आर्थिक विषमता के परिणाम
1980 से, खासकर चीन के पूंजीवादी रास्ते पर चले जाने और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से,
, जोर-शोर से समझाया जा रहा था कि उच्च विकास दर ही गरीबी, बेरोजगारी जैसी सभी समस्याओं का एक मात्र हल है। पूरी दुनिया में मतैक्य था कि उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियाँ ही तेज विकास की कुंजी हैं।
लेकिन गैरबराबरी पर जो वर्तमान चर्चा शुरू है, उसके केन्द्र में पिछले कुछ समय से जारी विकास नीतियाँ और उसके परिणाम हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार ये नीतियाँ ही न केवल बढ़ती गैरबराबरी के लिए जिम्मेदार हैं, बल्कि इन्ही नीतियों की उपज 2007-08 का वित्तीय संकट भी था।
ऑक्सफैम की 2015 की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि आज की दुनिया के 62 परिवारों के पास कुल आबादी के 50 फीसदी जितनी सम्पत्ति है। इन 62 परिवारों की सम्पत्ति दुनिया के 350 करोड़ आबादी की सम्पत्ति के बराबर है।
पिछले 30 सालों में कई देशों में विषमता बहुत तेजी से बढ़ी है। अमेरिका में ऊपर के 1% लोगों को जाने वाला राष्ट्रीय आय का हिस्सा 1980 में 10 प्रतिशत था। वह अब दोगुना होकर 20 प्रतिशत तक पहुँच गया है। यह कोई अमेरिका या अमीर देशों की ही कहानी नहीं है। चीन में ऊपरी 10% लोग तकरीबन 60 प्रतिशत आय के मालिक हैं।
कुछ ऐसी ही तस्वीर भारत की भी है। अक्टूबर 2015 में क्रेडिट सुइस (भारत में कार्यरत एक वित्तीय सेवा कंपनी) द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि चोटी के दस प्रतिशत व्यक्ति भारत में 76% सम्पत्ति के मालिक हैं। चर्चित दुनिया के सबसे धनी 62 परिवारों की सूची में हमारे देश के भी चार परिवार मुकेश अम्बानी, अजीज प्रेमजी, दलीप सांघवी तथा पलोेनजी मिस्त्री शामिल हैं।
बढ़ती विषमता के विरुद्ध एक नैतिक तथा मानवीय तर्क तो हमेशा से ही रहा है। वास्तव में सभी महत्त्वपूर्ण दार्शनिकों तथा धर्मों ने धन का पीछा करने के खिलाफ चेतावनी दी है तथा उसे कम भाग्यशाली सदस्यों के साथ साझा करने की सलाह दी है। कुरआन ने सूदखोरी पर रोक लगाई और अमीर समुदाय को अपनी सम्पत्ति के एक हिस्से को बाँटने की भी सलाह दी। गांधीजी ने कहा था, ‘‘पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन एक भी इंसान के लालच को पूरा नहीं कर सकती।’’
वैसे भी स्वतंत्रता, मातृत्व और समानता का नारा सन् 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के बाद से ही मानवता की धरोहर रहा है और दुनिया के मेहनतकश लोगों को प्रेरणा देता रहा है। मार्क्सवादी, समाजवादी, विचारधारा से प्रेरित बुद्धिजीवी, कार्यकर्ता तो बढ़ती विषमता के विरुद्ध हमेशा से ही कहते रहे हैं कि पूंजीवाद अति लाभ की अपनी चाह में ऐसे असाधेय अंतर्विरोधों को जन्म देता है कि ऐसी समाज व्यवस्था का ध्वंस और एक समाजवादी व्यवस्था से उसका प्रतिस्थापन अनिवार्य है।
लेकिन, आज,, जब पूंजीवाद अपने चरम पर है, नेता तथा बुद्धिजीवियों का वर्ग चिंतित भी है। उनकी चिंता के तीन महत्त्वपूर्ण कारण हैं-
- बढ़ती विषमता आर्थिक मंदी को जन्म देती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अधिक लोगों की गरीबी माँग को कमजोर करती है और यदि माँग ही नहीं होगी, तो उत्पादक बेचेगा किसे और लाभ कहाँ से कमाएगा।
- यह देखा गया है कि जब भी विषमता में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर आया है। 1930 के दशक की महामंदी एक हद तक बढ़ते लालच और गहराती विषमता का ही परिणाम थी। अमेरिका में मंदी से मुक्ति के लिए राष्ट्रपति रूजवेल्ट के ‘न्यू डील’ प्रोग्राम के अंतर्गत असमानता और निहित स्वार्थों पर लगाम लगाई थी। ये कदम बाद में यूरोप में भी दोहराए गए। इन कदमों ने पश्चिमी दुनिया में अगले तीन दशक के आर्थिक विकास और खुशहाली की नींव रखी।
- पर्यावरण की रक्षा की अनिवार्य शर्त है कि ग्रीनहाउस गैसों, विशेषकर कार्बन के उत्सर्जन में भारी कटौती की जाए, जिसके लिए जीवाश्म ईंधन (कोयला, पेट्रोल, डीजल तथा प्राकृतिक गैसों) के इस्तेमाल में भारी कटौती की जरूरत है। लेकिन लाभ की हवस में मुनाफाखोरों ने ऊँची क्रयशक्ति वाले मुट्ठीभर धनाढ्यों में अमर्यादित भोग-विलास की संस्कृति को खूब बढ़ावा दिया है।
धनी उच्च वर्ग कार्बन के उत्सर्जन में नित नया मानक बनाता है। अनुमान है कि अमेरिका में ऊपरी 1% आबादी के लोग आम अमेरिकी आबादी के मुकाबले 10,000 गुना ज्यादा कार्बन का इस्तेमाल करते हैं।
दूसरी तरफ गरीबी भी पर्यावरण के विनाश में योगदान करती है। गरीब लोगों के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं होता कि वे ईंधन की अपनी जरूरतों के लिए वन सम्पदा का दोहर करें। विश्व बैंक के शोध दर्शाते हैं कि समान समाजों में पर्यावरण की बेहतर रक्षा हो सकती है। वे कार्बन के उत्सर्जन में महत्त्वपूर्ण कटौती कर सकते हैं।
बढ़ती असमानता सामाजिक विभाजन को बढ़ाती है। यदि आप बढ़ते हुए विषम-समाज में गरीब परिवार में पैदा हुए हैं, तो तय है कि आप उस दशा को पार नहीं कर पाएंगे। राज्य द्वारा दी जाने वाली सामाजिक सेवाएं जैसे; शिक्षा और स्वास्थ्य में कटौती यह निश्चित कर देती है कि एक गरीब परिवार में पैदा हुआ इंसान गरीबी की बेड़ियों को नहीं काट पाएगा। आजादी के बाद का हमारा अपना अनुभव इसका गवाह है। हम में से कितने लोग गरीबी से मुक्ति पाकर आज सार्थक जीवन व्यतीत कर पा रहे हैं, तो इसका श्रेय सीमित ही सही, राज्य पोषित शिक्षा और स्वास्थ्य तथा अन्य सुविधाओं को जाता है।
समाज में बढ़ती गैर-बराबरी राज और समाज नीति पर धनी वर्ग का वर्चस्व स्थापित करती है। यह स्थिति कई नकारात्मक प्रवृत्तियों को पैदा करती है। बढ़ती असमानता कई अलग-अलग सामाजिक बुराइयों जैसे हिंसा, वेश्यावृत्ति, मानसिक स्वास्थ्य, अपराध और मोटापे के लिए एक हद तक जिम्मेदार है और समाज में सामाजिक तनाव और अशांति को जन्म देती है।
कोई आश्चर्य नहीं कि यह असमानता आज दुनिया के प्रभावशाली लोगों को वर्तमान स्थायित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा लगता है। 2014 के एक सर्वेक्षण के अनुसार (ग्लोबल एटिट्यूट्स सर्वे) 7 अफ्रीकी देशों के 90 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को एक बड़ी समस्या के रूप में स्वीकार किया, तो अमेरिका के तकरीबन 80 प्रतिशत उत्तरदाता इस गैरबराबरी को आज की दुनिया की बड़ी समस्या के रूप में देखते हैं। जब आईएमएफ के अध्यक्ष और बैंक ऑफ इंग्लैंड के गवर्नर माँग करते हैं कि इस गैरबराबरी पर लगाम लगाने के लिए कुछ किया जाना चाहिए, वर्ना स्थायित्व को खतरा है, तो स्पष्ट है कि शासक वर्ग को गैर-बराबरी से पैदा होने वाली हड़ताल, विद्रोह या क्रांति की आशंकाएँ परेशान कर रही हैं।