लोकतंत्र में सुधारों के लिए सुझाव
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हाल ही में प्रधानमंत्री ने किसानों के लंबे आंदोलन के चलते कृषि सुधार कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी है। यह लोकतंत्र की विजय मानी जा सकती है। परंतु किसानों की हार है। कानून की वापसी से किसानों को व्यापार संघों के जाल में फंसे ही रहना होगा। इस जीत का जश्न कैसे मनाया जा सकता है, जब अर्थव्यवस्था की हार हो रही है। इस पूरे प्रकरण से सुधारों के भविष्य के लिए कुछ बिंदु उभरकर आते हैं –
- एक सुधारक दीर्घकालिक समृद्धि चाहता है, जबकि राजनेता का अस्तित्व अगले चुनाव पर निर्भर करता है। प्रधानमंत्री का निर्णय भी यूपी और पंजाब के आगामी चुनावों से प्रभावित है। एक सुधारक को चाहिए कि वह एक साथ चुनाव कराने पर जोर दे।
- दूसरा सुझाव यह है कि राज्यों को राज्य या समवर्ती सूची के कानून में बदलाव के लिए कहा जाए। जब देश के उत्तर-पश्चिम भाग से कृषि कानूनों का विरोध हुआ, तो सरकार को चाहिए था कि अन्य राज्यों को कृषि सुधार लागू करने के लिए प्रोत्साहित करती। इन राज्यों के किसानों की आय में वृद्धि को देखकर, पंजाब और हरियाणा के किसान साथ आ जाते। सन् 2005 में वैट लगाने पर यही हुआ था।
- दूरगामी सुधारों को एक तरह से बेचना पड़ता है। ब्रिटेन में सुधारों का पिटारा लाने वाली प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर कहा करती थीं, ‘मैं अपना 20% समय सुधार लाने और 80% समय उन्हें बेचने (लोगों की मान्यता प्राप्त करने) में लगाती हूं।’ भारत के सभी सुधारक इस प्रयत्न में विफल रहे हैं। लोग अभी भी प्रो-मार्केट और प्रो-बिजनेज के बीच भेद नहीं कर पाते हैं। तीनों कानून किसानों के हित में थे, जिससे उनकी स्वतंत्रता में वृद्धि होती।
- सुधारों के लिए शासितों की सहमति की आवश्यकता होती है। कृषि कानूनों को अध्यादेश की तरह लाया गया। इसके बाद बिना तर्क-वितर्क के विधेयक में परिवर्तन कर दिया गया। स्थायी समिति की अनुशंसा से भी बचा गया।
- सुधारकों को एक समावेशी दृष्टिकोण लेकर चलना चाहिए। भारतीय किसान की गरीबी दूर करने के लिए, निम्न तकनीकी प्रावधान वाले विनिर्माण का बड़े पैमाने पर विस्तार करने की जरूरत है। कृषि कानूनों से अर्थव्यवस्था को इन नौकरियों के सृजन के लिए पर्याप्त समय मिल जाता। किसानों को अगर इस दृष्टिकोण से समझाया जाता, तो सुधारों को विश्वसनीयता मिलती।
- सुधारों में अल्पावधि रखने पर नुकसान होता है। वे अक्सर छोटे से अल्पसंख्यक समूह को चोट पहुंचाते हैं, और बड़े बहुमत की मदद करते हैं। लेकिन अगर यह छोटा समूह संगठित है, तो सुधार को पटरी से उतार सकता है। कृषि सुधारों से हानि पहुंचने वाले आढ़तियों ने विरोध को वित्तीय सहायता दी, और अपना हित साधा।
यह दुखद है कि लोकतंत्र ने आर्थिक हित को पराजित कर दिया है। प्रधानमंत्री के इस कदम के बाद अब शायद कृषि क्षेत्र में सुधार करने वाले कदम खींचकर रखेंगे। यह भारत के सुधार के एजेंडे के लिए एक झटका है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित गुरचरण दास के लेख पर आधारित। 7 दिसम्बर, 2021
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