निरंतर चलने वाली लड़ाई
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धर्म या किसी अन्य सामाजिक वर्ग के कथित अपमान के लिए आपराधिक मुकदमा चलाने का आकस्मिक सहारा लेना, समकालीन जीवन की एक दुर्भाग्यपूर्ण विशेषता बन गयी है।
हाल ही में दक्षिण के अभिनेता सूर्या और उनकी फिल्म के निर्देशक पर इसी तरह के मामले में आईपीसी की धारा 295ए का हवाला देते हुए प्राथमिकी दर्ज की गई है।
क्या है भारतीय दंड संहिता की धारा 295 ए –
अगर कोई व्यक्ति भारतीय समाज के किसी भी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करता है या उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने के इरादे से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कार्य करता है या इससे संबंधित वक्तव्य देता है, तो वह आईपीसी 1860 की धारा 295 ए के तहत दोषी माना जाता है।
दुर्भाग्स यह है कि एक मजिस्ट्रेट ने शिकायत को यह कहते हुए आगे बढ़ा दिया कि यह एक ‘संज्ञेय अपराध’ है | और इस पर प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए।
इस मामले में यह काफी अजीब है कि एक जाति के कथित अपमान को धार्मिक भावनाओं को भड़काने के रूप में देखा गया था।
ज्ञातव्य हो कि 1957 में एक संविधान ने धारा 295 ए की व्याख्या इस आशय से की थी कि यह केवल ‘धर्म के अपमान के गंभीर रूप को दंडित करती है।’ कहने का आशय यह रहा है कि जब किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से कुछ किया जाता है, तो वह धारा 295 ए के तहत अपराध की श्रेणी में आ सकता है।
हालांकि व्यवहार में कुछ समूह और व्यक्ति, फिल्मों, नाटकों और सार्वजनिक प्रदर्शन पर आपत्ति करके भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के बहाने स्वयं के लिए कल्पित लाभ प्राप्त करना चाहते है। कई मामलों में, पुलिस भी ऐसी शिकायतों को बहुत महत्व दे देती है। ऐसा करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के बजाय, वह स्क्रीनिंग या प्रदर्शन पर रोक लगाने को प्रवृत्ति हो जाती है।
संवैधानिक न्यायालय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बार-बार हस्तक्षेप करते हैं, लेकिन अक्सर उनमे मिलने वाली राहत में देरी हो जाती है। कुल मिलाकर बार-बार होने वाली ऐसी घटनाओं से यही लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता की लड़ाई समय-समय पर नए सिरे से लड़ी जानी है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 13 अगस्त, 2022