सदस्यों के निलंबन से टूटते सदन
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आजकल सांसदों और विधायकों का निलंबन, अतिवादी सत्ता की राजनीति का एक उपकरण बन गया है। हाल ही में राज्यसभा से किया गया 12 सदस्यों का निलंबन, तथा महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं से किया गया विधायकों का निलंबन, लोकतंत्र के लिए खतरे का प्रतिनिधित्व करता है। इस पर उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी है।
कुछ मुख्य बातें –
- उच्चतम न्यायालय ने सुझाव दिया है कि निलंबन लंबे समय तक नहीं होना चाहिए।
- निलंबन का उद्देश्य सदन के कार्यों का सुचारू रूप से संचालन करना है। इसलिए उसे मौजूदा सत्र से आगे बढ़ाना ‘तर्कहीन’ है।
- इस प्रावधान का दुरूपयोग करने वाली कम बहुमत वाली सरकारों के बारे में यह चिंता का विषय है।
- सदन के पीठासीन अधिकारी की जिम्मेदारी है कि वह सरकार के विधायी कार्यों को सदन की भागीदारी के साथ संचालित कराए। इस हेतु उन्हें पक्षपातपूर्ण आचरण से बचना चाहिए। लेकिन समकालीन राजनीति की अतिवादी प्रवृत्ति को देखते हुए यह कठिन होता जा रहा है। असहमति के प्रति असहिष्णुता आज की राजनीति की सबसे बड़ी अस्वस्थता है।
- सरकारों के लिए असुविधाजनक मुद्दों पर बहस को टालने के ट्रेजरी बेंचों (सदन में आगे की सीटें, जो वरिष्ठ नेताओं के लिए होती हैं) के प्रयास और दूसरी ओर बहस के लिए विपक्ष का बार-बार दबाव ही संसदीय प्रोटोकॉल को तोड़ने का कारण बन जाता है। असंयमित आचरण से जब विधायिका अपनी लोकतांत्रिक मर्यादा को भूल जाती है, तो ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है।
उम्मीद की जा सकती है कि सभी राजनीतिक दल, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस स्थिति को सुधारने पर विचार करते हुए किसी समाधान पर जल्द ही पहुंचेंगे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 20 जनवरी, 2022
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