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मुफ्त नकदी वितरण की असहज राजनीति
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हाल ही में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार से अलग-अलग दलों ने मतदाताओं को नकद प्रलोभन दिया; वह गलत दिशा में जा रहा है। राजनीतिक दल एक ऐसे चुनावी मॉडल की ओर बढ़ रहे हैं, जिसमें सार्वजनिक हित के बजाय निजी लाभ को प्राथमिकता दी जाती है। लोकतांत्रिक सिद्धांतों और अर्थव्यवस्था, दोनों के लिए इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं –
- यद्यपि जरूरतमंदों को दी जाने वाली प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण योजना सफल रही है, लेकिन यहाँ इसका दूसरा पक्ष दिखाई दे रहा है। निर्वाचित प्रतिनिधि सरकारी खजाने से पैसे निकालकर अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए लोगों में बांट रहे हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि नागरिकों की बुनियादी सुविधाओं में कहीं-न-कहीं कटौती होनी है।
- इस उदारता के लिए धन कहां से आएगा ? माना कि दिल्ली का बजट अच्छा खासा है, लेकिन एक तरफ महिलाओं को मुफ्त में दो हजार बांटा जा रहा है, वहीं मध्यान्ह भोजन बनाने वाले को न्यूनतम मजदूरी से भी कम एक हजार मासिक वेतन दिया जा रहा है।
कल्याण की आड़ में सरकार आम जनता के लिए दानदाता बन रही है। देश की अर्थव्यवस्था ऐसे परोपकार का बोझ नहीं उठा सकती है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 22 जनवरी 2025
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