अविभाज्य मानवतावाद की मौलिक अवधारणा

Afeias
23 Aug 2019
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Date:23-08-19

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उपनिषदिक परंपरा में अपने अस्तित्व के बीज ढूंढने वाला अद्वैत वेदांतशास्त्र जीवन के प्रति एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत में विश्वास रखता है। इस श्रृंखला में यह प्रकृति यानि सांसारिक जगत को निरंतर परिवर्तनशील वस्तु के रूप में देखता है। यह सिद्धांत जीवन के स्वरूपों में कोई भेद नहीं करता। यह मानव, पशु या पौधे जैसे सभी जीवन रूपों को बराबर मानता है। इन सबको विशाल ब्रह्माण्डीय चेतना का अंश मानता है।

आधुनिक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संदर्भों से अद्वैत वेदांत को संबंद्ध करते हुए पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अविभाज्य मानवतावाद जैसा एक विचार निकाला। उन्होंने इसे राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रवाद के सिद्धाँतों में अद्वैत की कल्पना को साकार करने का एक विकल्प माना। नस्ल, रंग, जाति या धर्म आदि की विभिन्नताओं को परे रखते हुए उन्होंने माना कि सभी मानव एक ही जैविक जगत के जीव हैं, जो एक समान राष्ट्रीय चेतना के विचारों की साझेदारी कर रहे हैं।

औद्योगिक और तकनीकी क्रांति ने भौतिक प्रगति और विकास की पृष्ठभूमि तैयार की, तथा विश्व को खंड में बंटे बाहरी आधार पर विकसित होने एवं मूल्यांकन करने का पैमाना दे दिया। जबकि जीवन की अभिन्नता की समझ ही समग्र दृष्टिकोण रखती है। उदाहरण के लिए स्वास्थ्य का चिकित्सकीय स्वरूप शरीर की जैविक जरूरतों से जुड़ा होता है। परन्तु मानव जीवन की समग्र समझ; शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा को लेकर चलती है। योग इसी प्रकार की समग्रता को लेकर चलता है।

यह सत्य है कि विज्ञान में होने वाली आधुनिक प्रगति, जीवन के समग्र दृष्टिकोण पर ही आधारित है। आज हम ‘बिग बैंग’ जैसे सिद्धांत को मानने लगे हैं। इसमें कहा गया है कि एक विस्फोट ने मौलिक ऊर्जा की उत्पत्ति की, जिससे जीवन के अनेक स्वरूप पैदा हुए। आइंस्टाइन ने इसे E = MC2 के रूप में बताया है। इससे सभी जीव-स्वरूपों के अद्वैत सिद्धांत को वैज्ञानिक प्रामाणिकता मिल जाती है। साथ ही यह शक्ति यानि ऊर्जा और प्रकृति यानि पदार्थ के अंतः परिवर्तनीय व्यवहार को भी सिद्ध करता है।

17-18वीं शताब्दी के यूरोप में राष्ट्र-राज्यों के उदय के साथ ही राष्ट्रवाद के सिद्धांत का पदार्पण हुआ। अर्थशास्त्र से लेकर दार्शनिकता में ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाले सिद्धांत ने ही राज किया। अपवर्जनात्मक राष्ट्रवाद के इस रूप ने ही दो विश्व युद्धों और संभवतः एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद को अंजाम दिया।

नस्ल, जाति, लिंग और भौगोलिकता की विभिन्नता से परे, अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर एकता का विचार ही मूलभूत है। संयुक्त राष्ट्र और आधुनिक प्रजातंत्र की धारणा से कदम ताल करता हुआ अभिन्नता का सिद्धांत शायद मानव अधिकारों का पहला खाका तैयार करता है। यह सभी जीवनस्वरूपों के स्वाभाविक एकता के गुण के अनुसार सभी को समान अधिकार प्रदान करता है। यह कोई प्रजातांत्रिक जुमला नहीं है, बल्कि उससे भी एक कदम आगे बढ़कर उन वंचितों को सामाजिक न्याय और समान अधिकार प्रदान करता है, जो पंक्ति के आखिर में खड़े हुए हैं। इसे ही ‘अंत्योदय’ कहा गया है।

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में भी यह सिद्धांत न तो उपयोगितावादी है, और न ही एक राष्ट्र की कीमत पर दूसरे राष्ट्र का विकास करने वाला है। वैश्विक पटल पर किसी व्यक्ति का राष्ट्र अपने और  मानवता से उसका संबंध शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का आधार बन जाता है। सबसे खास बात यह है कि समष्टिवाद का यह विचार ‘राष्ट्र पहले’ जैसी धारणा का विरोधी नहीं है। अपने राष्ट्र की हिंसक धमकियों से रक्षा करने और साथ ही साथ अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा में सहयोग देने जैसे दो पक्षों के बीच संतुलन बनाने का नाम ही अविभाज्य अंतर्राष्ट्रवाद है।

धारणीय विकास लक्ष्यों के मद्देनजर, यह ध्यान देने योग्य है कि किस प्रकार यह अविभाज्य पारिस्थितिकी हमें प्रकृति के साथ परस्पर निर्भरता के सदियों पुराने विवेकशील कदम की ओर ले जाती है। मानव, पशु और पौधे जैसे सभी जीवन-स्वरूपों के बीच के भेद को मिटाकर, यह अविभाज्य ढांचा पूरे पर्यावरण के प्रति संतोषजनक कार्य करता है। इससे पर्यावरण-सुरक्षा का कार्य संपूर्ण मानवता में समान रूप से बंट जाता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ हमें बार-बार अद्वैत के विचार को प्रबल करता हुआ, यह याद दिलाता है कि कैसे हम यानि पूरा विश्व, चुनौतियों और अवसरों के पक्ष पर एक-दूसरे से स्वभाविक रूप से जुड़े हुए हैं।

अविभाज्य मानवतावाद का सिद्धांत हमें अ-द्वैत का दर्पण ही दिखाता है। यह हमें विश्व के मानवों की मूलभूत एकता के सत्य को समझाता है। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो संपूर्ण विश्व को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सहयोग का पाठ पढ़ाता है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अनन्या अवस्थी के लेख पर आधारित। 15 जुलाई, 2019