एक शहर की मौत
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आज भले ही हम शहरों के बुनियादी ढांचों का विकास करते जा रहे हैं, स्मार्ट सिटी की दिशा में कदम बढ़ाते जा रहे हैं, बहुत से सामाजिक एवं नैतिक मुद्दे हैं, जिन्हें देख-सुनकर लगता है, जैसे कि शहर की आत्मा मरती जा रही है। एक शहर कब मरता है?
- मरता है तब, जब हम एक-दूसरे के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। अपनी फैंसी कार और बाईक में घूमने वाले हम और आप अब लाल बत्ती की परवाह नहीं करते और सरासर गाड़ी दौड़ाते निकल जाते हैं। हम यह भी नहीं सोचते कि हमारी इस रेस में न जाने कौन निर्दोष गिरफ्त में आ जाए और बेमौत मारा जाए।
- एक शहर जगह-जगह पर जन्म लेने वाले लोगों के गुस्से से मरता है। चाहे ट्रैफिक जाम हो या स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, बाजार कहीं भी, हर कोई गुस्से और तनाव से भरा हुआ है। हर किसी की सहनशक्ति जैसे चूक सी गई है।
- हम एक-दूसरे के प्रति लापरवाह तो हैं ही, बेरुखे भी हैं। अक्सर तो हम किसी पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। अगर पड़कर कुछ करना चाहें भी, तो हमारा तंत्र इतना थकाऊ है कि वह हमारी व्यस्त और स्मार्टफोन में उलझी जिंदगी को त्रस्त कर देता है।
- शहर तब मरता है, जब उसके बच्चों के पास खेलने के मैदान नहीं होते तथा उसके बच्चों के फेफड़े जानलेवा प्रदूषित धुएं से भरे होते हैं। वे उस पानी को पीने से डरते हैं, जिसमें प्लास्टिक बोतल की दुर्गंध न आए। उनके लिए स्कूल जाना-आना एक ऊँचे पहाड़ की चढ़ाई जैसा कठिन हो जाए।
- शहर की मौत तब होती है, जब बीमार और बूढ़े एंबुलेंस में ही मर जाते हैं, क्योंकि ट्रैफिक की भीड़ में उनका अस्पताल पहुंचना ही मुश्किल हो जाता है। अगर अस्पताल पहुँच भी गए, तो पता लगता है कि डॉक्टर कहीं और उलझा हुआ है। मशीनें खराब पड़ी हैं और लाइट भी चली गई है। हम यह सब देखते और भोगते हैं, लेकिन कर कुछ नहीं पाते।
- शहरों में नौजवान अपनी बाईक पर झंडे लिए किसी एक अजनबी के पास आकर रुकते हैं और पूछते हैं कि तुम क्या हो? वे अपने ही उत्तरपूर्वी क्षेत्रों के साथियों को परायों की नजर से देखते हैं, उन्हें मारते हैं। इसका अंजाम यह होता है कि डरे- सहमे किसी खास क्षेत्र के लोग अपनी जगह लौटने लगते हैं। और तब एक बार फिर से शहर मरता है।
- बाद में ये ही नौजवान भाड़े के टट्टू बनकर किसी दल के लिए दंगा भड़काते हैं, तोड़फोड़ करते हैं, आग लगाते हैं, और इंसाफ की मांग के नारे लगाते हैं।
- हमारी सड़कों पर रोजी-रोटी कमाने वाले गरीब जब सताए और बिन बात के दबाए जाते हैं, तब शहर मरता है। हम सब ये दृश्य अपनी घरों की खिड़कियों से देखते हैं और यही सोच लेते हैं कि हम क्या कर सकते हैं? वास्तव में हम एक संख्या बन गए हैं उन लोगों की, जिनका अब किसी के लिए कोई अर्थ नहीं रह गया है।
- शहर की मौत होती है तब, जब छोटी-छोटी बातें और घटनाएं बहुत भयानक रूप ले लेती हैं। चाहे वह गुस्सा हो या मच्छर।
- इन शहरों में अब दोस्त मिला नहीं करते। सब अपने बिलों में घुसे बैठे रहते हैं। वे दोस्तों के बजाय आसपास के मॉल वगैरह में जाना पसंद करते हैं, जहाँ उन्हें ट्रैफिक की जद्दोजहद में न फंसना पड़े।
- शहर तब मरता है, जब हम उसके निवासी देखने और इंतजार करने के अलावा कुछ नहीं करते। जिन्होंने इस शहर को जवां, मासूम और वास्तविक बगीचों से भरा देखा है, और इसके फलने-फूलने की कल्पना की है, उन्होंने भी अब वह स्वप्न देखना छोड़ दिया है। और जब भविष्य मरता है, तो शहर सचमुच मर जाता है।
‘द हिंदू’ में सुंदर सारूक्की के लेख पर आधारित
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