प्रमुख एजेंसियों के प्रमुखों को सेवा-विस्तार
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हाल ही में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के प्रमुखों की सेवाओं के विस्तार से संबंधित अध्यादेश लाया गया है। नए कानून के अनुसार अब दोनों विभागों के प्रमुखों का सेवाकाल पाँच वर्ष तक बढ़ाया जा सकेगा। इससे इन एजेंसियों की स्वायत्तता को खतरा हो सकता है।
इस बदलाव से उठने वाले कुछ प्रश्न –
- सर्वप्रथम, सरकार का यह कदम विनीत नारायण बनाम भारत संघ (1997) मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय की भावना के विरूद्ध है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि इन दोनों ही एजेंसियों के निदेशकों का न्यूनतम कार्यकाल दो वर्ष का होना चाहिए। न्यायालय का यह निर्णय निदेशकों के कार्यक्षेत्र की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए था। इससे पहले, शासन के हितों के खिलाफ निदेशकों के कामकाज को उनके अचानक स्थानांतरण से अवरूद्ध किया जा सकता था।
- न्यायालय के इस आदेश में निदेशकों के सेवा विस्तार पर रोक नहीं लगाई थी। इसका लाभ उठाते हुए सरकार ने मौजूदा प्रवर्तन निदेशक की कार्याविधि को दो वर्ष से बढ़ाकर तीन वर्ष कर दिया है। अध्यादेश के माध्यम से लाया गया बदलाव संदेह पैदा करता है कि क्या सरकार अपने हित साधने के लिए उन्हें शीर्ष पर बनाए रखने की इच्छुक है ?
- सरकार के इस कदम से अब कुछ पदों के निश्चित कार्यकाल के कोई मायने नहीं रह जाएंगे। एजेंसियों की स्वायत्तता और निष्पक्षता पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा।
- अध्यादेश को संसद के शीतकालीन सत्र से ठीक पहले लाए जाने को भी क्या यह माना जाए कि इससे एजेंसियों में सुधार या सुव्यवस्था का कोई लेना-देना नहीं है ?
उठे सवालों के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय का रवैया भी असंतोषजनक कहा जा सकता है । मौजूदा प्रर्वतन निदेशक के सेवा-विस्तार को ‘असाधारण मामलों में स्वीकार्य’ बताकर न्यायालय ने एक गलत उदाहरण प्रस्तुत किया है, जिसका खामियाजा भविष्य में भुगतना पड़ सकता है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 16 नवम्बर, 2021
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