाँ हर तरह के अपराध बहुत अधिक संख्या में होते रहते हैं।

अगर हम आई पी सी और एस एल एल (स्पेशल एण्ड लोकल लॉ) को लेकर चलें, तो दिल्ली से ऊपर कोच्ची, नागपुर और लखनऊ आते हैं, जहाँ सर्वाधिक अपराध होते हैं। आखिर इन शहरों में अपराधों के बढ़ने का क्या कारण है?

  • इन शहरों के 15 से 29 वर्ष के बीच के युवा ऐसे हैं, जो रोजगार, शिक्षा या किसी प्रकार के प्रशिक्षण में सलग्न नहीं हैं। वे ऐसा निष्क्रिय जीवन जी रहे हैं, जो अपराध को बढ़ावा देता है।
  • 2011 की जनगणना में 8.4 करोड़ शिक्षित बेरोजगार एवं 3.3 करोड़ अशिक्षित बेरोजगार हैं। इनमें भी डिप्लोमाधारकों की संख्या सबसे ज्यादा है। व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित युवाओं में से 18 प्रतिशत को ही रोजगार मिलता है। इसमें से भी 7 प्रतिशत ही औपचारिक क्षेत्र में रोजगार प्राप्त कर पाते हैं।
  • बड़े शहरों की तुलना में छोटे शहरों में नौकरी के लिए आवेदन करने वालों को नौकरी या रोजगार मिलने की उम्मीद 24 प्रतिशत ही रहती है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण भी यही बताता है कि छोटे शहरों की तुलना में बड़े शहरों में नौकरी के संभावना अधिक रहती है। यहाँ भी स्थिति में बदलाव आ रहा है। दिल्ली और मुंबई में तो रोजगार के अवसर पहले ही कम हो गए हैं। कोलकाता और चेन्नई में भी इनमें ठहराव आ गया है।
  • मध्यम दर्जे वाले नगरों; जैसे- गाजियाबाद, पुणे, इन्दौर, नागपुर आदि में शिक्षित बेरोजगारों ने अपराध का मोर्चा संभाल रखा है। काम की तलाश के साथ-साथ ये अपने बड़े स्वप्नों को पूरा करने में कुंठाग्रस्त होते जाते हैं। भोजन की समस्या इनके लिए उतनी बड़ी नहीं है, जितनी अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति की है।
  • शिक्षित युवा काम की तलाश में, अपेक्षाकृत रूप से अधिक विस्थापित होता है। सबसे कम आय वाले वर्ग में विस्थापन की दर अपेक्षाकृत काफी कम है। ग्रामीण भारत के इस वर्ग में केवल 3 प्रतिशत विस्थापन देखने में आता है। जबकि पढ़े-लिखे वर्ग में यह 17 प्रतिशत है।
  • अगर अकेले पुरूषों के विस्थापन के आँकड़े देखें, तो अशिक्षित लोगों की तुलना में स्नातकों के महानगरों या नगरों में आने की संख्या दुगुनी होती है।

कुल-मिलाकर एक दुष्चक्र चलता चला जाता है, जिसमें एक शिक्षित युवा छोटे शहर में रोजगार के लिए आता है। जहाँ रोजगार की अनुपलब्धता के कारण उसका समाज के प्रति रोष जाग्रत हो जाता है। यही अपराध को जन्म देता है।

इस प्रकार की स्थिति जनसांख्यिकी लाभ की जगह जनसांख्यिकी दैत्य की स्थिति लगती है। अपराध ब्यूरो द्वारा किशोरों में बढ़ती आपराधिक मानसिकता का ब्यौरा देना कोई संयोग नहीं है। ये वे युवा हैं, जो बड़े-बड़े सपने संजोए, विद्यालय की उच्च कक्षाओं में जाते हैं, परन्तु लौटते खाली हाथ हैं।

देश में अपराध तभी कम हो सकता है, जब ये प्रवासी शिक्षित युवा अपने सामान का बोझ कम रखें और अपने सपनों को किसी विश्वस्त हाथों में सौंप सकें।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित दीवांकर गुप्ता के लेख पर आधारित।