वनों के बफर जोन का मानचित्रण समावेशी होना चाहिए
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हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने केरल के संरक्षित वनों के आसपास एक किलोमीटर के बफर जोन के सीमांकन का निर्देश दिया है। पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों के आसपास बफर जोन का निर्माण व रखरखाव आवश्यक माना जाता है। जमीनी-स्तर के डेटा की अनुपलब्धता के कारण यह अक्सर संभव नहीं हो पाता है।
क्लाइमेट चेंज एण्ड लैंड-समरी फॉर पॉलिसी मेकर्स, 2019 की अपनी विशेष रिपोर्ट में इंटरनेशलन पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने धारणीय भूमि प्रबंधन हेतु डेटा की उपलब्धता और उस तक पहुंच पर बहुत जोर दिया है। हमारे देश में ऐसे आंकड़े अधिकाशंत अनुमानित है। अगर केवल केरल की ही बात करें, तो 1980 के दशक की शुरूआत में सेंटर फॉर अर्थ साइंस ने इस बात का खुलासा किया था कि वहाँ की वास्तविक वन भूमि और कागजों पर दिए गए आंकड़ों में बडा अंतर है। वन-भूमि का बहुत सा भाग वास्तव में गैरवानिकी कार्यों के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। केरल ही नहीं, बल्कि पूरे देश में वन-भूमि का ऐसा ही दुरूपयोग हो रहा है। यही कारण है कि न्यायालय ने सीमांकन का निर्देश दिया है।
प्राकृतिक वन और मानव बस्ती के बीच की सीमा तय करना जरूरी
- 2021 में 8,107 ऐसे उदाहरण मिले हैं, जब मानव-वन्यजीव संघर्ष हुआ है। अतः दोनों के बीच की सीमा तय करना आवश्यक है।
- इसके सीमांकन के लिए स्थानीय लोगों की भागीदारी जरूरी है। इस तरह का प्रयास पहली बार यू.के. में किया गया था। पूरे देश में प्लाट स्तरीय सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वेक्षण ने यू.के. के भूमि उपयोग के आंकड़ों में काफी सुधार किया था।
- केरल ने 1975 में ऐसा सर्वेक्षण किया था, लेकिन यह विभाग तक ही सिमट कर रह गया था।
बफर जोन मैपिंग कैसी हो ?
- बफर जोन मैपिंग के वर्तमान संदर्भ में, जरूरतें भी विशिष्ट हैं।
- संरक्षित वनों से लगे ग्रामों की सभी पंचायतों को भूमि उपयोग और संपत्ति सर्वेक्षण का निर्देश दिया जाना चाहिए।
- केवल सरकार के लिए इस कार्य को समयावधि में पूरा कर पाना संभव नहीं हो सकता है। अतः स्थानीय पंचायतों और जनता की भागीदारी आवश्यक है।
- आसपास के स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों को शामिल किया जा सकता है।
- वैज्ञानिक संस्थान और विभागों से आवश्यक तकनीकी सहायता ली जा सकती है।
- पूरे डेटा को एक डिजिटल प्लेटफार्म पर डालकर सार्वजनिक किया जा सकता है।इस प्रकार से वन-भूमि में अतिक्रमण को रोककर मनुष्य वन्यजीव संघर्षों को नियंत्रित किया जा सकता है। पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए भी इस प्रकार के प्रयास किए जा सकते हैं।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित श्रीकुमार चट्टोपाध्याय के लेख पर आधारित। 9 जनवरी, 2023