न्यायाधीशों के लिए कितनी जवाबदेही और कितनी स्वतंत्रता

Afeias
25 Mar 2025
A+ A-

To Download Click Here.

हाल ही में लोकपाल ने उच्च न्यायाधीश को अपने अधिकार-क्षेत्र के अधीन बताया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर तुरंत रोक लगाने का आदेश दे दिया है। यह मुद्दा मात्र कानून के प्रश्न से कहीं अधिक है।

कुछ बिंदु –

  • यह मुद्दा न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसकी जवाबदेही; दोनों से संबंधित है। अगर न्यायाधीशों को लोकपाल के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है, तो न्यायिक स्वतंत्रता कमजोर हो जाएगी।
  • गत माह, सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ने भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत को खारिज कर दिया था। उसका आधार यह था कि लोकपाल अधिनियम, 2013 शीर्ष अदालत के न्यायाधीशों से संबंधित नहीं है। इसका संदर्भ ‘व्यक्तियों‘ से है, जो संसदीय अधिनियम द्वारा बनाए गए किसी निकाय या प्राधिकरण के सदस्य हैं। इसे उच्चतम न्यायालय जैसी संवैधानिक संस्था पर लागू नहीं किया जा सकता है।
  • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के संबंध में इस निर्णय में कहा गया कि संबंधित राज्यों को बनाने वाले कानूनों के द्वारा स्थापित उच्च न्यायालय वैधानिक निकाय थे। उनके न्यायाधीश लोकपाल अधिनियम की धारा 14 के अर्थ में ‘व्यक्ति‘ थे, जिन पर अधिनियम लागू होता है।
  • 1991 के वीरास्वामी बनाम भारत संघ निर्णय में कहा गया कि भले ही न्यायाधीश भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के घेरे में आते हैं, परंतु सीजेआई के परामर्श के बिना उनके विरूद्ध कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता है। इस आधार पर लोकपाल ने शिकायत को मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दिया है।
  • ऐसे मामलों को उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, शीर्ष न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजा जाता है। फिर न्यायालय की आंतरिक प्रक्रिया के जरिए निपटाया जाता है। आरोप सही मिलने पर संबंधित न्यायाधीश से इस्तीफा मांगना, न्यायिक कार्य से उन्हें वंचित करना या संसद के जरिए उन्हें हटाने जैसे कदम उठाए जाते हैं।

न्यायालय के लिए अब यह देखना जरूरी हो गया है कि क्या भ्रष्टाचार के विश्वनीय आरोप लगने जैसी घटनाओं पर मौजूदा तंत्र पर्याप्त है? या इस प्रक्रिया को स्वतंत्र अभियोजन (प्रॉसीक्यूशन) तक विस्तार दिया जाना चाहिए।

द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 22 फरवरी, 2025