रोजगार के लिए औपचारिक क्षेत्र का विस्तार जरूरी
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रोजगार के क्षेत्र में सरकार की नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। पहले सरकार ही प्राथमिक नियोक्ता हुआ करती थी। परंतु अब आर्थिक गतिविधियों में निजी भागीदारी को बराबरी दी जा रही है। साथ ही सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पर विचार करने की जरूरत है। सार्वजनिक रोजगार में भेदभाव के खिलाफ संविधान में जो प्रावधान हैं, वे केवल सरकार के विरूद्ध हैं, निजी क्षेत्र के विरूद्ध नहीं। ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या भेदभाव कानून का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए ?
कुछ बिंदु –
- देश में कार्यबल का एक बड़ा भाग अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता है। यह संरचना अधिकांश को कानूनी सुरक्षा उपायों के दायरे से परे रखती है।
- केवल 21% कार्यबल ही नियमित वेतन प्राप्त करता है। इनमें से सभी कानून के दायरे में आने वाले कार्यस्थल नहीं हैं।
- 2019-20 में 40 करोड़ से अधिक में से मात्र 1 करोड़ 66 लाख के आसपास का ही सशक्त कार्यबल, कानूनी प्रावधानों से युक्त कारखानों में संलग्न था। इस तरह से अधिकांश कार्यबल भेदभाव के विरूद्ध सुरक्षा प्राप्त नहीं कर पाता है।
संवैधानिक वादे को पूरा करने के लिए भारत को एक ऐसा वातावरण तैयार करना होगा, जो अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप दे सके। संवैधानिक अधिकारों तक पहुंचने के लिए यह एक पूर्व शर्त है। अन्यथा रोजगार में भेदभाव विरोधी कानून की व्यापकता भी सिर्फ कागजी शेर बनकर रह जाएगी।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 23 जून, 2022