न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि का औचित्य

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17 Jun 2016
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17-June-16

Date: 17-06-16

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मई 2016 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने सरकार से सार्वजनिक रूप से कहा है कि कोर्ट में लंबित मामलों को निपटाने के लिए सत्तर हजार न्यायाधीशों की आवश्यकता है।

इस तथ्य की सत्यता की जाँच करते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश जी.सी.मरुका ने ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ में ‘दि रांग मेट्रिक’ शीर्षक से एक लेख लिखा है। इस लेख में व्यक्त किये कुछ महत्वपूर्ण विचार निम्न हैं –

  • सत्तर हजार न्यायाधीशों की कमी का यह आँकड़ा सन् 1987 के विधि आयोग की रिपोर्ट ‘ज्यूडिशियल मैनपावर प्लानिंग पर आधारित है। इस रिपोर्ट ने सिफारिश की थी कि देश में प्रति दस लाख लोगों पर 50 न्यायाधीश (एक लाख पर पाँच) होने चाहिए।
  • हांलाकि विधि आयोग ने इसके साथ यह भी स्वीकार किया था कि जनसंख्या के आधार पर न्यायाधीशों की संख्या वाला तथ्य वैज्ञानिक, व्यावहारिक एवं सटिक नहीं है।
  • इस बात पर बार-बार जोर दिया जाता है कि कानून के शासन तथा सुशासन (गुड गवर्नेन्स) के लिए मामलों का शीघ्र निपटान होना आवश्यक है। इसके लिए जरुरी है कि आवश्यक न्यायिक आधारभूत ढाँचा मौजूद हो। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे नीति निर्माता अभी तक यह निश्चित करने में असफल रहे हैं कि किस स्थान पर कितने न्यायाधीश होने चाहिए।
  • वस्तुतः केन्द्र अथवा विभिन्न राज्यों में अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता का निर्धारण उस न्यायालय पर कार्य-भार के अनुकूल होना चाहिए। इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2012 में विधि आयोग को निर्देश भी दिये थे।
  • इस बारे में विधि आयोग ने एक बार फिर से सन् 1987 की ही तरह यह कहकर अपनी असमर्थता व्यक्त की कि उसके पास इसके लिए उपयुक्त आँकड़े नहीं हैं।
  • आयोग का यह भी कहना था कि शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे मामलों में जनसंख्या एवं सेवा के अनुपात का सिद्धान्त ठीक है, किन्तु न्यायिक मामलों में नहीं।
  • फैसला सुनाने में लगने वाला समय न्यायाधीश की अपनी योग्यता पर भी निर्भर करता है। इसलिए यदि न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने पर ही जोर दिया गया, तो इसका दुष्प्रभाव न्यायाधीश की कार्य योग्यता पर पड़ सकता है।
  • इस बारे में यूरोप एवं अमेरीका के शोध पर आधारित पद्धति अधिक उचित जान पड़ती है। इस पद्धति को ‘वेटेड केसलोड मेथड’ (Weighted Caseload Method) कहा जाता है।
  • इसके अन्तर्गत मामलों की सरलता, जटिलता तथा गुणवत्ताओं आदि के आधार पर यह निर्धारण किया जाता है कि उसके लिए कितने समय की आवश्यकता होगी। वस्तुतः न्यायाधीशों के कार्यभार का सही निर्धारण इसी आधार पर होना चाहिए; न कि मात्र मामलों की संख्या तथा उसे निपटाने के लिए न्यायाधीशों की संख्या के आधार पर।
  • यद्यपि विधि आयोग Weighted Caseload Method के पूर्णतः पक्ष में है, लेकिन आवश्यक सूचनाओं के अभाव के कारण वह इस आधार पर कोई सिफारिश कर पाने में असमर्थ है।
  • अब जबकि सरकार न्याय व्यवस्था को पहले ही एक हजार करोड़ रुपये दे चुकी है, तथा सोलह सौ करोड़ रुपये और देने को तैयार है, इस राशि का उपयोग इससे संबंधित सूचना एकत्रित करने के लिए भी किया जाना उपयुक्त होगा।

आधुनिक तकनीकी सुविधाओं को देखते हुए यह काम कठिन नहीं है।

 

                ‘दि इंडियन एक्सप्रेस ‘ में प्रकाशित एक लेख पर आधारित

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