महिला कृषकों की भी गिनती हो

Afeias
21 Jan 2021
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Date:21-01-21

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जाने माने कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन ने एक बार कहा था कि, “कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सबसे पहले स्त्री ने ही फसल रोपने की शुरूआत की थी, और इस प्रकार कृषि विज्ञान और कला का प्रारंभ हुआ। पुरूष जब भोजन की तलाश में शिकार पर बाहर जाते थे, तो औरतें आसपास के क्षेत्रों से बीज इकट्ठे करके भोजन, चारे, रेशे और ईंधन के लिए इसे उगाने लगीं।’’

महिला कृषकों से संबंधित कुछ तथ्य और भ्रांतियां –

  • भारत में जब भी कृषि की चर्चा की जाती है, तो पुरूषों का चित्र ही कृषक के रूप में सामने आता है। कृषि जनगणना के अनुसार, 73.2% ग्रामीण महिलाएं कृषि में संलग्न हैं, परंतु केवल 12.8% के पास भू-मालिकाना अधिकार है। सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के चलते उन्हें भूमि का मालिकाना हक नहीं दिया जाता है।
  • भारत मानव सूचकांक सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि देश की 83% कृषि भूमि की विरासत पुरूषों को सौंपी जाती है।
  • खेतों में काम करने वाली 81% महिला श्रमिक, अनुसूचित जाति जनजाति या अन्य पिछडे वर्ग से होती हैं। इस प्रकार भूमिहीन श्रमिकों में सबसे बड़ी संख्या इन्हीं की है।

सरकार ने इनकी ओर से आँखे बंद कर रखी हैं, और बड़ी आसानी से इन्हें कृषि श्रमिक, खेतिहर का दर्जा दे देती है। कृषक के रूप में पहचान न मिल पाने से इन महिलाओं को खेती के लिए ऋण, ऋण-माफी, फसल बीमा, सब्सिडी या परिवार में आत्महत्या पर क्षतिपूर्ति जैसी किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल पाता है।

  • कृषक के रूप में पहचान न मिल पाने के अलावा भी इनकी और कई समस्याएं हैं। महिला किसान अधिकार मंच का कहना है कि महिलाओं को भूमि, जल और वनों पर भी समान अधिकार नहीं दिए जाते हैं। भंडारण सुविधाए परिवहन लागत, नए निवेश के लिए नकद या अन्य सुविधाओं के लिए पुराने भुगतान, कृषि ऋण, बाजार आदि के लिए भी लिंग आधारित भेदभाव किया जाता है। इसी कारण कृषि क्षेत्र में महिलाओं का अपार योगदान होते हुए भी महिला कृषकों की संख्या नाममात्र को रह गई है।

महिला कृषकों के साथ होने वाले भेदभाव और शोषण का क्रम अभी रुका नहीं था कि सरकार ने नए कृषि कानून पारित कर दिए हैं। ये कानून महिला कृषकों के लिए आशंका लेकर आए हैं कि शायद इनमें लैंगिक असमानता को और गहरा दिया जाएगा। यही कारण है कि धरने पर बैठे कृषकों में वे भी बराबर से खडी हैं। वे हमें याद दिलाना चाहती हैं कि इस धर्मयुद्ध में उनकी भी एक पहचान है।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित थमीझाची थंगापंडियन के लेख पर आधारित। 4 जनवरी, 2021