संविधान पर बहस किस दिशा में होनी चाहिए
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हाल के कुछ महीनों में संसद सदस्य संविधान पर दावे करके विवाद खड़ा करते रहे हैं। लेकिन इन सबमें सांसदों को इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं है कि सदन में जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनके लिए संविधान की गारंटी मुश्किल से लागू की जाती है।
जब भी नागरिक सरकार से टकराता है, तो संवैधानिक गारंटी गायब हो जाती है। केंद्र और राज्य सरकारें लंबे समय से नागरिकों के अधिकारों पर अंकुश लगाती चली आ रही हैं। इसके लिए कानून भी बनाए जा रहे हैं। इंटरनेट युग शायद वह समय है, जब मौलिक स्वतंत्रता पर सबसे अधिक अंकुश लगाया गया है। निजता के अधिकार का कभी भी उल्लंघन कर दिया जाता है। युवा लोग अभी भी अपनी पसंद से विवाह के लिए संघर्ष करते हैं। नौकरशाही शायद ही कभी नेताओं से सवाल करती है। यह अपने सामाजिक कर्तव्य की अनदेखी करके नियमों को थोपती जाती है।
पुलिस की शक्तियाँ मौलिक अधिकारों के विपरीत काम करती हैं। पुलिस ही तय कर लेती है कि किसे न्याय मिलेगा, और किसे किस अधिकार का कितना प्रयोग करना है।
अगर सरकारें संविधान के प्रति सचेत होतीं, तो 75 वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी बुनियादी सिद्धांतों से जुड़े प्रश्नों को प्रभावी ढंग से सुलझा दिया होता। लेकिन ऐसा है नहीं। सरकारें संविधान को चतुराई से या चूक की आड़ में धोखा देती हैं। विडंबना यह है कि यह जनसमूह ही है, जिसने समय-समय पर संविधान पर की जाने वाली मांगों को विरोध प्रदर्शनों, अदालतों और मतदान के जरिए लचीला बनाए रखा है। सरकार और नागरिकों के बीच के टकराव में संविधान ही चोटिल होता है। इसकी रक्षा में जो भी बहस हो, वह दलों के नहीं, बल्कि आम नागरिकों के अधिकारों के इर्द-गिर्द होनी चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 16 दिसंबर, 2024