पुराने ज़ख्मों को न कुरेदें

Afeias
12 Apr 2021
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Date:12-04-21

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हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद मामले में उपासना स्थल अधिनियम 1991 का उल्लेख किया था, जो स्वतंत्रता के समय मौजूद धार्मिक उपासना के स्थानों को बदलने पर रोक लगाता है। अयोध्या में विवादित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद को अधिनियम से छूट दी गई थी। इसलिए इस कानून के लागू होने के बाद भी अयोध्या का मुकदमा लड़ा जा सका था।

6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने इस अधिनियम के दीर्घकालीन प्रभाव को देखते हुए इसे पारित किया था। स्पष्ट रूप से कहें, तो अधिनियम की वैधता को चुनौती नहीं दी जानी चाहिए थी, किन्तु तकनीकी रूप से उच्चतम न्यायालय के नोटिस को सही कहा जा सकता है। लेकिन इसके निहितार्थ दूरगामी हैं। यह अयोध्या के फैसले की शुद्धता और खूबी के बारे में मुस्लिमों सहित आम जनता को मनाने के हमारे प्रयास को कमजोर कर सकता है। इसका परिणाम कहीं न कहीं यह होगा कि सुलह का समर्थन करने वालों पर एक मस्जिद के लिए भूमि के वैकल्पिक टुकड़े की स्वीकृति का विरोध करने वालों का पलड़ा भारी हो जाएगा। इससे भी बुरी बात यह है कि देश एक बार फिर से संघर्ष और विश्वास की कमी के सर्पिल मार्ग पर उतर जाएगा।

उच्चतम न्यायालय के इस नोटिस के द्वारा जो मार्ग खोल दिया गया है, वह अंतहीन और विशाल है। हम सभी ने देश के विभाजन की निंदा की है। लेकिन अब हम अचानक एक नए विभाजन के अधीन हो रहे हैं। एक बार विभाजन का विरोध करने वाले हमए इस बार और जोर-शोर से इसका विरोध करेंगे। फिर भी एक प्रश्न अवश्य पूछा जाना चाहिए कि जो लोग भारत को बहुलवादी स्वीकृति से दूर कर रहे हैं, क्या वे जानते हैं कि यह हमें कहां ले जाएगा ?

आधुनिक समय के उदारवादी समाज, सिद्धांत या व्यावहाहिकता के चलते बहुजातीय और बहु सांस्कृतिक बन रहे हैं। वैश्विक समाजों के बदलते रंग और रूपरेखा में हमारा अपना योगदान काफी महत्वपूर्ण है। एक ओर तो हम अमेरिकी राजनीति में भारतीय-अमेरिकियों के माध्यम से अपनी छाप छोडना चाहते हैं। इस उत्सव को मनाने अमेरिका पहुँच जाते हैं। लेकिन अपनी धरती पर बहुलवाद के प्रश्न पर दमघोटू वातावरण बनाकर रखते हैं। यह पाखंड नहीं तो क्या है ? ब्रिटेन में ऑक्सफोर्ड यूनियन की पहली भारतीय महिला अध्यक्षा के विरोध में की गई नस्लीय टिप्पणी पर हम नाराजगी व्यक्त करते हैं, उसे असंवेदनशील बताते हैं। लेकिन हमारी अपनी सरकार अपनी निंदा नहीं सुन सकती है। उल्टे वह अपने ही नागरिकों का अपमान करने में पीछे नहीं हटती है। आज विरोध और देशभक्ति को सोशल मीडिया और पुलिस कार्यवाही का आधार बना दिया गया है। और फिर भी हम इस बात से व्यथित हैं कि विश्व के अन्य लोकतंत्रों में विरोध और देशभक्ति को असंतोष का आधार क्यों बनाया जा रहा है।

आज भारत, मन और आत्मा की लड़ाई में उलझा हुआ है। इस स्थिति में भी हमारे विरोधियों द्वारा फैलाए जाने वाले अंधकार के बावजूद, हम प्रकाश में रहना पसंद करते हैं। हो सकता है कि हमारी यह लड़ाई लंबी और कठिन हो, फिर भी हम अंत में प्रबल रहेंगे, क्योंकि भारत की आत्मा को लंबे समय तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। दुर्भाग्यवश, दमन के विरूद्ध इस युद्ध में हम अपनी पृथक महत्वाकांक्षाओं के साथ बिखरे हुए हैं। सच तो यह है कि हम भारत को खत्म करने वाली ताकतों को पोषित कर रहे हैं। ऐसा युद्धय जिसमें विरोधियों ने नियमों को बदल दिया है, घृणा और लोभ को घातक हथियार बना लिया है।

सभी ऐतिहासिक युद्धों में, अनुभवी और युवाओं ने कंधे से कंधा मिलाकर मार्ग की कठिनाई को पार किया है। विडंबना यह है कि हमारा समय, बुजुर्गों और युवाओं में मनमुटाव देख रहा है। युवाओं की कुढ़न और अधीरता एवं वरिष्ठों की असंवेदनशीलता ने एक बड़ी खाई बना दी है।

स्वतंत्रता हम सबकी है। यह किसी विशेष की थाती नहीं है। स्वतंत्रता और उसके दावे के साथ कई उत्तरदायित्व जुड़े होते हैं। इससे जुड़े शॉर्टकट आकर्षक लग सकते हैं, लेकिन अगर वे स्वतंत्रता के विचार को हानि पहुंचा रहे हैं, तो वे कम दमनकारी नहीं कहे जा सकते। स्वतंत्रता का अपमान करने वाले से, उसकी रक्षा करने वाला हर मायने में बेहतर है। इस प्रक्रिया में महात्मा गांधी हमेशा ही चमकते सितारे रहेंगे।

सरकार की नाव का संतुलन बनाने में, उच्चतम न्यायालय से उसे दूर बहा ले जाना कोई हल नहीं है। समय-समय पर उच्चतम न्यायालय से मिली निराशा और सत्तावादियों के लिए रखी जाने वाली सहानुभूति के बावजूद यह एक ऐसी दीवार है, जो कानून के शासन और कोड़े के शासन के बीच फर्क बनाए रखती है। समाज के अन्य नागरिकों की तरह, न्यायाधीश भी इसका हिस्सा हैं, और उनकी प्रतिक्रिया भी स्थितियों के अनुरूप होती है। जिन मूल्यों को हम कमतर लोग नजरअंदाज कर जाते हैं, उन्हें गौर करने में ये न्यायाधीश पारंगत होते हैं। यही कारण है कि संवैधानिक संस्था के न्यायाधीशों में हमारी पूरी आस्था होनी चाहिए।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित खुर्शीद आलम के लेख पर आधारित। 19 मार्च, 2021

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