समलैंगिक विवाह पर न्यायालय का नजरिया
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हमारे समाज में विवाह की परिभाषा स्त्री और पुरूष के बीच संबंध से जुड़ी है। इसी का हवाला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इन्कार कर दिया है। इसकी मांग करने वाला पक्ष इस फैसले को अपनी बड़ी जीत मान रहा है, क्योंकि इस फैसले से निसंदेह ऐसे लोगों को देखने का समाज का नजरिया कुछ और साफ होगा। दूसरी ओर, इन लोगों को समानता के लिए आगे लंबा संघर्ष करना पड़ेगा।
न्यायालय की मुख्य बातें –
- स्पेशल मैरिज एक्ट या विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अनुसार एक पुरूष और महिला को ही वैवाहिक जोड़े के रूप में मान्यता दी जा सकती है।
- समलैंगिक जोड़े विवाह का मौलिक अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकते।
- विवाह अधिनियम में बदलाव के लिए संसद को ही कोई कानून बनाना चाहिए। इस सामाजिक मुद्दे पर निर्णय लेने का अधिकार केवल संसद को है।
इस मामले के याचिकाकर्ताओं ने अनुरोध किया था कि विवाह अधिनियम में पुरूष और महिला के स्थान पर ‘स्पाउज’ या पतिध्पत्नी शब्द रखा जाए, जिससे समलैंगिकों को विवाह के बाद समानता मिल सके। लेकिन सरकार का तर्क था कि इससे अस्थिरता पैदा हो सकती है।
यहाँ एक बहुत अच्छा प्रश्न उठ खड़ा होता है कि समाज में रिश्तों और विवाह के गिरते मूल्य के बावजूद समलैंगिक इसे अपने लिए कानूनी मान्यता क्यों दिलवाना चाहते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि विवाह को अभी भी अधिकार और सामाजिक स्वीकृति की कानूनी मोहर माना जाता है। वर्तमान समय में विवाह जैसी संस्था में भी अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह समलैंगिको के बारे में भी नए ढंग से सोचे।
विभिन्न समाचार पत्रों पर आधारित। 18 अक्टूबर, 2023