लद्दाख और पूरी मानवता को बचाने की लड़ाई

Afeias
06 May 2024
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हाल ही में एक खबर सबने सुनी होगी कि लद्दाख और उसके निवासियों को बचाने की लड़ाई में वहाँ के जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने 21 दिन का जलवायु उपवास किया है। उन्हें ऐसा करने की क्या जरूरत पड़ गई? क्योंकि सरकारी नीतियों के कारण आज लद्दाख की पारिस्थितिकी डावाडोल स्थिति में पहुँच गई है।

लद्दाख से जुड़े कुछ तथ्य –

  • पाकिस्तान और चीन के बीच 11,500 फीट की ऊंचाई पर बसा लद्दाख 97% स्वदेशी जनजातियों का घर है। इनमें से अधिकतर लोग आजीविका के लिए खेती और पशुपालन पर निर्भर हैं।
  • हिमालय क्षेत्र में लगभग 15,000 ग्लेशियर हैं। इन्हें अक्सर तीसरा ध्रुव कहा जाता है। वसंत और गर्मियों में ये ग्लेशियर सिंधु, गंगा और ब्रहमपुत्र में पिघले पानी को छोड़कर हाइड्रोलॉजिकल प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाते हैं।
  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के ग्लेशियर पिघलने के खतरे में हैं। इसका प्रभाव पर्वतीय और तराई क्षेत्र के निवासियों पर सबसे अधिक पड़ेगा।

कहर ढाती सरकारी नीतियां –

  • केंद्र ने लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनते ही वृहद बुनियादी ढांचा परियोजना शुरू कर दी हैं। इनमें बहुत से पुल, टनल, सड़कों का चौड़ीकरण, रेलवे लाइन और हवाई अड्डे आदि हैं। कई गीगावाट की सौर परियोजनाएं भी शामिल हैं।
  • लद्दाख औद्योगिक भूमि आवंटन नीति 2023 का उद्देश्य यूटी लद्दाख को निवेश के लिए पसंदीदा स्थलों में से एक बनाना है।
  • सीमा सड़क संगठन, राष्ट्रीय राजमार्ग एवं अवसंरचना विकास निगम लिमिटेड के साथ मिलकर इनमें से कई संरचना के निर्माण में तेजी लाने की बात लिखित रूप से कह चुका है।
  • संयोग से, जिन क्षेत्रों में ये सब परियोजनाएं लाई जा रही हैं, वे सभी जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदाओं के प्रति संवेदनशील हैं।
  • हिमालयी क्षेत्रों में 2010 से लगातार कई आपदाएं आई हैं। 2023 में ही सिलक्यारा सुरंग परियोजना में 41 श्रमिक फंस गए थे। भूवैज्ञानिकी और पारिस्थितिकीविदों की सख्त चेतावनियों के बावजूद यह जारी क्यों है?

अपने ही एक्शन प्लान को दरकिनार करती सरकार –

  • सरकार ने 2008 में नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज के तहत आठ मिशन शुरू किए थे। इनमें से एक नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग द हिमालयन इकोसिस्टम [एनएमएसएचई] था, जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन था।
  • इसका मुख्य उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के प्रति हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता का वैज्ञानिक रूप से आकलन करना था। यह मिशन अपनी भूमिका क्यों भूल गया है?

दुखद पक्ष यह है कि पर्यावरण विनाश का खामियाजा क्षेत्र में गरीब निवासियों, प्रवासी श्रमिकों, पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को भुगतना पड़ता है। परियोजनाओं को मंजूरी देने वाली सरकारी संस्थाएं उस प्रकोप से बच जाती हैं। जलवायु कार्यकर्ताओं की निराशा इस बात में भी है कि अदालतों का दरवाजा खटखटाने और विशेषज्ञ समितियों के गठन के बावजूद उनकी सिफारिशें धूल खा रही हैं। विकास के नाम पर हम हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र और उसकी जैव विविधता में नाजुक संतुलन को बिगाड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते। सोनम वांगचुक की लड़ाई मानवता और उसकी भावी पीढ़ियों की लड़ाई है। हिमालयी क्षेत्र की रक्षा करना हम सबका दायित्व है।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित जानकी मुरली के लेख पर आधरित। 12 अप्रैल, 2024